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Surah Baqarah Ka Tarjuma Hindi Mein

सूरह बकराह 2:1-100

4.8/5

सूरह बकराह: संक्षिप्त परिचय

यह सूरह मदनी है, इस में 286 आयते है।

  • यह सूरह कुरान की सब से बडी सूरह है। इस के एक स्थान पर “बकरह “(अर्थात: गाय ) कि चर्चा आई है जिस के कारण इसे यह नाम दिया गाया है।
  • इस कि आयत 1 से 21 तक में इस पुस्तक का परिचय देते हुये यह बताया गया है कि किस प्रकार के लोग इस मार्गदर्शन को स्वीकार करेगे। और किस प्रकार के लोग इसे स्वीकार नहीं करेगे।
  • आयत 22 से 29 तक में सर्व साधारण लोगों को अपने पालनहार कि आज्ञा का पालन करने के निर्देश दिये गये है। और जो इस से विमुख हों उन के दुराचारी जीवन और उस के दुष्परिणाम को, और जो स्वीकार कर ले उन के सदाचारी जीवन और शुभपरिणाम को बताय गया है।
  • आयत 30 से 39 तक के अन्दर प्रथम मनुष्य आदम (अलैहिस्सलाम) की उत्पति और शैतान के विरोध की चर्चा करते हुये यह बताया गया है कि मनुष्य की रचना कैसे हुई , उसे क्यों पैदा किया गया, और उस की सफलता की राह क्या है ?
  • आयत 40 से 123 तक , बनी इस्रराईल को सम्बोधित किया गया है की यह अन्तिम पुस्तक और अन्तिम नबी वही है जिन की भविष्यवाणी और उन पर ईमान लाने का वचन तुम से तुम्हारी पुस्तक तौरात में लिया गया है। इस लिये उन पर ईमान लाओ। और इस आधार पर उन का विरोध न करो की वह तुम्हारे वंश से नहीं है। वह अरबों में पैदा हुये है, इसी के साथ उन के दुराचारों और अपराधों का वर्णन भी किया गया है|
  • आयत 124 से 167 तक आदरणीय इब्रराहीम (अलैहिस्सलाम ) के काबा का निर्माण करने तथा उन के धर्म को बताया गया है जो बनी इस्राईल तथा बनी ईसमाईल (अरबों) दोनों ही के परम पिता थे कि वह यहूदी, ईसाई या किसी अन्य धर्म के अनुयायी नहीं थे। उन का धर्म यही इस्लाम था। और उन्हों ने ही काबा बनाने के समय मक्का में एक नबी भेजने की प्रार्थना की थी जिसे अल्लाह ने पूरी किया। और प्रेषित मुहम्मद (सलल्लाहु अलैहि वसल्लम) को धर्म पुस्तक कुरान के साथ भेजा।
  • आयत 168 से 242 तक बहुत से धार्मिक , सामाजिक तथा परिवारिक विधान और नियम बताये गये है जो इस्लामी जीवन से जिन के कारण मनुष्य मार्गदर्शन पर स्थित रह सकता है।
  • आयत 243 से 283 तक के अन्दर मार्गदर्शन केंद्र काबा को मुशरिकों के नियंत्रण से मुक्त कराने के लिये जिहाद की प्रेरणा दी गई है तथा ब्याज को अवैध घोषित कर के आपस के व्यावहार को उचित रखने के निर्देश दिये गये है।
  • आयत 284 से 286 तक अन्तिम आयतो में उन लोगों के ईमान लाने की चर्चा की गई है जो किसी भेद – भाव के बिना अल्लाह के रसूलो पर ईमान लाये। इस लिये अल्लाह ने उन पर सीधी राह खोल दी। और उन्होंने ऐसी दुआये की जो उन के ईमान को उजागर करती है।
  • हदीस में है कि “जिस घर में सूरह बक़रह: पढ़ी जाये उस से शैतान भाग जाता है।” ( सहिह मुस्लिम -780 )

Surah Baqarah : All Parts

1-100 | 101-200 | 201-286

सूरह बकरा | Surah Baqarah in Hindi

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بِسْمِ اللَّـهِ الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ

बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम

अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।

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الم ﴾ 1 ﴿

अलिफ़-लाम्-मीम्

अलिफ़, लाम, मीम।

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ذَٰلِكَ الْكِتَابُ لَا رَيْبَ ۛ فِيهِ ۛ هُدًى لِّلْمُتَّقِينَِ ﴾ 2 ﴿

ज़ालिकल्किताबु ला रै-ब फीहि हुदल्-लिलमुत्तकीन

ये पुस्तक है, जिसमें कोई संशय (संदेह) नहीं, उन्हें सीधी डगर दिखाने के लिए है, जो (अल्लाह से) डरते हैं।

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الَّذِينَ يُؤْمِنُونَ بِالْغَيْبِ وَيُقِيمُونَ الصَّلَاةَ وَمِمَّا رَزَقْنَاهُمْ يُنفِقُونَ ﴾ 3 ﴿

अल्लज़ी-न युमिनू-न बिल-गैबि व युकीमूनस्सला-त व मिम्मा रजनाहुम् युन्फिकून

जो ग़ैब (परोक्ष)[1] पर ईमान (विश्वास) रखते हैं तथा नमाज़ की स्थापना करते हैं और जो कुछ हमने उन्हें दिया है, उसमें से दान करते हैं। 1. इस्लाम की परिभाषा में, अल्लाह, उस के फ़रिश्तों, उस की पुस्तकों, उस के रसूलों तथा अन्तदिवस (प्रलय) और अच्छे-बुरे भाग्य पर ईमान (विश्वास) को 'ईमान बिल ग़ैब' कहा गया है। (इब्ने कसीर)

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وَالَّذِينَ يُؤْمِنُونَ بِمَا أُنزِلَ إِلَيْكَ وَمَا أُنزِلَ مِن قَبْلِكَ وَبِالْآخِرَةِ هُمْ يُوقِنُونَ ﴾ 4 ﴿

वल्लज़ी-न युमिनू-न बिमा उन्जि-ल इलै-क व मा उन्ज़ि-ल मिन् कब्लि-क व बिल्-आखि-रति हुम् यूकिनून

तथा जो आप (हे नबी!) पर उतारी गयी (पुस्तक क़ुर्आन) तथा आपसे पूर्व उतारी गयी (पुस्तकों)[1] पर ईमान रखते हैं तथा आख़िरत (परलोक)[2] पर भी विश्वास रखते हैं। 1. अर्थात तौरात, इंजील तथा अन्य आकाशीय पुस्तकों पर। 2.आख़िरत पर ईमान का अर्थ हैः प्रलय तथा उस के पश्चात् फिर जीवित किये जाने तथा कर्मों के ह़िसाब एवं स्वर्ग तथा नरक पर विश्वास करना।

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َأُولَـٰئِكَ عَلَىٰ هُدًى مِّن رَّبِّهِمْ ۖ وَأُولَـٰئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ ﴾ 5 ﴿

उलाइ-क अला हुदम्-मिर्रब्बिहिम् व उलाइ-क हुमुल्-मुफ्लिहून

वही अपने पालनहार की बताई सीधी डगर पर हैं तथा वही सफल होंगे।

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إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا سَوَاءٌ عَلَيْهِمْ أَأَنذَرْتَهُمْ أَمْ لَمْ تُنذِرْهُمْ لَا يُؤْمِنُونَ ﴾ 6 ﴿

इन्नल्लजी-न क-फरू सवाउन् अलैहिम् अ-अन्जर-तहुम् अम् लम् तुन्ज़िहुम् ला युमिनून

वास्तव[1] में, जो काफ़िर (विश्वासहीन) हो गये, (हे नबी!) उन्हें आप सावधान करें या न करें, वे ईमान नहीं लायेंगे। 1. इस से अभिप्राय वह लोग हैं, जो सत्य को जानते हुए उसे अभिमान के कारण नकार देते हैं।

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خَتَمَ اللَّـهُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمْ وَعَلَىٰ سَمْعِهِمْ ۖ وَعَلَىٰ أَبْصَارِهِمْ غِشَاوَةٌ ۖ وَلَهُمْ عَذَابٌ عَظِيمٌ ﴾ 7 ﴿

ख-तमल्लाहु अला कुलूबिहिम् व अला समिहिम् व अला अब्सारिहिम् गिशा-वतुंव- व लहुम् अजाबुन् अज़ीम

अल्लाह ने उनके दिलों तथा कानों पर मुहर लगा दी है और उनकी आंखों पर पर्दे पड़े हैं तथा उन्हीं के लिए घोर यातना है।

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وَمِنَ النَّاسِ مَن يَقُولُ آمَنَّا بِاللَّـهِ وَبِالْيَوْمِ الْآخِرِ وَمَا هُم بِمُؤْمِنِينَ ﴾ 8 ﴿

व मिनन्नासि मय्यकू लु आमन्ना बिल्लाहि व बिल्यौमिल्-आखिरि व मा हुम् बिमुग्मिनीन

और[1] कुछ लोग कहते हैं कि हम अल्लाह तथा आख़िरत (परलोक) पर ईमान ले आये, जबकि वे ईमान नहीं रखते। 1. प्रथम आयतों में अल्लाह ने ईमान वालों की स्थिति की चर्चा करने के पश्चात् दो आयतों में काफ़िरों की दशा का वर्णन किया है। और अब उन मुनाफ़िक़ों (दुविधावादियों) की दशा बता रहा है, जो मुख से तो ईमान की बात कहते हैं, लेकिन दिल से अविश्वास रखते हैं।

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يُخَادِعُونَ اللَّـهَ وَالَّذِينَ آمَنُوا وَمَا يَخْدَعُونَ إِلَّا أَنفُسَهُمْ وَمَا يَشْعُرُونَ ﴾ 9 ﴿

युखादिनल्ला-ह वल्लज़ी-न आमनू, व मा यख्दयू-न इल्ला अन्फुसहुम् व मा यश् रून

वे अल्लाह तथा जो ईमान लाये, उन्हें धोखा देते हैं। जबकि वे स्वयं अपने-आप को धोखा देते हैं, परन्तु वे इसे समझते नहीं।

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فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ فَزَادَهُمُ اللَّـهُ مَرَضًا ۖ وَلَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ بِمَا كَانُوا يَكْذِبُونَ ﴾ 10 ﴿

फी कुलू बिहिम् म-रजुन् फज़ा-दहुमुल्लाहु म-रजन् व लहुम् अज़ाबुन् अलीमुम् बिमा कानू यक्ज़िबून

उनके दिलों में रोग (दुविधा) है, जिसे अल्लाह ने और अधिक कर दिया और उनके लिए झूठ बोलने के कारण दुखदायी यातना है।

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وَإِذَا قِيلَ لَهُمْ لَا تُفْسِدُوا فِي الْأَرْضِ قَالُوا إِنَّمَا نَحْنُ مُصْلِحُونَ ﴾ 11 ﴿

व इज़ा की-ल लहुम् ला तुफिसदू फिल्अर्जि कालू इन्नमा ननु मुस्लिहून

और जब उनसे कहा जाता है कि धरती में उपद्रव न करो, तो कहते हैं कि हम तो केवल सुधार करने वाले हैं।

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أَلَا إِنَّهُمْ هُمُ الْمُفْسِدُونَ وَلَـٰكِن لَّا يَشْعُرُونَ ﴾ 12 ﴿

अला इन्नहुम् हुमुल्-मुफ्सिदू-न व ला किल्ला यश्शुरून

सावधान! वही लोग उपद्रवी हैं, परन्तु उन्हें इसका बोध नहीं।

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وَإِذَا قِيلَ لَهُمْ آمِنُوا كَمَا آمَنَ النَّاسُ قَالُوا أَنُؤْمِنُ كَمَا آمَنَ السُّفَهَاءُ ۗ أَلَا إِنَّهُمْ هُمُ السُّفَهَاءُ وَلَـٰكِن لَّا يَعْلَمُونَ ﴾ 13 ﴿

व इज़ा की-ल लहुभु आमिनू कमा आ-मनन्नासु कालू अनुभूमिनु कमा आ-मनस्सु-फ़हा-उ, अला इन्नहुम् हुमुस्सु-फहा-उ व लाकिल्ला यअलमून

और[1] जब उनसे कहा जाता है कि जैसे और लोग ईमान लाये, तुमभी ईमान लाओ, तो कहते हैं कि क्या मूर्खों के समान हमभी विश्वास कर लें? सावधान! वही मूर्ख हैं, परन्तु वे जानते नहीं। 1. यह दशा उन मुनाफ़िक़ों की है, जो अपने स्वार्थ के लिये मुसलमान हो गये, परन्तु दिल से इन्कार करते रहे।

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وَإِذَا لَقُوا الَّذِينَ آمَنُوا قَالُوا آمَنَّا وَإِذَا خَلَوْا إِلَىٰ شَيَاطِينِهِمْ قَالُوا إِنَّا مَعَكُمْ إِنَّمَا نَحْنُ مُسْتَهْزِئُونَ ﴾ 14 ﴿

व इजा लकुल्लज़ी-न आमनू कालू आमन्ना व इज़ा खलौ इला शयातीनिहिम् कालू इन्ना म-अकुम् इन्नमा नहनु मुस्तज़िऊन

तथा जब वे ईमान वालों से मिलते हैं, तो कहते हैं कि हम ईमान लाये और जब अकेले में अपने शैतानों (प्रमुखों) के साथ होते हैं, तो कहते हैं कि हम तुम्हारे साथ हैं। हम तो मात्र परिहास कर रहे हैं।

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اللَّـهُ يَسْتَهْزِئُ بِهِمْ وَيَمُدُّهُمْ فِي طُغْيَانِهِمْ يَعْمَهُونَ ﴾ 15 ﴿

अल्लाहु यस्तजिउ बिहिम् व यमुद्बुहुम् फी तुयानिहिम् यञ्जमहून

अल्लाह उनसे परिहास कर रहा है तथा उन्हें, उनके कुकर्मों में बहकने का अवसर दे रहा है।

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أُولَـٰئِكَ الَّذِينَ اشْتَرَوُا الضَّلَالَةَ بِالْهُدَىٰ فَمَا رَبِحَت تِّجَارَتُهُمْ وَمَا كَانُوا مُهْتَدِينَ ﴾ 16 ﴿

उला-इकल्लज़ीन- -श्त-रवुज्ज़ला-ल-त बिल्हुदा फमा रबिहत्-तिजारतुहुम् व मा कानू मुह्तदीन

ये वे लोग हैं, जिन्होंने सीधी डगर (सुपथ) के बदले गुमराही (कुपथ) खरीद ली। परन्तु उनके व्यापार में लाभ नहीं हुआ और न उन्होंने सीधी डगर पायी।

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مَثَلُهُمْ كَمَثَلِ الَّذِي اسْتَوْقَدَ نَارًا فَلَمَّا أَضَاءَتْ مَا حَوْلَهُ ذَهَبَ اللَّـهُ بِنُورِهِمْ وَتَرَكَهُمْ فِي ظُلُمَاتٍ لَّا يُبْصِرُونَ ﴾ 17 ﴿

म-सलुहुम् क-म-सलिलू-लज़िस्तौक-द नारन् फ-लम्मा अज़ा-अत् मा हौलहू ज़-हबल्लाहु बिनूरिहिम् व त-र-कहुम् फी जुलुमातिलू-ला युब्सिरून

उनकी[1] दशा उनके जैसी है, जिन्होंने अग्नि सुलगायी और जब उनके आस-पास उजाला हो गया, तो अल्लाह ने उनका उजाला छीन लिया तथा उन्हें ऐसे अन्धेरों में छोड़ दिया, जिनमें उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता। 1. यह दशा उन की है जो संदेह तथा दुविधा में पड़े रह गये। कुछ सत्य को उन्हों ने स्वीकार भी किया, फिर भी अविश्वास के अंधेरों ही में रह गये।

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صُمٌّ بُكْمٌ عُمْيٌ فَهُمْ لَا يَرْجِعُونَ ﴾ 18 ﴿

सम्मुम्-बुक्मुन् अम्युन् फहुम् ला यर्जिन

वे गूँगे, बहरे, अंधे हैं। अतः अब वे लौटने वाले नहीं।

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أَوْ كَصَيِّبٍ مِّنَ السَّمَاءِ فِيهِ ظُلُمَاتٌ وَرَعْدٌ وَبَرْقٌ يَجْعَلُونَ أَصَابِعَهُمْ فِي آذَانِهِم مِّنَ الصَّوَاعِقِ حَذَرَ الْمَوْتِ ۚ وَاللَّـهُ مُحِيطٌ بِالْكَافِرِينَ ﴾ 19 ﴿

औ क-सय्यिबिम्मिनस्समा-इ फीहि जुलुमातु-व – र दुव्-व बर्कुन्, यअलू-न असाबि-अहुम् फी आजानिहिम् मिनस्सवाअिकि ह-ज़रल्मौति वल्लाहु मुहीतुम्-बिल्काफिरीन

अथवा[1] (उनकी दशा) आकाश की वर्षा के समान है, जिसमें अंधेरे और कड़क तथा विद्धुत हो, वे कड़क के कारण, मृत्यु के भय से, अपने कानों में उंगलियाँ डाल लेते हैं और अल्लाह, काफ़िरों को अपने नियंत्रण में लिए हुए है। 1. यह दुसरी उपमा भी दूसरे प्रकार के मुनाफ़िक़ों की दशा की है।

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يَكَادُ الْبَرْقُ يَخْطَفُ أَبْصَارَهُمْ ۖ كُلَّمَا أَضَاءَ لَهُم مَّشَوْا فِيهِ وَإِذَا أَظْلَمَ عَلَيْهِمْ قَامُوا ۚ وَلَوْ شَاءَ اللَّـهُ لَذَهَبَ بِسَمْعِهِمْ وَأَبْصَارِهِمْ ۚ إِنَّ اللَّـهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ ﴾ 20 ﴿

यकादुल्ब यस्तफु अब्सा-रहुम्, कुल्लमा अज़ा-अ लहुम् मशौ फीहि व इज़ा अगल-म अलैहिम् काम, व लो शा-अल्लाहु ल-ज़-ह-ब बिसमिहिम् व अब्सारिहिम्, इन्नल्ला-हें अला कुल्लि शैइन् कदीर

विद्धुत उनकी आँखों को उचक लेने के समीप हो जाती है। जब उनके लिए चमकती है, तो उसके उजाले में चलने लगते हैं और जब अंधेरा हो जाता है, तो खड़े हो जाते हैं और यदि अल्लाह चाहे, तो उनके कानों को बहरा और उनकी आँखों का अंधा कर दे। निश्चय अल्लाह जो चाहे, कर सकता है।

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يَا أَيُّهَا النَّاسُ اعْبُدُوا رَبَّكُمُ الَّذِي خَلَقَكُمْ وَالَّذِينَ مِن قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ ﴾ 21 ﴿

हे लोगो! केवल अपने उस पालनहार की इबादत (वंदना) करो, जिसने तुम्हें तथा तुमसे पहले वाले लोगों को पैदा किया, इसी में तुम्हारा बचाव[1] है। 1. अर्थात संसार में कुकर्मों तथा प्रलोक की यातना से।

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الَّذِي جَعَلَ لَكُمُ الْأَرْضَ فِرَاشًا وَالسَّمَاءَ بِنَاءً وَأَنزَلَ مِنَ السَّمَاءِ مَاءً فَأَخْرَجَ بِهِ مِنَ الثَّمَرَاتِ رِزْقًا لَّكُمْ ۖ فَلَا تَجْعَلُوا لِلَّـهِ أَندَادًا وَأَنتُمْ تَعْلَمُونَ ﴾ 22 ﴿

जिसने धरती को तुम्हारे लिए बिछौना तथा गगन को छत बनाया और आकाश से जल बरसाया, फिर उससे तुम्हारे लिए प्रत्येक प्रकार के खाद्य पदार्थ उपजाये, अतः, जानते हुए[1] भी उसके साझी न बनाओ। 1. अर्थात जब यह जानते हो कि तुम्हारा उत्पत्तिकार तथा पालनहार अल्लाह के सिवा कोई नहीं, तो वंदना भी उसी एक की करो, जो उत्पत्तिकार तथा पूरे विश्व का व्यवस्थापक है।

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وَإِن كُنتُمْ فِي رَيْبٍ مِّمَّا نَزَّلْنَا عَلَىٰ عَبْدِنَا فَأْتُوا بِسُورَةٍ مِّن مِّثْلِهِ وَادْعُوا شُهَدَاءَكُم مِّن دُونِ اللَّـهِ إِن كُنتُمْ صَادِقِينَ ﴾ 23 ﴿

और यदि तुम्हें उसमें कुछ संदेह हो, जो (अथवा क़ुर्आन) हमने अपने भक्त पर उतारा है, तो उसके समान कोई सूरह ले आओ? और अपने समर्थकों को भी, जो अल्लाह के सिवा हों, बुला लो, यदि तुम सच्चे[1] हो। 1. आयत का भावार्थ यह है कि नबी के सत्य होने का प्रमाण आप पर उतारा गया क़ुर्आन है। यह उन की अपनी बनाई बात नहीं है। क़ुर्आन ने ऐसी चुनौती अन्य आयतों में भी दी है। (देखियेः सूरह क़सस, आयतः49, इस्रा, आयतः88, हूद, आयतः13, और यूनुस, आयतः38)

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فَإِن لَّمْ تَفْعَلُوا وَلَن تَفْعَلُوا فَاتَّقُوا النَّارَ الَّتِي وَقُودُهَا النَّاسُ وَالْحِجَارَةُ ۖ أُعِدَّتْ لِلْكَافِرِينَ ﴾ 24 ﴿

और यदि ये न कर सको तथा कर भी नहीं सकोगे, तो उस अग्नि (नरक) से बचो, जिसका ईंधन मानव तथा पत्थर होंगे।

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وَبَشِّرِ الَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ أَنَّ لَهُمْ جَنَّاتٍ تَجْرِي مِن تَحْتِهَا الْأَنْهَارُ ۖ كُلَّمَا رُزِقُوا مِنْهَا مِن ثَمَرَةٍ رِّزْقًا ۙ قَالُوا هَـٰذَا الَّذِي رُزِقْنَا مِن قَبْلُ ۖ وَأُتُوا بِهِ مُتَشَابِهًا ۖ وَلَهُمْ فِيهَا أَزْوَاجٌ مُّطَهَّرَةٌ ۖ وَهُمْ فِيهَا خَالِدُونَ ﴾ 25 ﴿

(हे नबी!) उन लोगों को शुभ सूचना दो, जो ईमान लाये तथा सदाचार किये कि उनके लिए ऐसे स्वर्ग हैं, जिनमें नहरें बह रही होंगी। जब उनका कोई भी फल उन्हें दिया जायेगा, तो कहेंगेः ये तो वही है, जो इससे पहले हमें दिया गया और उन्हें समरूप फल दिये जायेंगे तथा उनके लिए उनमें निर्मल पत्नियाँ होंगी और वे उनमें सदावासी होंगे।

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إِنَّ اللَّـهَ لَا يَسْتَحْيِي أَن يَضْرِبَ مَثَلًا مَّا بَعُوضَةً فَمَا فَوْقَهَا ۚ فَأَمَّا الَّذِينَ آمَنُوا فَيَعْلَمُونَ أَنَّهُ الْحَقُّ مِن رَّبِّهِمْ ۖ وَأَمَّا الَّذِينَ كَفَرُوا فَيَقُولُونَ مَاذَا أَرَادَ اللَّـهُ بِهَـٰذَا مَثَلًا ۘ يُضِلُّ بِهِ كَثِيرًا وَيَهْدِي بِهِ كَثِيرًا ۚ وَمَا يُضِلُّ بِهِ إِلَّا الْفَاسِقِينَ ﴾ 26 ﴿

अल्लाह,[1] मच्छर अथवा उससे तुच्छ चीज़ से उपमा (मिसाल) देने से नहीं लज्जाता। जो ईमान लाये, वे जानते हैं कि ये उनके पालनहार की ओर से उचित है और जो काफ़िर (विश्वासहीन) हो गये, वे कहते हैं कि अल्लाह ने इससे उपमा देकर क्या निश्चय किया है? अल्लाह इससे बहुतों को गुमराह (कुपथ) करता है और बहुतों को मार्गदर्शन देता है तथा जो अवज्ञाकारी हैं, उन्हीं को कुपथ करता है। 1. जब अल्लाह ने मुनाफ़िक़ों की दो उपमा दी, तो उन्हों ने कहा कि अल्लाह ऐसी तुच्छ उपमा कैसे दे सकता है? इसी पर यह आयत उतरी। (देखिये तफ़्सीर इब्ने कसीर)

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الَّذِينَ يَنقُضُونَ عَهْدَ اللَّـهِ مِن بَعْدِ مِيثَاقِهِ وَيَقْطَعُونَ مَا أَمَرَ اللَّـهُ بِهِ أَن يُوصَلَ وَيُفْسِدُونَ فِي الْأَرْضِ ۚ أُولَـٰئِكَ هُمُ الْخَاسِرُونَ ﴾ 27 ﴿

जो अल्लाह से पक्का वचन करने के बाद उसे भंग कर देते हैं तथा जिसे अल्लाह ने जोड़ने का आदेश दिया, उसे तोड़ते हैं और धरती में उपद्रव करते हैं, वही लोग क्षति में पड़ेंगे।

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كَيْفَ تَكْفُرُونَ بِاللَّـهِ وَكُنتُمْ أَمْوَاتًا فَأَحْيَاكُمْ ۖ ثُمَّ يُمِيتُكُمْ ثُمَّ يُحْيِيكُمْ ثُمَّ إِلَيْهِ تُرْجَعُونَ ﴾ 28 ﴿

तुम अल्लाह का इन्कार कैसे करते हो? जबकि पहले तुम निर्जीव थे, फिर उसने तुम्हें जीवन दिया, फिर तुम्हें मौत देगा, फिर तुम्हें (परलोक में) जीवन प्रदान करेगा, फिर तुम उसी की ओर लौटाये[1] जाओगे! 1. अर्थात परलोक में अपने कर्मों का फल भोगने के लिये।

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هُوَ الَّذِي خَلَقَ لَكُم مَّا فِي الْأَرْضِ جَمِيعًا ثُمَّ اسْتَوَىٰ إِلَى السَّمَاءِ فَسَوَّاهُنَّ سَبْعَ سَمَاوَاتٍ ۚ وَهُوَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ ﴾ 29 ﴿

वही है, जिसने धरती में जो भी है, सबको तुम्हारे लिए उत्पन्न किया, फिर आकाश की ओर आकृष्ट हुआ, तो बराबर सात आकाश बना दिये और वह प्रत्येक चीज़ का जानकार है।

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وَإِذْ قَالَ رَبُّكَ لِلْمَلَائِكَةِ إِنِّي جَاعِلٌ فِي الْأَرْضِ خَلِيفَةً ۖ قَالُوا أَتَجْعَلُ فِيهَا مَن يُفْسِدُ فِيهَا وَيَسْفِكُ الدِّمَاءَ وَنَحْنُ نُسَبِّحُ بِحَمْدِكَ وَنُقَدِّسُ لَكَ ۖ قَالَ إِنِّي أَعْلَمُ مَا لَا تَعْلَمُونَ ﴾ 30 ﴿

और (हे नबी! याद करो) जब आपके पालनहार ने फ़रिश्तों से कहा कि मैं धरती में एक ख़लीफ़ा[1] बनाने जा रहा हूँ। वे बोलेः क्या तू उसमें उसे बनायेग, जो उसमें उपद्रव करेगा तथा रक्त बहायेगा? जबकि हम तेरी प्रशंसा के साथ तेरे गुण और पवित्रता का गान करते हैं! (अल्लाह) ने कहाः जो मैं जानता हूँ, वह तुम नहीं जानते। 1. ख़लीफ़ा का अर्थ हैः स्थानापन्न, अर्थात ऐसा जीव जिस का वंश हो और एक दूसरे का स्थान ग्रहण करे। (तफ़्सीर इब्ने कसीर)

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وَعَلَّمَ آدَمَ الْأَسْمَاءَ كُلَّهَا ثُمَّ عَرَضَهُمْ عَلَى الْمَلَائِكَةِ فَقَالَ أَنبِئُونِي بِأَسْمَاءِ هَـٰؤُلَاءِ إِن كُنتُمْ صَادِقِينَ ﴾ 31 ﴿

और उसने आदम[1] को सभी नाम सिखा दिये, फिर उन्हें फ़रिश्तों के समक्ष प्रस्तुत किया और कहाः मुझे इनके नाम बताओ, यदि तुम सच्चे हो! 1. आदम प्रथम मनु का नाम।

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قَالُوا سُبْحَانَكَ لَا عِلْمَ لَنَا إِلَّا مَا عَلَّمْتَنَا ۖ إِنَّكَ أَنتَ الْعَلِيمُ الْحَكِيمُ ﴾ 32 ﴿

सबने कहाः तू पवित्र है। हम तो उतना ही जानते हैं, जितना तूने हमें सिखाया है। वास्तव में, तू अति ज्ञानी तत्वज्ञ[1] है। 1. तत्वज्ञः अर्थात जो भेद तथा रहस्य को जानता हो।

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قَالَ يَا آدَمُ أَنبِئْهُم بِأَسْمَائِهِمْ ۖ فَلَمَّا أَنبَأَهُم بِأَسْمَائِهِمْ قَالَ أَلَمْ أَقُل لَّكُمْ إِنِّي أَعْلَمُ غَيْبَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَأَعْلَمُ مَا تُبْدُونَ وَمَا كُنتُمْ تَكْتُمُونَ ﴾ 33 ﴿

(अल्लाह ने) कहाः हे आदम! इन्हें इनके नाम बताओ और आदम ने जब उनके नाम बता दिये, तो (अल्लाह ने) कहाःक्या मैंने तुमसे नहीं कहा था कि मैं आकाशों तथा धरती की क्षिप्त बातों को जानता हूँ तथा तुम जो बोलते और मन में रखते हो, सब जानता हूँ?

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وَإِذْ قُلْنَا لِلْمَلَائِكَةِ اسْجُدُوا لِآدَمَ فَسَجَدُوا إِلَّا إِبْلِيسَ أَبَىٰ وَاسْتَكْبَرَ وَكَانَ مِنَ الْكَافِرِينَ ﴾ 34 ﴿

और जब हमने फ़रिश्तों से कहाः आदम को सज्दा करो, तो इब्लीस के सिवा सबने सज्दा किया, उसने इन्कार तथा अभिमान किया और काफ़िरों में से हो गया।

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وَقُلْنَا يَا آدَمُ اسْكُنْ أَنتَ وَزَوْجُكَ الْجَنَّةَ وَكُلَا مِنْهَا رَغَدًا حَيْثُ شِئْتُمَا وَلَا تَقْرَبَا هَـٰذِهِ الشَّجَرَةَ فَتَكُونَا مِنَ الظَّالِمِينَ ﴾ 35 ﴿

और हमने कहाः हे आदम! तुम और तुम्हारी पत्नी स्वर्ग में रहो तथा इसमें से जिस स्थान से चाहो, मनमानी खाओ और इस वृक्ष के समीप न जाना, अन्यथा अत्याचारियों में से हो जाओगे।

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فَأَزَلَّهُمَا الشَّيْطَانُ عَنْهَا فَأَخْرَجَهُمَا مِمَّا كَانَا فِيهِ ۖ وَقُلْنَا اهْبِطُوا بَعْضُكُمْ لِبَعْضٍ عَدُوٌّ ۖ وَلَكُمْ فِي الْأَرْضِ مُسْتَقَرٌّ وَمَتَاعٌ إِلَىٰ حِينٍ ﴾ 36 ﴿

तो शैतान ने दोनों को उससे भटका दिया और जिस (सुख) में थे, उससे उन्हें निकाल दिया और हमने कहाः तुम सब उससे उतरो, तुम एक-दूसरे के शत्रु हो और तुम्हारे लिए धरती में रहना तथा एक निश्चित अवधि[1] तक उपभोग्य है। 1. अर्थात अपनी निश्चित आयु तक सांसारिक जीवन के संसाधन से लाभान्वित होना है।

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فَتَلَقَّىٰ آدَمُ مِن رَّبِّهِ كَلِمَاتٍ فَتَابَ عَلَيْهِ ۚ إِنَّهُ هُوَ التَّوَّابُ الرَّحِيمُ ﴾ 37 ﴿

फिर आदम ने अपने पालनहार से कुछ शब्द सीखे, तो उसने उसे क्षमा कर दिया। वह बड़ा क्षमी दयावान्[1] है। 1. आयत का भावार्थ यह है कि आदम ने कुछ शब्द सीखे और उन के द्वारा क्षमा याचना की, तो अल्लाह ने उसे क्षमा कर दिया। आदम के उन शब्दों की व्याख्या भाष्यकारों ने इन शब्दों से की हैः "आदम तथा ह़व्वा दोनों ने कहाः हे हमारे पालनहार! हम ने अपने प्राणों पर अत्याचार कर लिया और यदि तू ने हमें क्षमा और हम पर दया नहीं की, तो हम क्षतिग्रस्तों में हो जायेंगे।" (सूरह आराफ, आयतः23)

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قُلْنَا اهْبِطُوا مِنْهَا جَمِيعًا ۖ فَإِمَّا يَأْتِيَنَّكُم مِّنِّي هُدًى فَمَن تَبِعَ هُدَايَ فَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُونَ ﴾ 38 ﴿

हमने कहाः इससे सब उतरो, फिर यदि तुम्हारे पास मेरा मार्गदर्शन आये, तो जो मेरे मार्गदर्शन का अनुसरण करेंगे, उनके लिए कोई डर नहीं होगा और न वे उदासीन होंगे।

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وَالَّذِينَ كَفَرُوا وَكَذَّبُوا بِآيَاتِنَا أُولَـٰئِكَ أَصْحَابُ النَّارِ ۖ هُمْ فِيهَا خَالِدُونَ ﴾ 39 ﴿

तथा जो अस्वीकार करेंगे और हमारी आयतों को मिथ्या कहेंगे, तो वही नारकी हैं और वही उसमें सदावासी होंगे।

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يَا بَنِي إِسْرَائِيلَ اذْكُرُوا نِعْمَتِيَ الَّتِي أَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَأَوْفُوا بِعَهْدِي أُوفِ بِعَهْدِكُمْ وَإِيَّايَ فَارْهَبُونِ ﴾ 40 ﴿

हे बनी इस्राईल![1] मेरे उस पुरस्कार को याद करो, जो मैंने तुमपर किया तथा मुझसे किया गया वचन पूरा करो, मैं तुम्हें अपना दिया वचन पूरा करूँगा तथा मुझी से डरो।[2] 1. इस्राईल आदरणीय इब्राहीम अलैहिस्सलाम के पौत्र याक़ूब अलैहिस्सलाम की उपाधि है। इस लिये उन की संतान को बनी इस्राईल कहा गया है। यहाँ उन्हें यह प्रेरणा दी जा रही है कि क़ुर्आन तथा अन्तिम नबी को मान लें, जिस का वचन उन की पुस्तक "तौरात" में लिया गया है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि इब्राहीम अलैहिस्सलाम के दो पुत्र इस्माईल तथा इस्ह़ाक़ हैं। इस्ह़ाक़ की संतान से बहुत से नबी आये, परन्तु इस्माईल अलैहिस्सलाम के गोत्र से केवल अन्तिम नबी मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम आये। 2. अर्थात वचन भंग करने से।

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وَآمِنُوا بِمَا أَنزَلْتُ مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَكُمْ وَلَا تَكُونُوا أَوَّلَ كَافِرٍ بِهِ ۖ وَلَا تَشْتَرُوا بِآيَاتِي ثَمَنًا قَلِيلًا وَإِيَّايَ فَاتَّقُونِ ﴾ 41 ﴿

तथा उस (क़ुर्आन) पर ईमान लाओ, जो मैंने उतारा है, वह उसका प्रमाणकारी है, जो तुम्हारे पास[1] है और तुम, सबसे पहले इसके निवर्ती न बन जाओ तथा मेरी आयतों को तनिक मूल्य पर न बेचो और केवल मुझी से डरो। 1. अर्थात धर्म-पुस्तक तौरात।

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وَلَا تَلْبِسُوا الْحَقَّ بِالْبَاطِلِ وَتَكْتُمُوا الْحَقَّ وَأَنتُمْ تَعْلَمُونَ ﴾ 42 ﴿

तथा सत्य को असत्य से न मिलाओ और न सत्य को जानते हुए छुपाओ।[1] 1. अर्थात अन्तिम नबी के गुणों को, जो तुम्हारी पुस्तकों में वर्णित किये गये हैं।

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وَأَقِيمُوا الصَّلَاةَ وَآتُوا الزَّكَاةَ وَارْكَعُوا مَعَ الرَّاكِعِينَ ﴾ 43 ﴿

तथा नमाज़ की स्थापना करो और ज़कात दो तथा झुकने वालों के साथ झुको (रुकू करो)

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أَتَأْمُرُونَ النَّاسَ بِالْبِرِّ وَتَنسَوْنَ أَنفُسَكُمْ وَأَنتُمْ تَتْلُونَ الْكِتَابَ ۚ أَفَلَا تَعْقِلُونَ ﴾ 44 ﴿

क्या तुम, लोगों को सदाचार का आदेश देते हो और अपने-आपको भूल जाते हो? जबकि तुम पुस्तक (तौरात) का अध्ययन करते हो! क्या तुम समझ नहीं रखते?[1] 1. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की एक ह़दीस (कथन) में इस का दुष्परिणाम यह बताया गया है कि प्रलय के दिन एक व्यक्ति को लाया जायेगा, और नरक में फेंक दिया जायेगा। उस की अंतड़ियाँ निकल जायेंगी, और वह उन को ले कर नरक में ऐसे फिरेगा, जैसे गधा चक्की के साथ फिरता है। तो नारकी उस के पास जायेंगे तथा कहेंगे कि तुम पर यह क्या आपदा आ पड़ी है? तुम तो हमें सदाचार का आदेश देते, तथा दुराचार से रोकते थे! वह कहेगा कि मैं तुम्हें सदाचार का आदेश देता था, परन्तु स्वयं नहीं करता था। तथा दुराचार से रोकता था और स्वयं नहीं रुकता था। (सह़ीह़ बुखारी, ह़दीस संख्याः3267)

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وَاسْتَعِينُوا بِالصَّبْرِ وَالصَّلَاةِ ۚ وَإِنَّهَا لَكَبِيرَةٌ إِلَّا عَلَى الْخَاشِعِينَ ﴾ 45 ﴿

तथा धैर्य और नमाज़ का सहारा लो, निश्चय नमाज़ भारी है, परन्तु विनीतों पर (भारी नहीं)[1] 1. भावार्थ यह है कि धैर्य तथा नमाज़ से अल्लाह की आज्ञा के अनुपालन तथा सदाचार की भावना उत्पन्न होती है।

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الَّذِينَ يَظُنُّونَ أَنَّهُم مُّلَاقُو رَبِّهِمْ وَأَنَّهُمْ إِلَيْهِ رَاجِعُونَ ﴾ 46 ﴿

जो समझते हैं कि उन्हें अपने पालनहार से मिलना है और उन्हें फिर उसी की ओर (अपने कर्मों का फल भोगने के लिए) जाना है।

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يَا بَنِي إِسْرَائِيلَ اذْكُرُوا نِعْمَتِيَ الَّتِي أَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَأَنِّي فَضَّلْتُكُمْ عَلَى الْعَالَمِينَ ﴾ 47 ﴿

हे बनी इस्राईल! मेरे उस पुरस्कार को याद करो, जो मैंने तुमपर किया और ये कि तुम्हें संसार वासियों पर प्रधानता दी थी।

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وَاتَّقُوا يَوْمًا لَّا تَجْزِي نَفْسٌ عَن نَّفْسٍ شَيْئًا وَلَا يُقْبَلُ مِنْهَا شَفَاعَةٌ وَلَا يُؤْخَذُ مِنْهَا عَدْلٌ وَلَا هُمْ يُنصَرُونَ ﴾ 48 ﴿

तथा उस दिन से डरो, जिस दिन कोई किसी के कुछ काम नहीं आयेगा और न उसकी कोई अनुशंसा (सिफ़ारिश) मानी जायेगी और न उससे कोई अर्थदण्ड लिया जायेगा और न उन्हें कोई सहायता मिल सकेगी।

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وَإِذْ نَجَّيْنَاكُم مِّنْ آلِ فِرْعَوْنَ يَسُومُونَكُمْ سُوءَ الْعَذَابِ يُذَبِّحُونَ أَبْنَاءَكُمْ وَيَسْتَحْيُونَ نِسَاءَكُمْ ۚ وَفِي ذَٰلِكُم بَلَاءٌ مِّن رَّبِّكُمْ عَظِيمٌ ﴾ 49 ﴿

तथा (वह समय याद करो) जब हमने तुम्हें फ़िरऔनियों[1] से मुक्ति दिलाई। वे तुम्हें कड़ी यातना दे रहे थे; वे तुम्हारे पुत्रों को वध कर रहे थे तथा तुम्हारी नारियों को जीवित रहने देते थे। इसमें तुम्हारे पालनहार की ओर से कड़ी परीक्षा थी। 1. फ़िरऔन मिस्र के शासकों की उपाधि होती थी।

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وَإِذْ فَرَقْنَا بِكُمُ الْبَحْرَ فَأَنجَيْنَاكُمْ وَأَغْرَقْنَا آلَ فِرْعَوْنَ وَأَنتُمْ تَنظُرُونَ ﴾ 50 ﴿

तथा (याद करो) जब हमने तुम्हारे लिए सागर को फाड़ दिया, फिर तुम्हें बचा लिया और तुम्हारे देखते-देखते फ़िरऔनियों को डुबो दिया।

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وَإِذْ وَاعَدْنَا مُوسَىٰ أَرْبَعِينَ لَيْلَةً ثُمَّ اتَّخَذْتُمُ الْعِجْلَ مِن بَعْدِهِ وَأَنتُمْ ظَالِمُونَ ﴾ 51 ﴿

तथा (याद करो) जब हमने मूसा को (तौरात प्रदान करने के लिए) चालीस रात्रि का वचन दिया, फिर उनके पीछे तुमने बछड़े को (पूज्य) बना लिया और तुम अत्याचारी थे।

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ثُمَّ عَفَوْنَا عَنكُم مِّن بَعْدِ ذَٰلِكَ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُونَ ﴾ 52 ﴿

फिर हमने इसके पश्चात् तुम्हें क्षमा कर दिया, ताकि तुम कृतज्ञ बनो।

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وَإِذْ آتَيْنَا مُوسَى الْكِتَابَ وَالْفُرْقَانَ لَعَلَّكُمْ تَهْتَدُونَ ﴾ 53 ﴿

तथा (याद करो) जब हमने मूसा को पुस्तक (तौरात) तथा फ़ुर्क़ान[1] प्रदान किया, ताकि तुम सीधी डगर पा सको। 1. फ़ुरक़ान का अर्थ विवेककारी है, अर्थात जिस के द्वारा सत्योसत्य में अन्तर और विवेक किया जाये।

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وَإِذْ قَالَ مُوسَىٰ لِقَوْمِهِ يَا قَوْمِ إِنَّكُمْ ظَلَمْتُمْ أَنفُسَكُم بِاتِّخَاذِكُمُ الْعِجْلَ فَتُوبُوا إِلَىٰ بَارِئِكُمْ فَاقْتُلُوا أَنفُسَكُمْ ذَٰلِكُمْ خَيْرٌ لَّكُمْ عِندَ بَارِئِكُمْ فَتَابَ عَلَيْكُمْ ۚ إِنَّهُ هُوَ التَّوَّابُ الرَّحِيمُ ﴾ 54 ﴿

तथा (याद करो) जब मूसा ने अपनी जाति से कहाः तुमने बछड़े को पूज्य बनाकर अपने ऊपर अत्याचार किया है, अतः तुम अपने उत्पत्तिकार के आगे क्षमा याचना करो, वो ये कि आपस में एक-दूसरे[1] को वध करो। इसी में तुम्हारे उत्पत्तिकार के समीप तुम्हारी भलाई है। फिर उसने तुम्हारी तौबा स्वीकार कर ली। वास्तव में, वह बड़ा क्षमाशील, दयावान् है।
1. अर्थात जिस ने बछड़े की पूजा की है, उसे, जो निर्दोष हो वह हत करे। यही दोषी के लिये क्षमा है। (तफ़्सीर इब्ने कसीर)

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وَإِذْ قُلْتُمْ يَا مُوسَىٰ لَن نُّؤْمِنَ لَكَ حَتَّىٰ نَرَى اللَّـهَ جَهْرَةً فَأَخَذَتْكُمُ الصَّاعِقَةُ وَأَنتُمْ تَنظُرُونَ ﴾ 55 ﴿

तथा (याद करो) जब तुमने मूसा से कहाः हम तुम्हारा विश्वास नहीं करेंगे, जब तक हम अल्लाह को आँखों से देख नहीं लेंगे, फिर तुम्हारे देखते-देखते तुम्हें कड़क ने धर लिया (जिससे सब निर्जीव हो कर गिर गये)

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ثُمَّ بَعَثْنَاكُم مِّن بَعْدِ مَوْتِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُونَ ﴾ 56 ﴿

फिर (निर्जीव होने के पश्चात्) हमने तुम्हें जीवित कर दिया, ताकि तुम हमारा उपकार मानो।

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وَظَلَّلْنَا عَلَيْكُمُ الْغَمَامَ وَأَنزَلْنَا عَلَيْكُمُ الْمَنَّ وَالسَّلْوَىٰ ۖ كُلُوا مِن طَيِّبَاتِ مَا رَزَقْنَاكُمْ ۖ وَمَا ظَلَمُونَا وَلَـٰكِن كَانُوا أَنفُسَهُمْ يَظْلِمُونَ ﴾ 57 ﴿

और हमने तुमपर बादलों की छाँव[1] की तथा तुमपर ‘मन्न’[2] और ‘सलवा’ उतारा, तो उन स्वच्छ चीज़ों में से, जो हमने तुम्हें प्रदान की हैं, खाओ और उन्होंने हमपर अत्याचार नहीं किया, परन्तु वे स्वयं अपने ऊपर ही अत्याचार कर रहे थे।
1. अधिकांश भाष्यकारों ने इसे “तीह” के क्षेत्र से संबंधित माना है। (देखियेः तफ़्सीरे क़ुर्तुबी) 2.भाष्यकारों ने लिखा है कि “मन्न” एक प्रकार का अति मीठा स्वादिष्ट गोंद था, जो ओस के समान रात्रि के समय आकाश से गिरता था। तथा “सलवा” एक प्रकार के पक्षी थे, जो संध्या के समय सेना के पास हज़ारों की संख्या में एकत्र हो जाते, जिन्हें बनी इस्राईल पकड़ कर खाते थे।

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وَإِذْ قُلْنَا ادْخُلُوا هَـٰذِهِ الْقَرْيَةَ فَكُلُوا مِنْهَا حَيْثُ شِئْتُمْ رَغَدًا وَادْخُلُوا الْبَابَ سُجَّدًا وَقُولُوا حِطَّةٌ نَّغْفِرْ لَكُمْ خَطَايَاكُمْ ۚ وَسَنَزِيدُ الْمُحْسِنِينَ ﴾ 58 ﴿

और (याद करो) जब हमने कहा कि इस बस्ती[1] में प्रवेश करो, फिर इसमें से जहाँ से चाहो, मनमानी खाओ और उसके द्वार में सज्दा करते (सिर झुकाये) हुए प्रवेश करो और क्षमा-क्षमा कहते जाओ, हम तुम्हारे पापों को क्षमा कर देंगे तथा सुकर्मियों को अधिक प्रदान करेंगे।
1. साधारण भाष्यकारों ने इस बस्ती को “बैतुल मुक़द्दस” माना है।

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فَبَدَّلَ الَّذِينَ ظَلَمُوا قَوْلًا غَيْرَ الَّذِي قِيلَ لَهُمْ فَأَنزَلْنَا عَلَى الَّذِينَ ظَلَمُوا رِجْزًا مِّنَ السَّمَاءِ بِمَا كَانُوا يَفْسُقُونَ ﴾ 59 ﴿

फिर इन अत्याचारियों ने जो बात इनसे कही गयी थी, उसे दूसरी बात से बदल दिया। तो हमने इन अत्याचारियों पर आकाश से इनकी अवज्ञा के कारण प्रकोप उतार दिया।

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وَإِذِ اسْتَسْقَىٰ مُوسَىٰ لِقَوْمِهِ فَقُلْنَا اضْرِب بِّعَصَاكَ الْحَجَرَ ۖ فَانفَجَرَتْ مِنْهُ اثْنَتَا عَشْرَةَ عَيْنًا ۖ قَدْ عَلِمَ كُلُّ أُنَاسٍ مَّشْرَبَهُمْ ۖ كُلُوا وَاشْرَبُوا مِن رِّزْقِ اللَّـهِ وَلَا تَعْثَوْا فِي الْأَرْضِ مُفْسِدِينَ ﴾ 60 ﴿

तथा (याद करो) जब मूसा ने अपनी जाति के लिए जल की प्रार्थना की, तो हमने कहाः अपनी लाठी पत्थर पर मारो। तो उससे बारह[1] सोते फूट पड़े और प्रत्येक परिवार ने अपने पीने के स्थान को पहचान लिया। अल्लाह का दिया खाओ और पिओ और धरती में उपद्रव करते न फिरो।
1. इस्राईल वंश के बारह क़बीले थे। अल्लाह ने प्रत्येक क़बीले के लिये अलग-अलग सोते निकाल दिये, ताकी उन के बीच पानी के लिये झगड़ा न हो। (देखियेः तफ़्सीरे क़ुर्तुबी)।

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وَإِذْ قُلْتُمْ يَا مُوسَىٰ لَن نَّصْبِرَ عَلَىٰ طَعَامٍ وَاحِدٍ فَادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُخْرِجْ لَنَا مِمَّا تُنبِتُ الْأَرْضُ مِن بَقْلِهَا وَقِثَّائِهَا وَفُومِهَا وَعَدَسِهَا وَبَصَلِهَا ۖ قَالَ أَتَسْتَبْدِلُونَ الَّذِي هُوَ أَدْنَىٰ بِالَّذِي هُوَ خَيْرٌ ۚ اهْبِطُوا مِصْرًا فَإِنَّ لَكُم مَّا سَأَلْتُمْ ۗ وَضُرِبَتْ عَلَيْهِمُ الذِّلَّةُ وَالْمَسْكَنَةُ وَبَاءُوا بِغَضَبٍ مِّنَ اللَّـهِ ۗ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمْ كَانُوا يَكْفُرُونَ بِآيَاتِ اللَّـهِ وَيَقْتُلُونَ النَّبِيِّينَ بِغَيْرِ الْحَقِّ ۗ ذَٰلِكَ بِمَا عَصَوا وَّكَانُوا يَعْتَدُونَ ﴾ 61 ﴿

तथा (याद करो) जब तुमने कहाः हे मूसा! हम एक प्रकार का खाना सहन नहीं करेंगे। तुम अपने पालनहार से प्रार्थना करो कि हमारे लिए धरती की उपज; साग, ककड़ी, लहसुन, प्याज़, दाल आदि निकाले। (मूसा ने) कहाः क्या तुम उत्तम के बदले तुच्छ मांगते हो? तो किसी नगर में उतर पड़ो, जो तुमने मांगा है, वहाँ वह मिलेगा! और उनपर अपमान तथा दरिद्रता थोप दी गयी और वे अल्लाह के प्रकोप के साथ फिरे। ये इसलिए कि वे अल्लाह की आयतों के साथ कुफ़्र कर रहे थे और नबियों की अकारण हत्या कर रहे थे। ये इसलिए कि उन्होंने अवज्ञा की तथा (धर्म की) सीमा का उल्लंघन किया।

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إِنَّ الَّذِينَ آمَنُوا وَالَّذِينَ هَادُوا وَالنَّصَارَىٰ وَالصَّابِئِينَ مَنْ آمَنَ بِاللَّـهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ وَعَمِلَ صَالِحًا فَلَهُمْ أَجْرُهُمْ عِندَ رَبِّهِمْ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُونَ ﴾ 62 ﴿

वस्तुतः, जो ईमान लाये तथा जो यहूदी हुए और नसारा (ईसाई) तथा साबी, जो भी अल्लाह तथा अन्तिम दिन (प्रलय) पर ईमान लायेगा और सत्कर्म करेगा, उनका प्रतिफल उनके पालनहार के पास है और उन्हें कोई डर नहीं होगा और न ही वे उदासीन होंगे।[1]
1. इस आयत में यहूदियों के इस भ्रम का खण्डन किया गया है कि मुक्ति केवल उन्हीं के गिरोह के लिये है। आयत का भावार्थ यह है कि इन सभी धर्मों के अनुयायी अपने समय में सत्य आस्था एवं सत्कर्म के कारण मुक्ति के योग्य थे, परन्तु अब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के आगमन के पश्चात् आप पर ईमान लाना तथा आप की शिक्षाओं को मानना मुक्ति के लिये अनिवार्य है।

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وَإِذْ أَخَذْنَا مِيثَاقَكُمْ وَرَفَعْنَا فَوْقَكُمُ الطُّورَ خُذُوا مَا آتَيْنَاكُم بِقُوَّةٍ وَاذْكُرُوا مَا فِيهِ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ ﴾ 63 ﴿

और (याद करो) जब हमने तूर (पर्वत) को तुम्हारे ऊपर करके तुमसे वचन लिया कि जो हमने तुम्हें दिया है, उसे दृढ़ता से पकड़ लो और उसमें जो (आदेश-निर्देश) हैं, उन्हें याद रखो; ताकि तुम यातना से बच सको।

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ثُمَّ تَوَلَّيْتُم مِّن بَعْدِ ذَٰلِكَ ۖ فَلَوْلَا فَضْلُ اللَّـهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهُ لَكُنتُم مِّنَ الْخَاسِرِينَ ﴾ 64 ﴿

फिर उसके बाद तुम मुकर गये, तो यदि तुमपर अल्लाह की अनुग्रह और दया न होती, तो तुम क्षतिग्रस्तों में हो जाते।

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وَلَقَدْ عَلِمْتُمُ الَّذِينَ اعْتَدَوْا مِنكُمْ فِي السَّبْتِ فَقُلْنَا لَهُمْ كُونُوا قِرَدَةً خَاسِئِينَ ﴾ 65 ﴿

और तुम उन्हें जानते ही हो, जिन्होंने शनिवार के बारे में (धर्म की) सीमा का उल्लंघन किया, तो हमने कहा कि तुम तिरस्कृत बंदर[1] हो जाओ।
1. यहूदियों के लिये यह नियम है कि वे शनिवार का आदर करें। और इस दिन कोई संसारिक कार्य न करें, तथा उपासना करें। परन्तु उन्हों ने इस का उल्लंघन किया और उन पर यह प्रकोप आया।

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فَجَعَلْنَاهَا نَكَالًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهَا وَمَا خَلْفَهَا وَمَوْعِظَةً لِّلْمُتَّقِينَ ﴾ 66 ﴿

फिर हमने उसे, उस समय के तथा बाद के लोगों के लिए चेतावनी और अल्लाह से डरने वालों के लिए शिक्षा बना दिया।

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وَإِذْ قَالَ مُوسَىٰ لِقَوْمِهِ إِنَّ اللَّـهَ يَأْمُرُكُمْ أَن تَذْبَحُوا بَقَرَةً ۖ قَالُوا أَتَتَّخِذُنَا هُزُوًا ۖ قَالَ أَعُوذُ بِاللَّـهِ أَنْ أَكُونَ مِنَ الْجَاهِلِينَ ﴾ 67 ﴿

तथा (याद करो) जब मूसा ने अपनी जाति से कहाः अल्लाह तुम्हें एक गाय वध करने का आदेश देता है। उन्होंने कहाः क्या तुम हमसे उपहास कर रहे हो? (मूसा ने) कहाः मैं अल्लाह की शरण माँगता हूँ कि मूर्खों में से हो जाऊँ।

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قَالُوا ادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّن لَّنَا مَا هِيَ ۚ قَالَ إِنَّهُ يَقُولُ إِنَّهَا بَقَرَةٌ لَّا فَارِضٌ وَلَا بِكْرٌ عَوَانٌ بَيْنَ ذَٰلِكَ ۖ فَافْعَلُوا مَا تُؤْمَرُونَ ﴾ 68 ﴿

वह बोले कि अपने पालनहार से हमारे लिए निवेदन करो कि हमें बता दे कि वह गाय कैसी हो? (मूसा ने) कहाः वह (अर्थातःअल्लाह) कहता है कि वह न बूढ़ी हो और न बछिया हो, इसके बीच आयु की हो। अतः जो आदेश तुम्हें दिया जा रहा है, उसे पूरा करो।

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قَالُوا ادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّن لَّنَا مَا لَوْنُهَا ۚ قَالَ إِنَّهُ يَقُولُ إِنَّهَا بَقَرَةٌ صَفْرَاءُ فَاقِعٌ لَّوْنُهَا تَسُرُّ النَّاظِرِينَ ﴾ 69 ﴿

वे बोले कि अपने पालनहार से हमारे लिए निवेदन करो कि हमें उसका रंग बता दे। (मूसा ने) कहाः वह कहता है कि पीले गहरे रंग की गाय हो, जो देखने वालों को प्रसन्न कर दे।

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قَالُوا ادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّن لَّنَا مَا هِيَ إِنَّ الْبَقَرَ تَشَابَهَ عَلَيْنَا وَإِنَّا إِن شَاءَ اللَّـهُ لَمُهْتَدُونَ ﴾ 70 ﴿

वे बोले कि अपने पालनहार से हमारे लिए निवेदन करो कि हमें बताये कि वह किस प्रकार की हो? वास्तव में, हम गाय के बारे में दुविधा में पड़ गये हैं और यदि अल्लाह ने चाहा तो हम (उस गाय का) पता लगा लेंगे।

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قَالَ إِنَّهُ يَقُولُ إِنَّهَا بَقَرَةٌ لَّا ذَلُولٌ تُثِيرُ الْأَرْضَ وَلَا تَسْقِي الْحَرْثَ مُسَلَّمَةٌ لَّا شِيَةَ فِيهَا ۚ قَالُوا الْآنَ جِئْتَ بِالْحَقِّ ۚ فَذَبَحُوهَا وَمَا كَادُوا يَفْعَلُونَ ﴾ 71 ﴿

मूसा बोलेः वह कहता है कि वह ऐसी गाय हो, जो सेवा कार्य न करती हो, न खेत (भूमि) जोतती हो और न खेत सींचती हो, वह स्वस्थ हो और उसमें कोई धब्बा न हो। वे बोलेः अब तुमने उचित बात बताई है। फिर उन्होंने उसे वध कर दिया। जबकि वे समीप थे कि ये काम न करें।

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وَإِذْ قَتَلْتُمْ نَفْسًا فَادَّارَأْتُمْ فِيهَا ۖ وَاللَّـهُ مُخْرِجٌ مَّا كُنتُمْ تَكْتُمُونَ ﴾ 72 ﴿

और (याद करो) जब तुमने एक व्यक्ति की हत्या कर दी तथा एक-दूसरे पर (दोष) थोपने लगे और अल्लाह को उसे व्यक्त करना था, जिसे तुम छुपा रहे थे।

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فَقُلْنَا اضْرِبُوهُ بِبَعْضِهَا ۚ كَذَٰلِكَ يُحْيِي اللَّـهُ الْمَوْتَىٰ وَيُرِيكُمْ آيَاتِهِ لَعَلَّكُمْ تَعْقِلُونَ ﴾ 73 ﴿

अतः हमने कहा कि उसे (निहत व्यक्ति के शव को) उस (गाय) के किसी भाग से मारो।[1] इसी प्रकार अल्लाह मुर्दों को जीवित करेगा और वह तुम्हें अपनी निशानियाँ दिखाता है; ताकि तुम समझो।
1. भाष्यकारों ने लिखा है कि इस प्रकार निहत व्यक्ति जीवित हो गया। और उस ने अपने हत्यारे को बताया, और फिर मर गया। इस हत्या के कारण ही बनी इस्राईल को गाय की बलि देने हा आदेश दिया गया था। अगर वह चाहते तो किसी भी गाय की बलि दे देते, परन्तु उन्हों ने टाल मटोल से काम लिया, इस लिये अल्लाह ने उस गाय के विषय में कठोर आदेश दिया।

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ثُمَّ قَسَتْ قُلُوبُكُم مِّن بَعْدِ ذَٰلِكَ فَهِيَ كَالْحِجَارَةِ أَوْ أَشَدُّ قَسْوَةً ۚ وَإِنَّ مِنَ الْحِجَارَةِ لَمَا يَتَفَجَّرُ مِنْهُ الْأَنْهَارُ ۚ وَإِنَّ مِنْهَا لَمَا يَشَّقَّقُ فَيَخْرُجُ مِنْهُ الْمَاءُ ۚ وَإِنَّ مِنْهَا لَمَا يَهْبِطُ مِنْ خَشْيَةِ اللَّـهِ ۗ وَمَا اللَّـهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُونَ ﴾ 74 ﴿

फिर ये (निशानियाँ देखने) के बाद तुम्हारे दिल पत्थरों के समान या उनसे भी अधिक कठोर हो गये; क्योंकि पत्थरों में कुछ ऐसे होते हैं, जिनसे नहरें फूट पड़ती हैं और कुछ फट जाते हैं और उनसे पानी निकल आता है और कुछ अल्लाह के डर से गिर पड़ते हैं और अल्लाह तुम्हारे करतूतों से निश्चेत नहीं है।

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أَفَتَطْمَعُونَ أَن يُؤْمِنُوا لَكُمْ وَقَدْ كَانَ فَرِيقٌ مِّنْهُمْ يَسْمَعُونَ كَلَامَ اللَّـهِ ثُمَّ يُحَرِّفُونَهُ مِن بَعْدِ مَا عَقَلُوهُ وَهُمْ يَعْلَمُونَ ﴾ 75 ﴿

क्या तुम आशा रखते हो कि (यहूदी) तुम्हारी बात मान लेंगे, जबकि उनमें एक गिरोह ऐसा था, जो अल्लाह की वाणी (तौरात) को सुनता था और समझ जाने के बाद जान-बूझ कर उसमें परिवर्तण कर देता था?

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وَإِذَا لَقُوا الَّذِينَ آمَنُوا قَالُوا آمَنَّا وَإِذَا خَلَا بَعْضُهُمْ إِلَىٰ بَعْضٍ قَالُوا أَتُحَدِّثُونَهُم بِمَا فَتَحَ اللَّـهُ عَلَيْكُمْ لِيُحَاجُّوكُم بِهِ عِندَ رَبِّكُمْ ۚ أَفَلَا تَعْقِلُونَ ﴾ 76 ﴿

तथा जब वे ईमान वालों से मिलते हैं, तो कहते हैं कि हम भी ईमान लाये और जब एकान्त में आपस में एक-दूसरे से मिलते हैं, तो कहते हैं कि तुम उन्हें वो बातें क्यों बताते हो, जो अल्लाह ने तुमपर खोली[1] हैं? इसलिए कि प्रलय के दिन तुम्हारे पालनहार के पास इसे तुम्हारे विरुध्द प्रमाण बनायें? क्या तुम समझते नहीं हो?
1. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर। 2. अर्थात अन्तिम नबी के विषय में तौरात में बताई है।

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أَوَلَا يَعْلَمُونَ أَنَّ اللَّـهَ يَعْلَمُ مَا يُسِرُّونَ وَمَا يُعْلِنُونَ ﴾ 77 ﴿

क्या वे नहीं जानते कि वे जो कुछ छुपाते तथा व्यक्त करते हैं, वो सब अल्लाह जानता है?

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وَمِنْهُمْ أُمِّيُّونَ لَا يَعْلَمُونَ الْكِتَابَ إِلَّا أَمَانِيَّ وَإِنْ هُمْ إِلَّا يَظُنُّونَ ﴾ 78 ﴿

तथा उनमें कुछ अनपढ़ हैं, वे पुस्तक (तौरात) का ज्ञान नहीं रखते, परन्तु निराधार कामनायें करते तथा केवल अनुमान लगाते हैं।

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فَوَيْلٌ لِّلَّذِينَ يَكْتُبُونَ الْكِتَابَ بِأَيْدِيهِمْ ثُمَّ يَقُولُونَ هَـٰذَا مِنْ عِندِ اللَّـهِ لِيَشْتَرُوا بِهِ ثَمَنًا قَلِيلًا ۖ فَوَيْلٌ لَّهُم مِّمَّا كَتَبَتْ أَيْدِيهِمْ وَوَيْلٌ لَّهُم مِّمَّا يَكْسِبُونَ ﴾ 79 ﴿

तो विनाश है उनके लिए[1] जो अपने हाथों से पुस्तक लिखते हैं, फिर कहते हैं कि ये अल्लाह की ओर से है, ताकि उसके द्वारा तनिक मूल्य खरीदें! तो विनाश है उनके अपने हाथों के लेख के कारण! और विनाश है उनकी कमाई के कारण!
1. इस में यहूदी विद्वानों के कुकर्मों को बताया गया है।

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وَقَالُوا لَن تَمَسَّنَا النَّارُ إِلَّا أَيَّامًا مَّعْدُودَةً ۚ قُلْ أَتَّخَذْتُمْ عِندَ اللَّـهِ عَهْدًا فَلَن يُخْلِفَ اللَّـهُ عَهْدَهُ ۖ أَمْ تَقُولُونَ عَلَى اللَّـهِ مَا لَا تَعْلَمُونَ ﴾ 80 ﴿

तथा उन्होंने कहा कि हमें नरक की अग्नि गिनती के कुछ दिनों के सिवा स्पर्श नहीं करेगी। (हे नबी!) उनसे कहो कि क्या तुमने अल्लाह से कोई वचन ले लिया है कि अल्लाह अपना वचन भंग नहीं करेगा? बल्कि तुम अल्लाह के बारे में ऐसी बातें करते हो, जिनका तुम्हें ज्ञान नहीं।

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بَلَىٰ مَن كَسَبَ سَيِّئَةً وَأَحَاطَتْ بِهِ خَطِيئَتُهُ فَأُولَـٰئِكَ أَصْحَابُ النَّارِ ۖ هُمْ فِيهَا خَالِدُونَ ﴾ 81 ﴿

क्यों[1] नहीं, जो भी बुराई कमायेगा तथा उसका पाप उसे घेर लेगा, तो वही नारकीय हैं और वही उसमें सदावासी होंगे।
1. यहाँ यहूदियों के दावे का खण्डन तथा नरक और स्वर्ग में प्रवेश के नियम का वर्णन है।

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وَالَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ أُولَـٰئِكَ أَصْحَابُ الْجَنَّةِ ۖ هُمْ فِيهَا خَالِدُونَ ﴾ 82 ﴿

तथा जो ईमान लायें और सत्कर्म करें, वही स्वर्गीय हैं और वे उसमें सदावासी होंगे।

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وَإِذْ أَخَذْنَا مِيثَاقَ بَنِي إِسْرَائِيلَ لَا تَعْبُدُونَ إِلَّا اللَّـهَ وَبِالْوَالِدَيْنِ إِحْسَانًا وَذِي الْقُرْبَىٰ وَالْيَتَامَىٰ وَالْمَسَاكِينِ وَقُولُوا لِلنَّاسِ حُسْنًا وَأَقِيمُوا الصَّلَاةَ وَآتُوا الزَّكَاةَ ثُمَّ تَوَلَّيْتُمْ إِلَّا قَلِيلًا مِّنكُمْ وَأَنتُم مُّعْرِضُونَ ﴾ 83 ﴿

और (याद करो) जब हमने बनी इस्राईल से दृढ़ वचन लिया कि अल्लाह के सिवा किसी की इबादत (वंदना) नहीं करोगे तथा माता-पिता के साथ उपकार करोगे और समीपवर्ती संबंधियों, अनाथों, दीन-दुखियों के साथ और लोगों से भली बात बोलोगे तथा नमाज़ की स्थापना करोगे और ज़कात दोगे, फिर तुममें से थोड़े के सिवा सबने मुँह फेर लिया और तुम (अभी भी) मुँह फेरे हुए हो।

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وَإِذْ أَخَذْنَا مِيثَاقَكُمْ لَا تَسْفِكُونَ دِمَاءَكُمْ وَلَا تُخْرِجُونَ أَنفُسَكُم مِّن دِيَارِكُمْ ثُمَّ أَقْرَرْتُمْ وَأَنتُمْ تَشْهَدُونَ ﴾ 84 ﴿

तथा (याद करो) जब हमने तुमसे दृढ़ वचन लिया कि आपस में रक्तपात नहीं करोगे और न अपनों को अपने घरों से निकालोगे। फिर तुमने स्वीकार किया और तुम उसके साक्षी हो।

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ثُمَّ أَنتُمْ هَـٰؤُلَاءِ تَقْتُلُونَ أَنفُسَكُمْ وَتُخْرِجُونَ فَرِيقًا مِّنكُم مِّن دِيَارِهِمْ تَظَاهَرُونَ عَلَيْهِم بِالْإِثْمِ وَالْعُدْوَانِ وَإِن يَأْتُوكُمْ أُسَارَىٰ تُفَادُوهُمْ وَهُوَ مُحَرَّمٌ عَلَيْكُمْ إِخْرَاجُهُمْ ۚ أَفَتُؤْمِنُونَ بِبَعْضِ الْكِتَابِ وَتَكْفُرُونَ بِبَعْضٍ ۚ فَمَا جَزَاءُ مَن يَفْعَلُ ذَٰلِكَ مِنكُمْ إِلَّا خِزْيٌ فِي الْحَيَاةِ الدُّنْيَا ۖ وَيَوْمَ الْقِيَامَةِ يُرَدُّونَ إِلَىٰ أَشَدِّ الْعَذَابِ ۗ وَمَا اللَّـهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُونَ ﴾ 85 ﴿

फिर[1] तुम वही हो, जो अपनों की हत्या कर रहे हो तथा अपनों में से एक गिरोह को उनके घरों से निकाल रहे हो और पाप तथा अत्याचार के साथ उनके विरुध्द सहायता करते हो और यदि वे बंदी होकर तुम्हारे पास आयें, तो उनका अर्थदण्ड चुकाते हो, जबकि उन्हें निकालना ही तुमपर ह़राम (अवैध) था, तो क्या तुम पुस्तक के कुछ भाग पर ईमान रखते हो और कुछ का इन्कार करते हो? फिर तुममें से जो ऐसा करते हों, तो उनका दण्ड क्या है, इसके सिवा कि सांसारिक जीवन में अपमान तथा प्रलय के दिन अति कड़ी यातना की ओर फेरे जायें? और अल्लाह तुम्हारे करतूतों से निश्चेत नहीं है!
1. मदीने में यहूदियों के तीन क़बीलों में बनी क़ैनुक़ाअ और बनी नज़ीर मदीने के अरब क़बीले ख़ज़रज के सहयोगी थे। और बनी क़ुरैज़ा औस क़बीले के सहयोगी थे। जब इन दोनों क़बीलों में युध्द होता तो यहूदी क़बीले अपने पक्ष के साथ दूसरे पक्ष के साथी यहूदी की हत्या करते। और उसे बे घर कर देते थे। और युध्द विराम के बाद पराजित पक्ष के बंदी यहूदी का अर्थदण्ड दे कर, ये कहते हुये मुक्त करा देते कि हमारी पुस्तक तौरात का यही आदेश है। इसी का वर्णन अल्लाह ने इस आयत में किया है। (तफ़्सीर इब्ने कसीर)

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أُولَـٰئِكَ الَّذِينَ اشْتَرَوُا الْحَيَاةَ الدُّنْيَا بِالْآخِرَةِ ۖ فَلَا يُخَفَّفُ عَنْهُمُ الْعَذَابُ وَلَا هُمْ يُنصَرُونَ ﴾ 86 ﴿

उन्होंने ही आख़िरत (परलोक) के बदले सांसारिक जीवन ख़रीद लिया। अतः उनसे यातना मंद नहीं की जायेगी और न उनकी सहायता की जायेगी।

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وَلَقَدْ آتَيْنَا مُوسَى الْكِتَابَ وَقَفَّيْنَا مِن بَعْدِهِ بِالرُّسُلِ ۖ وَآتَيْنَا عِيسَى ابْنَ مَرْيَمَ الْبَيِّنَاتِ وَأَيَّدْنَاهُ بِرُوحِ الْقُدُسِ ۗ أَفَكُلَّمَا جَاءَكُمْ رَسُولٌ بِمَا لَا تَهْوَىٰ أَنفُسُكُمُ اسْتَكْبَرْتُمْ فَفَرِيقًا كَذَّبْتُمْ وَفَرِيقًا تَقْتُلُونَ ﴾ 87 ﴿

तथा हमने मूसा को पुस्तक (तौरात) प्रदान की और उसके पश्चात् निरन्तर रसूल भेजे और हमने मर्यम के पुत्र ईसा को खुली निशानियाँ दीं और रूह़ुल क़ुदुस[1] द्वारा उसे समर्थन दिया, तो क्या जब भी कोई रसूल तुम्हारी अपनी मनमानी के विरुध्द कोई बात तुम्हारे पास लेकर आया, तो तुम अकड़ गये, अतः कुछ नबियों को झुठला दिया और कुछ की हत्या करने लगे?
1. रूह़ुल क़ुदुस से अभिप्रेत फ़रिश्ता जिब्रील अलैहिस्सलाम हैं।

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وَقَالُوا قُلُوبُنَا غُلْفٌ ۚ بَل لَّعَنَهُمُ اللَّـهُ بِكُفْرِهِمْ فَقَلِيلًا مَّا يُؤْمِنُونَ ﴾ 88 ﴿

तथा उन्होंने कहा कि हमारे दिल तो बंद[1] हैं। बल्कि उनके कुफ़्र (इन्कार) के कारण अल्लाह ने उन्हें धिक्कार दिया है। इसीलिए उनमें से बहुत थोड़े ही ईमान लाते हैं।
1. अर्थात नबी की बातों का हमारे दिलों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता।

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وَلَمَّا جَاءَهُمْ كِتَابٌ مِّنْ عِندِ اللَّـهِ مُصَدِّقٌ لِّمَا مَعَهُمْ وَكَانُوا مِن قَبْلُ يَسْتَفْتِحُونَ عَلَى الَّذِينَ كَفَرُوا فَلَمَّا جَاءَهُم مَّا عَرَفُوا كَفَرُوا بِهِ ۚ فَلَعْنَةُ اللَّـهِ عَلَى الْكَافِرِينَ ﴾ 89 ﴿

और जब उनके पास अल्लाह की ओर से एक पुस्तक (क़ुर्आन) आ गयी, जो उनके साथ की पुस्तक का प्रमाणकारी है, जबकि इससे पूर्व वे स्वयं काफ़िरों पर विजय की प्रार्थना कर रहे थे, तो जब उनके पास वह चीज़ आ गयी, जिसे वे पहचान भी गये, फिर भी उसका इन्कार कर[1] दिया, तो काफ़िरों पर अल्लाह की धिक्कार है।
1. आयत का भावार्थ यह कि मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के इस पुस्तक (क़ुर्आन) के साथ आने से पहले वह काफ़िरों से युध्द करते थे, तो उन पर विजय की प्रार्थना करते और बड़ी व्याकुलता के साथ आप के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। जिस की भविष्यवाणि उन के नबियों ने की थी, और प्रार्थनायें किया करते थे कि आप शीघ्र आयें, ताकि काफ़िरों का प्रभुत्व समाप्त हो, और हमारे उत्थान के युग का शुभारंभ हो। परन्तु जब आप आ गये तो उन्हों ने आप के नबी होने का इन्कार कर दिया, क्यों कि आप बनी इस्राईल में नहीं पैदा हुये। फिर भी आप इब्राहीम अलैहिस्सलाम ही के पुत्र इस्माईल अलैहिस्सलाम के वंश से हैं, जैसे बनी इस्राईल उन के पुत्र इस्राईल की संतान हैं।

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بِئْسَمَا اشْتَرَوْا بِهِ أَنفُسَهُمْ أَن يَكْفُرُوا بِمَا أَنزَلَ اللَّـهُ بَغْيًا أَن يُنَزِّلَ اللَّـهُ مِن فَضْلِهِ عَلَىٰ مَن يَشَاءُ مِنْ عِبَادِهِ ۖ فَبَاءُوا بِغَضَبٍ عَلَىٰ غَضَبٍ ۚ وَلِلْكَافِرِينَ عَذَابٌ مُّهِينٌ ﴾ 90 ﴿

अल्लाह की उतारी हुई (पुस्तक)[1] का इन्कार करके बुरे बदले पर इन्होंने अपने प्राणों को बेच दिया, इस द्वेष के कारण कि अल्लाह ने अपना प्रदान (प्रकाशना), अपने जिस भक्त[1] पर चाहा, उतार दिया। अतः वे प्रकोप पर प्रकोप के अधिकारी बन गये और ऐसे काफ़िरों के लिए अपमानकारी यातना है।
1. अर्थात क़ुर्आन। 2. भक्त अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को नबी बना दिया।

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وَإِذَا قِيلَ لَهُمْ آمِنُوا بِمَا أَنزَلَ اللَّـهُ قَالُوا نُؤْمِنُ بِمَا أُنزِلَ عَلَيْنَا وَيَكْفُرُونَ بِمَا وَرَاءَهُ وَهُوَ الْحَقُّ مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَهُمْ ۗ قُلْ فَلِمَ تَقْتُلُونَ أَنبِيَاءَ اللَّـهِ مِن قَبْلُ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ ﴾ 91 ﴿

और जब उनसे कहा जाता है कि अल्लाह ने जो उतारा[1] है, उसपर ईमन लाओ, तो कहते हैं: हम तो उसीपर ईमान रखते हैं, जो हमपर उतरा है और इसके सिवा जो कुछ है, उसका इन्कार करते हैं। जबकि वह सत्य है और उसका प्रमाण्कारी है, जो उनके पास है। कहो कि फिर इससे पूर्व अल्लाह के नबियों की हत्या क्यों करते थे, यदि तुम ईमान वाले थे तो?
1. अर्थात क़ुर्आन पर।

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وَلَقَدْ جَاءَكُم مُّوسَىٰ بِالْبَيِّنَاتِ ثُمَّ اتَّخَذْتُمُ الْعِجْلَ مِن بَعْدِهِ وَأَنتُمْ ظَالِمُونَ ﴾ 92 ﴿

तथा मूसा तुम्हारे पास खुली निशानियाँ लेकर आये। फिर तुमने अत्याचार करते हुए बछड़े को पूज्य बना लिया।

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وَإِذْ أَخَذْنَا مِيثَاقَكُمْ وَرَفَعْنَا فَوْقَكُمُ الطُّورَ خُذُوا مَا آتَيْنَاكُم بِقُوَّةٍ وَاسْمَعُوا ۖ قَالُوا سَمِعْنَا وَعَصَيْنَا وَأُشْرِبُوا فِي قُلُوبِهِمُ الْعِجْلَ بِكُفْرِهِمْ ۚ قُلْ بِئْسَمَا يَأْمُرُكُم بِهِ إِيمَانُكُمْ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ ﴾ 93 ﴿

फिर उस दृढ़ वचन को याद करो, जो हमने तुम्हारे ऊपर तूर (पर्वत) को उठाकर लिया। (हमने कहाः) पकड़ लो, जो हमने दिया है तुम्हें दृढ़ता से और सुनो। तो उन्होंने कहाः हमने सुना और अवज्ञा की। और उनके दिलों में बछड़े का प्रेम पिला दिया गया, उनकी अवज्ञा के कारण। (हे नबी!) आप कह दीजियेः बुरा है वह जिसका आदेश दे रहा है तुम्हें तुम्हारा ईमान, यदि तुम ईमान वाले हो।

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قُلْ إِن كَانَتْ لَكُمُ الدَّارُ الْآخِرَةُ عِندَ اللَّـهِ خَالِصَةً مِّن دُونِ النَّاسِ فَتَمَنَّوُا الْمَوْتَ إِن كُنتُمْ صَادِقِينَ ﴾ 94 ﴿

(हे नबी!) आप कह दीजियेः यदि तुम्हारे लिये विशेष है परलोक का घर सारे लोगों को छोड़कर, तो तुम कामना करो मौत की, यदि तुम सत्यवादी हो।

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وَلَن يَتَمَنَّوْهُ أَبَدًا بِمَا قَدَّمَتْ أَيْدِيهِمْ ۗ وَاللَّـهُ عَلِيمٌ بِالظَّالِمِينَ ﴾ 95 ﴿

और वे कदापि उसकी कामना नहीं करेंगे, उनके कर्तूतों के कारण और अल्लाह अत्याचारियों से अधिक सूचित है।

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وَلَتَجِدَنَّهُمْ أَحْرَصَ النَّاسِ عَلَىٰ حَيَاةٍ وَمِنَ الَّذِينَ أَشْرَكُوا ۚ يَوَدُّ أَحَدُهُمْ لَوْ يُعَمَّرُ أَلْفَ سَنَةٍ وَمَا هُوَ بِمُزَحْزِحِهِ مِنَ الْعَذَابِ أَن يُعَمَّرَ ۗ وَاللَّـهُ بَصِيرٌ بِمَا يَعْمَلُونَ ﴾ 96 ﴿

तुम इन्हें, सबसे बढ़कर जीने का लोभी पाओगे और मिश्रणवादियों से (भी)। इनमें से प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उसे एक-एक हज़ार वर्ष की आयु मिल जाये। ह़ालाँकि ये (लम्बी) आयु भी उसे यातना से बचा नहीं सकती और अल्लाह देखने वाला है जो वे कर रहे हैं।

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قُلْ مَن كَانَ عَدُوًّا لِّجِبْرِيلَ فَإِنَّهُ نَزَّلَهُ عَلَىٰ قَلْبِكَ بِإِذْنِ اللَّـهِ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ وَهُدًى وَبُشْرَىٰ لِلْمُؤْمِنِينَ ﴾ 97 ﴿

(हे नबी!)[1] कह दो कि जो व्यक्ति जिब्रील का शत्रु है, (तो रहे)। उसने तो अल्लाह की अनुमति से इस संदेश (क़ुर्आन) को आपके दिल पर उतारा है, जो इससे पूर्व की सभी पुस्तकों का प्रमाणकारी तथा ईमान वालों के लिए मार्गदर्शन एवं (सफलता) का शुभ समाचार है।
1. यहूदी केवल रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आप के अनुयायियों ही को बुरा नहीं कहते थे, वे अल्लाह के फ़रिश्ते जिब्रील को भी गालियाँ देते थे कि वह दया का नहीं, प्रकोप का फ़रिश्ता है। और कहते थे कि हमारा मित्र मीकाईल है।

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مَن كَانَ عَدُوًّا لِّلَّـهِ وَمَلَائِكَتِهِ وَرُسُلِهِ وَجِبْرِيلَ وَمِيكَالَ فَإِنَّ اللَّـهَ عَدُوٌّ لِّلْكَافِرِينَ ﴾ 98 ﴿

जो अल्लाह तथा उसके फ़रिश्तों और उसके रसूलों और जिब्रील तथा मीकाईल का शत्रु हो, तो अल्लाह (उन) काफ़िरों का शत्रु है।[1]
1. आयत का भावार्थ यह है कि जिस ने अल्लाह के किसी रसूल -चाहे वह फ़रिश्ता हो या इंसान- से बैर रखा, तो वह सभी रसूलों का शत्रु तथा कुकर्मी है। (इब्ने कसीर)

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وَلَقَدْ أَنزَلْنَا إِلَيْكَ آيَاتٍ بَيِّنَاتٍ ۖ وَمَا يَكْفُرُ بِهَا إِلَّا الْفَاسِقُونَ ﴾ 99 ﴿

और (हे नबी!) हमने आप पर खुली आयतें उतारी हैं और इनका इन्कार केवल वही लोग[1] करेंगे, जो कुकर्मी हैं।
1. इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा कहते हैं कि यहूदियों के विद्वान इब्ने सूरिया ने कहाः हे मुह़म्मद! (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) आप हमारे पास कोई ऐसी चीज़ नहीं लाये जिसे हम पहचानते हों, और न आप पर कोई खुली आयत उतारी गई कि हम आप का अनुसरण करें। इस पर यह आयत उतरी। (इब्ने जरीर)

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أَوَكُلَّمَا عَاهَدُوا عَهْدًا نَّبَذَهُ فَرِيقٌ مِّنْهُم ۚ بَلْ أَكْثَرُهُمْ لَا يُؤْمِنُونَ ﴾ 100 ﴿

क्या ऐसा नहीं हुआ है कि जब कभी उन्होंने कोई वचन दिया, तो उनके एक गिरोह ने उसे भंग कर दिया? बल्कि इनमें बहुतेरे ऐसे हैं, जो ईमान नहीं रखते।

सूरह बकराह 2:101-200

5/5

Surah Baqrah : All Parts

1-100 | 101-200 | 201-286

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بِسْمِ اللَّـهِ الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ

बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम

अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।

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وَلَمَّا جَاءَهُمْ رَسُولٌ مِّنْ عِندِ اللَّـهِ مُصَدِّقٌ لِّمَا مَعَهُمْ نَبَذَ فَرِيقٌ مِّنَ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ كِتَابَ اللَّـهِ وَرَاءَ ظُهُورِهِمْ كَأَنَّهُمْ لَا يَعْلَمُونَ ﴾ 101 ﴿

तथा जब उनके पास अल्लाह की ओर से एक रसूल, उस पुस्तक का समर्थन करते हुए, जो उनके पास है, आ गया,[1] तो उनके एक समुदाय ने जिनहें पुस्तक दी गयी, अल्लाह की पुस्तक को ऐसे पीछे डाल दिया, जैसे वे कुछ जानते ही न हों। 1. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम क़ुर्आन के साथ आ गये।

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وَاتَّبَعُوا مَا تَتْلُو الشَّيَاطِينُ عَلَىٰ مُلْكِ سُلَيْمَانَ ۖ وَمَا كَفَرَ سُلَيْمَانُ وَلَـٰكِنَّ الشَّيَاطِينَ كَفَرُوا يُعَلِّمُونَ النَّاسَ السِّحْرَ وَمَا أُنزِلَ عَلَى الْمَلَكَيْنِ بِبَابِلَ هَارُوتَ وَمَارُوتَ ۚ وَمَا يُعَلِّمَانِ مِنْ أَحَدٍ حَتَّىٰ يَقُولَا إِنَّمَا نَحْنُ فِتْنَةٌ فَلَا تَكْفُرْ ۖ فَيَتَعَلَّمُونَ مِنْهُمَا مَا يُفَرِّقُونَ بِهِ بَيْنَ الْمَرْءِ وَزَوْجِهِ ۚ وَمَا هُم بِضَارِّينَ بِهِ مِنْ أَحَدٍ إِلَّا بِإِذْنِ اللَّـهِ ۚ وَيَتَعَلَّمُونَ مَا يَضُرُّهُمْ وَلَا يَنفَعُهُمْ ۚ وَلَقَدْ عَلِمُوا لَمَنِ اشْتَرَاهُ مَا لَهُ فِي الْآخِرَةِ مِنْ خَلَاقٍ ۚ وَلَبِئْسَ مَا شَرَوْا بِهِ أَنفُسَهُمْ ۚ لَوْ كَانُوا يَعْلَمُونَ ﴾ 102 ﴿

तथा सुलैमान के राज्य में शैतान जो मिथ्या बातें बना रहे थे, उनका अनुसरण करने लगे। जबकि सुलैमान ने कभी कुफ़्र (जादू) नहीं किया, परन्तु कुफ़्र तो शैतानों ने किया, जो लोगों को जादू सिखा रहे थे तथा वे उन बातों का (अनुसरण करने लगे) जो बाबिल (नगर) के दो फ़रिश्तों; हारूत और मारूत पर उतारी गयीं, जबकि वे दोनों किसी को जादू नहीं सिखाते, जब तक ये न कह देते कि हम केवल एक परीक्षा हैं, अतः, तू कुफ़्र में न पड़। फिर भी वे उन दोनों से वो चीज़ सीखते, जिसके द्वारा वे पति और पत्नी के बीच जुदाई डाल दें और वे अल्लाह की अनुमति बिना इसके द्वारा किसी को कोई हानि नहीं पहुँचा सकते थे, परन्तु फिर भी ऐसी बातें सीखते थे, जो उनके लिए हानिकारक हों और लाभकारी न हों और वे भली-भाँति जानते थे कि जो इसका ख़रीदार बना, परलोक में उसका कोई भाग नहीं तथा कितना बुरा उपभोग्य है, जिसके बदले वे अपने प्राणों का सौदा कर रहे हैं[1], यदि वे जानते होते! 1. इस आयत का दूसरा अर्थ यह भी किया गया है कि सुलैमान ने कुफ़्र नहीं किया, परन्तु शैतानों ने कुफ़्र किया, वह मानव को जादू सिखाते थे। और न दो फ़रिशतों पर जादू उतारा गया, उन शैतानों या मानव में से हारूत तथा मारूत जादू सिखाते थे। (तफ़्सीरे क़ुर्तुबी) ।जिस ने प्रथम अनुवाद किया है, उस का यह विचार है कि मानव के रूप में दो फ़रिश्तों को उन की परीक्षा के लिये भेजा गया था। सुलैमान अलैहिस्सलाम एक नबी और राजा हुये हैं। आप दावूद अलैहिस्सलाम के पुत्र थे।

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وَلَوْ أَنَّهُمْ آمَنُوا وَاتَّقَوْا لَمَثُوبَةٌ مِّنْ عِندِ اللَّـهِ خَيْرٌ ۖ لَّوْ كَانُوا يَعْلَمُونَ ﴾ 103 ﴿

और यदि वे ईमान लाते और अल्लाह से डरते, तो अल्लाह के पास इसका जो प्रतिकार (बदला) मिलता, वह उनके लिए उत्तम होता, यदि वे जानते होते।

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يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَقُولُوا رَاعِنَا وَقُولُوا انظُرْنَا وَاسْمَعُوا ۗ وَلِلْكَافِرِينَ عَذَابٌ أَلِيمٌ ﴾ 104 ﴿

हे ईमान वालो! तुम 'राइना'[1] न कहो, 'उन्ज़ुरना' कहो और ध्यान से बात सुनो तथा काफ़िरों के लिए दुखदायी यातना है। 1. इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा कहते हैं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सभा में यहूदी भी आ जाते थे। और मुसलमानों को आप से कोई बात समझनी होती तो "राइना" कहते, अर्थात हम पर ध्यान दीजिये, या हमारी बात सुनिये। इब्रानी भाषा में इस का बुरा अर्थ भी निकलता था, जिस से यहूही प्रसन्न होते थे, इस लिये मुसलमानों को आदेश दिया गया कि इस के स्थान पर तुम "उन्ज़ुरना" कहा करो। अर्थात हमारी ओर देखिये। (तफ़्सीरे क़ुर्तुबी)

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مَّا يَوَدُّ الَّذِينَ كَفَرُوا مِنْ أَهْلِ الْكِتَابِ وَلَا الْمُشْرِكِينَ أَن يُنَزَّلَ عَلَيْكُم مِّنْ خَيْرٍ مِّن رَّبِّكُمْ ۗ وَاللَّـهُ يَخْتَصُّ بِرَحْمَتِهِ مَن يَشَاءُ ۚ وَاللَّـهُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيمِ ﴾ 105 ﴿

अह्ले किताब में से जो काफ़िर हो गये तथा जो मिश्रणवादी हो गये, वे नहीं चाहते कि तुम्हारे पालनहार की ओर से तुमपर कोई भलाई उतारी जाये और अल्लाह जिसपर चाहे, अपनी विशेष दया करता है और अल्लाह बड़ा दानशील है।

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مَا نَنسَخْ مِنْ آيَةٍ أَوْ نُنسِهَا نَأْتِ بِخَيْرٍ مِّنْهَا أَوْ مِثْلِهَا ۗ أَلَمْ تَعْلَمْ أَنَّ اللَّـهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ ﴾ 106 ﴿

हम अपनी कोई आयत निरस्त कर देते अथवा भुला देते हैं, तो उससे उत्तम अथवा उसके समान लाते हैं। क्या तुम नहीं जानते कि अल्लाह जो चाहे[1], कर सकता है? 1. इस आयत में यहूदियों के तौरात के आदेशों के निरस्त किये जाने तथा ईसा अलैहिस्सलाम और मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की नुबुव्वत के इन्कार का खण्डन किया गया है।

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أَلَمْ تَعْلَمْ أَنَّ اللَّـهَ لَهُ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۗ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ اللَّـهِ مِن وَلِيٍّ وَلَا نَصِيرٍ ﴾ 107 ﴿

क्या तुम ये नहीं जानते कि आकाशों तथा धरती का राज्य अल्लाह ही के लिए है और उसके सिवा तुम्हारा कोई रक्षक और सहायक नहीं है?

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أَمْ تُرِيدُونَ أَن تَسْأَلُوا رَسُولَكُمْ كَمَا سُئِلَ مُوسَىٰ مِن قَبْلُ ۗ وَمَن يَتَبَدَّلِ الْكُفْرَ بِالْإِيمَانِ فَقَدْ ضَلَّ سَوَاءَ السَّبِيلِ ﴾ 108 ﴿

क्या तुम चाहते हो कि अपने रसुल से उसी प्रकार प्रश्न करो, जैसे मूसा से प्रश्न किये जाते रहे? और जो व्यक्ति ईमान की नीति को कुफ़्र से बदल लेगा, तो वह सीधी डगर से विचलित हो गया।

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وَدَّ كَثِيرٌ مِّنْ أَهْلِ الْكِتَابِ لَوْ يَرُدُّونَكُم مِّن بَعْدِ إِيمَانِكُمْ كُفَّارًا حَسَدًا مِّنْ عِندِ أَنفُسِهِم مِّن بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ الْحَقُّ ۖ فَاعْفُوا وَاصْفَحُوا حَتَّىٰ يَأْتِيَ اللَّـهُ بِأَمْرِهِ ۗ إِنَّ اللَّـهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ ﴾ 109 ﴿

अहले किताब में से बहुत-से चाहते हैं कि तुम्हारे ईमान लाने के पश्चात् अपने द्वेष के कारण तुम्हें कुफ़्र की ओर फेंक दें। जबकि सत्य उनके लिए उजागर हो गया। फिर भी तुम क्षमा से काम लो और जाने दो। यहाँ तक कि अल्लाह अपना निर्णय कर दे। निश्चय अल्लाह जो चाहे, कर सकता है।

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وَأَقِيمُوا الصَّلَاةَ وَآتُوا الزَّكَاةَ ۚ وَمَا تُقَدِّمُوا لِأَنفُسِكُم مِّنْ خَيْرٍ تَجِدُوهُ عِندَ اللَّـهِ ۗ إِنَّ اللَّـهَ بِمَا تَعْمَلُونَ بَصِيرٌ ﴾ 110 ﴿

तथा तुम नमाज़ की स्थापना करो और ज़कात दो और जो भी भलाई अपने लिए किये रहोगे, उसे अल्लाह के यहाँ पाओगे। तुम जो कुछ कर रहे हो, अल्लाह उसे देख रहा है।

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وَقَالُوا لَن يَدْخُلَ الْجَنَّةَ إِلَّا مَن كَانَ هُودًا أَوْ نَصَارَىٰ ۗ تِلْكَ أَمَانِيُّهُمْ ۗ قُلْ هَاتُوا بُرْهَانَكُمْ إِن كُنتُمْ صَادِقِينَ ﴾ 111 ﴿

तथा उन्होंने कहा कि कोई स्वर्ग में कदापि नहीं जायेगा, जब तक यहूदी अथवा नसारा[1] (ईसाई) न हो। ये उनकी कामनायें हैं। उनसे कहो कि यदि तुम सत्यवादी हो, तो कोई प्रमाण प्रस्तुत करो। 1. अर्थात यहूदियों ने कहा कि केवल यहूदी जायेंगे और ईसाईयों ने कहा कि केवल ईसाई जायेंगे।

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بَلَىٰ مَنْ أَسْلَمَ وَجْهَهُ لِلَّـهِ وَهُوَ مُحْسِنٌ فَلَهُ أَجْرُهُ عِندَ رَبِّهِ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُونَ ﴾ 112 ﴿

क्यों नहीं?[1] जो भी स्वयं को अल्लाह की आज्ञा पालन के लिए समर्पित कर देगा तथा सदाचारी होगा, तो उसके पालनहार के पास उसका प्रतिफल है और उनपर कोई भय नहीं होगा और न वे उदासीन होंगे। 1. स्वर्ग में प्रवेश का साधारण नियम अर्थात मुक्ति एकेश्वरवाद तथा सदाचार पर आधारित है, किसी जाति अथवा गिरोह पर नहीं।

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وَقَالَتِ الْيَهُودُ لَيْسَتِ النَّصَارَىٰ عَلَىٰ شَيْءٍ وَقَالَتِ النَّصَارَىٰ لَيْسَتِ الْيَهُودُ عَلَىٰ شَيْءٍ وَهُمْ يَتْلُونَ الْكِتَابَ ۗ كَذَٰلِكَ قَالَ الَّذِينَ لَا يَعْلَمُونَ مِثْلَ قَوْلِهِمْ ۚ فَاللَّـهُ يَحْكُمُ بَيْنَهُمْ يَوْمَ الْقِيَامَةِ فِيمَا كَانُوا فِيهِ يَخْتَلِفُونَ ﴾ 113 ﴿

तथा यहूदियों ने कहा कि ईसाईयों के पास कुछ नहीं और ईसाईयों ने कहा कि यहूदियों के पास कुछ नहीं है। जबकि वे धर्म पुस्तक[1] पढ़ते हैं। इसी जैसी बात उन्होंने भी कही, जिनके पास धर्म पुस्तक का कोई ज्ञान[2] नहीं। ये जिस विषय में विभेद कर रहे हैं, उसका निर्णय अल्लाह प्रलय के दिन उनके बीच कर देगा। 1. अर्थात तौरात तथा इंजील जिस में सब नबियों पर ईमान लाने का आदेश दिया गया है। 2. धर्म पुस्तक से अज्ञान अरब थे, जो यह कहते थे कि मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास कुछ नहीं है।

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وَمَنْ أَظْلَمُ مِمَّن مَّنَعَ مَسَاجِدَ اللَّـهِ أَن يُذْكَرَ فِيهَا اسْمُهُ وَسَعَىٰ فِي خَرَابِهَا ۚ أُولَـٰئِكَ مَا كَانَ لَهُمْ أَن يَدْخُلُوهَا إِلَّا خَائِفِينَ ۚ لَهُمْ فِي الدُّنْيَا خِزْيٌ وَلَهُمْ فِي الْآخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيمٌ ﴾ 114 ﴿

और उससे बड़ा अत्याचारी कौन होगा, जो अल्लाह की मस्जिदों में उसके नाम का वर्णन करने से रोके और उन्हें उजाड़ने का प्रयत्न करे?[1] उन्हीं के लिए योग्य है कि उसमें डरते हुए प्रवेश करें, उन्हीं के लिए संसार में अपमान है और उन्हीं के लिए आख़िरत (परलोक) में घोर यातना है। 1. जैसे मक्का वासियों ने आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आप के साथियों को सन् 6 हिजरी में काबा में आने से रोक दिया। या ईसाईयों ने बैतुल मुक़द्दस् को ढाने में बुख़्त नस्सर (राजा) की सहायता की।

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وَلِلَّـهِ الْمَشْرِقُ وَالْمَغْرِبُ ۚ فَأَيْنَمَا تُوَلُّوا فَثَمَّ وَجْهُ اللَّـهِ ۚ إِنَّ اللَّـهَ وَاسِعٌ عَلِيمٌ ﴾ 115 ﴿

तथा पूर्व और पश्चिम अल्लाह ही के हैं; तुम जिधर भी मुख करो[1], उधर ही अल्लाह का मुख है और अल्लाह विशाल अति ज्ञानी है। 1. अर्थात अल्लाह के आदेशानुसार तुम जिधर भी रुख करोगे, तुम्हें अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त होगी।

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وَقَالُوا اتَّخَذَ اللَّـهُ وَلَدًا ۗ سُبْحَانَهُ ۖ بَل لَّهُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۖ كُلٌّ لَّهُ قَانِتُونَ ﴾ 116 ﴿

तथा उन्होंने कहा[1] कि अल्लाह ने कोई संतान बना ली। वह इससे पवित्र है। आकाशों तथा धरती में जो भी है, वह उसी का है और सब उसी के आज्ञाकारी हैं। 1. अर्थात यहूद और नसारा तथा मिश्रणवादियों ने।

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بَدِيعُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۖ وَإِذَا قَضَىٰ أَمْرًا فَإِنَّمَا يَقُولُ لَهُ كُن فَيَكُونُ ﴾ 117 ﴿

वह आकाशों तथा धरती का अविष्कारक है। जब वह किसी बात का निर्णय कर लेता है, तो उसके लिए बस ये आदेश देता है कि "हो जा।" और वह हो जाती है।

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وَقَالَ الَّذِينَ لَا يَعْلَمُونَ لَوْلَا يُكَلِّمُنَا اللَّـهُ أَوْ تَأْتِينَا آيَةٌ ۗ كَذَٰلِكَ قَالَ الَّذِينَ مِن قَبْلِهِم مِّثْلَ قَوْلِهِمْ ۘ تَشَابَهَتْ قُلُوبُهُمْ ۗ قَدْ بَيَّنَّا الْآيَاتِ لِقَوْمٍ يُوقِنُونَ ﴾ 118 ﴿

तथा उन्होंने कहा जो ज्ञान[1] नहीं रखते कि अल्लाह हमसे बात क्यों नहीं करता या हमारे पास कोई आयत क्यों नहीं आती? इसी प्रकार की बात इनसे पूर्व के लोगों ने कही थी। इनके दिल एक समान हो गये। हमने उनके लिए निशानियाँ उजागर कर दी हैं, जो विश्वास रखते हैं। 1. अर्थात अरब के मिश्रणवादियों ने।

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إِنَّا أَرْسَلْنَاكَ بِالْحَقِّ بَشِيرًا وَنَذِيرًا ۖ وَلَا تُسْأَلُ عَنْ أَصْحَابِ الْجَحِيمِ ﴾ 119 ﴿

(हे नबी!) हमने आपको सत्य के साथ शुभ सूचना देने तथा सावधान[1] करने वाला बनाकर भेजा है और आपसे नारकियों के विषय में प्रश्न नहीं किया जायेगा। 1. अर्थात सत्य ज्ञान के अनुपालन पर स्वर्ग की सूचना देने, तथा इन्कार पर नरक से सावधान करने के लिये। इस के पश्चात् भी कोई न माने तो आप उस के उत्तरदायी नहीं हैं।

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وَلَن تَرْضَىٰ عَنكَ الْيَهُودُ وَلَا النَّصَارَىٰ حَتَّىٰ تَتَّبِعَ مِلَّتَهُمْ ۗ قُلْ إِنَّ هُدَى اللَّـهِ هُوَ الْهُدَىٰ ۗ وَلَئِنِ اتَّبَعْتَ أَهْوَاءَهُم بَعْدَ الَّذِي جَاءَكَ مِنَ الْعِلْمِ ۙ مَا لَكَ مِنَ اللَّـهِ مِن وَلِيٍّ وَلَا نَصِيرٍ ﴾ 120 ﴿

(हे नबी!) आपसे यहूदी तथा ईसाई सहमत (प्रसन्न) नहीं होंगे, जब तक आप उनकी रीति पर न चलें। कह दो कि सीधी डगर वही है, जो अल्लाह ने बताई है और यदि आपने उनकी आकांक्षाओं का अनुसरण किया, इसके पश्चात कि आपके पास ज्ञान आ गया, तो अल्लाह (की पकड़) से आपका कोई रक्षक और सहायक नहीं होगा।

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الَّذِينَ آتَيْنَاهُمُ الْكِتَابَ يَتْلُونَهُ حَقَّ تِلَاوَتِهِ أُولَـٰئِكَ يُؤْمِنُونَ بِهِ ۗ وَمَن يَكْفُرْ بِهِ فَأُولَـٰئِكَ هُمُ الْخَاسِرُونَ ﴾ 121 ﴿

और हमने जिन्हें पुस्तक प्रदान की है और उसे वैसे पढ़ते हैं, जैसे पढ़ना चाहिये, वही उसपर ईमान रखते हैं और जो उसे नकारते हैं, वही क्षतिग्रस्तों में से हैं।

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يَا بَنِي إِسْرَائِيلَ اذْكُرُوا نِعْمَتِيَ الَّتِي أَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَأَنِّي فَضَّلْتُكُمْ عَلَى الْعَالَمِينَ ﴾ 122 ﴿

हे बनी इस्राईल! मेरे उस पुरस्कार को याद करो, जो मैंने तुमपर किया है और ये कि तुम्हें (अपने युग के) संसार-वसियों पर प्रधानता दी थी।

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وَاتَّقُوا يَوْمًا لَّا تَجْزِي نَفْسٌ عَن نَّفْسٍ شَيْئًا وَلَا يُقْبَلُ مِنْهَا عَدْلٌ وَلَا تَنفَعُهَا شَفَاعَةٌ وَلَا هُمْ يُنصَرُونَ ﴾ 123 ﴿

तथा उस दिन से डरो, जब कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति के कुछ काम नहीं आयेगा और न उससे कोई अर्थदण्ड स्वीकार किया जायेगा और न उसे कोई अनुशंसा (सिफ़ारिश) लाभ पहुँचायेगी और न उनकी कोई सहायता की जायेगी।

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وَإِذِ ابْتَلَىٰ إِبْرَاهِيمَ رَبُّهُ بِكَلِمَاتٍ فَأَتَمَّهُنَّ ۖ قَالَ إِنِّي جَاعِلُكَ لِلنَّاسِ إِمَامًا ۖ قَالَ وَمِن ذُرِّيَّتِي ۖ قَالَ لَا يَنَالُ عَهْدِي الظَّالِمِينَ ﴾ 124 ﴿

और (याद करो) जब इब्राहीम की उसके पालनहार ने कुछ बातों से परीक्षा ली और वह उसमें पूरा उतरा, तो उसने कहा कि मैं तुम्हें सब इन्सानों का इमाम (धर्मगुरु) बनाने वाला हूँ। (इब्राहीम ने) कहाः तथा मेरी संतान से भी। (अल्लाह ने कहाः) मेरा वचन उनके लिए नहीं, जो अत्याचारी[1] हैं। 1. आयत में अत्याचार से अभिप्रेत केवल मानव पर अत्याचार नहीं, बल्कि सत्य को नकारना तथा शिर्क करना भी अत्याचार में सम्मिलित है।

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وَإِذْ جَعَلْنَا الْبَيْتَ مَثَابَةً لِّلنَّاسِ وَأَمْنًا وَاتَّخِذُوا مِن مَّقَامِ إِبْرَاهِيمَ مُصَلًّى ۖ وَعَهِدْنَا إِلَىٰ إِبْرَاهِيمَ وَإِسْمَاعِيلَ أَن طَهِّرَا بَيْتِيَ لِلطَّائِفِينَ وَالْعَاكِفِينَ وَالرُّكَّعِ السُّجُودِ ﴾ 125 ﴿

और (याद करो) जब हमने इस घर (अर्थातःकाबा) को लोगों के लिए बार-बार आने का केंद्र तथा शांति स्थल निर्धारित कर दिया तथा ये आदेश दे दिया कि 'मक़ामे इब्राहीम' को नमाज़ का स्थान[1] बना लो तथा इब्राहीम और इस्माईल को आदेश दिया कि मेरे घर को तवाफ़ (परिक्रमा) तथा एतिकाफ़[2] करने वालों और सज्दा तथा रुकू करने वालों के लिए पवित्र रखो। 1. "मक़ामे इब्राहीम" से तात्पर्य वह पत्थर है, जिस पर खड़े हो कर उन्हों ने काबा का निर्माण किया। जिस पर उन के पदचिन्ह आज भी सुरक्षित हैं। तथा तवाफ़ के पश्चात् वहाँ दो रकअत नमाज़ पढ़नी सुन्नत है। 2. "एतिकाफ़" का अर्थ किसी मस्जिद में एकांत में हो कर अल्लाह की इबादत करना है।

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وَإِذْ قَالَ إِبْرَاهِيمُ رَبِّ اجْعَلْ هَـٰذَا بَلَدًا آمِنًا وَارْزُقْ أَهْلَهُ مِنَ الثَّمَرَاتِ مَنْ آمَنَ مِنْهُم بِاللَّـهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ ۖ قَالَ وَمَن كَفَرَ فَأُمَتِّعُهُ قَلِيلًا ثُمَّ أَضْطَرُّهُ إِلَىٰ عَذَابِ النَّارِ ۖ وَبِئْسَ الْمَصِيرُ ﴾ 126 ﴿

और (याद करो) जब इब्राहीम ने अपने पालनहार से प्रार्थना कीः हे मेरे पालनहार! इस छेत्र को शांति का नगर बना दे तथा इसके वासियों को, जो उनमें से अल्लाह और अंतिम दिन (प्रलय) पर ईमान रखे, विभिन्न प्रकार की उपज (फलों) से आजीविका प्रदान कर। (अल्लाह ने) कहाः तथा जो काफ़िर है, उसे भी मैं थोड़ा लाभ दूंगा, फिर उसे नरक की यातना की ओर बाध्य कर दूँगा और वह बहुत बुरा स्थान है।

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وَإِذْ يَرْفَعُ إِبْرَاهِيمُ الْقَوَاعِدَ مِنَ الْبَيْتِ وَإِسْمَاعِيلُ رَبَّنَا تَقَبَّلْ مِنَّا ۖ إِنَّكَ أَنتَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ ﴾ 127 ﴿

और (याद करो) जब इब्राहीम और इस्माईल इस घर की नींव ऊँची कर रहे थे तथा प्रार्थना कर रहे थेः हे हमारे पालनहार! हमसे ये सेवा स्वीकार कर ले। तू ही सब कुछ सुनता और जानता है।

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رَبَّنَا وَاجْعَلْنَا مُسْلِمَيْنِ لَكَ وَمِن ذُرِّيَّتِنَا أُمَّةً مُّسْلِمَةً لَّكَ وَأَرِنَا مَنَاسِكَنَا وَتُبْ عَلَيْنَا ۖ إِنَّكَ أَنتَ التَّوَّابُ الرَّحِيمُ ﴾ 128 ﴿

हे हमारे पालनहार! हम दोनों को अपना आज्ञाकारी बना तथा हमारी संतान से एक ऐसा समुदाय बना दे, जो तेरा आज्ञाकारी हो और हमें हमारे (हज्ज की) विधियाँ बता दे तथा हमें क्षमा कर। वास्तव में, तू अति क्षमी, दयावान् है।

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رَبَّنَا وَابْعَثْ فِيهِمْ رَسُولًا مِّنْهُمْ يَتْلُو عَلَيْهِمْ آيَاتِكَ وَيُعَلِّمُهُمُ الْكِتَابَ وَالْحِكْمَةَ وَيُزَكِّيهِمْ ۚ إِنَّكَ أَنتَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ ﴾ 129 ﴿

हे हमारे पालनहार! उनके बीच उन्हीं में से एक रसूल भेज, जो उन्हें तेरी आयतें सुनाये और उन्हें पुस्तक (क़ुर्आन) तथा ह़िक्मत (सुन्नत) की शिक्षा दे और उन्हें शुध्द तथा आज्ञाकारी बना दे। वास्तव में, तू ही प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ[1] है। 1. यह इब्राहीम तथा इस्माईल अलैहिमस्सलाम की प्रार्थना का अंत है। एकरसूल से अभिप्रेत मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हैं। क्यों कि इस्माईल अलैहिस्सलाम की संतान में आप के सिवा कोई दूसरा रसूल नहीं हुआ। ह़दीस में है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः मैं अपने पिता इब्राहीम की प्रार्थना, ईसा की शुभ सूचना, तथा अपनी माता का स्वप्न हूँ। आप की माता आमिना ने गर्भ अवस्था में एक स्वप्न देखा कि मुझ से एक प्रकाश निकला, जिस से शाम (देश) के भवन प्रकाशमान हो गये। (देखियेः ह़ाकिमः2600) इस को उन्हों ने सह़ीह़ कहा है। और इमान ज़हबी ने इस की पुष्टि की है।

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وَمَن يَرْغَبُ عَن مِّلَّةِ إِبْرَاهِيمَ إِلَّا مَن سَفِهَ نَفْسَهُ ۚ وَلَقَدِ اصْطَفَيْنَاهُ فِي الدُّنْيَا ۖ وَإِنَّهُ فِي الْآخِرَةِ لَمِنَ الصَّالِحِينَ ﴾ 130 ﴿

तथा कौन होगा, जो ईब्राहीम के धर्म से विमुख हो जाये, परन्तु वही जो स्वयं को मूर्ख बना ले? जबकि हमने उसे संसार में चुन[1] लिया तथा आख़िरत (परलोक) में उसकी गणना सदाचारियों में होगी। 1. अर्थात मार्गदर्शन देने तथा नबी बनाने के लिये निर्वाचित कर लिया।

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إِذْ قَالَ لَهُ رَبُّهُ أَسْلِمْ ۖ قَالَ أَسْلَمْتُ لِرَبِّ الْعَالَمِينَ ﴾ 131 ﴿

तथा (याद करो) जब उसके पालनहार ने उससे कहाः मेरा आज्ञाकारी हो जा। तो उसने तुरन्त कहाः मैं विश्व के पालनहार का आज्ञाकारी हो गया।

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وَوَصَّىٰ بِهَا إِبْرَاهِيمُ بَنِيهِ وَيَعْقُوبُ يَا بَنِيَّ إِنَّ اللَّـهَ اصْطَفَىٰ لَكُمُ الدِّينَ فَلَا تَمُوتُنَّ إِلَّا وَأَنتُم مُّسْلِمُونَ ﴾ 132 ﴿

तथा इब्राहीम ने अपने पुत्रों को तथा याक़ूब ने, इसी बात पर बल दिया कि हे मेरे पुत्रो! अल्लाह ने तुम्हारे लिए ये धर्म (इस्लाम) निर्वाचित कर दिया है। अतः मरते समय तक तुम इसी पर स्थिर रहना।

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أَمْ كُنتُمْ شُهَدَاءَ إِذْ حَضَرَ يَعْقُوبَ الْمَوْتُ إِذْ قَالَ لِبَنِيهِ مَا تَعْبُدُونَ مِن بَعْدِي قَالُوا نَعْبُدُ إِلَـٰهَكَ وَإِلَـٰهَ آبَائِكَ إِبْرَاهِيمَ وَإِسْمَاعِيلَ وَإِسْحَاقَ إِلَـٰهًا وَاحِدًا وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ ﴾ 133 ﴿

क्या तुम याक़ूब के मरने के समय उपस्थित थे; जब याक़ूब ने अपने पुत्रों से कहाः मेरी मृत्यु के पश्चात् तुम किसकी इबादत (वंदना) करोगे? उन्होंने कहाः हम तेरे तथा तेरे पिता इब्राहीम और इस्माईल तथा इस्ह़ाक़ के एकमात्र पूज्य की इबादत (वंदना) करेंगे और उसी के आज्ञाकारी रहेंगे।

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تِلْكَ أُمَّةٌ قَدْ خَلَتْ ۖ لَهَا مَا كَسَبَتْ وَلَكُم مَّا كَسَبْتُمْ ۖ وَلَا تُسْأَلُونَ عَمَّا كَانُوا يَعْمَلُونَ ﴾ 134 ﴿

ये एक समुदाय था, जो जा चुका। उन्होंने जो कर्म किये, वे उनके लिए हैं तथा जो तुमने किये, वे तुम्हारे लिए और उनके किये का प्रश्न तुमसे नहीं किया जायेगा।

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وَقَالُوا كُونُوا هُودًا أَوْ نَصَارَىٰ تَهْتَدُوا ۗ قُلْ بَلْ مِلَّةَ إِبْرَاهِيمَ حَنِيفًا ۖ وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِينَ ﴾ 135 ﴿

और वे कहते हैं कि यहूदी हो जाओ अथवा ईसाई हो जाओ, तुम्हें मार्गदर्शन मिल जायेगा। आप कह दें, नहीं! हम तो एकेश्वरवादी इब्राहीम के धर्म पर हैं और वह मिश्रणवादियों में से नहीं था।

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قُولُوا آمَنَّا بِاللَّـهِ وَمَا أُنزِلَ إِلَيْنَا وَمَا أُنزِلَ إِلَىٰ إِبْرَاهِيمَ وَإِسْمَاعِيلَ وَإِسْحَاقَ وَيَعْقُوبَ وَالْأَسْبَاطِ وَمَا أُوتِيَ مُوسَىٰ وَعِيسَىٰ وَمَا أُوتِيَ النَّبِيُّونَ مِن رَّبِّهِمْ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ أَحَدٍ مِّنْهُمْ وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ ﴾ 136 ﴿

(हे मुसलमानो!) तुम सब कहो कि हम अल्लाह पर ईमान लाये तथा उसपर जो (क़ुर्आन) हमारी ओर उतारा गया और उसपर जो इब्राहीम, इस्माईल, इस्ह़ाक़, याक़ूब तथा उनकी संतान की ओर उतारा गया और जो मूसा तथा ईसा को दिया गया तथा जो दूसरे नबियों को, उनके पालनहार की ओर से दिया गया। हम इनमें से किसी के बीच अन्तर नहीं करते और हम उसी के आज्ञाकारी हैं।

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فَإِنْ آمَنُوا بِمِثْلِ مَا آمَنتُم بِهِ فَقَدِ اهْتَدَوا ۖ وَّإِن تَوَلَّوْا فَإِنَّمَا هُمْ فِي شِقَاقٍ ۖ فَسَيَكْفِيكَهُمُ اللَّـهُ ۚ وَهُوَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ ﴾ 137 ﴿

तो यदि वे तुम्हारे ही समान ईमान ले आयें, तो वे मार्गदर्शन पा लेंगे और यदि विमुख हों, तो वे विरोध में लीन हैं। उनके विरुध्द तुम्हारे लिए अल्लाह बस है और वह सब सुनने वाला और जानने वाला है।

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صِبْغَةَ اللَّـهِ ۖ وَمَنْ أَحْسَنُ مِنَ اللَّـهِ صِبْغَةً ۖ وَنَحْنُ لَهُ عَابِدُونَ ﴾ 138 ﴿

तुम सब अल्लाह के रंग[1] (स्वभाविक धर्म) को ग्रहण कर लो और अल्लाह के रंग से अच्छा किसका रंग होगा? हम तो उसी की इबादत (वंदना) करते हैं। 1. इस में ईसाई धर्म की (बैप्टिज़म) की परम्परा का खण्डन है। ईसाईयों ने पीले रंग का जल बना रखा था। जब कोई ईसाई होता या उन के यहाँ कोई शिशु जन्म लेता तो उस में स्नान करा के ईसाई बनाते थे। अल्लाह के रंग से अभिप्राय एकेश्वरवाद पर आधारित स्वभाविक धर्म इस्लाम है। (तफ़्सीरे क़ुर्तुबी)

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قُلْ أَتُحَاجُّونَنَا فِي اللَّـهِ وَهُوَ رَبُّنَا وَرَبُّكُمْ وَلَنَا أَعْمَالُنَا وَلَكُمْ أَعْمَالُكُمْ وَنَحْنُ لَهُ مُخْلِصُونَ ﴾ 139 ﴿

(हे नबी!) कह दो कि क्या तुम हमसे अल्लाह के (एक होने के) विषय में झगड़ते हो, जबकि वही हमारा तथा तुम्हारा पालनहार है?[1] फिर हमारे लिए हमारा कर्म है और तुम्हारे लिए तुम्हारा कर्म है और हम तो बस उसी की इबादत (वंदना) करने वाले हैं। 1. फिर वंदनीय भी केवल वही है।

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أَمْ تَقُولُونَ إِنَّ إِبْرَاهِيمَ وَإِسْمَاعِيلَ وَإِسْحَاقَ وَيَعْقُوبَ وَالْأَسْبَاطَ كَانُوا هُودًا أَوْ نَصَارَىٰ ۗ قُلْ أَأَنتُمْ أَعْلَمُ أَمِ اللَّـهُ ۗ وَمَنْ أَظْلَمُ مِمَّن كَتَمَ شَهَادَةً عِندَهُ مِنَ اللَّـهِ ۗ وَمَا اللَّـهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُونَ ﴾ 140 ﴿

(हे अह्ले किताब!) क्या तुम कहते हो कि इब्राहीम, इस्माईल, इस्ह़ाक़, याक़ूब तथा उनकी संतान यहूदी या ईसाई थी? उनसे कह दो कि तुम अधिक जानते हो अथवा अल्लाह? और उससे बड़ा अत्याचारी कौन होगा, जिसके पास अल्लाह का साक्ष्य हो और उसे छुपा दे? और अल्लाह तुम्हारे करतूतों से अचेत तो नहीं है[1] 1. इस में यहूदियों तथा ईसाईयों के इस दावे का खण्डन किया गया है कि इब्राहीम अलैहिस्सलाम आदि नबी यहूदी अथवा ईसाई थे।

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تِلْكَ أُمَّةٌ قَدْ خَلَتْ ۖ لَهَا مَا كَسَبَتْ وَلَكُم مَّا كَسَبْتُمْ ۖ وَلَا تُسْأَلُونَ عَمَّا كَانُوا يَعْمَلُونَ ﴾ 141 ﴿

ये एक समुदाय था, जो जा चुका। उनके लिए उनका कर्म है तथा तुम्हारे लिए तुम्हारा कर्म है। तुमसे उनके कर्मों के बारे में प्रश्न नहीं किया जायेगा[1] 1. अर्थात तुहारे पूर्वजों के सदाचारों से तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा, और न उन के पापों के विषय में तुम से प्रश्न किया जायेगा। अतः अपने कर्मों पर ध्यान दो।

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سَيَقُولُ السُّفَهَاءُ مِنَ النَّاسِ مَا وَلَّاهُمْ عَن قِبْلَتِهِمُ الَّتِي كَانُوا عَلَيْهَا ۚ قُل لِّلَّـهِ الْمَشْرِقُ وَالْمَغْرِبُ ۚ يَهْدِي مَن يَشَاءُ إِلَىٰ صِرَاطٍ مُّسْتَقِيمٍ ﴾ 142 ﴿

शीघ्र ही मूर्ख लोग कहेंगे कि उन्हें जिस क़िबले[1] पर वे थे, उससे किस बात ने फेर दिया? (हे नबी!) उन्हें बता दो कि पूर्व और पश्चिम सब अल्लाह के हैं। वह जिसे चाहे, सीधी राह पर लगा देता है। 1. नमाज़ में मुख करने की दिशा।

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وَكَذَٰلِكَ جَعَلْنَاكُمْ أُمَّةً وَسَطًا لِّتَكُونُوا شُهَدَاءَ عَلَى النَّاسِ وَيَكُونَ الرَّسُولُ عَلَيْكُمْ شَهِيدًا ۗ وَمَا جَعَلْنَا الْقِبْلَةَ الَّتِي كُنتَ عَلَيْهَا إِلَّا لِنَعْلَمَ مَن يَتَّبِعُ الرَّسُولَ مِمَّن يَنقَلِبُ عَلَىٰ عَقِبَيْهِ ۚ وَإِن كَانَتْ لَكَبِيرَةً إِلَّا عَلَى الَّذِينَ هَدَى اللَّـهُ ۗ وَمَا كَانَ اللَّـهُ لِيُضِيعَ إِيمَانَكُمْ ۚ إِنَّ اللَّـهَ بِالنَّاسِ لَرَءُوفٌ رَّحِيمٌ ﴾ 143 ﴿

और इसी प्रकार हमने तुम्हें मध्यवर्ती उम्मत (समुदाय) बना दिया; ताकि तुम, सबपर साक्षी[1] बनो और रसूल तुमपर साक्षी हों और हमने वह क़िबला जिसपर तुम थे, इसीलिए बनाया था, ताकि ये बात खोल दें कि कौन (अपने धर्म से) फिर जाता है और ये बात बड़ी भारी थी, परन्तु उनके लिए नहीं, जिन्हें अल्लाह ने मार्गदर्शन दे दिया है और अल्लाह ऐसा नहीं कि तुम्हारे ईमान (अर्थात बैतुल मक़्दिस की दिशा में नमाज़ पढ़ने) को व्यर्थ कर दे[2], वास्तव में अल्लाह लोगों के लिए अत्यंत करुणामय तथा दयावान् है। 1. साक्षी होने का अर्थ जैसा कि ह़दीस में आया है यह है कि प्रलय के दिन नूह़ अलैहिस्सलाम को बुलाया जायेगा और उन से प्रश्न किया जायेगा कि क्या तुमने अपनी जाति को संदेश पहुँचाया? वह कहेंगेः हाँ। फिर उन की जाति से प्रश्न किया जायेगा, तो वे कहेंगे कि हमारे पास सावधान करने के लिये कोई नहीं आया। तो अल्लाह तआला नूह़ अलैहिस्सलाम से कहेगा कि तुम्हारा साक्षी कौन है? वह कहेंगेः मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और उन की उम्मत। फिर आप की उम्मत साक्ष्य देगी कि नूह़ ने अल्लाह का संदेश पहुँचाया है। और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तुम पर अर्थात मुसलमानों पर साक्षी होंगे। (सह़ीह़ बुख़ारीः4486) 2.अर्थात उस का फल परदान करेगा।

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قَدْ نَرَىٰ تَقَلُّبَ وَجْهِكَ فِي السَّمَاءِ ۖ فَلَنُوَلِّيَنَّكَ قِبْلَةً تَرْضَاهَا ۚ فَوَلِّ وَجْهَكَ شَطْرَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۚ وَحَيْثُ مَا كُنتُمْ فَوَلُّوا وُجُوهَكُمْ شَطْرَهُ ۗ وَإِنَّ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ لَيَعْلَمُونَ أَنَّهُ الْحَقُّ مِن رَّبِّهِمْ ۗ وَمَا اللَّـهُ بِغَافِلٍ عَمَّا يَعْمَلُونَ ﴾ 144 ﴿

(हे नबी!) हम आपके मुख को बार-बार आकाश की ओर फिरते देख रहे हैं। तो हम अवश्य आपको उस क़िबले (काबा) की ओर फेर देंगे, जिससे आप प्रसन्न हो जायें। तो (अब) अपने मुख मस्जिदे ह़राम की ओर फेर लो[1] तथा (हे मुसलमानों!) तुम भी जहाँ रहो, उसी की ओर मुख किया करो और निश्चय अह्ले किताब जानते हैं कि ये उनके पालनहार की ओर से सत्य है[2] और अल्लाह उनके कर्मों से असूचित नहीं है। 1. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मक्का से मदीना परस्थान करने के पश्चात्, बैतुल मक़्दिस की ओर मुख कर के नमाज़ पढ़ते रहे। फिर आप को काबा की ओर मुख कर के नमाज़ पढ़ने का आदेश दिया गया। 2. क्योंकि अन्तिम नबी के गुणों में उन की पुस्तकों में बताया गया है कि वह क़िबला बदल देंगे।

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وَلَئِنْ أَتَيْتَ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ بِكُلِّ آيَةٍ مَّا تَبِعُوا قِبْلَتَكَ ۚ وَمَا أَنتَ بِتَابِعٍ قِبْلَتَهُمْ ۚ وَمَا بَعْضُهُم بِتَابِعٍ قِبْلَةَ بَعْضٍ ۚ وَلَئِنِ اتَّبَعْتَ أَهْوَاءَهُم مِّن بَعْدِ مَا جَاءَكَ مِنَ الْعِلْمِ ۙ إِنَّكَ إِذًا لَّمِنَ الظَّالِمِينَ ﴾ 145 ﴿

और यदि आप अह्ले किताब के पास प्रत्येक प्रकार की निशानी ला दें, तब भी वे आपके क़िबले का अनुसरण नहीं करेंगे और न आप उनके क़िबले का अनुसरण करेंगे और न उनमें से कोई दूसरे के क़िबले का अनुसरण करेगा और यदि ज्ञान आने के पश्चात् आपने उनकी आकांक्षाओं का अनुसरण किया, तो आप अत्याचारियों में से हो जायेंगे।

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الَّذِينَ آتَيْنَاهُمُ الْكِتَابَ يَعْرِفُونَهُ كَمَا يَعْرِفُونَ أَبْنَاءَهُمْ ۖ وَإِنَّ فَرِيقًا مِّنْهُمْ لَيَكْتُمُونَ الْحَقَّ وَهُمْ يَعْلَمُونَ ﴾ 146 ﴿

जिन्हें हमने पुस्तक दी है, वे आपको ऐसे ही[1] पहचानते हैं, जैसे अपने पुत्रों को पहचानते हैं और उनका एक समुदाय जानते हुए भी सत्य को छुपा रहा है। 1. आप के उन गुणों के कारण जो उन की पुस्तकों में अंतिम नबी के विषय में वर्णित किये गये हैं।

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الْحَقُّ مِن رَّبِّكَ ۖ فَلَا تَكُونَنَّ مِنَ الْمُمْتَرِينَ ﴾ 147 ﴿

सत्य वही है, जो आपके पालनहार की ओर से उतारा गया। अतः, आप कदापि संदेह करने वालों में न हों।

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وَلِكُلٍّ وِجْهَةٌ هُوَ مُوَلِّيهَا ۖ فَاسْتَبِقُوا الْخَيْرَاتِ ۚ أَيْنَ مَا تَكُونُوا يَأْتِ بِكُمُ اللَّـهُ جَمِيعًا ۚ إِنَّ اللَّـهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ ﴾ 148 ﴿

प्रत्येक के लिए एक दिशा है, जिसकी ओर वह मुख कर हा है। अतः तुम भलाईयों में अग्रसर बनो। तुम जहाँ भी रहोगे, अल्लाह तुम सभी को (प्रलय के दिन) ले आयेगा। निश्चय अल्लाह जो चाहे, कर सकता है।

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وَمِنْ حَيْثُ خَرَجْتَ فَوَلِّ وَجْهَكَ شَطْرَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۖ وَإِنَّهُ لَلْحَقُّ مِن رَّبِّكَ ۗ وَمَا اللَّـهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُونَ ﴾ 149 ﴿

और आप जहाँ भी निकलें, अपना मुख मस्जिदे ह़राम की ओर फेरें। निःसंदेह ये आपके पालनहार की ओर से सत्य (आदेश) है और अल्लाह तुम्हारे कर्मों से असूचित नहीं है।

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وَمِنْ حَيْثُ خَرَجْتَ فَوَلِّ وَجْهَكَ شَطْرَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۚ وَحَيْثُ مَا كُنتُمْ فَوَلُّوا وُجُوهَكُمْ شَطْرَهُ لِئَلَّا يَكُونَ لِلنَّاسِ عَلَيْكُمْ حُجَّةٌ إِلَّا الَّذِينَ ظَلَمُوا مِنْهُمْ فَلَا تَخْشَوْهُمْ وَاخْشَوْنِي وَلِأُتِمَّ نِعْمَتِي عَلَيْكُمْ وَلَعَلَّكُمْ تَهْتَدُونَ ﴾ 150 ﴿

और आप जहाँ से भी निकलें, अपना मुख मस्जिदे ह़राम की ओर फेरें और (हे मुसलमानों!) तुम जहाँ भी रहो, अपने मुखों को उसी की ओर फेरो; ताकि उन्हें तुम्हारे विरुध्द किसी विवाद का अवसर न मिले, मगर उन लोगों के अतिरिक्त, जो अत्याचार करें। अतः उनसे न डरो। मुझी से डरो और ताकि मैं तुमपर अपना पुरस्कार (धर्म विधान) पूरा कर दूँ और ताकि तुम सीधी डगर पाओ।

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كَمَا أَرْسَلْنَا فِيكُمْ رَسُولًا مِّنكُمْ يَتْلُو عَلَيْكُمْ آيَاتِنَا وَيُزَكِّيكُمْ وَيُعَلِّمُكُمُ الْكِتَابَ وَالْحِكْمَةَ وَيُعَلِّمُكُم مَّا لَمْ تَكُونُوا تَعْلَمُونَ ﴾ 151 ﴿

जिस प्रकार हमने तुम्हारे लिए तुम्हीं में से एक रसूल भेजा, जो तुम्हें हमारी आयतें सुनाता तथा तुम्हें शुध्द आज्ञाकारी बनाता है और तुम्हें पुस्तक (कुर्आन) तथा ह़िक्मत (सुन्नत) सिखाता है तथा तुम्हें वो बातें सिखाता है, जो तुम नहीं जानते थे।

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فَاذْكُرُونِي أَذْكُرْكُمْ وَاشْكُرُوا لِي وَلَا تَكْفُرُونِ ﴾ 152 ﴿

अतः, मुझे याद करो[1], मैं तुम्हें याद करूँगा[2] और मेरे आभारी रहो और मेरे कृतघ्न न बनो। 1. अर्थात मेरी आज्ञा का अनुपालन और मेरी अराधना करो। 2. अर्थात अपनी क्षमा और पुरस्कार द्वारा।

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يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اسْتَعِينُوا بِالصَّبْرِ وَالصَّلَاةِ ۚ إِنَّ اللَّـهَ مَعَ الصَّابِرِينَ ﴾ 153 ﴿

हे ईमान वालो! धैर्य तथा नमाज़ का सहारा लो, निश्चय अल्लाह धैर्यवानों के साथ है।

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وَلَا تَقُولُوا لِمَن يُقْتَلُ فِي سَبِيلِ اللَّـهِ أَمْوَاتٌ ۚ بَلْ أَحْيَاءٌ وَلَـٰكِن لَّا تَشْعُرُونَ ﴾ 154 ﴿

तथा जो अल्लाह की राह में मारे जायें, उन्हें मुर्दा न कहो, बल्कि वे जीवित हैं, परन्तु तुम (उनके जीवन की दशा) नहीं समझते।

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وَلَنَبْلُوَنَّكُم بِشَيْءٍ مِّنَ الْخَوْفِ وَالْجُوعِ وَنَقْصٍ مِّنَ الْأَمْوَالِ وَالْأَنفُسِ وَالثَّمَرَاتِ ۗ وَبَشِّرِ الصَّابِرِينَ ﴾ 155 ﴿

तथा हम अवश्य कुछ भय, भूक तथा धनों और प्राणों तथा खाद्य पदार्थों की कमी से तुम्हारी परीक्षा करेंगे और धैर्यवानों को शुभ समाचार सुना दो।

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الَّذِينَ إِذَا أَصَابَتْهُم مُّصِيبَةٌ قَالُوا إِنَّا لِلَّـهِ وَإِنَّا إِلَيْهِ رَاجِعُونَ ﴾ 156 ﴿

जिनपर कोई आपदा आ पड़े, तो कहते हैं कि हम अल्लाह के हैं और हमें उसी के पास फिर कर जाना है।

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أُولَـٰئِكَ عَلَيْهِمْ صَلَوَاتٌ مِّن رَّبِّهِمْ وَرَحْمَةٌ ۖ وَأُولَـٰئِكَ هُمُ الْمُهْتَدُونَ ﴾ 157 ﴿

इन्हीं पर इनके पालनहार की कृपायें तथा दया हैं और यही सीधी राह पाने वाले हैं।

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إِنَّ الصَّفَا وَالْمَرْوَةَ مِن شَعَائِرِ اللَّـهِ ۖ فَمَنْ حَجَّ الْبَيْتَ أَوِ اعْتَمَرَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْهِ أَن يَطَّوَّفَ بِهِمَا ۚ وَمَن تَطَوَّعَ خَيْرًا فَإِنَّ اللَّـهَ شَاكِرٌ عَلِيمٌ ﴾ 158 ﴿

बेशक सफ़ा तथा मरवा पहाड़ी[1] अल्लाह (के धर्म) की निशानियों में से हैं। अतः जो अल्लाह के घर का ह़ज या उमरह करे, तो उसपर कोई दोष नहीं कि उन दोनों का फेरा लगाये और जो स्वेच्छा से भलाई करे, तो निःसंदेह अल्लाह उसका गुणग्राही अति ज्ञानी है। 1. यह दो पर्वत हैं जो काबा की पूर्वी दिशा में स्थित हैं। जिनके बीच सात फेरे लगाना ह़ज्ज तथा उमरे का अनिवार्य कर्म है। जिस का आरंभ सफ़ा पर्वत से करना सुन्नत है।

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إِنَّ الَّذِينَ يَكْتُمُونَ مَا أَنزَلْنَا مِنَ الْبَيِّنَاتِ وَالْهُدَىٰ مِن بَعْدِ مَا بَيَّنَّاهُ لِلنَّاسِ فِي الْكِتَابِ ۙ أُولَـٰئِكَ يَلْعَنُهُمُ اللَّـهُ وَيَلْعَنُهُمُ اللَّاعِنُونَ ﴾ 159 ﴿

तथा जो हमारी उतारी हुई आयतों (अन्तिम नबी के गुणों) तथा मार्गदर्शन को, इसके पश्चात् कि हमने पुस्तक[1] में उसे लोगों के लिए उजागर कर दिया है, छुपाते हैं, उन्हीं को अल्लाह धिक्कारता है[2] तथा सब धिक्कारने वाले धिक्कारते हैं। 1. अर्थात तौरात, इंजील आदि पुस्तकों में। 2. अल्लाह के धिक्कारने का अर्थ अपनी दया से दूर करना है।

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إِلَّا الَّذِينَ تَابُوا وَأَصْلَحُوا وَبَيَّنُوا فَأُولَـٰئِكَ أَتُوبُ عَلَيْهِمْ ۚ وَأَنَا التَّوَّابُ الرَّحِيمُ ﴾ 160 ﴿

जिन लोगों ने तौबा (क्षमा याचना) कर ली और सुधार कर लिया और उजागर कर दिया, तो मैं उनकी तौबा स्वीकार कर लूँगा तथा मैं अत्यंत क्षमाशील, दयावान् हूँ।

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إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا وَمَاتُوا وَهُمْ كُفَّارٌ أُولَـٰئِكَ عَلَيْهِمْ لَعْنَةُ اللَّـهِ وَالْمَلَائِكَةِ وَالنَّاسِ أَجْمَعِينَ ﴾ 161 ﴿

वास्तव में, जो काफ़िर (अविश्वासी) हो गये और इसी दशा में मरे, तो वही हैं, जिनपर अल्लाह तथा फ़रिश्तों और सब लोगों की धिक्कार है।

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خَالِدِينَ فِيهَا ۖ لَا يُخَفَّفُ عَنْهُمُ الْعَذَابُ وَلَا هُمْ يُنظَرُونَ ﴾ 162 ﴿

वह इस (धिक्कार) में सदावासी होंगे, उनसे यातना मंद नहीं की जायेगी और न उनको अवकाश दिया जायेगा।

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وَإِلَـٰهُكُمْ إِلَـٰهٌ وَاحِدٌ ۖ لَّا إِلَـٰهَ إِلَّا هُوَ الرَّحْمَـٰنُ الرَّحِيمُ ﴾ 163 ﴿

और तुम्हारा पूज्य एक ही[1] पूज्य है, उस अत्यंत दयालु, दयावान के सिवा कोई पूज्य नहीं। 1. अर्थात जो अपने अस्तित्व तथा नामों और गुणों तथा कर्मों में अकेला है।

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إِنَّ فِي خَلْقِ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَاخْتِلَافِ اللَّيْلِ وَالنَّهَارِ وَالْفُلْكِ الَّتِي تَجْرِي فِي الْبَحْرِ بِمَا يَنفَعُ النَّاسَ وَمَا أَنزَلَ اللَّـهُ مِنَ السَّمَاءِ مِن مَّاءٍ فَأَحْيَا بِهِ الْأَرْضَ بَعْدَ مَوْتِهَا وَبَثَّ فِيهَا مِن كُلِّ دَابَّةٍ وَتَصْرِيفِ الرِّيَاحِ وَالسَّحَابِ الْمُسَخَّرِ بَيْنَ السَّمَاءِ وَالْأَرْضِ لَآيَاتٍ لِّقَوْمٍ يَعْقِلُونَ ﴾ 164 ﴿

बेशक आकाशों तथा धरती की रचना में, रात तथा दिन के एक-दूसरे के पीछे निरन्तर आने-जाने में, उन नावों में, जो मानव के लाभ के साधनों को लिए, सागरों में चलती-फिरती हैं और वर्षा के उस पानी में, जिसे अल्लाह आकाश से बरसाता है, फिर धरती को उसके द्वारा, उसके मरण् (सूखने) के पश्चात् जीवित करता है और उसमें प्रत्येक जीवों को फैलाता है तथा वायुओं को फेरने में और उन बादलों में, जो आकाश और धरती के बीच उसकी आज्ञा[1] के अधीन रहते हैं, (इन सब चीज़ों में) अगणित निशानियाँ (लक्ष्ण) हैं, उन लोगों के लिए, जो समझ-बूझ रखते हैं। 1. अर्थात इस विश्व की पूरी व्यवस्था इस बात का तर्क और प्रमाण है कि इस का व्यवस्थापक अल्लाह ही एक मात्र पूज्य तथा अपने गुण कर्मों में यक्ता है। अतः पूजा-अर्चना भी उसी एक की होनी चाहिये। यही समझ-बूझ का निर्णय है।

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وَمِنَ النَّاسِ مَن يَتَّخِذُ مِن دُونِ اللَّـهِ أَندَادًا يُحِبُّونَهُمْ كَحُبِّ اللَّـهِ ۖ وَالَّذِينَ آمَنُوا أَشَدُّ حُبًّا لِّلَّـهِ ۗ وَلَوْ يَرَى الَّذِينَ ظَلَمُوا إِذْ يَرَوْنَ الْعَذَابَ أَنَّ الْقُوَّةَ لِلَّـهِ جَمِيعًا وَأَنَّ اللَّـهَ شَدِيدُ الْعَذَابِ ﴾ 165 ﴿

कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो अल्लाह के सिवा दूसरों को उसका साझी बनाते हैं और उनसे, अल्लाह से प्रेम करने जैसा प्रेम करते हैं तथा जो ईमान लाये, वे अल्लाह से सर्वाधिक प्रेम करते हैं और क्या ही अच्छा होता, यदि ये अत्याचारी यातना देखने के समय[1] जो बात जानेंगे, इसी समय[2] जानते कि सब शक्ति तथा अधिकार अल्लाह ही को है और अल्लाह का दण्ड भी बहुत कड़ा है, (तो अल्लाह के सिवा दूसरे की पूजा अराधना नहीं करते।) 1. अर्थात प्रलय के दिन। 2. अर्थात संसार ही में।

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إِذْ تَبَرَّأَ الَّذِينَ اتُّبِعُوا مِنَ الَّذِينَ اتَّبَعُوا وَرَأَوُا الْعَذَابَ وَتَقَطَّعَتْ بِهِمُ الْأَسْبَابُ ﴾ 166 ﴿

जब ये दशा[1] होगी कि जिनका अनुसरण किया गया[2], वे अपने अनुयायियों से विरक्त हो जायेंगे और उनके आपस के सभी सम्बंध[3] टूट जायेंगे। 1. अर्थात प्रलय के दिन। 2. अर्थात संसार में जिन प्रमुखों का अनुसरण किया गया। 3. अर्थात सामीप्य, अनुसरण तथा धर्म आदि के।

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وَقَالَ الَّذِينَ اتَّبَعُوا لَوْ أَنَّ لَنَا كَرَّةً فَنَتَبَرَّأَ مِنْهُمْ كَمَا تَبَرَّءُوا مِنَّا ۗ كَذَٰلِكَ يُرِيهِمُ اللَّـهُ أَعْمَالَهُمْ حَسَرَاتٍ عَلَيْهِمْ ۖ وَمَا هُم بِخَارِجِينَ مِنَ النَّارِ ﴾ 167 ﴿

तथा जो अनुयायी होंगे, वे ये कामना करेंगे कि एक बार और हम संसार में जाते, तो इनसे ऐसे ही विरक्त हो जाते, जैसे ये हमसे विरक्त हो गये हैं! ऐसे ही अल्लाह उनके कर्मों को उनके लिए संताप बनाकर दिखाएगा और वे अग्नि से निकल नहीं सकेंगे।

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يَا أَيُّهَا النَّاسُ كُلُوا مِمَّا فِي الْأَرْضِ حَلَالًا طَيِّبًا وَلَا تَتَّبِعُوا خُطُوَاتِ الشَّيْطَانِ ۚ إِنَّهُ لَكُمْ عَدُوٌّ مُّبِينٌ ﴾ 168 ﴿

हे लोगो! धरती में जो ह़लाल (वैध) स्वच्छ चीज़ें हैं, उन्हें खाओ और शैतान की बताई राहों पर न चलो[1], वह तुम्हारा खुला शत्रु है। 1. अर्थात उस की बताई बातों को न मानो।

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إِنَّمَا يَأْمُرُكُم بِالسُّوءِ وَالْفَحْشَاءِ وَأَن تَقُولُوا عَلَى اللَّـهِ مَا لَا تَعْلَمُونَ ﴾ 169 ﴿

वह तुम्हें बुराई तथा निर्लज्जा का आदेश देता है और ये कि अल्लाह पर उस चीज़ का आरोप[1] धरो, जिसे तुम नहीं जानते हो। 1. अर्थात वैध को अवैध करने आदि का।

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وَإِذَا قِيلَ لَهُمُ اتَّبِعُوا مَا أَنزَلَ اللَّـهُ قَالُوا بَلْ نَتَّبِعُ مَا أَلْفَيْنَا عَلَيْهِ آبَاءَنَا ۗ أَوَلَوْ كَانَ آبَاؤُهُمْ لَا يَعْقِلُونَ شَيْئًا وَلَا يَهْتَدُونَ ﴾ 170 ﴿

और जब उनसे[1] कहा जाता है कि जो (क़ुर्आन) अल्लाह ने उतारा है, उसपर चलो, तो कहते हैं कि हम तो उसी रीति पर चलेंगे, जिसपर अपने पूर्वजों को पाया है। क्या यदि उनके पूर्वज कुछ न समझते रहे तथा कुपथ पर रहे हों, (तब भी वे उन्हीं का अनुसरण करते रहेंगे?) 1. अर्थात अह्ले किताब तथा मिश्रणवादियों से।

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وَمَثَلُ الَّذِينَ كَفَرُوا كَمَثَلِ الَّذِي يَنْعِقُ بِمَا لَا يَسْمَعُ إِلَّا دُعَاءً وَنِدَاءً ۚ صُمٌّ بُكْمٌ عُمْيٌ فَهُمْ لَا يَعْقِلُونَ ﴾ 171 ﴿

उनकी दशा जो काफ़िर हो गये, उसके समान है, जो उसे (अर्थात पशु को) पुकारता है, जो हाँक-पुकार के सिवा कुछ[1] नहीं सुनता, ये (काफ़िर) बहरे, गोंगे तथा अंधे हैं। इसलिए कुछ नहीं समझते। 1. अर्थात ध्वनि सुनता है परन्तु बात का अर्ध नहीं समझता।

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يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُلُوا مِن طَيِّبَاتِ مَا رَزَقْنَاكُمْ وَاشْكُرُوا لِلَّـهِ إِن كُنتُمْ إِيَّاهُ تَعْبُدُونَ ﴾ 172 ﴿

हे ईमान वालो! उन स्वच्छ चीज़ों में से खाओ, जो हमने तुम्हें दी हैं तथा अल्लाह की कृतज्ञता का वर्णन करो, यदि तुम केवल उसी की इबादत (वंदना) करते हो।

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إِنَّمَا حَرَّمَ عَلَيْكُمُ الْمَيْتَةَ وَالدَّمَ وَلَحْمَ الْخِنزِيرِ وَمَا أُهِلَّ بِهِ لِغَيْرِ اللَّـهِ ۖ فَمَنِ اضْطُرَّ غَيْرَ بَاغٍ وَلَا عَادٍ فَلَا إِثْمَ عَلَيْهِ ۚ إِنَّ اللَّـهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 173 ﴿

(अल्लाह) ने तुमपर मुर्दार[1] तथा (बहता) रक्त और सुअर का माँस तथा जिसपर अल्लाह के सिवा किसी और का नाम पुकारा गया हो, उन्हें ह़राम (निषेध) कर दिया है। फिर भी जो विवश हो जाये, जबकि वह नियम न तोड़ रहा हो और आवश्यक्ता की सीमा का उल्लंघन न कर रहा हो, तो उसपर कोई दोष नहीं। अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।[1] 1. जिसे धर्म विधान के अनुसार वध न किया गया हो, अधिक विवरण सूरह माइदह में आ रहा है। 2.अर्थात ऐसा विवश व्यक्ति जो ह़लाल जीविका न पा सके उस के लिये निषेध नहीं कि वह अपनी आवश्यक्तानुसार ह़राम चीज़ें खा ले। परन्तु उस पर अनिवार्य है कि वह उस की सीमा का उल्लंघन न करे और जहाँ उसे ह़लाल जीविका मिल जाये वहाँ ह़राम खाने से रुक जाये।

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إِنَّ الَّذِينَ يَكْتُمُونَ مَا أَنزَلَ اللَّـهُ مِنَ الْكِتَابِ وَيَشْتَرُونَ بِهِ ثَمَنًا قَلِيلًا ۙ أُولَـٰئِكَ مَا يَأْكُلُونَ فِي بُطُونِهِمْ إِلَّا النَّارَ وَلَا يُكَلِّمُهُمُ اللَّـهُ يَوْمَ الْقِيَامَةِ وَلَا يُزَكِّيهِمْ وَلَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ ﴾ 174 ﴿

वास्तव में, जो लोग अल्लाह की उतारी पुस्तक (की बातों) को छुपा रहे हैं और उनके बदले तनिक मूल्य प्राप्त कर लेते हैं, वे अपने उदर में केवल अग्नि भर रहे हैं तथा अल्लाह उनसे बात नहीं करेगा और न उन्हें विशुध्द करेगा और उन्हीं के लिए दुःखदायी यातना है।

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أُولَـٰئِكَ الَّذِينَ اشْتَرَوُا الضَّلَالَةَ بِالْهُدَىٰ وَالْعَذَابَ بِالْمَغْفِرَةِ ۚ فَمَا أَصْبَرَهُمْ عَلَى النَّارِ ﴾ 175 ﴿

यही वे लोग हैं, जिन्होंने सुपथ (मार्गदर्शन) के बदले कुपथ खरीद लिया है तथा क्षमा के बदले यातना। तो नरक की अग्नि पर वे कितने सहनशील हैं?

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ذَٰلِكَ بِأَنَّ اللَّـهَ نَزَّلَ الْكِتَابَ بِالْحَقِّ ۗ وَإِنَّ الَّذِينَ اخْتَلَفُوا فِي الْكِتَابِ لَفِي شِقَاقٍ بَعِيدٍ ﴾ 176 ﴿

इस यातना के अधिकारी वे इसलिए हुए कि अल्लाह ने पुस्तक सत्य के साथ उतारी और जो पुस्तक में विभेद कर बैठे, वे वास्तव में, विरोध में बहुत दुर निकल गये।

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لَّيْسَ الْبِرَّ أَن تُوَلُّوا وُجُوهَكُمْ قِبَلَ الْمَشْرِقِ وَالْمَغْرِبِ وَلَـٰكِنَّ الْبِرَّ مَنْ آمَنَ بِاللَّـهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ وَالْمَلَائِكَةِ وَالْكِتَابِ وَالنَّبِيِّينَ وَآتَى الْمَالَ عَلَىٰ حُبِّهِ ذَوِي الْقُرْبَىٰ وَالْيَتَامَىٰ وَالْمَسَاكِينَ وَابْنَ السَّبِيلِ وَالسَّائِلِينَ وَفِي الرِّقَابِ وَأَقَامَ الصَّلَاةَ وَآتَى الزَّكَاةَ وَالْمُوفُونَ بِعَهْدِهِمْ إِذَا عَاهَدُوا ۖ وَالصَّابِرِينَ فِي الْبَأْسَاءِ وَالضَّرَّاءِ وَحِينَ الْبَأْسِ ۗ أُولَـٰئِكَ الَّذِينَ صَدَقُوا ۖ وَأُولَـٰئِكَ هُمُ الْمُتَّقُونَ ﴾ 177 ﴿

भलाई ये नहीं है कि तुम अपना मुख पूर्व अथवा पश्चिम की ओर फेर लो! भला कर्म तो उसका है, जो अल्लाह और अन्तिम दिन (प्रलय) पर ईमान लाया तथा फ़रिश्तों, सब पुस्तकों, नबियों पर (भी ईमान लाया), धन का मोह रखते हुए, समीपवर्तियों, अनाथों, निर्धनों, यात्रियों तथा याचकों (फकीरों) को और दास मुक्ति के लिए दिया, नमाज़ की स्थापना की, ज़कात दी, अपने वचन को, जब भी वचन दिया, पूरा करते रहे एवं निर्धनता और रोग तथा युध्द की स्थिति में धैर्यवान रहे। यही लोग सच्चे हैं तथा यही (अल्लाह से) डरते[1] हैं। 1. इस आयत का भावार्थ यह है कि नमाज़ में क़िब्ले की ओर मुख करना अनिवार्य है, फिर भी सत्धर्म इतना ही नहीं कि धर्म की किसी एक बात को अपना लिया जाये। सत्धर्म तो सत्य आस्था, सत्कर्म और पूरे जीवन को अल्लाह की आज्ञा के अधीन कर देने का लाम है।

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يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُتِبَ عَلَيْكُمُ الْقِصَاصُ فِي الْقَتْلَى ۖ الْحُرُّ بِالْحُرِّ وَالْعَبْدُ بِالْعَبْدِ وَالْأُنثَىٰ بِالْأُنثَىٰ ۚ فَمَنْ عُفِيَ لَهُ مِنْ أَخِيهِ شَيْءٌ فَاتِّبَاعٌ بِالْمَعْرُوفِ وَأَدَاءٌ إِلَيْهِ بِإِحْسَانٍ ۗ ذَٰلِكَ تَخْفِيفٌ مِّن رَّبِّكُمْ وَرَحْمَةٌ ۗ فَمَنِ اعْتَدَىٰ بَعْدَ ذَٰلِكَ فَلَهُ عَذَابٌ أَلِيمٌ ﴾ 178 ﴿

हे ईमान वालो! तुमपर निहत व्यक्तियों के बारे में क़िसास (बराबरी का बदला) अनिवार्य[1] कर दिया गया है। स्वतंत्र का बदला स्वतंत्र से लिया जायेगा, दास का दास से और नारी का नारी से। जिस अपराधी के लिए उसके भाई की ओर से कुछ क्षमा कर[2] दिया जाये, तो उसे सामान्य नियम का अनुसरण (अनुपालन) करना चाहिये। निहत व्यक्ति के वारिस को भलाई के साथ दियत (अर्थदण्ड) चुका देना चाहिये। ये तुम्हारे पालनहार की ओर से सुविधा तथा दया है। इसपर भी जो अत्याचार[3] करे, तो उसके लिए दुःखदायी यातना है। 1. अर्थात यह नहीं हो सकता कि निहत की प्रधानता अथवा उच्च वंश का होने के कारण कई व्यक्ति मार दिये जायें, जैसा कि इस्लाम से पूर्व जाहिलिय्यत की रीति थी कि एक के बदले कई को ही नहीं, यदि निर्बल क़बीला हो तो, पूरे क़बीले ही को मार दिया जाता था। इस्लाम ने यह नियम बना दिया कि स्वतंत्र तथा दास और नर नारी सब मानवता में बराबर हैं। अतः बदले में केवल उसी को मारा जाये जो अपराधी है। वह स्वतंत्र हो या दास, नर हो या नारी। (संक्षिप्त, इब्ने कसीर) 2. क्षमा दो प्रकार से हो सकता हैः एक तो यह कि निहत के लोग अपराधी को क्षमा कर दें। दूसरा यह कि क़िसास को क्षमा कर के दियत (अर्थदण्ड) लेना स्वीकार कर लें। इसी स्थिति में कहा गया है कि नियमानुसार दियत (अर्थदण्ड) चुका दे। 3. अर्थात क्षमा कर देने या दियत लेने के पश्चात् भी अपराधी को मार डाले तो उसे क़िसास में हत किया जायेगा।

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وَلَكُمْ فِي الْقِصَاصِ حَيَاةٌ يَا أُولِي الْأَلْبَابِ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ ﴾ 179 ﴿

और हे समझ वालो! तुम्हारे लिए क़िसास (के नियम में) जीवन है, ताकि तुम रक्तपात से बचो।[1] 1. क्योंकि इस नियम के कारण कोई किसी को हत करने का साहस नहीं करेगा। इस लिये इस के कारण समाज शांतिमय हो जायेगा। अर्थात एक क़िसास से लोगों के जीवन की रक्षा होगी। जैसा कि उन देशों में जहाँ क़िसास का नियम है देखा जा सकता है। क़ुर्आन ओर सेकेत करते हुये यह कहता है कि क़िसास नियम के अन्दर वास्तव में जीवन है।

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كُتِبَ عَلَيْكُمْ إِذَا حَضَرَ أَحَدَكُمُ الْمَوْتُ إِن تَرَكَ خَيْرًا الْوَصِيَّةُ لِلْوَالِدَيْنِ وَالْأَقْرَبِينَ بِالْمَعْرُوفِ ۖ حَقًّا عَلَى الْمُتَّقِينَ ﴾ 180 ﴿

और जब तुममें से किसी के निधन का समय हो और वह धन छोड़ रहा हो, तो उसपर माता-पिता और समीपवर्तियों के लिए साधारण नियमानुसार वसिय्यत (उत्तरदान) करना अनिवार्य कर दिया गया है। ये आज्ञाकारियों के लिए सुनिश्चित[1] है। 1. यह वसिय्यत (मीरास) की आयत उतरने से पहले अनिवार्य थी, जिसे (मीरास) की आयत से निरस्त कर दिया गया। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का कथन है कि अल्लाह ने प्रतयेक अधिकारी को उस का अधिकार दे दिया है, अतः अब वारिस के लिये कोई वसिय्यत नहीं है। फिर जो वारिस न हो तो उसे भी तिहाई धन से अधिक की वसिय्यत उचित नहीं है। (सह़ीह़ बुख़ारीः4577, सुनन अबू दावूदः2870, इब्ने माजाः2210)

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فَمَن بَدَّلَهُ بَعْدَ مَا سَمِعَهُ فَإِنَّمَا إِثْمُهُ عَلَى الَّذِينَ يُبَدِّلُونَهُ ۚ إِنَّ اللَّـهَ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ﴾ 181 ﴿

फिर जिसने वसिय्यत सुनने के पश्चात उसे बदल दिया, तो उसका पाप उनपर है, जो उसे बदलेंगे और अल्लाह सब कुछ सुनता-जानता है।

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فَمَنْ خَافَ مِن مُّوصٍ جَنَفًا أَوْ إِثْمًا فَأَصْلَحَ بَيْنَهُمْ فَلَا إِثْمَ عَلَيْهِ ۚ إِنَّ اللَّـهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 182 ﴿

फिर जिसे डर हो कि वसिय्यत करने वाले ने पक्षपात या अत्याचार किया है, फिर उसने उनके बीच सुधार करा दिया, तो उसपर कोई पाप नहीं। निश्चय अल्लाह अति क्षमाशील तथा दयावान् है।

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يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُتِبَ عَلَيْكُمُ الصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَى الَّذِينَ مِن قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ ﴾ 183 ﴿

हे ईमान वालो! तुमपर रोज़े[1] उसी प्रकार अनिवार्य कर दिये गये हैं, जैसे तुमसे पूर्व के लोगों पर अनिवार्य किये गये, ताकि तुम अल्लाह से डरो। 1. रोज़े को अर्बी भाषा में "सौम" कहा जाता है, जिस का अर्थ रुकना तथा त्याग देना है। इस्लाम में रोज़ा सन् दो हिजरी में अनिवार्य किया गया। जिस का अर्थ है प्रत्यूष (भोर) से सूर्यास्त तक रोज़े की निय्यत से खाने पीन तथा संभोग आदि चीजों से रुक जाना।

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أَيَّامًا مَّعْدُودَاتٍ ۚ فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوْ عَلَىٰ سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِّنْ أَيَّامٍ أُخَرَ ۚ وَعَلَى الَّذِينَ يُطِيقُونَهُ فِدْيَةٌ طَعَامُ مِسْكِينٍ ۖ فَمَن تَطَوَّعَ خَيْرًا فَهُوَ خَيْرٌ لَّهُ ۚ وَأَن تَصُومُوا خَيْرٌ لَّكُمْ ۖ إِن كُنتُمْ تَعْلَمُونَ ﴾ 184 ﴿

वह गिनती के कुछ दिन हैं। फिर यदि तुममें से कोई रोगी अथवा यात्रा पर हो, तो ये गिनती, दूसरे दिनों से पूरी करे और जो उस रोज़े को सहन न कर सके[1], वह फ़िद्या (प्रायश्चित्त) दे, जो एक निर्धन को खाना खिलाना है और जो स्वेच्छा भलाई करे, वह उसके लिए अच्छी बात है। यदी तुम समझो, तो तुम्हारे लिए रोज़ा रखना ही अच्छा है। 1. अर्थात अधिक बुढ़ापे अथवा ऐसे रोग के कारण जिस से आरोग्य होने की आशा न हो तो प्रत्येक रोज़े के बदले एक निर्धन को खाना खिला दिया करें।

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شَهْرُ رَمَضَانَ الَّذِي أُنزِلَ فِيهِ الْقُرْآنُ هُدًى لِّلنَّاسِ وَبَيِّنَاتٍ مِّنَ الْهُدَىٰ وَالْفُرْقَانِ ۚ فَمَن شَهِدَ مِنكُمُ الشَّهْرَ فَلْيَصُمْهُ ۖ وَمَن كَانَ مَرِيضًا أَوْ عَلَىٰ سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِّنْ أَيَّامٍ أُخَرَ ۗ يُرِيدُ اللَّـهُ بِكُمُ الْيُسْرَ وَلَا يُرِيدُ بِكُمُ الْعُسْرَ وَلِتُكْمِلُوا الْعِدَّةَ وَلِتُكَبِّرُوا اللَّـهَ عَلَىٰ مَا هَدَاكُمْ وَلَعَلَّكُمْ تَشْكُرُونَ ﴾ 185 ﴿

रमज़ान का महीना वह है, जिसमें क़ुर्आन उतारा गया, जो सब मानव के लिए मार्गदर्शन है तथा मार्गदर्शन और सत्योसत्य के बीच अन्तर करने के खुले प्रमाण रखता है। अतः जो व्यक्ति इस महीने में उपस्थित[1] हो, वह उसका रोज़ा रखे, फिर यदि तुममें से कोई रोगी[2] अथवा यात्रा[3] पर हो, तो उसे दूसरे दिनों में गिनती पुरी करनी चाहिए। अल्लाह तुम्हारे लिए सुविधा चाहता है, तंगी (असुविधा) नहीं चाहता और चाहता है कि तुम गिनती पूरी करो तथा इस बातपर अल्लाह की महिमा का वर्णन करो कि उसने तुम्हें मार्गदर्शन दिया और (इस प्रकार) तुम उसके कृतज्ञ[4] बन सको। 1. अर्थात अपने नगर में उपस्थित हो। 2. अर्थात रोग के कारण रोज़े न रख सकता हो। 3. अर्थात इतनी दूर की यात्रा पर हो जिस में रोज़ा न रखने की अनुमति हो। 4. इस आयत में रोज़े की दशा तथा गिनती पूरी करने पर प्रार्थना करने की प्रेरणा दी गयी है।

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وَإِذَا سَأَلَكَ عِبَادِي عَنِّي فَإِنِّي قَرِيبٌ ۖ أُجِيبُ دَعْوَةَ الدَّاعِ إِذَا دَعَانِ ۖ فَلْيَسْتَجِيبُوا لِي وَلْيُؤْمِنُوا بِي لَعَلَّهُمْ يَرْشُدُونَ ﴾ 186 ﴿

(हे नबी!) जब मेरे भक्त मेरे विषय में आपसे प्रश्न करें, तो उन्हें बता दें कि निश्चय मैं समीप हूँ। मैं प्रार्थी की प्रार्थना का उत्तर देता हूँ। अतः, उन्हें भी चाहिये कि मेरे आज्ञाकारी बनें तथा मुझपर ईमान (विश्वास) रखें, ताकि वे सीधी राह पायें।

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أُحِلَّ لَكُمْ لَيْلَةَ الصِّيَامِ الرَّفَثُ إِلَىٰ نِسَائِكُمْ ۚ هُنَّ لِبَاسٌ لَّكُمْ وَأَنتُمْ لِبَاسٌ لَّهُنَّ ۗ عَلِمَ اللَّـهُ أَنَّكُمْ كُنتُمْ تَخْتَانُونَ أَنفُسَكُمْ فَتَابَ عَلَيْكُمْ وَعَفَا عَنكُمْ ۖ فَالْآنَ بَاشِرُوهُنَّ وَابْتَغُوا مَا كَتَبَ اللَّـهُ لَكُمْ ۚ وَكُلُوا وَاشْرَبُوا حَتَّىٰ يَتَبَيَّنَ لَكُمُ الْخَيْطُ الْأَبْيَضُ مِنَ الْخَيْطِ الْأَسْوَدِ مِنَ الْفَجْرِ ۖ ثُمَّ أَتِمُّوا الصِّيَامَ إِلَى اللَّيْلِ ۚ وَلَا تُبَاشِرُوهُنَّ وَأَنتُمْ عَاكِفُونَ فِي الْمَسَاجِدِ ۗ تِلْكَ حُدُودُ اللَّـهِ فَلَا تَقْرَبُوهَا ۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ اللَّـهُ آيَاتِهِ لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمْ يَتَّقُونَ ﴾ 187 ﴿

तुम्हारे लिए रोज़े की रात में अपनी स्त्रियों से सहवास ह़लाल (उचित) कर दिया गया है। वे तुम्हारा वस्त्र[1] हैं तथा तुम उनका वस्त्र हो, अल्लाह को ज्ञान हो गया है कि तुम अपना उपभोग[2] कर रहे थे। उसने तुम्हारी तौबा (क्षमा याचना) स्वीकार कर ली तथा तुम्हें क्षमा कर दिया। अब उनसे (रात्रि में) सहवास करो और अल्लाह के (अपने भाग्य में) लिखे की खोज करो और रात्रि में खाओ तथा पिओ, यहाँ तक की भोर की सफेद धारी रात की काली धारी से उजागर हो[3] जाये, फिर रोज़े को रात्रि (सूर्यास्त) तक पूरा करो और उनसे सहवास न करो, जब मस्जिदों में ऐतिकाफ़ (एकान्तवास) में रहो। ये अल्लाह की सीमायें हैं, इनके समीप भी न जाओ। इसी प्रकार अल्लाह लोगों के लिए अपनी आयतों को उजागर करता है, ताकि वे (उनके उल्लंघन से) बचें। 1. इस से पति पत्नि के जीवन साथी, तथा एक की दूसरे के लिये आस्श्यक्ता को दर्शाया गया है। 2. अर्थात पत्नि से सहवास कर रहे थे। 3. इस्लाम के आरंभिक युग में रात्रि में सो जाने के पश्चात् रमज़ान में खाने पीने तथा स्त्री से सहवास की अनुमति नहीं थी। इस आयत में इन सब की अनुमति दी गयी है।

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وَلَا تَأْكُلُوا أَمْوَالَكُم بَيْنَكُم بِالْبَاطِلِ وَتُدْلُوا بِهَا إِلَى الْحُكَّامِ لِتَأْكُلُوا فَرِيقًا مِّنْ أَمْوَالِ النَّاسِ بِالْإِثْمِ وَأَنتُمْ تَعْلَمُونَ ﴾ 188 ﴿

तथा आपस में एक-दूसरे का धन अवैध रूप से न खाओ और न अधिकारियों के पास उसे इस धेय से ले जाओ कि लोगों के धन का कोई भाग, जान-बूझ कर पाप[1] द्वारा खा जाओ। 1. इस आयत में यह संकेत है कि यदि कोई व्यक्ति दूसरों के स्वत्व और धन से तथा अवैध धन उपार्जन से स्वयं को रोक न सकता हो, तो इबादत का कोई लाभ नहीं।

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يَسْأَلُونَكَ عَنِ الْأَهِلَّةِ ۖ قُلْ هِيَ مَوَاقِيتُ لِلنَّاسِ وَالْحَجِّ ۗ وَلَيْسَ الْبِرُّ بِأَن تَأْتُوا الْبُيُوتَ مِن ظُهُورِهَا وَلَـٰكِنَّ الْبِرَّ مَنِ اتَّقَىٰ ۗ وَأْتُوا الْبُيُوتَ مِنْ أَبْوَابِهَا ۚ وَاتَّقُوا اللَّـهَ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُونَ ﴾ 189 ﴿

(हे नबी!) लोग आपसे चंद्रमा के (घटने-बढ़ने) के विषय में प्रश्न करते हैं? तो आप कह दें, इससे लोगों को तिथियों के निर्धारण तथा ह़ज के समय का ज्ञान होता है और ये कोई भलाई नहीं है कि घरों में उनके पीछे से प्रवेश करो, परन्तु भलाई तो अल्लाह की अवज्ञा से बचने में है। घरों में उनके द्वारों से आओ तथा अल्लाह से डरते रहो, ताकि तुम[1] सफल हो जाओ। 1. इस्लाम से पूर्व अरब में यह प्रथा थी कि जब ह़ज्ज का एह़राम बाँध लेते तो अपने घरों में द्वार से प्रवेश न कर के पीछे से प्रवेश करते थे। इस अंधविश्वास के खण्डन के लिये यह आयत उतरी कि भलाई इन रीतियों में नहीं बल्कि अल्लाह से डरने और उस के आदेशों के उल्लंघन से बचने में है।

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وَقَاتِلُوا فِي سَبِيلِ اللَّـهِ الَّذِينَ يُقَاتِلُونَكُمْ وَلَا تَعْتَدُوا ۚ إِنَّ اللَّـهَ لَا يُحِبُّ الْمُعْتَدِينَ ﴾ 190 ﴿

तथा अल्लाह की राह में, उनसे युध्द करो, जो तुमसे युध्द करते हों और अत्याचार न करो, अल्लाह अत्याचारियों से प्रेम नहीं करता।

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وَاقْتُلُوهُمْ حَيْثُ ثَقِفْتُمُوهُمْ وَأَخْرِجُوهُم مِّنْ حَيْثُ أَخْرَجُوكُمْ ۚ وَالْفِتْنَةُ أَشَدُّ مِنَ الْقَتْلِ ۚ وَلَا تُقَاتِلُوهُمْ عِندَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ حَتَّىٰ يُقَاتِلُوكُمْ فِيهِ ۖ فَإِن قَاتَلُوكُمْ فَاقْتُلُوهُمْ ۗ كَذَٰلِكَ جَزَاءُ الْكَافِرِينَ ﴾ 191 ﴿

और उन्हें हत करो, जहाँ पाओ और उन्हें निकालो, जहाँ से उन्होंने तुम्हें निकाला है, इसलिए कि फ़ितना[1] (उपद्रव), हत करने से भी बुरा है और उनसे मस्जिदे ह़राम के पास युध्द न करो, जब तक वे तुमसे वहाँ युध्द[2] न करें। परन्तु, यदि वे तुमसे युध्द करें, तो उनकी हत्या करो, यही काफ़िरों का बदला है। 1. अर्थात अधर्म, मिश्रणवाद और सत्धर्म इस्लाम से रोकना। 2. अर्थात स्वयं युध्द का आरंभ न करो।

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فَإِنِ انتَهَوْا فَإِنَّ اللَّـهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 192 ﴿

फिर यदि वे (आक्रमण करने से) रुक जायें, तो अल्लाह अति क्षमी, दयावान् है।

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وَقَاتِلُوهُمْ حَتَّىٰ لَا تَكُونَ فِتْنَةٌ وَيَكُونَ الدِّينُ لِلَّـهِ ۖ فَإِنِ انتَهَوْا فَلَا عُدْوَانَ إِلَّا عَلَى الظَّالِمِينَ ﴾ 193 ﴿

तथा उनसे युध्द करो, यहाँ तक कि फ़ितना न रह जाये और धर्म केवल अल्लाह के लिए रह जाये, फिर यदि वे रुक जायें, तो अत्याचारियों के अतिरिक्त किसी और पर अत्याचार नहीं करना चाहिए।

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الشَّهْرُ الْحَرَامُ بِالشَّهْرِ الْحَرَامِ وَالْحُرُمَاتُ قِصَاصٌ ۚ فَمَنِ اعْتَدَىٰ عَلَيْكُمْ فَاعْتَدُوا عَلَيْهِ بِمِثْلِ مَا اعْتَدَىٰ عَلَيْكُمْ ۚ وَاتَّقُوا اللَّـهَ وَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّـهَ مَعَ الْمُتَّقِينَ ﴾ 194 ﴿

सम्मानित[1] मास, सम्मानित मास के बदले है और सम्मानित विषयों में बराबरी है। अतः, जो तुमपर अतिक्रमण (अत्याचार) करे, तो तुम भी उसपर उसी के समान (अतिक्रमण) करो तथा अल्लाह के आज्ञाकारी रहो और जान लो कि अल्लाह आज्ञाकारियों के साथ है। 1. सम्मानित मासों से अभिप्रेत चार अर्बी महीनेः ज़ुलक़ादह, ज़ुलहिज्जह, मुह़र्रम तथा रजब हैं। इब्राहीम अलैहिस्सलाम के युग से इन मासों का आदर सम्मान होता आ रहा है। आयत का अर्थ यह है कि कोई सम्मानित स्थान अथवा युग में अतिक्रमण करे तो उसे बराबरी का बदला दिया जाये।

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وَأَنفِقُوا فِي سَبِيلِ اللَّـهِ وَلَا تُلْقُوا بِأَيْدِيكُمْ إِلَى التَّهْلُكَةِ ۛ وَأَحْسِنُوا ۛ إِنَّ اللَّـهَ يُحِبُّ الْمُحْسِنِينَ ﴾ 195 ﴿

तथा अल्लाह की राह (जिहाद) में धन ख़र्च करो और अपने-आपको विनाश में न डालो तथा उपकार करो, निश्चय अल्लाह उपकारियों से प्रेम करता है।

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وَأَتِمُّوا الْحَجَّ وَالْعُمْرَةَ لِلَّـهِ ۚ فَإِنْ أُحْصِرْتُمْ فَمَا اسْتَيْسَرَ مِنَ الْهَدْيِ ۖ وَلَا تَحْلِقُوا رُءُوسَكُمْ حَتَّىٰ يَبْلُغَ الْهَدْيُ مَحِلَّهُ ۚ فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوْ بِهِ أَذًى مِّن رَّأْسِهِ فَفِدْيَةٌ مِّن صِيَامٍ أَوْ صَدَقَةٍ أَوْ نُسُكٍ ۚ فَإِذَا أَمِنتُمْ فَمَن تَمَتَّعَ بِالْعُمْرَةِ إِلَى الْحَجِّ فَمَا اسْتَيْسَرَ مِنَ الْهَدْيِ ۚ فَمَن لَّمْ يَجِدْ فَصِيَامُ ثَلَاثَةِ أَيَّامٍ فِي الْحَجِّ وَسَبْعَةٍ إِذَا رَجَعْتُمْ ۗ تِلْكَ عَشَرَةٌ كَامِلَةٌ ۗ ذَٰلِكَ لِمَن لَّمْ يَكُنْ أَهْلُهُ حَاضِرِي الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۚ وَاتَّقُوا اللَّـهَ وَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّـهَ شَدِيدُ الْعِقَابِ ﴾ 196 ﴿

तथा ह़ज और उमरह अल्लाह के लिए पूरा करो और यदि रोक दिये जाओ[1], तो जो क़ुर्बानी सुलभ हो (कर दो) और अपने सिर न मुँडाओ, जब तक कि क़ुर्बानी अपने स्थान तक न पहुँच[2] जाये, यदि तुममें से कोई व्यक्ति रोगी हो या उसके सिर में कोई पीड़ा हो (और सिर मुँडा ले), तो उसके बदले में रोज़ा रखना या दान[3] देना या क़ुर्बानी देना है और जब तुम निर्भय (शान्त) रहो, तो जो उमरे से ह़ज तक लाभान्वित[4] हो, वह जो क़ुर्बानी सुलभ हो, उसे करे और जिसे उपलब्ध न हो, वह तीन रोज़े ह़ज के दिनों में रखे और सात, जब रखे, जब तुम (घर) वापस आओ। ये पूरे दस हुए। ये उसके लिए है, जो मस्जिदे ह़राम का निवासी न हो और अल्लाह से डरो तथा जान लो कि अल्लाह की यातना बहुत कड़ी है। 1. अर्थात शत्रु अथवा रोग के कारण। 2. अर्थात क़ुरबानी न कर लो। 3.जो तीन रोज़े अथवा तीन निर्धनों को खिलाना या एक बकरे की क़ुर्बानी देना है। (तफ्सीरे क़ुर्तुबी) 4. लाभान्वित होने का अर्थ यह है कि उमरे का एह़राम बाँधे, और उस के कार्यक्रम पूरे कर के एह़राम खोल दे, और जो चीजें एह़राम की स्थिति में अवैध थीं, उन से लाभान्वित हो। फिर ह़ज्ज के समय उस का एह़राम बाँधे, इसे (ह़ज्ज तमत्तुअ) कहा जाता है। (तफ़्सीरे क़ुर्तुबी)

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الْحَجُّ أَشْهُرٌ مَّعْلُومَاتٌ ۚ فَمَن فَرَضَ فِيهِنَّ الْحَجَّ فَلَا رَفَثَ وَلَا فُسُوقَ وَلَا جِدَالَ فِي الْحَجِّ ۗ وَمَا تَفْعَلُوا مِنْ خَيْرٍ يَعْلَمْهُ اللَّـهُ ۗ وَتَزَوَّدُوا فَإِنَّ خَيْرَ الزَّادِ التَّقْوَىٰ ۚ وَاتَّقُونِ يَا أُولِي الْأَلْبَابِ ﴾ 197 ﴿

ह़ज के महीने प्रसिध्द हैं, जो व्यक्ति इनमें ह़ज का निश्चय कर ले, तो (ह़ज के बीच) काम वासना तथा अवज्ञा और झगड़े की बातें न करे तथा तुम जो भी अच्छे कर्म करोगे, उसका ज्ञान अल्लाह को हो जायेगा और अपने लिए पाथेय बना लो, उत्तम पाथेय अल्लाह की आज्ञाकारिता है तथा हे समझ वालो! मुझी से डरो।

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لَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ أَن تَبْتَغُوا فَضْلًا مِّن رَّبِّكُمْ ۚ فَإِذَا أَفَضْتُم مِّنْ عَرَفَاتٍ فَاذْكُرُوا اللَّـهَ عِندَ الْمَشْعَرِ الْحَرَامِ ۖ وَاذْكُرُوهُ كَمَا هَدَاكُمْ وَإِن كُنتُم مِّن قَبْلِهِ لَمِنَ الضَّالِّينَ ﴾ 198 ﴿

तथा तुमपर कोई दोष[1] नहीं कि अपने पालनहार के अनुग्रह की खोज करो, फिर जब तुम अरफ़ात[2] से चलो, तो मश्अरे ह़राम (मुज़दलिफ़ह) के पास अल्लाह का स्मरण करो, जिस प्रकार अल्लाह ने तुम्हें बताया है। यद्यपि इससे पहले तुम कुपथों में से थे। 1. अर्थात व्यापार करने में कोई दोष नहीं है। 2. अरफ़ात उस स्थान का नाम है जिस में ह़ाजी 9 ज़िलह़िज्जा को विराम करते तथा सूर्यास्त के पश्चात् वहाँ से वापिस होते हैं।

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ثُمَّ أَفِيضُوا مِنْ حَيْثُ أَفَاضَ النَّاسُ وَاسْتَغْفِرُوا اللَّـهَ ۚ إِنَّ اللَّـهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 199 ﴿

फिर तुम[1] भी वहीं से फिरो, जहाँ से लोग फिरते हैं तथा अल्लाह से क्षमा माँगो। निश्चय अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है। 1. यह आदेश क़ुरैश के उन लोगों को दिया गया है जो मुज़्दलिफ़ह ही से वापिस चले आते थे। और अरफ़ात नहीं जाते थे। (तफ़्सीरे क़ुर्तुबी)

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فَإِذَا قَضَيْتُم مَّنَاسِكَكُمْ فَاذْكُرُوا اللَّـهَ كَذِكْرِكُمْ آبَاءَكُمْ أَوْ أَشَدَّ ذِكْرًا ۗ فَمِنَ النَّاسِ مَن يَقُولُ رَبَّنَا آتِنَا فِي الدُّنْيَا وَمَا لَهُ فِي الْآخِرَةِ مِنْ خَلَاقٍ ﴾ 200 ﴿

और जब तुम अपने ह़ज के मनासिक (कर्म) पूरे कर लो, तो जिस प्रकार पहले अपने पूर्वजों की चर्चा करते रहे, उसी प्रकार बल्कि उससे भी अधिक अल्लाह का स्मरण[1] करो। उनमें से कुछ ऐसे हैं, जो ये कहते हैं कि हे हमारे पालनहार! (हमें जो देना है,) संसार ही में दे दे। अतः ऐसे व्यक्ति के लिए परलोक में कोई भाग नहीं है। 1. जाहिलिय्यत में अरबों की यह रीति थी कि ह़ज्ज पूरा करने के पश्चात् अपने पुर्वजों के कर्मों की चर्चा कर के उन पर गर्व किया करते थे। तथा इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु ने इस का अर्थ यह किया है कि जिस प्रकार शिशु अपने माता पिता को गुहारता, पुकारता है, उसी प्रकार तुम अल्लाह को गुहारो और पुकारो। (तफ़्सीरे क़ुर्तुबी)

सूरह बकराह 2:201-286

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Surah Baqrah : All Parts

1-100 | 101-200 | 201-286

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بِسْمِ اللَّـهِ الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ

बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम

अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।

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وَمِنْهُم مَّن يَقُولُ رَبَّنَا آتِنَا فِي الدُّنْيَا حَسَنَةً وَفِي الْآخِرَةِ حَسَنَةً وَقِنَا عَذَابَ النَّارِ ﴾ 201 ﴿

तथा उनमें से कुछ ऐसे हैं, जो ये कहते हैं कि हमारे पालनहार! हमें संसार में भलाई दे तथा परलोक में भी भलाई दे और हमें नरक की यातना से सुरक्षित रख।

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أُولَـٰئِكَ لَهُمْ نَصِيبٌ مِّمَّا كَسَبُوا ۚ وَاللَّـهُ سَرِيعُ الْحِسَابِ ﴾ 202 ﴿

इन्हीं को इनकी कमाई के कारण भाग मिलेगा और अल्लाह शीघ्र ह़िसाब चुकाने बाला है।

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وَاذْكُرُوا اللَّـهَ فِي أَيَّامٍ مَّعْدُودَاتٍ ۚ فَمَن تَعَجَّلَ فِي يَوْمَيْنِ فَلَا إِثْمَ عَلَيْهِ وَمَن تَأَخَّرَ فَلَا إِثْمَ عَلَيْهِ ۚ لِمَنِ اتَّقَىٰ ۗ وَاتَّقُوا اللَّـهَ وَاعْلَمُوا أَنَّكُمْ إِلَيْهِ تُحْشَرُونَ ﴾ 203 ﴿

तथा इन गिनती[1] के कुछ दिनों में अल्लाह को स्मरण (याद) करो, फिर जो व्यक्ति शीघ्रता से दो ही दिन में (मिना से) चल[2] दे, उसपर कोई दोष नहीं और जो विलम्ब[3] करे, उसपर भी कोई दोष नहीं, उस व्यक्ति के लिए जो अल्लाह से डरा तथा तुम अल्लाह से डरते रहो और ये समझ लो कि तुम उसी के पास प्रलय के दिन एकत्र किए जाओगो। 1. गिनती के कुछ दिनों से अभिप्रेत ज़ुलह़िज्जा मास की 11, 12, और 13 तारीख़ें हैं। जिन को "अय्यामे तश्रीक़" कहा जाता है। 2. अर्थात 12 ज़ुलह़िज्जा को ही सूर्यास्त के पहले कंकरी मारने के पश्चात् चल दे। 3. बिलम्ब करे, अर्थात मिना में रात बिताये। और तेरह ज़ुलह़िज्जह को कंकरी मारे, फिर मिना से निकल जाये।

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وَمِنَ النَّاسِ مَن يُعْجِبُكَ قَوْلُهُ فِي الْحَيَاةِ الدُّنْيَا وَيُشْهِدُ اللَّـهَ عَلَىٰ مَا فِي قَلْبِهِ وَهُوَ أَلَدُّ الْخِصَامِ ﴾ 204 ﴿

(हे नबी!) लोगों[1] में ऐसा व्यक्ति भी है, जिसकी बात आपको सांसारिक विषय में भाती है तथा जो कुछ उसके दिल में है, वह उसपर अल्लाह को साक्षी बनाता है, जबकि बह बड़ा झगड़ालू है। 1. अर्थात मुनाफ़िक़ों (दुविधवादियों) में।

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وَإِذَا تَوَلَّىٰ سَعَىٰ فِي الْأَرْضِ لِيُفْسِدَ فِيهَا وَيُهْلِكَ الْحَرْثَ وَالنَّسْلَ ۗ وَاللَّـهُ لَا يُحِبُّ الْفَسَادَ ﴾ 205 ﴿

तथा जब वह आपके पास से जाता है, तो धरती में उपद्रव मचाने का प्रयास करता है और खेती तथा पशुओं का विनाश करता है और अल्लाह उपद्रव से प्रेम नहीं करता।

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وَإِذَا قِيلَ لَهُ اتَّقِ اللَّـهَ أَخَذَتْهُ الْعِزَّةُ بِالْإِثْمِ ۚ فَحَسْبُهُ جَهَنَّمُ ۚ وَلَبِئْسَ الْمِهَادُ ﴾ 206 ﴿

तथा जब उससे कहा जाता है कि अल्लाह से डर, तो अभिमान उसे पाप पर उभार देता है। अतः उसके (दण्ड) के लिए नरक काफ़ी है और वह बहुत बुरा बिछौना है।

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وَمِنَ النَّاسِ مَن يَشْرِي نَفْسَهُ ابْتِغَاءَ مَرْضَاتِ اللَّـهِ ۗ وَاللَّـهُ رَءُوفٌ بِالْعِبَادِ ﴾ 207 ﴿

तथा लोगों में ऐसा व्यक्ति भी है, जो अल्लाह की प्रसन्नता की खोज में अपना प्राण बेच[1] देता है और अल्लाह अपने भक्तों के लिए अति करुणामय है। 1. अर्थात उस की राह में और उस की आज्ञा के अनुपालन द्वारा।

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يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا ادْخُلُوا فِي السِّلْمِ كَافَّةً وَلَا تَتَّبِعُوا خُطُوَاتِ الشَّيْطَانِ ۚ إِنَّهُ لَكُمْ عَدُوٌّ مُّبِينٌ ﴾ 208 ﴿

हे ईमान वालो! तुम सर्वथा इस्लाम में प्रवेश[1] कर जाओ और शैतान की राहों पर मत चलो, निश्चय वह तुम्हारा खुला शत्रु है। 1. अर्थात इस्लाम के पूरे संविधान का अनुपालन करो।

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فَإِن زَلَلْتُم مِّن بَعْدِ مَا جَاءَتْكُمُ الْبَيِّنَاتُ فَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّـهَ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ﴾ 209 ﴿

फिर यदि तुम खुले तर्कों (दलीलों)[1] के आने के पश्चात विचलित हो गये, तो जान लो कि अल्लाह प्रभुत्वशाली तथा तत्वज्ञ[2] है। 1. खुले तर्कों से अभिप्राय क़ुर्आन और सुन्नत है। 2. अर्थात तथ्य को जानता और प्रत्येक वस्तु को उस के उचित स्थान पर रखता है।

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هَلْ يَنظُرُونَ إِلَّا أَن يَأْتِيَهُمُ اللَّـهُ فِي ظُلَلٍ مِّنَ الْغَمَامِ وَالْمَلَائِكَةُ وَقُضِيَ الْأَمْرُ ۚ وَإِلَى اللَّـهِ تُرْجَعُ الْأُمُورُ ﴾ 210 ﴿

क्या (इन खुले तर्कों के आ जाने के पश्चात्) वे इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि उनके समक्ष अल्लाह तथा फ़रिश्ते बादलों के छत्र में आ जायें और निर्णय ही कर दिया जाये? और सभी विषय अल्लाह ही की ओर फेरे[1] जायेंगे। 1. अर्थात सब निर्णय प्रलोक में वही करेगा।

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سَلْ بَنِي إِسْرَائِيلَ كَمْ آتَيْنَاهُم مِّنْ آيَةٍ بَيِّنَةٍ ۗ وَمَن يُبَدِّلْ نِعْمَةَ اللَّـهِ مِن بَعْدِ مَا جَاءَتْهُ فَإِنَّ اللَّـهَ شَدِيدُ الْعِقَابِ ﴾ 211 ﴿

बनी इस्राईल से पूछो कि हमने उन्हें कितनी खुली निशानियाँ दीं? इसपर भी जिसने अल्लाह की अनुकम्पा को, उसके अपने पास आ जाने के पश्चात् बदल दिया, तो अल्लाह की यातना भी बहुत कड़ी है।

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زُيِّنَ لِلَّذِينَ كَفَرُوا الْحَيَاةُ الدُّنْيَا وَيَسْخَرُونَ مِنَ الَّذِينَ آمَنُوا ۘ وَالَّذِينَ اتَّقَوْا فَوْقَهُمْ يَوْمَ الْقِيَامَةِ ۗ وَاللَّـهُ يَرْزُقُ مَن يَشَاءُ بِغَيْرِ حِسَابٍ ﴾ 212 ﴿

काफ़िरों के लिए सांसारिक जीवन शोभनीय (मनोहर) बना दिया गया है तथा जो ईमान लाये ये उनका उपहास[1] करते हैं और प्रलय के दिन अल्लाह के आज्ञाकारी उनसे उच्च स्थान[1] पर रहेंगे तथा अल्लाह जिसे चाहे, अगणित आजीविका प्रदान करता है। 1. अर्थात उन की निर्धनता तथा दरिद्रता के कारण। 2. आयत का भावार्थ यह है कि काफ़िर संसारिक धन धान्य ही को महत्व देते हैं। जब कि परलोक की सफलता जो सत्धर्म और सत्कर्म पर आधारित है, वही सब से बड़ी सफलता है।

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كَانَ النَّاسُ أُمَّةً وَاحِدَةً فَبَعَثَ اللَّـهُ النَّبِيِّينَ مُبَشِّرِينَ وَمُنذِرِينَ وَأَنزَلَ مَعَهُمُ الْكِتَابَ بِالْحَقِّ لِيَحْكُمَ بَيْنَ النَّاسِ فِيمَا اخْتَلَفُوا فِيهِ ۚ وَمَا اخْتَلَفَ فِيهِ إِلَّا الَّذِينَ أُوتُوهُ مِن بَعْدِ مَا جَاءَتْهُمُ الْبَيِّنَاتُ بَغْيًا بَيْنَهُمْ ۖ فَهَدَى اللَّـهُ الَّذِينَ آمَنُوا لِمَا اخْتَلَفُوا فِيهِ مِنَ الْحَقِّ بِإِذْنِهِ ۗ وَاللَّـهُ يَهْدِي مَن يَشَاءُ إِلَىٰ صِرَاطٍ مُّسْتَقِيمٍ ﴾ 213 ﴿

(आरंभ में) सभी मानव एक ही (स्वाभाविक) सत्धर्म पर थे। (फिर विभेद हुआ) तो अल्लाह ने नबियों को शुभ समाचार सुनाने[1] और (अवज्ञा) से सचेत करने के लिए भेजा और उनपर सत्य के साथ पुस्तक उतारी, ताकि वे जिन बातों में विभेद कर रहे हैं, उनका निर्णय कर दे। और आपकी दुराग्रह के कारण उन्होंने ही विभेद किया, जिन्हें (विभेद निवारण के लिए) ये पुस्तक दी गयी। (अल्बत्ता) जो ईमान लाये, अल्लाह ने उस विभेद में उन्हें अपनी अनुमति से सत्पथ दर्शा दिया और अल्लाह जिसे चाहे, सत्पथ दर्शा देता है। 1. आयत 213 का सारांश यह है कि सभी मानव आरंभिक युग में स्वाभाविक जीवन व्यतीत कर रहे थे। फिर आपस में विभेद हुआ तो अत्याचार और उपद्रव होने लगा। तब अल्लाह की ओर से नबी आने लगे ताकि सब को एक सत्धर्म पर कर दें। और आकाशीय पुस्तकें भी इसी लिये अवतरित हुयीं कि विभेद में निर्णय कर के सब को एक मूल सत्धर्म पर लगायें। परन्तु लोगों की दुराग्रह और आपसी द्वेष विभेद का कारण बने रहे। अन्यथा सत्धर्म (इस्लाम) जो एकता का आधार है, वह अब भी सुरक्षित है। और जो व्यक्ति चाहेगा तो अल्लाह उस के लिये यह सत्य दर्शा देगा। परन्तु यह स्वयं उस की इच्छा पर आधारित है।

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أَمْ حَسِبْتُمْ أَن تَدْخُلُوا الْجَنَّةَ وَلَمَّا يَأْتِكُم مَّثَلُ الَّذِينَ خَلَوْا مِن قَبْلِكُم ۖ مَّسَّتْهُمُ الْبَأْسَاءُ وَالضَّرَّاءُ وَزُلْزِلُوا حَتَّىٰ يَقُولَ الرَّسُولُ وَالَّذِينَ آمَنُوا مَعَهُ مَتَىٰ نَصْرُ اللَّـهِ ۗ أَلَا إِنَّ نَصْرَ اللَّـهِ قَرِيبٌ ﴾ 214 ﴿

क्या तुमने समझ रखा है कि यूँ ही स्वर्ग में प्रवेश कर जाओगे, ह़ालाँकि अभी तक तुम्हारी वह दशा नहीं हुई, जो तुमसे पूर्व के ईमान वालों की हुई? उन्हें तंगियों तथा आपदाओं ने घेर लिया और वे झंझोड़ दिये गये, यहाँ तक कि रसूल और जो उसपर ईमान लाये, गुहारने लगे कि अल्लाह की सहायता कब आयेगी? (उस समय कहा गयाः)सुन लो! अल्लाह की सहायता समीप[1] है। 1. आयत का भावार्थ यह है कि ईमान के लिये इतना ही बस नहीं कि ईमान को स्वीकार कर लिया तथा स्वर्गीय हो गये। इस के लिये यह भी आवश्यक है कि उन सभी परीक्षाओं में स्थिर रहो जो तुम से पूर्व सत्य के अनुयायियों के सामने आयीं, और तुम पर भी आयेंगी।

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يَسْأَلُونَكَ مَاذَا يُنفِقُونَ ۖ قُلْ مَا أَنفَقْتُم مِّنْ خَيْرٍ فَلِلْوَالِدَيْنِ وَالْأَقْرَبِينَ وَالْيَتَامَىٰ وَالْمَسَاكِينِ وَابْنِ السَّبِيلِ ۗ وَمَا تَفْعَلُوا مِنْ خَيْرٍ فَإِنَّ اللَّـهَ بِهِ عَلِيمٌ ﴾ 215 ﴿

(हे नबी!) वे आपसे प्रश्न करते हैं कि कैसे व्यय (ख़र्च) करें? उनसे कह दीजिये कि जो भी धन तुम ख़र्च करो, तो अपने माता-पिता, समीपवर्तियों, अनाथों, निर्धनों तथा यात्रियों (को दो)। तथा जो भी भलाई तुम करते हो, उसे अल्लाह भलि-भाँति जानता है।

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كُتِبَ عَلَيْكُمُ الْقِتَالُ وَهُوَ كُرْهٌ لَّكُمْ ۖ وَعَسَىٰ أَن تَكْرَهُوا شَيْئًا وَهُوَ خَيْرٌ لَّكُمْ ۖ وَعَسَىٰ أَن تُحِبُّوا شَيْئًا وَهُوَ شَرٌّ لَّكُمْ ۗ وَاللَّـهُ يَعْلَمُ وَأَنتُمْ لَا تَعْلَمُونَ ﴾ 216 ﴿

(हे ईमान वालो!) तुमपर युध्द करना अनिवार्य कर दिया गया है, ह़लाँकि वह तुम्हें अप्रिय है। हो सकता है कि कोई चीज़ तुम्हें अप्रिय हो और वही तुम्हारे लिए अच्छी हो और इसी प्रकार सम्भव है कि कोई चीज़ तुम्हें प्रिय हो और वह तुम्हारे लिए बुरी हो। अल्लाह जानता है और तुम नहीं[1] जानते। 1. आयत का भावार्थ यह है कि युध्द ऐसी चीज़ नहीं, जो तुम्हें प्रिय हो। परन्तु जब ऐसी स्थिति आ जाये कि शत्रु इस लिये आक्रमण और अत्याचार करने लगे कि लोगों ने अपने पूर्वजों की आस्था परम्परी त्याग कर सत्य को अपना लिया है, जैसा कि इस्लाम के आरंभिक युग में हुआ, तो सत्धर्म की रक्षा के लिये युध्द करना अनिवार्य हो जाता हो।

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يَسْأَلُونَكَ عَنِ الشَّهْرِ الْحَرَامِ قِتَالٍ فِيهِ ۖ قُلْ قِتَالٌ فِيهِ كَبِيرٌ ۖ وَصَدٌّ عَن سَبِيلِ اللَّـهِ وَكُفْرٌ بِهِ وَالْمَسْجِدِ الْحَرَامِ وَإِخْرَاجُ أَهْلِهِ مِنْهُ أَكْبَرُ عِندَ اللَّـهِ ۚ وَالْفِتْنَةُ أَكْبَرُ مِنَ الْقَتْلِ ۗ وَلَا يَزَالُونَ يُقَاتِلُونَكُمْ حَتَّىٰ يَرُدُّوكُمْ عَن دِينِكُمْ إِنِ اسْتَطَاعُوا ۚ وَمَن يَرْتَدِدْ مِنكُمْ عَن دِينِهِ فَيَمُتْ وَهُوَ كَافِرٌ فَأُولَـٰئِكَ حَبِطَتْ أَعْمَالُهُمْ فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ ۖ وَأُولَـٰئِكَ أَصْحَابُ النَّارِ ۖ هُمْ فِيهَا خَالِدُونَ ﴾ 217 ﴿

(हे नबी!) वे[1] आपसे प्रश्न करते हैं कि सम्मानित मास में युध्द करना कैसा है? आप उनसे कह दें कि उसमें युध्द करना घोर पाप है, परन्तु अल्लाह की राह से रोकना, उसका इन्कार करना, मस्जिदे ह़राम से रोकना और उसके निवासियों को उससे निकालना, अल्लाह के समीप उससे भी घोर पाप है तथा फ़ितना (सत्धर्म से विचलाना) हत्या से भी भारी है। और वे तो तुमसे युध्द करते ही जायेंगे, यहाँ तक कि उनके बस में हो, तो तुम्हें तुम्हारे धर्म से फेर दें और तुममें से जो व्यक्ति अपने धर्म (इस्लाम) से फिर जायेगा, फिर कुफ़्र पर ही उसकी मौत होगी, ऐसों का किया-कराया, संसार तथा परलोक में व्यर्थ हो जायेगा तथा वही नारकी हैं और वे उसमें सदावासी होंगे। 1. अर्थात मिश्रणवादी।

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إِنَّ الَّذِينَ آمَنُوا وَالَّذِينَ هَاجَرُوا وَجَاهَدُوا فِي سَبِيلِ اللَّـهِ أُولَـٰئِكَ يَرْجُونَ رَحْمَتَ اللَّـهِ ۚ وَاللَّـهُ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 218 ﴿

(इसके विपरीत) जो लोग ईमान लाये, हिजरत[1] की तथा अल्लाह की राह में जिहाद किया, वास्तव में, वही अल्लाह की दया की आशा रखते हैं तथा अल्लाह अति क्षमाशील और बहुत दयालु है। 1. हिजरत का अर्थ हैः अल्लाह के लिये स्वदेश त्याग देना।

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يَسْأَلُونَكَ عَنِ الْخَمْرِ وَالْمَيْسِرِ ۖ قُلْ فِيهِمَا إِثْمٌ كَبِيرٌ وَمَنَافِعُ لِلنَّاسِ وَإِثْمُهُمَا أَكْبَرُ مِن نَّفْعِهِمَا ۗ وَيَسْأَلُونَكَ مَاذَا يُنفِقُونَ قُلِ الْعَفْوَ ۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ اللَّـهُ لَكُمُ الْآيَاتِ لَعَلَّكُمْ تَتَفَكَّرُونَ ﴾ 219 ﴿

(हे नबी!) वे आपसे मदिरा और जुआ के विषय में प्रश्न करते हैं। आप बता दें कि इन दोनों में बड़ा पाप है तथा लोगों का कुछ लाभ भी है; परन्तु उनका पाप उनके लाभ से अधिक[1] बड़ा है। तथा वे आपसे प्रश्न करते हैं कि अल्लाह की राह में क्या ख़र्च करें? उनसे कह दीजिये कि जो अपनी आवश्यक्ता से अधिक हो। इसी प्रकार अल्लाह तुम्हारे लिए आयतों (धर्मादेशों) को उजागर करता है, ताकि तुम सोच-विचार करो। 1. अर्थात अपने लोक परलोक के लाभ के विषय में विचार करो, और जिस में अधिक हानि हो उसे त्याग दो, यद्यपि उस में थोड़ा लाभ ही क्यों न हो। यह मदिरा और जुआ से संबंधित प्रथम आदेश है। आगामी सूरह निसा आयत 43 तथा सूरह माइदह आयत 90 में इन के विषय में अन्तिम आदेश आ रहा है।

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فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ ۗ وَيَسْأَلُونَكَ عَنِ الْيَتَامَىٰ ۖ قُلْ إِصْلَاحٌ لَّهُمْ خَيْرٌ ۖ وَإِن تُخَالِطُوهُمْ فَإِخْوَانُكُمْ ۚ وَاللَّـهُ يَعْلَمُ الْمُفْسِدَ مِنَ الْمُصْلِحِ ۚ وَلَوْ شَاءَ اللَّـهُ لَأَعْنَتَكُمْ ۚ إِنَّ اللَّـهَ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ﴾ 220 ﴿

दुनिया और आख़रित दोनो में और वे आपसे अनाथों के विषय में प्रश्ण करते हैं। उनसे कह दीजिए कि जिस बात में उनका सुधार हो वही सबसे अच्छी है। यदि तुम उनसे मिलकर रहो, तो वे तुम्हारे भाई ही हैं और अल्लाह जानता है कि कौन सुधारने और कौन बिगाड़ने वाला है और यदि अल्लाह चाहता, तो तुमपर सख्ती[1] कर देता। वास्तव में, अल्लाह प्रभुत्वशाली, तत्वज्ञ है। 1. उन का खाना पीना अलग करने का आदेश दे कर।

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وَلَا تَنكِحُوا الْمُشْرِكَاتِ حَتَّىٰ يُؤْمِنَّ ۚ وَلَأَمَةٌ مُّؤْمِنَةٌ خَيْرٌ مِّن مُّشْرِكَةٍ وَلَوْ أَعْجَبَتْكُمْ ۗ وَلَا تُنكِحُوا الْمُشْرِكِينَ حَتَّىٰ يُؤْمِنُوا ۚ وَلَعَبْدٌ مُّؤْمِنٌ خَيْرٌ مِّن مُّشْرِكٍ وَلَوْ أَعْجَبَكُمْ ۗ أُولَـٰئِكَ يَدْعُونَ إِلَى النَّارِ ۖ وَاللَّـهُ يَدْعُو إِلَى الْجَنَّةِ وَالْمَغْفِرَةِ بِإِذْنِهِ ۖ وَيُبَيِّنُ آيَاتِهِ لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمْ يَتَذَكَّرُونَ ﴾ 221 ﴿

तथा मुश्रिक[1] स्त्रियों से तुम विवाह न करो, जब तक वे ईमान न लायें और ईमान वाली दासी मुश्रिक स्त्री से उत्तम है, यद्यपि वह तुम्हारे मन को भा रही हो और अपनी स्त्रियों का निकाह़ मुश्रिकों से न करो, जब तक वे ईमान न लायें और ईमान वाला दास मुश्रिक से उत्तम है, यद्यपि वह तुम्हें भा रहा हो। वे तुम्हें अग्नि की ओर बुलाते हैं तथा अल्लाह स्वर्ग और क्षमा की ओर बुला रहा है और (अल्लाह) सभी मानव के लिए अपनी आयतें (आदेश) उजागर कर रहा है, ताकि वह शिक्षा ग्रहन करें। 1. इस्लाम के विरोधियों से युध्द ने यह प्रश्न उभार दिया कि उन से विवाह उचित है या नहीं? उस पर कहा जा रहा है कि उन से विवाह संबंध अवैध है, और इस का कारण भी बता दिया गया है कि वह तुम्हें सत्य से फेरना चाहते हैं। उन के साथ तुम्हारा वैवाहिक सम्बंध कभी सफलता का कारण नहीं हो सकता।

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وَيَسْأَلُونَكَ عَنِ الْمَحِيضِ ۖ قُلْ هُوَ أَذًى فَاعْتَزِلُوا النِّسَاءَ فِي الْمَحِيضِ ۖ وَلَا تَقْرَبُوهُنَّ حَتَّىٰ يَطْهُرْنَ ۖ فَإِذَا تَطَهَّرْنَ فَأْتُوهُنَّ مِنْ حَيْثُ أَمَرَكُمُ اللَّـهُ ۚ إِنَّ اللَّـهَ يُحِبُّ التَّوَّابِينَ وَيُحِبُّ الْمُتَطَهِّرِينَ ﴾ 222 ﴿

तथा वे आपसे मासिक धर्म के विषय में प्रश्न करते हैं। तो कह दें कि वह मलीनता है और उनके समीप भी न[1] जाओ, जब तक पवित्र न हो जायें। फिर जब वे भली भाँति स्वच्छ[2] हो जायें, तो उनके पास उसी प्रकार जाओ, जैसे अल्लाह ने तुम्हें आदेश[3] दिया है। निश्चय अल्लाह तौबा करने वालों तथा पवित्र रहने वालों से प्रेम करता है। 1. अर्थात संभोग करने के लिये। 2. मासिक धर्म बन्द होने के पश्चात् स्नान कर के स्वच्छ हो जायें। 3. अर्थात जिस स्थान को अल्लाह ने उचित किया है, वहीं संभोग करो।

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نِسَاؤُكُمْ حَرْثٌ لَّكُمْ فَأْتُوا حَرْثَكُمْ أَنَّىٰ شِئْتُمْ ۖ وَقَدِّمُوا لِأَنفُسِكُمْ ۚ وَاتَّقُوا اللَّـهَ وَاعْلَمُوا أَنَّكُم مُّلَاقُوهُ ۗ وَبَشِّرِ الْمُؤْمِنِينَ ﴾ 223 ﴿

तुम्हारी पत्नियाँ तुम्हारे लिए खेतियाँ[1] हैं। तुम्हें अनुमति है कि जैसे चाहो, अपनी खेतियों में जाओ; परन्तु भविष्य के लिए भी सत्कर्म करो तथा अल्लाह से डरते रहो और विश्वास रखो कि तुम्हें उससे मिलना है और ईमान वालों को शुभ सूचना सुना दो। 1. अर्थात संतान उत्पन्न करने का स्थान और इस में यह संकेत भी है कि भग के सिवा अन्य स्थान में संभोग ह़राम (अनुचित) है।

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وَلَا تَجْعَلُوا اللَّـهَ عُرْضَةً لِّأَيْمَانِكُمْ أَن تَبَرُّوا وَتَتَّقُوا وَتُصْلِحُوا بَيْنَ النَّاسِ ۗ وَاللَّـهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ﴾ 224 ﴿

तथा अल्लाह के नाम पर, अपनी शपथों को उपकार तथा सदाचार और लोगों में मिलाप कराने के लिए रोक[1] न बनाओ और अल्लाह सब कुछ सुनता-जानता है। 1. अर्थात सदाचार और पुण्य न करने की शपथ लेना अनुचित है।

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لَّا يُؤَاخِذُكُمُ اللَّـهُ بِاللَّغْوِ فِي أَيْمَانِكُمْ وَلَـٰكِن يُؤَاخِذُكُم بِمَا كَسَبَتْ قُلُوبُكُمْ ۗ وَاللَّـهُ غَفُورٌ حَلِيمٌ ﴾ 225 ﴿

अल्लाह तम्हारी निरर्थक शपथों पर तुम्हें नहीं पकड़ेगा, परन्तु जो शपथ अपने दिलों के संकल्प से लोगे, उनपर पकड़ेगा और अल्लाह अति क्षमाशील, सहनशील है।

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لِّلَّذِينَ يُؤْلُونَ مِن نِّسَائِهِمْ تَرَبُّصُ أَرْبَعَةِ أَشْهُرٍ ۖ فَإِن فَاءُوا فَإِنَّ اللَّـهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 226 ﴿

तथा जो लोग अपनी पत्नियों से संभोग न करने की शपथ लेते हों, वे चार महीने प्रतीक्षा करें। फिर[1] यदि (इस बीच) अपनी शपथ से फिर जायें, तो अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है। 1. यदि पत्नि से संबंध न रखने की शपथ ली जाये, जिसे अर्बी में "ईला" के नाम से जाना जाता है, तो उस का यह नियम है कि चार महीने प्रतीक्षा की जायेगी। यदि इस बीच पति ने फिर संबंध स्थापित कर लिया तो उसे शपथ का कफ़्फ़ारह (प्रायश्चित) देना होगा। अन्यथा चार महीने पूरे हो जाने पर न्यायालय उसे शपथ से फिरने या तलाक़ देने पर बाध्य करेगा।

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وَإِنْ عَزَمُوا الطَّلَاقَ فَإِنَّ اللَّـهَ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ﴾ 227 ﴿

और यदि उन्होंने तलाक़ का संकल्प ले लिया हो, तो निःसंदेह अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है।

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وَالْمُطَلَّقَاتُ يَتَرَبَّصْنَ بِأَنفُسِهِنَّ ثَلَاثَةَ قُرُوءٍ ۚ وَلَا يَحِلُّ لَهُنَّ أَن يَكْتُمْنَ مَا خَلَقَ اللَّـهُ فِي أَرْحَامِهِنَّ إِن كُنَّ يُؤْمِنَّ بِاللَّـهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ ۚ وَبُعُولَتُهُنَّ أَحَقُّ بِرَدِّهِنَّ فِي ذَٰلِكَ إِنْ أَرَادُوا إِصْلَاحًا ۚ وَلَهُنَّ مِثْلُ الَّذِي عَلَيْهِنَّ بِالْمَعْرُوفِ ۚ وَلِلرِّجَالِ عَلَيْهِنَّ دَرَجَةٌ ۗ وَاللَّـهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ﴾ 228 ﴿

तथा जिन स्त्रियों को तलाक़ दी गयी हो, वे तीन बार रजवती होने तक अपने आपको विवाह से रोके रखें। उनके लिए ह़लाल (वैध) नहीं है कि अल्लाह ने जो उनके गर्भाशयों में पैदा किया[1] है, उसे छुपायें, यदि वे अल्लाह तथा आख़िरत (परलोक) पर ईमान रखती हों तथा उनके पति इस अवधि में अपनी पत्नियों को लौटा लेने के अधिकारी[2] हैं, यदि वे मिलाप[3] चाहते हों तथा सामान्य नियमानुसार स्त्रियों[4] के लिए वैसे ही अधिकार हैं, जैसे पुरुषों के उनके ऊपर हैं। फिर भी पुरुषों को स्त्रियों पर एक प्रधानता प्राप्त है और अल्लाह अति प्रभुत्वशाली, तत्वज्ञ है। 1. अर्थात मासिक धर्म अथवा गर्भ को। 2. यह बताया गया है कि पति तलाक़ के पश्चात् पत्नि को लौटाना चाहे तो उसे इस का अधिकार है। क्यों कि विवाह का मूल लक्ष्य मिलाप है, अलगाव नहीं। 3. हानि पहुँचाने अथवा दुःख देने के लिये नहीं। 4. यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जब इस्लाम आया तो संसार यह जानता ही न था कि स्त्रियों के भी कुछ अधिकार हो सकते हैं। स्त्रियों को संतान उत्पन्न करने का एक साधन समझा जाता था, और उन की मुक्ति इसी में थी कि वह पुरुषों की सेवा करें, प्राचीन धर्मानुसार स्त्री को पुरुष की सम्पत्ति समझा जाता था। पुरुष तथा स्त्री समान नहीं थे। स्त्री में मानव आत्मा के स्थान पर एक दूसरी आत्मा होती थी। रूमी विधान में भी स्त्री का स्थान पुरुष से बहुत नीचे था। जब कभी मानव शब्द बोला जाता तो उस से संबोधित पुरुष होता था। स्त्री पुरुष के साथ खड़ी नहीं हो सकती थी। कुछ अमानवीय विचारों में जन्म से पाप का सारा बोझ स्त्री पर डाल दिया जाता। आदम के पाप का कारण ह़व्वा हुयी। इस लिये पाप का पहला बीज स्त्री के हाथों पड़ा। और वही शैतान का साधन बनी। अब सदी स्त्री में पाप की प्रेरणा उभरती रहेगी। धार्मिक विषय में भी स्त्री पुरुष के समान न हो सकी। परन्तु इस्लाम ने केवल स्त्रियों के अधिकार का विचार ही नहीं दिया, बल्कि खुला एलान कर दिया कि जैसे पुरुषों के अधिकार हैं, वैस स्त्रियों के भी पुरुषों पर अधिकार हैं। कुर्आन ने इन चार शब्दों में स्त्री को वह सब कुछ दे दिया है जो उस का अधिकार था। और जो उसे कभी नहीं मिला था। इन शब्दों द्वारा उस के सम्मान और समता की घोषणा कर दी। दामपत्य जीवन तथा सामाजिक्ता की कोई ऐसी बात नहीं जो इन चार शब्दों में न आ गई हो। यद्यपि आगे यह भी कहा गया है कि पुरुषों के लिये स्त्रियों पर एक विशेष प्रधानता है। ऐसा क्यों है? इस का कारण हमें आगामी सूरह निसा में मिल जाता है कि यह इस लिये है कि पुरुष अपना धन स्त्रियों पर खर्च करते हैं। अर्थात परिवारिक जीवन की व्यवस्था के लिये एक व्यवस्थापक अवश्य होना चाहिये। और इस का भार पुरुषों पर रखा गया है। यही उन की प्रधानता तथा विशेषता है, जो केवल एक भार है। इस से पुरुष की जन्म से कोई प्रधानता सिध्द नहीं होती। यह केवल एक परिवारिक व्यवस्था के कारण हुआ है।

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الطَّلَاقُ مَرَّتَانِ ۖ فَإِمْسَاكٌ بِمَعْرُوفٍ أَوْ تَسْرِيحٌ بِإِحْسَانٍ ۗ وَلَا يَحِلُّ لَكُمْ أَن تَأْخُذُوا مِمَّا آتَيْتُمُوهُنَّ شَيْئًا إِلَّا أَن يَخَافَا أَلَّا يُقِيمَا حُدُودَ اللَّـهِ ۖ فَإِنْ خِفْتُمْ أَلَّا يُقِيمَا حُدُودَ اللَّـهِ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْهِمَا فِيمَا افْتَدَتْ بِهِ ۗ تِلْكَ حُدُودُ اللَّـهِ فَلَا تَعْتَدُوهَا ۚ وَمَن يَتَعَدَّ حُدُودَ اللَّـهِ فَأُولَـٰئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ ﴾ 229 ﴿

तलाक़ दो बार है; फिर नियमानुसार स्त्री को रोक लिया जाये या भली-भाँति विदा कर दिया जाये और तुम्हारे लिए ये ह़लाल (वैध) नहीं है कि उन्हें जो कुछ तुमने दिया है, उसमें से कुछ वापिस लो। फिर यदि तुम्हें ये भय[1] हो कि पति पत्नि अल्लाह की निर्धारित सीमाओं को स्थापित न रख सकेंगे, तो उन दोनों पर कोई दोष नहीं कि पत्नि अपने पति को कुछ देकर मुक्ति[2] करा ले। ये अल्लाह की सीमायें हैं, इनका उल्लंघन न करो और जो अल्लाह की सीमाओं का उल्लंघन करेंगे, वही अत्याचारी हैं। 1. अर्थात पति के पति के संरक्षकों को। 2. पत्नि के अपनी पति को कुछ दे कर विवाह बंधन से मुक्त करा लेने को इस्लाम की परिभाषा में "खुल्अ" कहा जाता है। इस्लाम ने जैसे पुरुषों को तलाक़ का अधिकार दिया है, उसी प्रकार स्त्रियों को भी "खुल्अ" ले लेने का अधिकार दिया है। अर्थात वह अपने पति से तलाक़ माँग सकती हैं।

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فَإِن طَلَّقَهَا فَلَا تَحِلُّ لَهُ مِن بَعْدُ حَتَّىٰ تَنكِحَ زَوْجًا غَيْرَهُ ۗ فَإِن طَلَّقَهَا فَلَا جُنَاحَ عَلَيْهِمَا أَن يَتَرَاجَعَا إِن ظَنَّا أَن يُقِيمَا حُدُودَ اللَّـهِ ۗ وَتِلْكَ حُدُودُ اللَّـهِ يُبَيِّنُهَا لِقَوْمٍ يَعْلَمُونَ ﴾ 230 ﴿

फिर यदि उसे (तीसरी बार) तलाक़ दे दी, तो वह स्त्री उसके लिए ह़लाल (वैध) नहीं होगी, जब तक दूसरे पति से विवाह न कर ले। अब यदि दूसरा पति (संभोग के पश्चात्) उसे तलाक दे दे, तब प्रथम पति से (निर्धारित अवधि पूरी करके) फिर विवाह कर सकती है, यदि वे दोनों समझते हों कि अल्लाह की सीमाओं को स्थापित रख[1] सकेंगे और ये अल्लाह की सीमायें हैं, जिन्हें उन लोगों के लिए उजागर कर रहा है, जो ज्ञान रखते हैं। 1. आयत का भावार्थ यह है कि प्रथम पति ने तीन तलाक़ दे दी हों तो निर्धारित अवधि में भी उसे पत्नी को लौटाने का अवसर नहीं दिया जायेगा। तथा पत्नी को यह अधिकार होगा कि निर्धारित अवधि पूरी कर के किसी दूसरे पति से धर्मविधान के अनुसार सह़ीह़ विवाह कर ले, फिर यदि दूसरा पति उसे सम्भोग के पश्चात् तलाक़ दे, या उस का देहांत हो जाये तो प्रथम पति से निर्धारित अवधि पूरी करने के पश्चात नये महर के साथ नया विवाह कर सकती है। लेकिन यह उस समय है जब दोनों यह समझते हों कि वे अल्लाह के आदेशों का पालन कर सकेंगे।

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وَإِذَا طَلَّقْتُمُ النِّسَاءَ فَبَلَغْنَ أَجَلَهُنَّ فَأَمْسِكُوهُنَّ بِمَعْرُوفٍ أَوْ سَرِّحُوهُنَّ بِمَعْرُوفٍ ۚ وَلَا تُمْسِكُوهُنَّ ضِرَارًا لِّتَعْتَدُوا ۚ وَمَن يَفْعَلْ ذَٰلِكَ فَقَدْ ظَلَمَ نَفْسَهُ ۚ وَلَا تَتَّخِذُوا آيَاتِ اللَّـهِ هُزُوًا ۚ وَاذْكُرُوا نِعْمَتَ اللَّـهِ عَلَيْكُمْ وَمَا أَنزَلَ عَلَيْكُم مِّنَ الْكِتَابِ وَالْحِكْمَةِ يَعِظُكُم بِهِ ۚ وَاتَّقُوا اللَّـهَ وَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّـهَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ ﴾ 231 ﴿

और यदि स्त्रियों को (एक या दो) तलाक़ दे दो और उनकी निर्धारित अवधि (इद्दत) पूरी होने लगे, तो नियमानुसार उन्हें रोक लो अथवा नियमानुसार विदा कर दो। उन्हें हानि पहुँचाने के लिए न रोको, ताकि उनपर अत्याचार करो और जो कोई ऐसा करेगा, वह स्वयं अपने ऊपर अत्याचार करेगा तथा अल्लाह की आयतों (आदेशों) को उपहास न बनाओ और अपने ऊपर अल्लाह के उपकार तथा पुस्तक (क़ुर्आन) एवं ह़िक्मत (सुन्नत) को याद करो, जिन्हें उसने तुमपर उतारा है और उनके द्वारा तुम्हें शिक्षा दे रहा है तथा अल्लाह से डरो और विश्वास रखो कि अल्लाह सब कुछ जानता है।[1] 1. आयत का अर्थ यह है कि पत्नी को पत्नी के रूप में रखो, और उन के अधिकार दो। अन्यथा तलाक़ दे कर उन की राह खोल दो। जाहिलिय्यत के युग के समान अंधेरे में न रखो। इस विषय में भी नैतिकती एवं संयम के आदर्श बनो, और क़ुर्आन तथा सुन्नत के आदेशों का अनुपालन करो।

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وَإِذَا طَلَّقْتُمُ النِّسَاءَ فَبَلَغْنَ أَجَلَهُنَّ فَلَا تَعْضُلُوهُنَّ أَن يَنكِحْنَ أَزْوَاجَهُنَّ إِذَا تَرَاضَوْا بَيْنَهُم بِالْمَعْرُوفِ ۗ ذَٰلِكَ يُوعَظُ بِهِ مَن كَانَ مِنكُمْ يُؤْمِنُ بِاللَّـهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ ۗ ذَٰلِكُمْ أَزْكَىٰ لَكُمْ وَأَطْهَرُ ۗ وَاللَّـهُ يَعْلَمُ وَأَنتُمْ لَا تَعْلَمُونَ ﴾ 232 ﴿

और जब तुम अपनी पत्नियों को (तीन से कम) तलाक़ दो और वे अपनी निश्चित अवधि (इद्दत) पूरी कर लें, तो (स्त्रियों के संरक्षको!) उन्हें अपने पतियों से विवाह करने से न रोको, जबकि सामान्य नियमानुसार वे आपस में विवाह करने पर सहमत हों, ये तुममें से उसे निर्देश दिया जा रहा है, जो अल्लाह तथा अंतिम दिन (प्रलय) पर ईमान (विश्वास) रखता है, यही तुम्हारे लिए अधिक स्वच्छ तथा पवित्र है और अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते।

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وَالْوَالِدَاتُ يُرْضِعْنَ أَوْلَادَهُنَّ حَوْلَيْنِ كَامِلَيْنِ ۖ لِمَنْ أَرَادَ أَن يُتِمَّ الرَّضَاعَةَ ۚ وَعَلَى الْمَوْلُودِ لَهُ رِزْقُهُنَّ وَكِسْوَتُهُنَّ بِالْمَعْرُوفِ ۚ لَا تُكَلَّفُ نَفْسٌ إِلَّا وُسْعَهَا ۚ لَا تُضَارَّ وَالِدَةٌ بِوَلَدِهَا وَلَا مَوْلُودٌ لَّهُ بِوَلَدِهِ ۚ وَعَلَى الْوَارِثِ مِثْلُ ذَٰلِكَ ۗ فَإِنْ أَرَادَا فِصَالًا عَن تَرَاضٍ مِّنْهُمَا وَتَشَاوُرٍ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْهِمَا ۗ وَإِنْ أَرَدتُّمْ أَن تَسْتَرْضِعُوا أَوْلَادَكُمْ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ إِذَا سَلَّمْتُم مَّا آتَيْتُم بِالْمَعْرُوفِ ۗ وَاتَّقُوا اللَّـهَ وَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّـهَ بِمَا تَعْمَلُونَ بَصِيرٌ ﴾ 233 ﴿

और मातायें अपने बच्चों को पूरे दो वर्ष दूध पिलायें और पिता को नियमानुसार उन्हें खाना-कपड़ा देना है, किसी पर उसकी सकत से अधिक भार नहीं डाला जायेगा; न माता को उसके बच्चे के कारण हानि पहुँचाई जाये और न पिता को उसके बच्चे के कारण। और इसी प्रकार उस (पिता) के वारिस (उत्तराधिकारी) पर (खाना कपड़ा देने का) भार है। फिर यदि दोनों आपस की सहमति तथा प्रामर्श से (दो वर्ष से पहले) दूध छुड़ाना चाहें, तो दोनों पर कोई दोष नहीं और यदि (तुम्हारा विचार किसी अन्य स्त्री से) दूध पिलवाने का हो, तो इसमें भी तुमपर कोई दोष नहीं, जबकि जो कुछ नियमानुसार उसे देना है, उसे चुका दो तथा अल्लाह से डरते रहो और जान लो कि तुम जो कुछ करते हो, उसे अल्लाह देख रहा[1] है। 1. तलाक़ की स्थिति में यदि माँ की गोद में बच्चा हो तो यह आदेश दिया गया है कि माँ ही बच्चे को दूध पिलाये और दूध पिलाने तक उस का ख़र्च पिता पर है। और दूध पिलाने की अवधि दो वर्ष है। साथ ही दो मूल नियम भी बताये गये हैं कि न तो माँ को बच्चे के कारण हानि पहुँचाई जाये और न पिता को। और किसी पर उस की शक्ति से अधिक ख़र्च का भार न डाला जाये।

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وَالَّذِينَ يُتَوَفَّوْنَ مِنكُمْ وَيَذَرُونَ أَزْوَاجًا يَتَرَبَّصْنَ بِأَنفُسِهِنَّ أَرْبَعَةَ أَشْهُرٍ وَعَشْرًا ۖ فَإِذَا بَلَغْنَ أَجَلَهُنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيمَا فَعَلْنَ فِي أَنفُسِهِنَّ بِالْمَعْرُوفِ ۗ وَاللَّـهُ بِمَا تَعْمَلُونَ خَبِيرٌ ﴾ 234 ﴿

और तुममें से जो मर जायें और अपने पीछे पत्नियाँ छोड़ जायें, तो वे स्वयं को चार महीने दस दिन रोके रखें।[1] फिर जब उनकी अवधि पूरी हो जाये, तो वे सामान्य नियमानुसार अपने विषय में जो भी करें, उसमें तुमपर कोई दोष[2] नहीं तथा अल्लाह तुम्हारे कर्मों से सूचित है। 1. उस की निश्चित अवधि चार महीने दस दिन है। वह तुरंत दूसरा विवाह नहीं कर सकती, और न इस से अधिक पति का सोग मनाये। जैसा जाहिलिय्यत में होता था कि पत्नी को एक वर्ष तक पति का सोग मनाना पड़ता था। 2. यदि स्त्री निश्चित अवधि के पश्चात दूसरा निकाह़ करना चाहे तो उसे राका न जाये।

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وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيمَا عَرَّضْتُم بِهِ مِنْ خِطْبَةِ النِّسَاءِ أَوْ أَكْنَنتُمْ فِي أَنفُسِكُمْ ۚ عَلِمَ اللَّـهُ أَنَّكُمْ سَتَذْكُرُونَهُنَّ وَلَـٰكِن لَّا تُوَاعِدُوهُنَّ سِرًّا إِلَّا أَن تَقُولُوا قَوْلًا مَّعْرُوفًا ۚ وَلَا تَعْزِمُوا عُقْدَةَ النِّكَاحِ حَتَّىٰ يَبْلُغَ الْكِتَابُ أَجَلَهُ ۚ وَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّـهَ يَعْلَمُ مَا فِي أَنفُسِكُمْ فَاحْذَرُوهُ ۚ وَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّـهَ غَفُورٌ حَلِيمٌ ﴾ 235 ﴿

इस अवधि में यदि तुम (उन) स्त्रियों को विवाह का संकेत दो अथवा अपने मन में छुपाये रखो, तो तुमपर कोई दोष नहीं। अल्लाह जानता है कि उनका विचार तुम्हारे मन में आयेगा, परन्तु उन्हें गुप्त रूप से विवाह का वचन न दो। परन्तु ये कि नियमानुसार[1] कोई बात कहो तथा विवाह के बंधन का निश्चय उस समय तक न करो, जब तक निर्धारित अवधि पूरी न हो जाये[2] तथा जान लो कि जो कुछ तुम्हारे मन में है, उसे अल्लाह जानता है। अतः उससे डरते रहो और जान लो कि अल्लाह क्षमाशील, सहनशील है। 1. विवाह के विषय में जो बात की जाये वह खुली तथा नियमानुसार हो, गुप्त नहीं। 2. जब तक अवधि पूरी न हो विवाह की बात तथा वचन नहीं होना चाहिये।

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لَّا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ إِن طَلَّقْتُمُ النِّسَاءَ مَا لَمْ تَمَسُّوهُنَّ أَوْ تَفْرِضُوا لَهُنَّ فَرِيضَةً ۚ وَمَتِّعُوهُنَّ عَلَى الْمُوسِعِ قَدَرُهُ وَعَلَى الْمُقْتِرِ قَدَرُهُ مَتَاعًا بِالْمَعْرُوفِ ۖ حَقًّا عَلَى الْمُحْسِنِينَ ﴾ 236 ﴿

और तुमपर कोई दोष नहीं, यदि तुम स्त्रियों को संभोग करने तथा महर (विवाह उपहार) निर्धारित करने से पहले तलाक़ दे दो, (अल्बत्ता) उन्हें नियमानुसार कुछ दो; धनी पर अपनी शक्ति के अनुसार तथा निर्धन पर अपनी शक्ति के अनुसार देना है। ये उपकारियों पर आवश्यक है।

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وَإِن طَلَّقْتُمُوهُنَّ مِن قَبْلِ أَن تَمَسُّوهُنَّ وَقَدْ فَرَضْتُمْ لَهُنَّ فَرِيضَةً فَنِصْفُ مَا فَرَضْتُمْ إِلَّا أَن يَعْفُونَ أَوْ يَعْفُوَ الَّذِي بِيَدِهِ عُقْدَةُ النِّكَاحِ ۚ وَأَن تَعْفُوا أَقْرَبُ لِلتَّقْوَىٰ ۚ وَلَا تَنسَوُا الْفَضْلَ بَيْنَكُمْ ۚ إِنَّ اللَّـهَ بِمَا تَعْمَلُونَ بَصِيرٌ ﴾ 237 ﴿

और यदि तुम उनहें, उनसे संभोग करने से पहले तलाक़ दो, इस स्थिति में कि तुमने उनके लिए महर (विवाह उपहार) निर्धारित किया है, तो निर्धारित महर का आधा देना अनिवार्य है। ये और बात है कि वे क्षमा कर दें अथवा वे क्षमा कर दें जिनके हाथ में विवाह का बंधन[1] है और क्षमा कर देना संयम से अधिक समीप है और आपस में उपकार को न भूलो। तुम जो कुछ कर रहे हो, अल्लाह सब देख रहा है। 1. अर्थात पति अपनी ओर से अधिक अर्थात पूरा महर दे तो यह प्रधानता की बात होगी। इन दो आयतों में यह नियम बताया गया है कि यदि विवाह के पश्चात् पति और पत्नी में कोई संबंध स्थापित हुआ हो, तो इस स्थिति में यदि महर निर्धारित न किया गया हो तो पति अपनी शक्ति अनुसार जो भी दे सकता हो, उसे अवश्य दे। और यदि महर निर्धारित हो तो इस स्थिति में आधा महर पत्नि को देना अनिवार्य है। और यदि पुरुष इस से अधिक दे सके तो संयम तथा प्रधानता की बात होगी।

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حَافِظُوا عَلَى الصَّلَوَاتِ وَالصَّلَاةِ الْوُسْطَىٰ وَقُومُوا لِلَّـهِ قَانِتِينَ ﴾ 238 ﴿

नमाज़ों का, विशेष रूप से माध्यमिक नमाज़ (अस्र) का ध्यान रखो[1] तथा अल्लाह के लिए विनय पूर्वक खड़े रहो। 1. अस्र की नमाज़ पर ध्यान रखने के लिये इस कारण बल दिया गया है कि व्यवसाय में लीन रहने का समय होता है।

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فَإِنْ خِفْتُمْ فَرِجَالًا أَوْ رُكْبَانًا ۖ فَإِذَا أَمِنتُمْ فَاذْكُرُوا اللَّـهَ كَمَا عَلَّمَكُم مَّا لَمْ تَكُونُوا تَعْلَمُونَ ﴾ 239 ﴿

और यदि तुम्हें भय[1] हो, तो पैदल या सवार (जैसे सम्भव हो) नमाज़ पढ़ो, फिर जब निश्चिंत हो जाओ, तो अल्लाह ने तुम्हें जैसे सिखाया है, जिसे पहले तुम नहीं जानते थे, वैसे अल्लाह को याद करो। 1. अर्थात शत्रु आदि का।

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وَالَّذِينَ يُتَوَفَّوْنَ مِنكُمْ وَيَذَرُونَ أَزْوَاجًا وَصِيَّةً لِّأَزْوَاجِهِم مَّتَاعًا إِلَى الْحَوْلِ غَيْرَ إِخْرَاجٍ ۚ فَإِنْ خَرَجْنَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِي مَا فَعَلْنَ فِي أَنفُسِهِنَّ مِن مَّعْرُوفٍ ۗ وَاللَّـهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ﴾ 240 ﴿

और जो तुममें से मर जायें तथा पत्नियाँ छोड़ जायें, वे अपनी पत्नियों के लिए एक वर्ष तक, उनहें खर्च देने तथा (घर से) न निकालने की वसिय्यत कर जायें, यदि वे स्वयं निकल जायें[1] तथा सामान्य नियमानुसार अपने विषय में कुछ भी करें, तो तुमपर कोई दोष नहीं। अल्लाह प्रभावशाली तत्वज्ञ है। 1. अर्थात एक वर्ष पूरा होने से पहले। क्यों कि उन की निश्चित अवधि चार महीने और दस दिन ही निर्धारित है।

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وَلِلْمُطَلَّقَاتِ مَتَاعٌ بِالْمَعْرُوفِ ۖ حَقًّا عَلَى الْمُتَّقِينَ ﴾ 241 ﴿

तथा जिन स्त्रियों को तलाक़ दी गयी हो, तो उन्हें भी उचित रूप से सामग्री मिलनी चाहिए। ये आज्ञाकारियों पर आवश्यक है।

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كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ اللَّـهُ لَكُمْ آيَاتِهِ لَعَلَّكُمْ تَعْقِلُونَ ﴾ 242 ﴿

इसी प्रकार अल्लाह तुम्हारे लिए अपनी आयतों को उजागर कर देता है, ताकि तुम समझो।

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أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ خَرَجُوا مِن دِيَارِهِمْ وَهُمْ أُلُوفٌ حَذَرَ الْمَوْتِ فَقَالَ لَهُمُ اللَّـهُ مُوتُوا ثُمَّ أَحْيَاهُمْ ۚ إِنَّ اللَّـهَ لَذُو فَضْلٍ عَلَى النَّاسِ وَلَـٰكِنَّ أَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَشْكُرُونَ ﴾ 243 ﴿

क्या आपने उनकी दशा पर विचार नहीं किया, जो अपने घरों से मौत के भय से निकल गये[1], जबकि उनकी संख्या हज़ारों में थी, तो अल्लाह ने उनसे कहा कि मर जाओ, फिर उन्हें जीवित कर दिया। वास्तव में, अल्लाह लोगों के लिए बड़ा उपकारी है, परन्तु अधिकांश लोग कृतज्ञता नहीं करते।[1] 1. इस में बनी इस्राईल के एक गिरोह की ओर संकेत किया गया है। 2. आयत का भावार्थ यह है कि जो लोग मौत से डरते हों, वह जीवन में सफल नहीं हो सकते, तथा जीवन और मौत अल्लाह के हाथ में है।

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وَقَاتِلُوا فِي سَبِيلِ اللَّـهِ وَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّـهَ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ﴾ 244 ﴿

और तुम अल्लाह (के धर्म के समर्थन) के लिए युध्द करो और जान लो कि अल्लाह सब कुछ सुनता-जानता है।

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مَّن ذَا الَّذِي يُقْرِضُ اللَّـهَ قَرْضًا حَسَنًا فَيُضَاعِفَهُ لَهُ أَضْعَافًا كَثِيرَةً ۚ وَاللَّـهُ يَقْبِضُ وَيَبْسُطُ وَإِلَيْهِ تُرْجَعُونَ ﴾ 245 ﴿

कौन है, जो अल्लाह को अच्छा उधार[1] देता है, ताकि अल्लाह उसे उसके लिए कई गुना अधिक कर दे? और अल्लाह ही थोड़ा और अधिक करता है और उसी की ओर तुम सब फेरे जाओगे। 1. अर्थात जिहाद के लिये धन ख़र्च करना अल्लाह को उधार देना है।

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أَلَمْ تَرَ إِلَى الْمَلَإِ مِن بَنِي إِسْرَائِيلَ مِن بَعْدِ مُوسَىٰ إِذْ قَالُوا لِنَبِيٍّ لَّهُمُ ابْعَثْ لَنَا مَلِكًا نُّقَاتِلْ فِي سَبِيلِ اللَّـهِ ۖ قَالَ هَلْ عَسَيْتُمْ إِن كُتِبَ عَلَيْكُمُ الْقِتَالُ أَلَّا تُقَاتِلُوا ۖ قَالُوا وَمَا لَنَا أَلَّا نُقَاتِلَ فِي سَبِيلِ اللَّـهِ وَقَدْ أُخْرِجْنَا مِن دِيَارِنَا وَأَبْنَائِنَا ۖ فَلَمَّا كُتِبَ عَلَيْهِمُ الْقِتَالُ تَوَلَّوْا إِلَّا قَلِيلًا مِّنْهُمْ ۗ وَاللَّـهُ عَلِيمٌ بِالظَّالِمِينَ ﴾ 246 ﴿

(हे नबी!) क्या आपने बनी इस्राईल के प्रमुखों के विषय पर विचार नहीं किया, जो मूसा के बाद सामने आया? जब उसने अपने नबी से कहाः हमारे लिए एक राजा बना दो। हम अल्लाह की राह में युध्द करेंगे, (नबी ने) कहाः ऐसा तो नहीं होगा कि तुम्हें युध्द का आदेश दे दिया जाये तो अवज्ञा कर जाओ? उन्होंने कहाः ऐसा नहीं हो सकता कि हम अल्लाह की राह में युध्द न करें। जबकि हम अपने घरों और अपने पुत्रों से निकाल दिये गये हैं। परन्तु, जब उन्हें युध्द का आदेश दे दिया गया, तो उनमें से थोड़े के सिवा सब फिर गये। और अल्लाह अत्याचारियों को भली भाँति जानता है।

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وَقَالَ لَهُمْ نَبِيُّهُمْ إِنَّ اللَّـهَ قَدْ بَعَثَ لَكُمْ طَالُوتَ مَلِكًا ۚ قَالُوا أَنَّىٰ يَكُونُ لَهُ الْمُلْكُ عَلَيْنَا وَنَحْنُ أَحَقُّ بِالْمُلْكِ مِنْهُ وَلَمْ يُؤْتَ سَعَةً مِّنَ الْمَالِ ۚ قَالَ إِنَّ اللَّـهَ اصْطَفَاهُ عَلَيْكُمْ وَزَادَهُ بَسْطَةً فِي الْعِلْمِ وَالْجِسْمِ ۖ وَاللَّـهُ يُؤْتِي مُلْكَهُ مَن يَشَاءُ ۚ وَاللَّـهُ وَاسِعٌ عَلِيمٌ ﴾ 247 ﴿

तथा उनके नबी ने कहाः अल्लाह ने 'तालूत' को तुम्हारा राजा बना दिया है। वे कहने लगेः 'तालूत' हमारा राजा कैसे हो सकता है? हम उससे अधिक राज्य का अधिकार रखते हैं, वह तो बड़ा धनी भी नहीं है। (नबी ने) कहाः अल्लाह ने उसे तुमपर निर्वाचित किया है और उसे अधिक ज्ञान तथा शारीरिक बल प्रदान किया है और अल्लाह जिसे चाहे, अपना राज्य प्रदान करे तथा अल्लाह ही विशाल, अति ज्ञानी[1] है। 1. अर्थात उसी के अधिकार में सब कुछ है। और कौन राज्य की क्षमता रखता है? उसे भी वही जानता है।

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وَقَالَ لَهُمْ نَبِيُّهُمْ إِنَّ آيَةَ مُلْكِهِ أَن يَأْتِيَكُمُ التَّابُوتُ فِيهِ سَكِينَةٌ مِّن رَّبِّكُمْ وَبَقِيَّةٌ مِّمَّا تَرَكَ آلُ مُوسَىٰ وَآلُ هَارُونَ تَحْمِلُهُ الْمَلَائِكَةُ ۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَآيَةً لَّكُمْ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ ﴾ 248 ﴿

तथा उनके नबी ने उनसे कहाः उसके राज्य का लक्षण ये है कि वह ताबूत तुम्हारे पास आयेगा, जिसमें तुम्हारे पालनहार की ओर से तुम्हारे लिए संतोष तथा मूसा और हारून के घराने के छोड़े हुए अवशेष हैं, उसे फ़रिश्ते उठाये हुए होंगे। निश्चय यदि तुम ईमान वाले हो, तो इसमें तुम्हारे लिए बड़ी निशानी[1] (लक्षण) है। 1. अर्थात अल्लाह की ओर से तालूत को निर्वाचित किये जाने की।

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فَلَمَّا فَصَلَ طَالُوتُ بِالْجُنُودِ قَالَ إِنَّ اللَّـهَ مُبْتَلِيكُم بِنَهَرٍ فَمَن شَرِبَ مِنْهُ فَلَيْسَ مِنِّي وَمَن لَّمْ يَطْعَمْهُ فَإِنَّهُ مِنِّي إِلَّا مَنِ اغْتَرَفَ غُرْفَةً بِيَدِهِ ۚ فَشَرِبُوا مِنْهُ إِلَّا قَلِيلًا مِّنْهُمْ ۚ فَلَمَّا جَاوَزَهُ هُوَ وَالَّذِينَ آمَنُوا مَعَهُ قَالُوا لَا طَاقَةَ لَنَا الْيَوْمَ بِجَالُوتَ وَجُنُودِهِ ۚ قَالَ الَّذِينَ يَظُنُّونَ أَنَّهُم مُّلَاقُو اللَّـهِ كَم مِّن فِئَةٍ قَلِيلَةٍ غَلَبَتْ فِئَةً كَثِيرَةً بِإِذْنِ اللَّـهِ ۗ وَاللَّـهُ مَعَ الصَّابِرِينَ ﴾ 249 ﴿

फिर जब तालूत सेना लेकर चला, तो उसने कहाः निश्चय अल्लाह एक नहर द्वारा तुम्हारी परीक्षा लेने वाला है। जो उसमें से पियेगा वह मेरा साथ नहीं देगा और जो उसे नहीं चखेगा, वह मेरा साथ देगा, परन्तु जो अपने हाथ से चुल्लू भर पी ले, (तो कोई दोष नहीं)। तो थोड़े के सिवा सबने उसमें से पी लिया। फिर जब उस (तालूत) ने और जो उसके साथ ईमान लाये, उसे (नहर को) पार किया, तो कहाः आज हममें (शत्रु) जालूत और उसकी सेना से युध्द करने की शक्ति नहीं। (परन्तु) जो समझ रहे थे कि उन्हें अल्लाह से मिलना है, उन्होंने कहाः बहुत-से छोटे दल, अल्लाह की अनुमति से, भारी दलों पर विजय प्राप्त कर चुके हैं और अल्लाह सहनशीलों के साथ है।

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وَلَمَّا بَرَزُوا لِجَالُوتَ وَجُنُودِهِ قَالُوا رَبَّنَا أَفْرِغْ عَلَيْنَا صَبْرًا وَثَبِّتْ أَقْدَامَنَا وَانصُرْنَا عَلَى الْقَوْمِ الْكَافِرِينَ ﴾ 250 ﴿

और जब वे, जालूत और उसकी सेना के सम्मुख हुए, तो प्रार्थना कीः हे हमारे पालनहार! हमें धैर्य प्रदान कर तथा हमारे चरणों को (रणक्षेत्र में) स्थिर कर दे और काफ़िरों पर हमारी सहायता कर।

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فَهَزَمُوهُم بِإِذْنِ اللَّـهِ وَقَتَلَ دَاوُودُ جَالُوتَ وَآتَاهُ اللَّـهُ الْمُلْكَ وَالْحِكْمَةَ وَعَلَّمَهُ مِمَّا يَشَاءُ ۗ وَلَوْلَا دَفْعُ اللَّـهِ النَّاسَ بَعْضَهُم بِبَعْضٍ لَّفَسَدَتِ الْأَرْضُ وَلَـٰكِنَّ اللَّـهَ ذُو فَضْلٍ عَلَى الْعَالَمِينَ ﴾ 251 ﴿

तो उन्होंने अल्लाह की अनुमति से उन्हें पराजित कर दिया और दावूद ने जालूत को वध कर दिया तथा अल्लाह ने उसे (दावूद[1] को) राज्य और ह़िक्मत (नुबूवत) प्रदान की तथा उसे जो ज्ञान चाहा, दिया और यदि अल्लाह कुछ लोगों की कुछ लोगों द्वारा रक्षा न करता, तो धरती की व्यवस्था बिगड़ जाती, परन्तु संसार वासियों पर अल्लाह बड़ा दयाशील है। 1. दाऊद अलैहिस्सलाम तालूत की सेना में एक सैनिक थे, जिन को अल्लाह ने राज्य देने के साथ नबी भी बनाया। उन्हीं के पुत्र सुलैमान अलैहिस्सलाम थे। दावूद अलैहिस्सलाम को अल्लाह ने धर्म पुस्तक ज़बूर प्रदान की। सूरह साद में उन की कथा आ रही है।

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تِلْكَ آيَاتُ اللَّـهِ نَتْلُوهَا عَلَيْكَ بِالْحَقِّ ۚ وَإِنَّكَ لَمِنَ الْمُرْسَلِينَ ﴾ 252 ﴿

(हे नबी!) ये अल्लाह की आयतें हैं, जो हम आपको सुना रहे हैं तथा वास्तव में, आप रसूलों में से हैं।

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تِلْكَ الرُّسُلُ فَضَّلْنَا بَعْضَهُمْ عَلَىٰ بَعْضٍ ۘ مِّنْهُم مَّن كَلَّمَ اللَّـهُ ۖ وَرَفَعَ بَعْضَهُمْ دَرَجَاتٍ ۚ وَآتَيْنَا عِيسَى ابْنَ مَرْيَمَ الْبَيِّنَاتِ وَأَيَّدْنَاهُ بِرُوحِ الْقُدُسِ ۗ وَلَوْ شَاءَ اللَّـهُ مَا اقْتَتَلَ الَّذِينَ مِن بَعْدِهِم مِّن بَعْدِ مَا جَاءَتْهُمُ الْبَيِّنَاتُ وَلَـٰكِنِ اخْتَلَفُوا فَمِنْهُم مَّنْ آمَنَ وَمِنْهُم مَّن كَفَرَ ۚ وَلَوْ شَاءَ اللَّـهُ مَا اقْتَتَلُوا وَلَـٰكِنَّ اللَّـهَ يَفْعَلُ مَا يُرِيدُ ﴾ 253 ﴿

वो रसूल हैं। उनहें हमने एक-दूसरे पर प्रधानता दी है। उनमें से कुछ ने अल्लाह से बात की और कुछ को कई श्रेणियाँ ऊँचा किया तथा मर्यम के पुत्र ईसा को खुली निशानियाँ दीं और रूह़ुलक़ुदुस[1] द्वारा उसे समर्थन दिया और यदि अल्लाह चाहता, तो इन रसूलों के पश्चात् खुली निशानियाँ आ जाने पर लोग आपस में न लड़ते, परन्तु उन्होंने विभेद किया, तो उनमें से कोई ईमान लाया और किसी ने कुफ़्र किया और यदि अल्लाह चाहता, तो वे नहीं लड़ते, परन्तु अल्लाह जो चाहता है, करता है। 1. "रूह़ुल क़ुदुस" का शाब्दिक अर्थ पवित्रात्मा है। और इस से अभिप्रेत एक फ़रिश्ता है, जिस का नाम "जिब्रील" अलैहिस्सलाम है।

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يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا أَنفِقُوا مِمَّا رَزَقْنَاكُم مِّن قَبْلِ أَن يَأْتِيَ يَوْمٌ لَّا بَيْعٌ فِيهِ وَلَا خُلَّةٌ وَلَا شَفَاعَةٌ ۗ وَالْكَافِرُونَ هُمُ الظَّالِمُونَ ﴾ 254 ﴿

हे ईमान वालो! हमने तुम्हें जो कुछ दिया है, उसमें से दान करो, उस दिन (अर्थातः प्रलय) के आने से पहले, जिसमें न कोई सौदा होगा, न कोई मैत्री और न ही कोई अनुशंसा (सिफ़ारिश) काम आएगी तथा काफ़िर लोग[1] ही अत्याचारी[2] हैं। 1. अर्थात जो इस तथ्य को नहीं मानते वही स्वयं को हानि पहुँचा रहे हैं। 2. आयत का भावार्थ यह है कि परलोक की मुक्ति ईमान और सदाचार पर निरभर है, न वहाँ मुक्ति का सौदा होगा न मैत्री और सिफ़ारिश काम आयेगी।

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اللَّـهُ لَا إِلَـٰهَ إِلَّا هُوَ الْحَيُّ الْقَيُّومُ ۚ لَا تَأْخُذُهُ سِنَةٌ وَلَا نَوْمٌ ۚ لَّهُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ ۗ مَن ذَا الَّذِي يَشْفَعُ عِندَهُ إِلَّا بِإِذْنِهِ ۚ يَعْلَمُ مَا بَيْنَ أَيْدِيهِمْ وَمَا خَلْفَهُمْ ۖ وَلَا يُحِيطُونَ بِشَيْءٍ مِّنْ عِلْمِهِ إِلَّا بِمَا شَاءَ ۚ وَسِعَ كُرْسِيُّهُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ ۖ وَلَا يَئُودُهُ حِفْظُهُمَا ۚ وَهُوَ الْعَلِيُّ الْعَظِيمُ ﴾ 255 ﴿

अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं, वह जीवित[1] तथा नित्य स्थायी है, उसे ऊँघ तथा निद्रा नहीं आती। आकाश और धरती में जो कुछ है, सब उसी का[2] है। कौन है, जो उसके पास उसकी अनुमति के बिना अनुशंसा (सिफ़ारिश) कर सके? जो कुछ उनके समक्ष और जो कुछ उनसे ओझल है, सब जानता है। उसके ज्ञान में से वही जान सकते हैं, जिसे वह चाहे। उसकी कुर्सी आकाश तथा धरती को समोये हुए है। उन दोनों की रक्षा उसे नहीं थकाती। वही सर्वोच्च[3], महान है। 1. अर्थात स्वयंभु, अनन्त है। 2. अर्थात जो स्वयं स्थित तथा सब उस की सहायता से स्थित हैं। 3. यह क़ुर्आन की सर्वमहान आयत है। और इस का नाम "आयतुल कुर्सी" है। ह़दीस में इस की बड़ी प्रधानता बताई गई है। (तफ़्सीर इब्ने कसीर)

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لَا إِكْرَاهَ فِي الدِّينِ ۖ قَد تَّبَيَّنَ الرُّشْدُ مِنَ الْغَيِّ ۚ فَمَن يَكْفُرْ بِالطَّاغُوتِ وَيُؤْمِن بِاللَّـهِ فَقَدِ اسْتَمْسَكَ بِالْعُرْوَةِ الْوُثْقَىٰ لَا انفِصَامَ لَهَا ۗ وَاللَّـهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ﴾ 256 ﴿

धर्म में बल प्रयोग नहीं। सुपथ, कुपथ से अलग हो चुका है। अतः, अब जो ताग़ूत (अर्थात अल्लाह के सिवा पूज्यों) को नकार दे तथा अल्लाह पर ईमान लाये, तो उसने दृढ़ कड़ा (सहारा) पकड़ लिया, जो कभी खण्डित नहीं हो सकता तथा अल्लाह सब कुछ सुनता-जानता[1] है। 1. आयत का भावार्थ यह है कि धर्म तथा आस्था के विषय में बल प्रयोग की अनुमति नहीं, धर्म दिल की आस्था और विश्वास की चीज़ है। जो शिक्षा दिक्षा से पैदा हो सकता है, न कि बल प्रयोग और दबाव से। इस में यह संकेत भी है कि इस्लाम में जिहाद अत्याचार को रोकने तथा सत्धर्म की रक्षा के लिये है न कि धर्म के प्रसार के लिये। धर्म के प्रसार का साधन एक ही है, और वह प्रचार है, सत्य प्रकाश है। यदि अंधकार हो तो केवल प्रकाश की आवश्यक्ता है। फिर प्रकाश जिस ओर फिरेगा तो अंधकार स्वयं दूर हो जायेगा।

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اللَّـهُ وَلِيُّ الَّذِينَ آمَنُوا يُخْرِجُهُم مِّنَ الظُّلُمَاتِ إِلَى النُّورِ ۖ وَالَّذِينَ كَفَرُوا أَوْلِيَاؤُهُمُ الطَّاغُوتُ يُخْرِجُونَهُم مِّنَ النُّورِ إِلَى الظُّلُمَاتِ ۗ أُولَـٰئِكَ أَصْحَابُ النَّارِ ۖ هُمْ فِيهَا خَالِدُونَ ﴾ 257 ﴿

अल्लाह उनका सहायक है, जो ईमान लाये। वह उनहें अंधेरों से निकालता है और प्रकाश में लाता है और जो काफ़िर (विश्वासहीन) हैं, उनके सहायक ताग़ूत (उनके मिथ्या पूज्य) हैं। जो उन्हें प्रकाश से अंधेरों की और ले जाते हैं। यही नारकी हैं, जो उसमें सदावासी होंगे।

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أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِي حَاجَّ إِبْرَاهِيمَ فِي رَبِّهِ أَنْ آتَاهُ اللَّـهُ الْمُلْكَ إِذْ قَالَ إِبْرَاهِيمُ رَبِّيَ الَّذِي يُحْيِي وَيُمِيتُ قَالَ أَنَا أُحْيِي وَأُمِيتُ ۖ قَالَ إِبْرَاهِيمُ فَإِنَّ اللَّـهَ يَأْتِي بِالشَّمْسِ مِنَ الْمَشْرِقِ فَأْتِ بِهَا مِنَ الْمَغْرِبِ فَبُهِتَ الَّذِي كَفَرَ ۗ وَاللَّـهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الظَّالِمِينَ ﴾ 258 ﴿

(हे नबी!) क्या आपने उस व्यक्ति की दशा पर विचार नहीं किया, जिसने इब्राहीम से उसके पालनहार के विषय में विवाद किया, इसलिए कि अल्लाह ने उसे राज्य दिया था? जब इब्राहीम ने कहाः मेरा पालनहार वो है, जो जीवित करता तथा मारता है, तो उसने कहाः मैं भी जीवित[1] करता तथा मारता हूँ। इब्राहीम ने कहाः अल्लाह सूर्य को पूर्व से लाता है, तू उसे पश्चिम से ले आ! (ये सुनकर) काफ़िर चकित रह गया और अल्लाह अत्याचारियों को मार्गदर्शन नहीं देता। 1. अर्थात जिसे चाहूँ मार दूँ और जिसे चाहूँ क्षमा कर दूँ। इस आयत में अल्लाह के विश्व व्यवस्थापक होने का प्रमाणिकरण है। और इस के पश्चात की आयत में उस के मुर्दे को जीवित करने की शक्ति का प्रमाणिकरण है।

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أَوْ كَالَّذِي مَرَّ عَلَىٰ قَرْيَةٍ وَهِيَ خَاوِيَةٌ عَلَىٰ عُرُوشِهَا قَالَ أَنَّىٰ يُحْيِي هَـٰذِهِ اللَّـهُ بَعْدَ مَوْتِهَا ۖ فَأَمَاتَهُ اللَّـهُ مِائَةَ عَامٍ ثُمَّ بَعَثَهُ ۖ قَالَ كَمْ لَبِثْتَ ۖ قَالَ لَبِثْتُ يَوْمًا أَوْ بَعْضَ يَوْمٍ ۖ قَالَ بَل لَّبِثْتَ مِائَةَ عَامٍ فَانظُرْ إِلَىٰ طَعَامِكَ وَشَرَابِكَ لَمْ يَتَسَنَّهْ ۖ وَانظُرْ إِلَىٰ حِمَارِكَ وَلِنَجْعَلَكَ آيَةً لِّلنَّاسِ ۖ وَانظُرْ إِلَى الْعِظَامِ كَيْفَ نُنشِزُهَا ثُمَّ نَكْسُوهَا لَحْمًا ۚ فَلَمَّا تَبَيَّنَ لَهُ قَالَ أَعْلَمُ أَنَّ اللَّـهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ ﴾ 259 ﴿

अथवा उस व्यक्ति के प्रकार, जो एक ऐसी नगरी से गुज़रा, जो अपनी छतों सहित ध्वस्त पड़ी थी? उसने कहाः अल्लाह इसके ध्वस्त हो जाने के पश्चात् इसे कैसे जीवित (आबाद) करेगा? फिर अल्लाह ने उसे सौ वर्ष तक मौत दे दी। फिर उसे जीवित किया और कहाः तुम कितनी अवधि तक मुर्दा पड़े रहे? उसने कहाः एक दिन अथवा दिन के कुछ क्षण। (अल्लाह ने) कहाः बल्कि तुम सौ वर्ष तक पड़े रहे। अपने खाने पीने को देखो कि तनिक परिवर्तन नहीं हुआ है तथा अपने गधे की ओर देखो, ताकी हम तुम्हें लोगों के लिए एक निशानी (चिन्ह) बना दें तथा (गधे की) अस्थियों को देखो कि हम उन्हें कैसे खड़ा करते हैं और उनपर कैसे माँस चढ़ाते हैं? इस प्रकार जब उसके समक्ष बातें उजागर हो गयीं, तो वह[1] पुकार उठा कि मझे (प्रत्यक्ष) ज्ञान हो गया कि अल्लाह जो चाहे, कर सकता है। 1. इस व्यक्ति के विषय में भाष्यकारों ने विभेद किया है। परन्तु सम्भवतः वह व्यक्ति "उज़ैर" थे। और नगरी "बैतुल मक़्दिस" थी। जिसे बुख़्त नस्सर राजा ने आक्रमण कर के उजाड़ दिया था। (तफ़्सीर इब्ने कसीर)

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وَإِذْ قَالَ إِبْرَاهِيمُ رَبِّ أَرِنِي كَيْفَ تُحْيِي الْمَوْتَىٰ ۖ قَالَ أَوَلَمْ تُؤْمِن ۖ قَالَ بَلَىٰ وَلَـٰكِن لِّيَطْمَئِنَّ قَلْبِي ۖ قَالَ فَخُذْ أَرْبَعَةً مِّنَ الطَّيْرِ فَصُرْهُنَّ إِلَيْكَ ثُمَّ اجْعَلْ عَلَىٰ كُلِّ جَبَلٍ مِّنْهُنَّ جُزْءًا ثُمَّ ادْعُهُنَّ يَأْتِينَكَ سَعْيًا ۚ وَاعْلَمْ أَنَّ اللَّـهَ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ﴾ 260 ﴿

तथा (याद करो) जब इब्राहीम ने कहाः हे मेरे पालनहार! मुझे दिखा दे कि तू मुर्दों को कैसे जीवित कर देता है? (अल्लाह ने) कहाः क्या तुम ईमान नहीं लाये? उसने कहाः क्यों नहीं? परन्तु ताकि मेरे दिल को संतोष हो जाये। अल्लाह ने कहाः चार पक्षी ले आओ और उनहें अपने से परचा लो। (फिर उन्हें वध करके) उनका एक-एक अंश (भाग) पर्वत पर रख दो। फिर उन्हें पुकारो। वे तुम्हारे पास दौड़े चले आयेंगे और ये जान ले कि अल्लाह प्रभुत्वशाली, तत्वज्ञ है।

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مَّثَلُ الَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمْوَالَهُمْ فِي سَبِيلِ اللَّـهِ كَمَثَلِ حَبَّةٍ أَنبَتَتْ سَبْعَ سَنَابِلَ فِي كُلِّ سُنبُلَةٍ مِّائَةُ حَبَّةٍ ۗ وَاللَّـهُ يُضَاعِفُ لِمَن يَشَاءُ ۗ وَاللَّـهُ وَاسِعٌ عَلِيمٌ ﴾ 261 ﴿

जो अल्लाह की राह में अपना धन दान करते हैं, उस (दान) की दशा उस एक दाने जैसी है, जिसने सात बालियाँ उगायी हों। (उसकी) प्रत्येक बाली में सौ दाने हों और अल्लाह जिसे चाहे और भी अधिक देता है तथा अल्लाह विशाल[1], ज्ञानी है। 1. अर्थात उस का प्रदान विशाल है, और उस के योग्य को जानता है।

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الَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمْوَالَهُمْ فِي سَبِيلِ اللَّـهِ ثُمَّ لَا يُتْبِعُونَ مَا أَنفَقُوا مَنًّا وَلَا أَذًى ۙ لَّهُمْ أَجْرُهُمْ عِندَ رَبِّهِمْ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُونَ ﴾ 262 ﴿

जो अपना धन अल्लाह की राह में दान करते हैं, फिर दान करने के पश्चात् उपकार नहीं जताते और न (जिसे दिया हो उसे) दुःख देते हैं, उन्हीं के लिए उनके पालनहार के पास उनका प्रतिकार (बदला) है और उनपर कोई डर नहीं होगा और न ही वे उदासीन[1] होंगे। 1. अर्थात संसार में दान न करने पर कोई संताप होगा।

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قَوْلٌ مَّعْرُوفٌ وَمَغْفِرَةٌ خَيْرٌ مِّن صَدَقَةٍ يَتْبَعُهَا أَذًى ۗ وَاللَّـهُ غَنِيٌّ حَلِيمٌ ﴾ 263 ﴿

भली बात बोलना तथा क्षमा, उस दान से उत्तम है, जिसके पश्चात् दुःख दिया जाये तथा अल्लाह निस्पृह, सहनशील है।

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يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تُبْطِلُوا صَدَقَاتِكُم بِالْمَنِّ وَالْأَذَىٰ كَالَّذِي يُنفِقُ مَالَهُ رِئَاءَ النَّاسِ وَلَا يُؤْمِنُ بِاللَّـهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ ۖ فَمَثَلُهُ كَمَثَلِ صَفْوَانٍ عَلَيْهِ تُرَابٌ فَأَصَابَهُ وَابِلٌ فَتَرَكَهُ صَلْدًا ۖ لَّا يَقْدِرُونَ عَلَىٰ شَيْءٍ مِّمَّا كَسَبُوا ۗ وَاللَّـهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكَافِرِينَ ﴾ 264 ﴿

हे ईमान वालो! उस व्यक्ति के समान उपकार जताकर तथा दुःख देकर, अपने दानों को व्यर्थ न करो, जो लोगों को दिखाने के लिए दान करता है और अल्लाह तथा अन्तिम दिन (परलोक) पर ईमान नहीं रखता। उसका उदाहरण उस चटेल पत्थर जैसा है, जिसपर मिट्टी पड़ी हो और उसपर घोर वर्षा हो जाये और उस (पत्थर) को चटेल छोड़ दे। वे अपनी कमाई का कुछ भी न पा सकेंगे और अल्लाह काफ़िरों को सीधी डगर नहीं दिखाता।

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وَمَثَلُ الَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمْوَالَهُمُ ابْتِغَاءَ مَرْضَاتِ اللَّـهِ وَتَثْبِيتًا مِّنْ أَنفُسِهِمْ كَمَثَلِ جَنَّةٍ بِرَبْوَةٍ أَصَابَهَا وَابِلٌ فَآتَتْ أُكُلَهَا ضِعْفَيْنِ فَإِن لَّمْ يُصِبْهَا وَابِلٌ فَطَلٌّ ۗ وَاللَّـهُ بِمَا تَعْمَلُونَ بَصِيرٌ ﴾ 265 ﴿

तथा उनकी उपमा, जो अपना धन अल्लाह की प्रसन्नता की इच्छा में अपने मन की स्थिरता के साथ दान करते हैं, उस बाग़ (उद्यान) जैसी है, जो पृथ्वी तल के किसी ऊँचे भाग पर हो, उसपर घोर वर्षा हुई, तो दोगुना फल लाया और यदि घोर वर्षा नहीं हुई, तो (उसके लिए) फुहार ही बस[1] हो तथा तुम जो कुछ कर रहे हो, उसे अल्लाह देख रहा है। 1. यहाँ से अल्लाह की प्रसन्नता के लिये जिहाद तथा दीन-दुखियों की सहायता के लिये धन दान करने की विभिन्न रूप से प्रेरणा दी जा रही है। भावार्थ यह है कि यदि निःस्वार्थता से थोड़ा दान भी किया जाये, तो शुभ होता है, जैसे वर्षा की फुहारें भी एक बाग़ (उद्यान) को हरा भरा कर देती हैं।

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أَيَوَدُّ أَحَدُكُمْ أَن تَكُونَ لَهُ جَنَّةٌ مِّن نَّخِيلٍ وَأَعْنَابٍ تَجْرِي مِن تَحْتِهَا الْأَنْهَارُ لَهُ فِيهَا مِن كُلِّ الثَّمَرَاتِ وَأَصَابَهُ الْكِبَرُ وَلَهُ ذُرِّيَّةٌ ضُعَفَاءُ فَأَصَابَهَا إِعْصَارٌ فِيهِ نَارٌ فَاحْتَرَقَتْ ۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ اللَّـهُ لَكُمُ الْآيَاتِ لَعَلَّكُمْ تَتَفَكَّرُونَ ﴾ 266 ﴿

क्या तुममें से कोई चाहेगा कि उसके खजूर तथा अँगूरों के बाग़ हों, जिनमें नहरें बह रही हों, उनमें उसके लिए प्रत्येक प्रकार के फल हों तथा वह बूढ़ा हो गया हो और उसके निर्बल बच्चे हों, फिर वह बगोल के आघात से जिसमें आग हो, झुलस जाये।[1] इसी प्रकार अल्लाह तुम्हारे लिए आयतें उजागर करता है, ताकि तुम सोच विचार करो। 1. अर्थात यही दशा प्रलय के दिन काफ़िर की होगी। उस के पास फल पाने के लिये कोई कर्म नहीं होगा। और न कर्म का अवसर होगा। तथा जैसे उस के निर्बल बच्चे उस के काम नहीं आ सके, उसी प्रकार उस का दिखावे का दान भी काम नहीं आयेगा, वह अपनी आवश्यक्ता के समय अपने कर्मों के फल से वंचित कर दिया जायेगा। जैसे इस व्यक्ति ने अपने बुढ़ापे तथा बच्चों की निर्बलता के समय अपना बाग़ खो दिया।

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يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا أَنفِقُوا مِن طَيِّبَاتِ مَا كَسَبْتُمْ وَمِمَّا أَخْرَجْنَا لَكُم مِّنَ الْأَرْضِ ۖ وَلَا تَيَمَّمُوا الْخَبِيثَ مِنْهُ تُنفِقُونَ وَلَسْتُم بِآخِذِيهِ إِلَّا أَن تُغْمِضُوا فِيهِ ۚ وَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّـهَ غَنِيٌّ حَمِيدٌ ﴾ 267 ﴿

हे ईमान वालो! उन स्वच्छ चीजों में से, जो तुमने कमाई हैं तथा उन चीज़ों में से, जो हमने तुम्हारे लिए धरती से उपजायी हैं, दान करो तथा उसमें से उस चीज़ को दान करने का निश्चय न करो, जिसे तुम स्वयं न ले सको, परन्तु ये कि अनदेखी कर जाओ तथा जान लो कि अल्लाह निःस्पृह, प्रशंसित है।

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الشَّيْطَانُ يَعِدُكُمُ الْفَقْرَ وَيَأْمُرُكُم بِالْفَحْشَاءِ ۖ وَاللَّـهُ يَعِدُكُم مَّغْفِرَةً مِّنْهُ وَفَضْلًا ۗ وَاللَّـهُ وَاسِعٌ عَلِيمٌ ﴾ 268 ﴿

शैतान तुम्हें निर्धनता से डराता है तथा निर्लज्जा की प्रेरणा देता है तथा अल्लाह तुम्हें अपनी क्षमा और अधिक देने का वचन देता है तथा अल्लाह विशाल ज्ञानी है।

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يُؤْتِي الْحِكْمَةَ مَن يَشَاءُ ۚ وَمَن يُؤْتَ الْحِكْمَةَ فَقَدْ أُوتِيَ خَيْرًا كَثِيرًا ۗ وَمَا يَذَّكَّرُ إِلَّا أُولُو الْأَلْبَابِ ﴾ 269 ﴿

वह जिसे चाहे, प्रबोध (धर्म की समझ) प्रदान करता है और जिसे प्रबोध प्रदान कर दिया गया, उसे बड़ा कल्याण मिल गया और समझ वाले ही शिक्षा ग्रहण करते हैं।

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وَمَا أَنفَقْتُم مِّن نَّفَقَةٍ أَوْ نَذَرْتُم مِّن نَّذْرٍ فَإِنَّ اللَّـهَ يَعْلَمُهُ ۗ وَمَا لِلظَّالِمِينَ مِنْ أَنصَارٍ ﴾ 270 ﴿

तथा तुम जो भी दान करो अथवा मनौती[1] मानो, अल्लाह उसे जानता है तथा अत्याचारियों का कोई सहायक न होगा। 1. अर्थात अल्लाह की विशेष रूप से इबादत (वन्दना) करने का संकल्प ले। (तफ़्सीरे क़ुर्तुबी)

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إِن تُبْدُوا الصَّدَقَاتِ فَنِعِمَّا هِيَ ۖ وَإِن تُخْفُوهَا وَتُؤْتُوهَا الْفُقَرَاءَ فَهُوَ خَيْرٌ لَّكُمْ ۚ وَيُكَفِّرُ عَنكُم مِّن سَيِّئَاتِكُمْ ۗ وَاللَّـهُ بِمَا تَعْمَلُونَ خَبِيرٌ ﴾ 271 ﴿

यदि तुम खुले दान करो, तो वह भी अच्छा है तथा यदी छुपाकर करो और कंगालों को दो, तो वह तुम्हारे लिए अधिक अच्छा[1] है। ये तुमसे तुम्हारे पापों को दूर कर देगा तथा तुम जो कुछ कर रहे हो, उससे अल्लाह सूचित है। 1. आयत का भवार्थ यह है कि दिखावे के दान से रोकने का यह अर्थ नहीं है किः छुपा कर ही दान दिया जाये, बल्कि उस का अर्थ केवल यह है कि निःस्वार्थ दान जैसे भी दिया जाये, उस का प्रतिफल मिलेगा।

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لَّيْسَ عَلَيْكَ هُدَاهُمْ وَلَـٰكِنَّ اللَّـهَ يَهْدِي مَن يَشَاءُ ۗ وَمَا تُنفِقُوا مِنْ خَيْرٍ فَلِأَنفُسِكُمْ ۚ وَمَا تُنفِقُونَ إِلَّا ابْتِغَاءَ وَجْهِ اللَّـهِ ۚ وَمَا تُنفِقُوا مِنْ خَيْرٍ يُوَفَّ إِلَيْكُمْ وَأَنتُمْ لَا تُظْلَمُونَ ﴾ 272 ﴿

उन्हें सीधी डगर पर लगा देना, आपका दायित्व नहीं, परन्तु अल्लाह जिसे चाहे, सीधी डगर पर लगा देता है तथा तुम जो भी दान देते हो, तो अपने लाभ के लिए देते हो तथा तुम अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए ही देते हो तथा तुम जो भी दान दोगे, तुम्हें उसका भर पूर प्रतिफल (बदला) दिया जायेगा और तुमपर अत्याचार[1] नहीं किया जायेगा। 1. अर्थात उस के प्रतिफल में कोई कमी न की जायेगी।

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لِلْفُقَرَاءِ الَّذِينَ أُحْصِرُوا فِي سَبِيلِ اللَّـهِ لَا يَسْتَطِيعُونَ ضَرْبًا فِي الْأَرْضِ يَحْسَبُهُمُ الْجَاهِلُ أَغْنِيَاءَ مِنَ التَّعَفُّفِ تَعْرِفُهُم بِسِيمَاهُمْ لَا يَسْأَلُونَ النَّاسَ إِلْحَافًا ۗ وَمَا تُنفِقُوا مِنْ خَيْرٍ فَإِنَّ اللَّـهَ بِهِ عَلِيمٌ ﴾ 273 ﴿

दान उन निर्धनों (कंगालों) के लिए है, जो अल्लाह की राह में ऐसे घिर गये हों कि धरती में दौड़-भाग न कर[1] सकते हों, उन्हें अज्ञान लोग न माँगने के कारण धनी समझते हैं, वे लोगों के पीछे पड़ कर नहीं माँगते। तुम उन्हें उनके लक्षणों से पहचान लोगे तथा जो भी धन तुम दान करोगे, निःसंदेह अल्लाह उसे भलि-भाँति जानने वाला है। 1. इस से सांकेतिक वह मुहाजिर हैं जो मक्का से मदीना हिज्रत कर गये। जिस के कारण उन का सारा सामान मक्का में छूट गया। और अब उन के पास कुछ भी नहीं बचा। परन्तु वह लोगों के सामने हाथ फैला कर भीख नहीं माँगते।

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الَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمْوَالَهُم بِاللَّيْلِ وَالنَّهَارِ سِرًّا وَعَلَانِيَةً فَلَهُمْ أَجْرُهُمْ عِندَ رَبِّهِمْ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُونَ ﴾ 274 ﴿

जो लोग अपना धन रात-दिन खुले-छुपे दान करते हैं, तो उन्हीं के लिए उनके पालनहार के पास, उनका प्रतिफल (बदला) है और उन्हें कोई डर नहीं होगा और न वे उदासीन होंगे।

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الَّذِينَ يَأْكُلُونَ الرِّبَا لَا يَقُومُونَ إِلَّا كَمَا يَقُومُ الَّذِي يَتَخَبَّطُهُ الشَّيْطَانُ مِنَ الْمَسِّ ۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمْ قَالُوا إِنَّمَا الْبَيْعُ مِثْلُ الرِّبَا ۗ وَأَحَلَّ اللَّـهُ الْبَيْعَ وَحَرَّمَ الرِّبَا ۚ فَمَن جَاءَهُ مَوْعِظَةٌ مِّن رَّبِّهِ فَانتَهَىٰ فَلَهُ مَا سَلَفَ وَأَمْرُهُ إِلَى اللَّـهِ ۖ وَمَنْ عَادَ فَأُولَـٰئِكَ أَصْحَابُ النَّارِ ۖ هُمْ فِيهَا خَالِدُونَ ﴾ 275 ﴿

जो लोग ब्याज खाते हैं, ऐसे उठेंगे जैसे वह उठता है, जिसे शैतान ने छूकर उनमत्त कर दिया हो। उनकी ये दशा इस कारण होगी कि उन्होंने कहा कि व्यापार भी तो ब्याज ही जैसा है, जबकि अल्लाह ने व्यापार को ह़लाल (वैध) , तथा ब्याज को ह़राम (अवैध) कर[1] दिया है। अब जिसके पास उसके पालनहार की ओर से निर्देश आ गया और इस कारण उससे रुक गया, तो जो कुछ पहले लिया, वह उसी का हो गया तथा उसका मामला अल्लाह के ह़वाले है और जो (लोग) फिर वही करें, तो वही नारकी हैं, जो उसमें सदावासी होंगे। 1. इस्लाम मानव में परस्पर प्रेम तथा सहानुभूति उत्पन्न करना चाहता है, इसी कारण उस ने दान करने का निर्देश दिया है कि एक मानव दूसरे की आवश्यक्ता पूर्ति करे। तथा उस की आवश्यक्ता को अपनी आवश्यक्ता समझे। परन्तु ब्याज खाने की मान्सिकता सर्वथा इस के विपरीत है। ब्याज भक्षी किसी की आवश्यक्ता को देखता है तो उस के भीतर उस की सहायता की भावना उत्पन्न नहीं होती। वह उस की विवश्ता से अपना स्वार्थ पूरा करता तथा उस की आवश्यक्ता को अपने धनी होने का साधन बनाता है। और क्रमशः एक निर्दयी हिंसक पशु बन कर रह जाता है, इस के सिवा ब्याज की रीति धन को सीमित करती है, जब कि इस्लाम धन को फैलाना चाहता है, इस के लिये ब्याज को मिटाना, तथा दान की भावना का उत्थान चाहता है। यदि दान की भावना का पूर्णतः उत्थान हो जाये तो कोई व्यक्ति दीन तथा निर्धन रह ही नहीं सकता।

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يَمْحَقُ اللَّـهُ الرِّبَا وَيُرْبِي الصَّدَقَاتِ ۗ وَاللَّـهُ لَا يُحِبُّ كُلَّ كَفَّارٍ أَثِيمٍ ﴾ 276 ﴿

अल्लाह ब्याज को मिटाता है और दानों को बढ़ाता है और अल्लाह किसी कृतघ्न, घोर पापी से प्रेम नहीं करता।

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إِنَّ الَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ وَأَقَامُوا الصَّلَاةَ وَآتَوُا الزَّكَاةَ لَهُمْ أَجْرُهُمْ عِندَ رَبِّهِمْ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُونَ ﴾ 277 ﴿

वास्तव में, जो ईमान लाये, सदाचार किये, नमाज़ की स्थाप्ना करते रहे और ज़कात देते रहे, उन्हीं के लिए उनके पालनहार के पास उनका प्रतिफल है और उन्हें कोई डर नहीं होगा और न वे उदासीन होंगे।

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يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اتَّقُوا اللَّـهَ وَذَرُوا مَا بَقِيَ مِنَ الرِّبَا إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ ﴾ 278 ﴿

हे ईमान वालो! अल्लाह से डरो और जो ब्याज शेष रह गया है, उसे छोड़ दो, यदि तुम ईमान रखने वाले हो तो।

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فَإِن لَّمْ تَفْعَلُوا فَأْذَنُوا بِحَرْبٍ مِّنَ اللَّـهِ وَرَسُولِهِ ۖ وَإِن تُبْتُمْ فَلَكُمْ رُءُوسُ أَمْوَالِكُمْ لَا تَظْلِمُونَ وَلَا تُظْلَمُونَ ﴾ 279 ﴿

और यदि तुमने ऐसा नहीं किया, तो अल्लाह तथा उसके रसूल से युध्द के लिए तैयार हो जाओ और यदि तुम तौबा (क्षमा याचना) कर लो, तो तुम्हारे लिए तुम्हारा मूलधन है। न तुम अत्याचार करो[1], न तुमपर अत्याचार किया जाये। 1. अर्थात मूल धन से अधिक लो।

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وَإِن كَانَ ذُو عُسْرَةٍ فَنَظِرَةٌ إِلَىٰ مَيْسَرَةٍ ۚ وَأَن تَصَدَّقُوا خَيْرٌ لَّكُمْ ۖ إِن كُنتُمْ تَعْلَمُونَ ﴾ 280 ﴿

और यदि तुम्हारा ऋणि असुविधा में हो, तो उसे सुविधा तक अवसर दो और अगर क्षमा कर दो, (अर्थात दान कर दो) तो ये तुम्हारे लिए अधिक अच्छा है, यदि तुम समझो तो।

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وَاتَّقُوا يَوْمًا تُرْجَعُونَ فِيهِ إِلَى اللَّـهِ ۖ ثُمَّ تُوَفَّىٰ كُلُّ نَفْسٍ مَّا كَسَبَتْ وَهُمْ لَا يُظْلَمُونَ ﴾ 281 ﴿

तथा उस दिन से डरो, जिसमें तुम अल्लाह की ओर फेरे जाओगे, फिर प्रत्येक प्राणी को उसकी कमाई का भरपूर प्रतिकार दिया जायेगा तथा किसी पर अत्याचार न होगा।

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يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِذَا تَدَايَنتُم بِدَيْنٍ إِلَىٰ أَجَلٍ مُّسَمًّى فَاكْتُبُوهُ ۚ وَلْيَكْتُب بَّيْنَكُمْ كَاتِبٌ بِالْعَدْلِ ۚ وَلَا يَأْبَ كَاتِبٌ أَن يَكْتُبَ كَمَا عَلَّمَهُ اللَّـهُ ۚ فَلْيَكْتُبْ وَلْيُمْلِلِ الَّذِي عَلَيْهِ الْحَقُّ وَلْيَتَّقِ اللَّـهَ رَبَّهُ وَلَا يَبْخَسْ مِنْهُ شَيْئًا ۚ فَإِن كَانَ الَّذِي عَلَيْهِ الْحَقُّ سَفِيهًا أَوْ ضَعِيفًا أَوْ لَا يَسْتَطِيعُ أَن يُمِلَّ هُوَ فَلْيُمْلِلْ وَلِيُّهُ بِالْعَدْلِ ۚ وَاسْتَشْهِدُوا شَهِيدَيْنِ مِن رِّجَالِكُمْ ۖ فَإِن لَّمْ يَكُونَا رَجُلَيْنِ فَرَجُلٌ وَامْرَأَتَانِ مِمَّن تَرْضَوْنَ مِنَ الشُّهَدَاءِ أَن تَضِلَّ إِحْدَاهُمَا فَتُذَكِّرَ إِحْدَاهُمَا الْأُخْرَىٰ ۚ وَلَا يَأْبَ الشُّهَدَاءُ إِذَا مَا دُعُوا ۚ وَلَا تَسْأَمُوا أَن تَكْتُبُوهُ صَغِيرًا أَوْ كَبِيرًا إِلَىٰ أَجَلِهِ ۚ ذَٰلِكُمْ أَقْسَطُ عِندَ اللَّـهِ وَأَقْوَمُ لِلشَّهَادَةِ وَأَدْنَىٰ أَلَّا تَرْتَابُوا ۖ إِلَّا أَن تَكُونَ تِجَارَةً حَاضِرَةً تُدِيرُونَهَا بَيْنَكُمْ فَلَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ أَلَّا تَكْتُبُوهَا ۗ وَأَشْهِدُوا إِذَا تَبَايَعْتُمْ ۚ وَلَا يُضَارَّ كَاتِبٌ وَلَا شَهِيدٌ ۚ وَإِن تَفْعَلُوا فَإِنَّهُ فُسُوقٌ بِكُمْ ۗ وَاتَّقُوا اللَّـهَ ۖ وَيُعَلِّمُكُمُ اللَّـهُ ۗ وَاللَّـهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ ﴾ 282 ﴿

हे ईमान वालो! जब तुम आपस में किसी निश्चित अवधि तक के लिए उधार लेन-देन करो, तो उसे लिख लिया करो, तुम्हारे बीच न्याय के साथ कोई लेखक लिखे, जिसे अल्लाह ने लिखने की योग्यता दी है, वह लिखने से इन्कार न करे तथा वह लिखवाये, जिसपर उधार है और अपने पालनहार अल्लाह से डरे और उसमें से कुछ कम न करे। यदि जिसपर उधार है, वह निर्बोध अथवा निर्बल हो अथवा लिखवा न सकता हो, तो उसका संरक्षक न्याय के साथ लिखवाये तथा अपने में से दो पुरुषों को साक्षी (गवाह) बना लो। यदि दो पुरुष न हों, तो एक पुरुष तथा दो स्त्रियों को, उन साक्षियों में से, जिन्हें साक्षी बनाना पसन्द करो। ताकि दोनों (स्त्रियों) में से एक भूल जाये, तो दूसरी याद दिला दे तथा जब साक्षी बुलाये जायें, तो इन्कार न करें तथा विषय छोटा हो या बड़ा, उसकी अवधि सहित लिखवाने में आलस्य न करो, ये अल्लाह के समीप अधिक न्याय है तथा साक्ष्य के लिए अधिक सहायक और इससे अधिक समीप है कि संदेह न करो। परन्तु यदि तुम व्यापारिक लेन-देन हाथों-हाथ (नगद करते हो), तो तुमपर कोई दोष नहीं कि उसे न लिखो तथा जब आपस में लेन-देन करो, तो साक्षी बना लो और लेखक तथा साक्षी को हानि न पहुँचाई जाये और यदि ऐसा करोगो, तो तुम्हारी अवज्ञा ही होगी तथा अल्लाह से डरो और अल्लाह तुम्हें सिखा रहा है और निःसंदेह अल्लाह सब कुछ जानता है।

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وَإِن كُنتُمْ عَلَىٰ سَفَرٍ وَلَمْ تَجِدُوا كَاتِبًا فَرِهَانٌ مَّقْبُوضَةٌ ۖ فَإِنْ أَمِنَ بَعْضُكُم بَعْضًا فَلْيُؤَدِّ الَّذِي اؤْتُمِنَ أَمَانَتَهُ وَلْيَتَّقِ اللَّـهَ رَبَّهُ ۗ وَلَا تَكْتُمُوا الشَّهَادَةَ ۚ وَمَن يَكْتُمْهَا فَإِنَّهُ آثِمٌ قَلْبُهُ ۗ وَاللَّـهُ بِمَا تَعْمَلُونَ عَلِيمٌ ﴾ 283 ﴿

और यदि तुम यात्रा में रहो तथा लिखने के लिए किसी को न पाओ, तो धरोहर रख दो और यदि तुममें परस्पर एक-दूसरे पर भरोसा हो, (तो धरोहर की भी आवश्यक्ता नहीं,) जिसपर अमानत (उधार) है, वह उसे चुका दे तथा अल्लाह (अपने पालनहार) से डरे और साक्ष्य न छुपाओ और जो उसे छुपायेगा, उसका दिल पापी है तथा तुम जो करते हो, अल्लाह सब जानता है।

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لِّلَّـهِ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ ۗ وَإِن تُبْدُوا مَا فِي أَنفُسِكُمْ أَوْ تُخْفُوهُ يُحَاسِبْكُم بِهِ اللَّـهُ ۖ فَيَغْفِرُ لِمَن يَشَاءُ وَيُعَذِّبُ مَن يَشَاءُ ۗ وَاللَّـهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ ﴾ 284 ﴿

आकाशों तथा धरती में जो कुछ है, सब अल्लाह का है और जो तुम्हारे मन में है, उसे बोलो अथवा मन ही में रखो, अल्लाह तुमसे उसका ह़िसाब लेगा। फिर जिसे चाहे, क्षमा कर देगा और जिसे चाहे, दण्ड देगा और अल्लाह जो चाहे, कर सकता है।

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آمَنَ الرَّسُولُ بِمَا أُنزِلَ إِلَيْهِ مِن رَّبِّهِ وَالْمُؤْمِنُونَ ۚ كُلٌّ آمَنَ بِاللَّـهِ وَمَلَائِكَتِهِ وَكُتُبِهِ وَرُسُلِهِ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ أَحَدٍ مِّن رُّسُلِهِ ۚ وَقَالُوا سَمِعْنَا وَأَطَعْنَا ۖ غُفْرَانَكَ رَبَّنَا وَإِلَيْكَ الْمَصِيرُ ﴾ 285 ﴿

रसूल उस चीज़ पर ईमान लाया, जो उसके लिए अल्लाह की ओर से उतारी गई तथा सब ईमान वाले उसपर ईमान लाये। वे सब अल्लाह तथा उसके फ़रिश्तों और उसकी सब पुस्तकों एवं रसूलों पर ईमान लाये। (वे कहते हैः) हम उसके रसूलों में से किसी के बीच अन्तर नहीं करते। हमने सुना और हम आज्ञाकारी हो गये। हे हमारे पालनहार! हमें क्षमा कर दे और हमें तेरे ही पास[1] आना है। 1. इस आयत में सत्धर्म इस्लाम की आस्था तथा कर्म का सारांश बताया गया है।

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لَا يُكَلِّفُ اللَّـهُ نَفْسًا إِلَّا وُسْعَهَا ۚ لَهَا مَا كَسَبَتْ وَعَلَيْهَا مَا اكْتَسَبَتْ ۗ رَبَّنَا لَا تُؤَاخِذْنَا إِن نَّسِينَا أَوْ أَخْطَأْنَا ۚ رَبَّنَا وَلَا تَحْمِلْ عَلَيْنَا إِصْرًا كَمَا حَمَلْتَهُ عَلَى الَّذِينَ مِن قَبْلِنَا ۚ رَبَّنَا وَلَا تُحَمِّلْنَا مَا لَا طَاقَةَ لَنَا بِهِ ۖ وَاعْفُ عَنَّا وَاغْفِرْ لَنَا وَارْحَمْنَا ۚ أَنتَ مَوْلَانَا فَانصُرْنَا عَلَى الْقَوْمِ الْكَافِرِينَ ﴾ 286 ﴿

अल्लाह किसी प्राणी पर उसकी सकत से अधिक (दायित्व का) भार नहीं रखता। जो सदाचार करेगा, उसका लाभ उसी को मिलेगा और जो दुराचार करेगा, उसकी हानि भी उसी को होगी। हे हमारे पालनहार! यदि हम भूल चूक जायें, तो हमें न पकड़। हे हमारे पालनहार! हमारे ऊपर इतना बोझ न डाल, जितना हमसे पहले के लोगों पर डाला गया। हे हमारे पालनहार! हमारे पापों की अनदेखी कर दे, हमें क्षमा कर दे तथा हमपर दया कर। तू ही हमारा स्वामी है तथा काफ़िरों के विरुध्द हमारी सहायता कर।