सूरह अनआम के संक्षिप्त विषय
यह सूरह मक्की है, इस में 165 आयते हैं
- अनआम का अर्थः चौपाये होता है। इस सूरह में कुछ चौपायों के वैध तथा अवैध होने के संबंध में अरब वासियों के भ्रम का खण्डन किया गया है। और इसी लिये इस सूरह का नाम (अन्नाम) रखा गया है।
- इस में शिर्क का खण्डन किया गया है। और एकेश्वर का आमंत्रण दिया गया है। इस में आख़िरत (परलोक) के प्रति आस्था का प्रचार है। तथा इस कुविचार का खण्डन है कि जो कुछ है यही संसारिक जीवन है।
- इस में उन नैतिक नियमों को बताया गया है जिन पर इस्लामी समाज की स्थापना होती है और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के विरुध्द आपत्तियों का उत्तर दिया गया है।
- आकाशों तथा धरती और स्वयं मनुष्य में अल्लाह के एक होने की निशानियों पर ध्यान दिलाया गया है।
- इस में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तथा मुसलमानों को दिलासा दी गई है।
- इस्लाम के विरोधियों को उन की अचेतना पर सावधान किया गया है।
- अन्त में कहा गया है कि लोगों ने अलग-अलग धर्म बना लिये है जिन का सत्य धर्म से कोई संबंध नहीं। और प्रत्येक अपने कर्म का उत्तरदायी है।
Surah Al-Anam in Hindi
بِسْمِ اللَّـهِ الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ
बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम
अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।
الْحَمْدُ لِلَّهِ الَّذِي خَلَقَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ وَجَعَلَ الظُّلُمَاتِ وَالنُّورَ ۖ ثُمَّ الَّذِينَ كَفَرُوا بِرَبِّهِمْ يَعْدِلُونَ ﴾ 1 ﴿
अल्हम्दु लिल्लाहिल्लज़ी ख़-लक़स्समावाति वल्अर्-ज़ व ज-अलज़्-ज़ुलुमाति वन्नू-र, सुम्मल्लज़ी-न क-फरू बिरब्बिहिम् यअ्दिलून
सब प्रशंसा उस अल्लाह के लिए है, जिसने आकाशों तथा धरती को बनाया तथा अंधेरे और उजाला बनाया, फिर भी जो काफ़िर हो गये, वे दूसरों को अपने पालनहार के बराबर समझते[1] हैं। 1. अर्थात वह अंधेरों और प्रकाश में विवेक (अन्तर) नहीं करते, और रचित को रचयिता का स्थान देते हैं।
هُوَ الَّذِي خَلَقَكُم مِّن طِينٍ ثُمَّ قَضَىٰ أَجَلًا ۖ وَأَجَلٌ مُّسَمًّى عِندَهُ ۖ ثُمَّ أَنتُمْ تَمْتَرُونَ ﴾ 2 ﴿
हुवल्लज़ी ख़-ल-क़कुम् मिन् तीनिन सुम्-म क़ज़ा अ- जलन, व अ-जलुम् मुसम्मन् अिन्दहू सुम्-म अन्तुम् तम्तरून
वही है, जिसने तुम्हें मिट्टी से उत्पन्न[1] किया, फिर (तुम्हारे जीवन की) अवधि निर्धारित कर दी और एक निर्धारित अवधि (प्रलय का समय) उसके पास[2] है, फिर भी तुम संदेह करते हो। 1. अर्थात तुम्हारे पिता आदम अलैहिस्सलाम को। 2. दो अवधि, एक जीवन और कर्म के लिये, तथा दूसरी कर्मों के फल के लिये।
وَهُوَ اللَّهُ فِي السَّمَاوَاتِ وَفِي الْأَرْضِ ۖ يَعْلَمُ سِرَّكُمْ وَجَهْرَكُمْ وَيَعْلَمُ مَا تَكْسِبُونَ ﴾ 3 ﴿
व हुवल्लाहु फिस्समावाति व फिल् अर्ज़ि, यअ्लमु सिर्रकुम् व जहरकुम् व यअ्लमु मा तक्सिबून
वही अल्लाह पूज्य है आकाशों तथा धरती में। वह तुम्हारे भेदों तथा खुली बातों को जानता है तथा तुम जो भी करते हो, उसे जानता है।
وَمَا تَأْتِيهِم مِّنْ آيَةٍ مِّنْ آيَاتِ رَبِّهِمْ إِلَّا كَانُوا عَنْهَا مُعْرِضِينَ ﴾ 4 ﴿
व मा तअ्तीहिम् मिन् आयतिम् मिन् आयाति रब्बिहिम् इल्ला कानू अन्हा मुअ्-रिज़ीन
और उनके पास उनके पालनहार की आयतों (निशानियों) में से कोई आयत (निशानी) नहीं आयी, जिससे उन्होंने मुँह फेर न[1] लिए हो। 1. अरथात् मिश्रणवादियों के पास।
فَقَدْ كَذَّبُوا بِالْحَقِّ لَمَّا جَاءَهُمْ ۖ فَسَوْفَ يَأْتِيهِمْ أَنبَاءُ مَا كَانُوا بِهِ يَسْتَهْزِئُونَ ﴾ 5 ﴿
फ़-क़द् कज़्ज़बू बिल्हक्क़ि लम्मा जा-अहुम्, फ़सौ-फ़ यअ्तीहिम् अम्बा-उ मा कानू बिही यस्तह़्ज़िऊन
उन्होंने सत्य को झुठला दिया है, जब भी उनके पास आया। तो शीघ्र ही उनके पास उसके समाचार आ जायेंगे[1], जिसका उपहास कर रहे हैं। 1. अर्थात उस के तथ्य का ज्ञान हो जायेगा। यह आयत मक्का में उस समय उतरी जब मुसलमान विवश थे, परन्तु बद्र के युध्द के बाद यह भविष्यवाणी पूरी होने लगी और अन्ततः मिश्रणवादी परास्त हो गये।
أَلَمْ يَرَوْا كَمْ أَهْلَكْنَا مِن قَبْلِهِم مِّن قَرْنٍ مَّكَّنَّاهُمْ فِي الْأَرْضِ مَا لَمْ نُمَكِّن لَّكُمْ وَأَرْسَلْنَا السَّمَاءَ عَلَيْهِم مِّدْرَارًا وَجَعَلْنَا الْأَنْهَارَ تَجْرِي مِن تَحْتِهِمْ فَأَهْلَكْنَاهُم بِذُنُوبِهِمْ وَأَنشَأْنَا مِن بَعْدِهِمْ قَرْنًا آخَرِينَ ﴾ 6 ﴿
अलम् यरौ कम् अह़्लक्ना मिन् क़ब्लिहिम् मिन् क़रनिम् मक्कन्नाहुम् फिल्अर्ज़ि मा लम् नुमक्किल्लकुम् व अर्सल्नस्समा-अ अलैहिम् मिदरारंव् व जअ़ल्नल अन्हा-र तज्री मिन् तह़्तिहिम् फ़-अह़्लक्नाहुम् बिज़ुनूबिहिम् व अन्शअ्ना मिम् – बअ्दिहिम् कर्नन् आख़रीन
क्या वह नहीं जानते कि उनसे पहले हमने कितनी जातियों का नाश कर दिया, जिन्हें हमने धरती में ऐसी शक्ति और अधिकार दिया था, जो अधिकार और शक्ति तुम्हें नहीं दिये हैं और हमने उनपर धारा प्रवाह वर्षा की और उनकी धरती में नहरें प्रवाहित कर दीं, फिर हमने उनके पापों के कारण उन्हें नाश[1] कर दिया और उनके पश्चात् दूसरी जातियों को पैदा कर दिया। 1. अर्थात अल्लाह का यह नियम है कि पापियों को कुछ अवसर देता है, और अन्ततः उन का विनाश कर देता है।
وَلَوْ نَزَّلْنَا عَلَيْكَ كِتَابًا فِي قِرْطَاسٍ فَلَمَسُوهُ بِأَيْدِيهِمْ لَقَالَ الَّذِينَ كَفَرُوا إِنْ هَٰذَا إِلَّا سِحْرٌ مُّبِينٌ ﴾ 7 ﴿
व लौ नज़्ज़ल्ना अलै-क किताबन् फ़ी किरतासिन् फ़-ल-मसूहु बिऐदीहिम् लक़ालल्लज़ी-न क-फरू इन् हाज़ा इल्ला सिह़रूम्-मुबीन
(हे नबी!) यदि हम आपपर काग़ज़ में लिखी हुई कोई पुस्तक उतार[1] दें, फिर वे उसे अपने हाथों से छूयें, तबभी जो काफ़िर हैं, कह देंगे कि ये तो केवल खुला हुआ जादू है। 1. इस में इन काफ़िरों के दुराग्रह की दशा का वर्णन है।
وَقَالُوا لَوْلَا أُنزِلَ عَلَيْهِ مَلَكٌ ۖ وَلَوْ أَنزَلْنَا مَلَكًا لَّقُضِيَ الْأَمْرُ ثُمَّ لَا يُنظَرُونَ ﴾ 8 ﴿
व क़ालू लौ ला उन्ज़ि-ल अलैहि म-लकुन्, व लौ अन्ज़ल्ना म-लकल् लक़ुज़ियल्-अम्रू सुम्-म ला युन्ज़रून
तथा उन्होंने कहाः[1] इस (नबी) पर कोई फ़रिश्ता क्यों नहीं उतारा[2] गया? और यदि हम कोई फ़रिश्ता उतार देते, तो निर्णय ही कर दिया जाता, फिर उन्हें अवसर नहीं दिया जाता[3]। 1. जैसा कि वह माँग करते हैं। (देखियेः सूरह बनी इस्राईल, आयतः93) 2. अर्थात अपने वास्तविक रूप में, जब कि जिब्रील (अलैहिस्सलाम) मनुष्य के रूप में आया करते थे। 3. अर्थात मानने या न मानने का।
وَلَوْ جَعَلْنَاهُ مَلَكًا لَّجَعَلْنَاهُ رَجُلًا وَلَلَبَسْنَا عَلَيْهِم مَّا يَلْبِسُونَ ﴾ 9 ﴿
व लौ जअल्नाहु म-लकल् ल-जअल्नाहु रजुलंव् व ल- लबस्-ना अलैहिम् मा यल्बिसून
और यदि हम किसी फ़रिश्ते को नबी बनाते, तो उसे किसी पुरुष ही के रूप में बनाते[1] और उन्हें उसी संदेह में डाल देते, जो संदेह (अब) कर रहे हैं। 1. क्योंकि फ़रिश्तों को आँखों से उन के स्वभाविक रूप में देखना मानव के बस की बात नहीं है। और यदि फ़रिश्ते को रसूल बना कर मनुष्य के रूप में भेजा जाता तब भी कहते कि यह तो मनुष्य है। यह रसूल कैसे हो सकता है?
وَلَقَدِ اسْتُهْزِئَ بِرُسُلٍ مِّن قَبْلِكَ فَحَاقَ بِالَّذِينَ سَخِرُوا مِنْهُم مَّا كَانُوا بِهِ يَسْتَهْزِئُونَ ﴾ 10 ﴿
वल-क़दिस्तुह़्ज़ि-अ बिरूसुलिम्-मिन् क़ब्लि-क फ़हा -क़ बिल्लज़ी-न सखिरू मिन्हुम् मा कानू बिही यस्तह़्ज़िऊन *
(हे नबी!) आपसे पहले भी रसूलों के साथ उपहास किया गया, तो जिन्होंने उनसे उपहास किया, उन्हें उनके उपहास (के दुष्परिणाम) ने घेर लिया।
قُلْ سِيرُوا فِي الْأَرْضِ ثُمَّ انظُرُوا كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الْمُكَذِّبِينَ ﴾ 11 ﴿
क़ुल् सीरू फ़िल्अर्ज़ि सुम्मन्ज़ुरू कै-फ़ का-न आक़ि-बतुल् मुकज़्ज़िबीन
(हे नबी!) उनसे कहो कि धरती में फिरो, फिर देखो कि झुठलाने वालों का दुष्परिणाम किया[1] हुआ? 1. अर्थात मक्का से शाम तक आद, समूद तथा लूत (अलैहिस्सलाम) की बस्तियों के अवशेष पड़े हुये हैं, वहाँ जाओ और उन के दुष्परिणाम से शिक्षा लो।
قُل لِّمَن مَّا فِي السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۖ قُل لِّلَّهِ ۚ كَتَبَ عَلَىٰ نَفْسِهِ الرَّحْمَةَ ۚ لَيَجْمَعَنَّكُمْ إِلَىٰ يَوْمِ الْقِيَامَةِ لَا رَيْبَ فِيهِ ۚ الَّذِينَ خَسِرُوا أَنفُسَهُمْ فَهُمْ لَا يُؤْمِنُونَ ﴾ 12 ﴿
क़ुल लिमम् मा फिस्समावाति वल्अर्ज़ि, क़ुल-लिल्लाहि, क-त-ब अला नफ्सिहिर्रह़्म-त, ल-यज्म अ़न्नकुम् इला यौमिल-क़ियामति ला रै-ब फीहि, अल्लज़ी-न ख़सिरू अन्फु-सहुम् फ़हुम् ला युअ्मिनून
(हे नबी!) उनसे पूछिये कि जो कुछ आकाशों तथा धरती में है, वह किसका है? कहोः अल्लाह का है! उसने अपने ऊपर दया को अनिवार्य कर[1] लिया है, वह तुम्हें अवश्य प्रलय के दिन एकत्र[2] करेगा, जिसमें कोई संदेह नहीं। जिन्होंने अपने-आपको क्षति में डाल लिया, वही ईमान नहीं ला रहे हैं। 1. अर्थात पूरे विश्व की व्यवस्था उस की दया का प्रमाण है। तथा अपनी दया के कारण ही विश्व में दण्ड नहीं दे रहा है। ह़दीस में है कि जब अल्लाह ने उत्पत्ति कर ली तो एक लेख लिखा, जो उस के पास उस के अर्श (सिंहासन) के ऊपर हैः "निश्चय मेरी दया मेरे क्रोध से बढ़ कर है।" (सह़ीह़ बुख़ारीः3194, मुस्लिमः2751) दूसरी ह़दीस में है कि अल्लाह के पास सौ दया हैं। उस में से एक को जिन्नों, इन्सानों तथा पशुओं और कीड़ों-मकूड़ों के लिये उतारा है। जिस से वह आपस में प्रेम तथा दया करते हैं, तथा निन्नान्वे दया अपने पास रख ली है। जिन से प्रलय के दिन अपने बन्दों (भक्तों) पर दया करेगा। (सह़ीह़ बुख़ारीः6000, मुस्लिमः2752) 2. अर्थात कर्मों का फल देने के लिये।
۞ وَلَهُ مَا سَكَنَ فِي اللَّيْلِ وَالنَّهَارِ ۚ وَهُوَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ ﴾ 13 ﴿
व लहू मा-स-क-न फ़िल्लैलि वन्नहारि, व हुवस्समीअुल अलीम
तथा उसी का[1] है, जो कुछ रात और दिन में बस रहा है और वह सब कुछ सुनता-जानता है। 1. अर्थात उसी के अधिकार में तथा उसी के अधीन है।
قُلْ أَغَيْرَ اللَّهِ أَتَّخِذُ وَلِيًّا فَاطِرِ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَهُوَ يُطْعِمُ وَلَا يُطْعَمُ ۗ قُلْ إِنِّي أُمِرْتُ أَنْ أَكُونَ أَوَّلَ مَنْ أَسْلَمَ ۖ وَلَا تَكُونَنَّ مِنَ الْمُشْرِكِينَ ﴾ 14 ﴿
क़ुल अग़ैरल्लाहि अत्तख़िज़ु वलिय्यन् फ़ातिरिस्समावाति वल्अर्ज़ि व हु-व युत्अिमु व ला युत् अमु, क़ुल इन्नी उमिरतु अन् अकू-न अव्व-ल मन् अस्ल -म व ला तकू नन्-न मिनल्मुश्रिकीन
(हे नबी!) उनसे कहो कि क्या मैं उस अल्लाह के सिवा किसी को सहायक बना लूँ, जो आकाशों तथा धरती का बनाने वाला है, वह सबको खिलाता है और उसे कोई नहीं खिलाता? आप कहिये कि मुझे तो यही आदेश दिया गया है कि प्रथम आज्ञाकारी हो जाऊँ तथा कदापि मुश्रिकों में से न बनूँ।
قُلْ إِنِّي أَخَافُ إِنْ عَصَيْتُ رَبِّي عَذَابَ يَوْمٍ عَظِيمٍ ﴾ 15 ﴿
क़ुल इन्नी अख़ाफु इन् असैतु रब्बी अज़ा-ब यौमिन् अज़ीम
आप कह दें कि मैं डरता हूँ, यदि अपने पालनहार की अवज्ञा करूँ, एक घोर दिन[1] की यातना से। 1. इन आयतों का भावार्थ यह है कि जब अल्लाह ही ने इस विश्व की उत्पत्ति की है, वही अपनी दया से इस की व्यवस्था कर रहा है, और सब को जीविका प्रदान कर रहा है, तो फिर तुम्हारा स्वभाविक कर्म भी यही होना चाहिये कि उसी एक की वंदना करो। यह तो बड़े कुपथ की बात होगी कि उस से मुँह फेर कर दूसरों की पूजा अराधना करो और उन के आगे झुको।
مَّن يُصْرَفْ عَنْهُ يَوْمَئِذٍ فَقَدْ رَحِمَهُ ۚ وَذَٰلِكَ الْفَوْزُ الْمُبِينُ ﴾ 16 ﴿
मंय्युस्रफ् अन्हु यौमइज़िन फ़-क़द् रहि-महू, व ज़ालिकल् फौज़ुल्मुबीन
तथा जिससे उसे (यातना को) उस दिन फेर दिया गया, तो अल्लाह ने उसपर दया कर दी और यही खुली सफलता है।
وَإِن يَمْسَسْكَ اللَّهُ بِضُرٍّ فَلَا كَاشِفَ لَهُ إِلَّا هُوَ ۖ وَإِن يَمْسَسْكَ بِخَيْرٍ فَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ ﴾ 17 ﴿
व इंय्यम् सस्कल्लाहु बिज़ुर्रिन् फला काशि-फ़ लहू इल्ला हु-व, व इंय्यम् सस्-क बिख़ैरिन् फहु-व अला कुल्लि शैइन् क़दीर
यदि अललाह तुम्हें कोई हानि पहुँचाये, तो उसके सिवा कोई नहीं, जो उसे दूर कर दे और यदि तुम्हें कोई लाभ पहुँचाये, तो वही जो चाहे, कर सकता है।
وَهُوَ الْقَاهِرُ فَوْقَ عِبَادِهِ ۚ وَهُوَ الْحَكِيمُ الْخَبِيرُ ﴾ 18 ﴿
व हुवल्क़ाहिरू फ़ौ-क़ अिबादिही, व हुवल् हकीमुल्- ख़बीर
तथा वही है, जो अपने सेवकों पर पूरा अधिकार रखता है तथा वह बड़ा ज्ञानी सर्वसूचित है।
قُلْ أَيُّ شَيْءٍ أَكْبَرُ شَهَادَةً ۖ قُلِ اللَّهُ ۖ شَهِيدٌ بَيْنِي وَبَيْنَكُمْ ۚ وَأُوحِيَ إِلَيَّ هَٰذَا الْقُرْآنُ لِأُنذِرَكُم بِهِ وَمَن بَلَغَ ۚ أَئِنَّكُمْ لَتَشْهَدُونَ أَنَّ مَعَ اللَّهِ آلِهَةً أُخْرَىٰ ۚ قُل لَّا أَشْهَدُ ۚ قُلْ إِنَّمَا هُوَ إِلَٰهٌ وَاحِدٌ وَإِنَّنِي بَرِيءٌ مِّمَّا تُشْرِكُونَ ﴾ 19 ﴿
क़ुल अय्यु शैइन् अक्बरू शहा-दतन्, कुलिल्लाहु, शहीदुम् बैनी व बैनकुम्, व ऊहि-य इलय्-य हाज़ल क़ुरआनु लिउन्ज़ि-रकुम बिही व मम्-ब-ल-ग़, अइन्नकुम् लतश्हदू-न अन्-न मअ़ल्लाहि आलि-हतन् उख़्रा, क़ुल ला अश्हदु क़ुल इन्नमा हु-व इलाहुंव्-वाहिदुंव्-व इन्ननी बरीउम् मिम्मा तुश्रिकून •
(हे नबी!) इन मुश्रिकों से पूछो कि किसकी गवाही सबसे बढ़ कर है? आप कह दें कि अल्लाह मेरे तथा तुम्हारे बीच गवाह[1] है तथा मेरी ओर ये क़ुर्आन वह़्यी (प्रकाशना) द्वारा भेजा गया है, ताकि मैं तुम्हें सावधान करूँ[2] तथा उसे, जिस तक ये पहुँचे। क्या वास्तव में, तुम ये साक्ष्य (गवाही) दे सकते हो कि अल्लाह के साथ दूसरे पूज्य भी हैं? आप कह दें कि मैं तो इसकी गवाही नहीं दे सकता। आप कह दें कि वह तो केवल एक ही पूज्य है तथा वास्तव में, मैं तुम्हारे शिर्क से विरक्त हूँ। 1. अर्थात मेरे नबी होने का साक्षी अल्लाह तथा उस का मुझ पर उतारा हुआ क़ुर्आन है। 2. अर्थात अल्लाह की अवैज्ञा के दुष्परिणाम से।
الَّذِينَ آتَيْنَاهُمُ الْكِتَابَ يَعْرِفُونَهُ كَمَا يَعْرِفُونَ أَبْنَاءَهُمُ ۘ الَّذِينَ خَسِرُوا أَنفُسَهُمْ فَهُمْ لَا يُؤْمِنُونَ ﴾ 20 ﴿
अल्लज़ी-न आतैनाहुमुल किता-ब यअ्-रिफूनहू कमा यअ्-रिफू-न अब्-ना अहुम्, अल्लज़ी-न ख़सिरू अन्फु-सहुम् फहुम् ला युअ्मिनून *
जिन लोगों को हमने पुस्तक[1] प्रदान की है, वे आपको उसी प्रकार पहचानते हैं, जैसे अपने पुत्रों को पहचानते[2] हैं, परन्तु जिन्होंने स्वयं को क्षति में डाल रखा है, वही ईमान नहीं ला रहे हैं। 1. अर्थात तौरात तथा इंजील आदि। 2. अर्थात आप के उन गुणों द्वारा जो उन की पुस्तकों में वर्णित हैं।
وَمَنْ أَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرَىٰ عَلَى اللَّهِ كَذِبًا أَوْ كَذَّبَ بِآيَاتِهِ ۗ إِنَّهُ لَا يُفْلِحُ الظَّالِمُونَ ﴾ 21 ﴿
व मन् अज़्लमु मिम् मनिफ़्तरा अलल्लाहि कज़िबन् औ कज़्ज़-ब बिआयातिही, इन्नहू ला युफ्लिहुज़्-ज़ालिमून
तथा उससे बड़ा अत्याचारी कौन होगा, जो अल्लाह पर झूठा आरोप लगाये अथवा उसकी आयतों को झुठलाये? निःसंदेह अत्याचारी सफल नहीं होंगे।
وَيَوْمَ نَحْشُرُهُمْ جَمِيعًا ثُمَّ نَقُولُ لِلَّذِينَ أَشْرَكُوا أَيْنَ شُرَكَاؤُكُمُ الَّذِينَ كُنتُمْ تَزْعُمُونَ ﴾ 22 ﴿
व यौ-म नह़्शुरूहुम् जमीअ़न् सुम्-म नक़ूलु लिल्लज़ी-न अश्रकू ऐ-न शु-रकाउ कुमुल्लज़ी-न कुन्तुम् तज़्अुमून
जिस दिन हम, सबको एकत्र करेंगे, तो जिन्होंने शिर्क किया है, उनसे कहेंगे कि तुम्हारे वे साझी कहाँ गये, जिन्हें तुम (पूज्य) समझ रहे थे?
ثُمَّ لَمْ تَكُن فِتْنَتُهُمْ إِلَّا أَن قَالُوا وَاللَّهِ رَبِّنَا مَا كُنَّا مُشْرِكِينَ ﴾ 23 ﴿
सुम्-म लम् तकुन फ़ित्-नतुहुम् इल्ला अन् क़ालू वल्लाहि रब्बिना मा कुन्ना मुश्रिकीन
फिर नहीं होगा उनका उपद्रव इसके सिवा कि वे कहेंगेः अल्लाह की शपथ! हम मुश्रिक थे ही नहीं।
انظُرْ كَيْفَ كَذَبُوا عَلَىٰ أَنفُسِهِمْ ۚ وَضَلَّ عَنْهُم مَّا كَانُوا يَفْتَرُونَ ﴾ 24 ﴿
उन्ज़ुर् कै-फ़ क-ज़बू अला अन्फुसिहिम् व ज़ल्-ल अन्हुम् मा कानू यफ्तरून
देखो कि कैसे अपने ऊपर ही झूठ बोल गये और उनसे वे (मिथ्या पूज्य) जो बना रहे थे, खो गये!
وَمِنْهُم مَّن يَسْتَمِعُ إِلَيْكَ ۖ وَجَعَلْنَا عَلَىٰ قُلُوبِهِمْ أَكِنَّةً أَن يَفْقَهُوهُ وَفِي آذَانِهِمْ وَقْرًا ۚ وَإِن يَرَوْا كُلَّ آيَةٍ لَّا يُؤْمِنُوا بِهَا ۚ حَتَّىٰ إِذَا جَاءُوكَ يُجَادِلُونَكَ يَقُولُ الَّذِينَ كَفَرُوا إِنْ هَٰذَا إِلَّا أَسَاطِيرُ الْأَوَّلِينَ ﴾ 25 ﴿
व मिन्हुम् मंय्यस्तमिअु इलै-क, व जअ़ल्ना अला क़ुलूबिहिम् अकिन्नतन् अंय्यफ्क़हूहु व फ़ी आज़ानिहिम् वक़रन्, व इंय्यरौ कुल-ल आयतिल ला युअ्मिनू बिहा, हत्ता इज़ा जाऊ-क युजादिलून क यक़ूलुल्लज़ी-न क-फरू इन् हाज़ा इल्ला असातीरूल अव्वलीन
और उन मुश्रिकों में से कुछ आपकी बात ध्यान से सुनते हैं और (वास्तव में) हमने उनके दिलों पर पर्दे (आवरण) डाल रखे हैं कि बात न समझें[1] और उनके कान भारी कर दिये हैं, यदि वे (सत्य के) प्रत्येक लक्षण देख लें, तब भी उसपर ईमान नहीं लायेंगे, यहाँ तक कि जब वे आपके पास आकर झगड़ते हैं, जो काफ़िर हैं, तो वे कहते हैं कि ये तो पूर्वजों की कथायें हैं। 1. न समझने तथा न सुनने का अर्थ यह है कि उस से प्रभावित नहीं होते, क्यों कि कुफ़्र तथा निफ़ाक़ के कारण सत्य से प्रभावित होने की क्षमता खो जाती है।
وَهُمْ يَنْهَوْنَ عَنْهُ وَيَنْأَوْنَ عَنْهُ ۖ وَإِن يُهْلِكُونَ إِلَّا أَنفُسَهُمْ وَمَا يَشْعُرُونَ ﴾ 26 ﴿
व हुम् यन्हौ-न अन्हु व यन्औ-न अन्हु, व इंय्युह़्लिकू-न इल्ला अन्फु-सहुम् व मा यश्अुरून
वे, उसे[1] (सुनने से) दूसरों को रोकते हैं तथा स्वयं भी दूर रहते हैं और वे अपना ही विनाश कर रहे हैं, परन्तु समझते नहीं हैं। 1. अर्थात क़ुर्आन सुनने से।
وَلَوْ تَرَىٰ إِذْ وُقِفُوا عَلَى النَّارِ فَقَالُوا يَا لَيْتَنَا نُرَدُّ وَلَا نُكَذِّبَ بِآيَاتِ رَبِّنَا وَنَكُونَ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ ﴾ 27 ﴿
व लौ तरा इज़् वुक़िफू अलन्नारि फ़क़ालू या-लैतना नुरद्-दू व ला नुकज़्ज़ि-ब बिआयाति रब्बिना व नकू-न मिनल मुअ्मिनीन
तथा (हे नबी!) यदि आप उन्हें उस समय देखेंगे, जब वे नरक के समीप खड़े किये जायेंगे, तो वे कामना कर रहे होंगे कि ऐसा होता कि हम संसार की ओर फेर दिये जाते और अपने पालनहार की आयतों को नहीं झुठलाते और हम ईमान वालों में हो जाते।
بَلْ بَدَا لَهُم مَّا كَانُوا يُخْفُونَ مِن قَبْلُ ۖ وَلَوْ رُدُّوا لَعَادُوا لِمَا نُهُوا عَنْهُ وَإِنَّهُمْ لَكَاذِبُونَ ﴾ 28 ﴿
बल् बदा लहुम् मा कानू युख़्फू-न मिन् क़ब्लु, व लौ रूद्दू लआदू लिमा नुहू अन्हु व इन्नहुम् लकाज़िबून
बल्कि उनके लिए वो बात खुल जायेगी, जिसे वे इससे पहले छुपा रहे थे[1] और यदि संसार में फेर दिये जायेँ, तो फिर वही करेंगे, जिससे रोके गये थे, वास्तव में, वे हैं ही झूठे। 1. अर्थात जिस तथ्य को वह शपथ ले कर छुपा रहे थे कि हम मिश्रणवादी नहीं थे, उस समय खुल जायेगा। अथवा आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को पहचानते हुये भी यह बात जो छुपा रहे थे, वह खुल जायेगी। अथवा द्विधावादियों के दिल का वह रोग खुल जायेगा, जिसे वह संसार में छुपा रहे थे। (तफ़्सीर इब्ने कसीर)
وَقَالُوا إِنْ هِيَ إِلَّا حَيَاتُنَا الدُّنْيَا وَمَا نَحْنُ بِمَبْعُوثِينَ ﴾ 29 ﴿
व क़ालू इन् हि-य इल्ला हयातु नद्दुन्या व मा नह़्नु बिमब् अूसीन
तथा उन्होंने कहा कि जीवन बस हमारा सांसारिक जीवन है और हमें फिर जीवित होना[1] नहीं है। 1. अर्थात हम मरने के पश्चात् परलोक में कर्मों का फल भोगने के लिये जीवित नहीं किये जायेंगे।
وَلَوْ تَرَىٰ إِذْ وُقِفُوا عَلَىٰ رَبِّهِمْ ۚ قَالَ أَلَيْسَ هَٰذَا بِالْحَقِّ ۚ قَالُوا بَلَىٰ وَرَبِّنَا ۚ قَالَ فَذُوقُوا الْعَذَابَ بِمَا كُنتُمْ تَكْفُرُونَ ﴾ 30 ﴿
व लौ तरा इज़् वुक़िफू अला रब्बिहिम्, क़ा-ल अलै-स हाज़ा बिल्हक़्क़ि, क़ालू बला व रब्बिना, क़ा-ल फ़ज़ूक़ुल अज़ा-ब बिमा कुन्तुम् तक्फुरून *
तथा यदि आप उन्हें उस समय देखें, जब वे (परलय के दिन) अपने पालनहार के समक्ष खड़े किये जायेंगे, उस समय अल्लाह उनसे कहेगाः क्या ये (जीवन) सत्य नहीं? वे कहेंगेः क्यों नहीं? हमारे पालनहार की शपथ! इसपर अल्लाह कहेगाः तो अब अपने कुफ़्र करने की यातना चखो।
قَدْ خَسِرَ الَّذِينَ كَذَّبُوا بِلِقَاءِ اللَّهِ ۖ حَتَّىٰ إِذَا جَاءَتْهُمُ السَّاعَةُ بَغْتَةً قَالُوا يَا حَسْرَتَنَا عَلَىٰ مَا فَرَّطْنَا فِيهَا وَهُمْ يَحْمِلُونَ أَوْزَارَهُمْ عَلَىٰ ظُهُورِهِمْ ۚ أَلَا سَاءَ مَا يَزِرُونَ ﴾ 31 ﴿
क़द् ख़सिरल्लज़ी-न कज़्ज़बू बिलिक़ा इल्लाहि, हत्ता इज़ा जाअत्हुमुस्-सा-अतु बग़्-ततन् क़ालू या-हस्र- तना अला मा फर्रत्-ना फ़ीहा, व हुम् यह़्मिलू-न औज़ारहुम् अला ज़ुहूरिहिम्, अला सा-अ मा यज़िरून
निश्चय वे क्षति में पड़ गये, जिन्होंने अल्लाह से मिलने को झुठला दिया, यहाँ तक कि जब प्रलय अचानक उनपर आ जायेगी तो कहेंगेः हाय! इस विषय में हमसे बड़ी चूक हुई और वे अपने पापों का बोझ अपनी पीठों पर उठाये होंगे। तो कैसा बुरा बोझ है, जिसे वे उठा रहे हैं।
وَمَا الْحَيَاةُ الدُّنْيَا إِلَّا لَعِبٌ وَلَهْوٌ ۖ وَلَلدَّارُ الْآخِرَةُ خَيْرٌ لِّلَّذِينَ يَتَّقُونَ ۗ أَفَلَا تَعْقِلُونَ ﴾ 32 ﴿
व मल्हयातुद्दुन्या इल्ला लअिबुंव् व लह़्वुन्, व लद्दारूल्-आख़ि-रतु ख़ैरूल लिल्लज़ी न यत्तक़ून, अ-फला तअ्क़िलून
तथा सांसारिक जीवन एक खेल और मनोरंजन[1] है तथा परलोक का घर ही उत्तम[2] है, उनके लिए जो अल्लाह से डरते हों, तो क्या तुम समझते[3] नहीं हो? 1. अर्थात साम्यिक और अस्थायी है। 2. अर्थात स्थायी है। 3. आयत का भावार्थ यह है कि यदि कर्मों के फल के लिये कोई दूसरा जीवन न हो, तो संसारिक जीवन एक मनोरंजन और खेल से अधिक कुछ नहीं रह जायेगा। तो क्या यह संसारिक व्यवस्था इसी लिये की गई है कि कुछ दिनों खेलो और फिर समाप्त हो जाये? यह बात तो समझ-बूझ का निर्णय नहीं हो सकती। अतः एक दूसरे जीवन का होना ही समझ-बूझ का निर्णय है।
قَدْ نَعْلَمُ إِنَّهُ لَيَحْزُنُكَ الَّذِي يَقُولُونَ ۖ فَإِنَّهُمْ لَا يُكَذِّبُونَكَ وَلَٰكِنَّ الظَّالِمِينَ بِآيَاتِ اللَّهِ يَجْحَدُونَ ﴾ 33 ﴿
क़द् नअ्लमु इन्नहू ल-यह़्ज़ुनुकल्लज़ी यक़ूलू-न फ़-इन्नहुम् ला युकज़्ज़िबून-क व लाकिन्नज़्ज़ालिमी-न बिआयातिल्लाहि यज्हदून
(हे नबी!) हम जानते हैं कि उनकी बातें आपको उदासीन कर देती हैं, तो वास्तव में वे आपको नहीं झुठलाते, परन्तु ये अत्याचारी अल्लाह की आयतों को नकारते हैं।
وَلَقَدْ كُذِّبَتْ رُسُلٌ مِّن قَبْلِكَ فَصَبَرُوا عَلَىٰ مَا كُذِّبُوا وَأُوذُوا حَتَّىٰ أَتَاهُمْ نَصْرُنَا ۚ وَلَا مُبَدِّلَ لِكَلِمَاتِ اللَّهِ ۚ وَلَقَدْ جَاءَكَ مِن نَّبَإِ الْمُرْسَلِينَ ﴾ 34 ﴿
व ल-क़द् कुज़्ज़िबत् रूसुलुम् मिन् क़ब्लि-क फ़-स-बरू अला मा कुज़्ज़िबू व ऊज़ू हत्ता अताहुम् नस्रूना, व ला मुबद्दि-ल लि-कलिमातिल्लाहि, व ल-क़द् जाअ-क मिन् न-बइल् मुर्सलीन
और आपसे पहले भी बहुत-से रसूल झुठलाये गये। तो इसे उन्होंने सहन किया और उन्हें दुःख दिया गया, यहाँ तक कि हमारी सहायता आ गयी तथा अल्लाह की बातों को कोई बदल नहीं[1] सकता और आपके पास रसूलों के समाचार आ चुके हैं। 1. अर्थात अल्लाह के निर्धारित नियम को, कि पहले वह परीक्षा में डालता है, फिर सहायता करता है।
وَإِن كَانَ كَبُرَ عَلَيْكَ إِعْرَاضُهُمْ فَإِنِ اسْتَطَعْتَ أَن تَبْتَغِيَ نَفَقًا فِي الْأَرْضِ أَوْ سُلَّمًا فِي السَّمَاءِ فَتَأْتِيَهُم بِآيَةٍ ۚ وَلَوْ شَاءَ اللَّهُ لَجَمَعَهُمْ عَلَى الْهُدَىٰ ۚ فَلَا تَكُونَنَّ مِنَ الْجَاهِلِينَ ﴾ 35 ﴿
व इन् का-न कबु-र अलै-क इअ्-राज़ुहुम् फ़-इनिस् -ततअ्-त अन् तब्तग़ि-य न-फ़कन् फ़िल्अर्ज़ि औ सुल्लमन् फ़िस्समा-इ फ़-तअ्तियहुम् बिआयतिन्, व लौ शाअल्लाहु ल-ज-म-अहुम् अलल्हुदा फ़ला तकूनन्-न मिनल् जाहिलीन
और यदि आपको उनकी विमुखता भारी लग रही है, तो यदि आपसे हो सके, तो धरती में कोई सुरंग खोज लें अथवा आकाश में कोई सीढ़ी लगा लें, फिर उनके पास कोई निशानी (चमत्कार) ला दें और यदि अल्लाह चाहे, तो इन्हें मार्गदर्शन पर एकत्र कर दे। अतः आप कदापि अज्ञानों में न हों।
۞ إِنَّمَا يَسْتَجِيبُ الَّذِينَ يَسْمَعُونَ ۘ وَالْمَوْتَىٰ يَبْعَثُهُمُ اللَّهُ ثُمَّ إِلَيْهِ يُرْجَعُونَ ﴾ 36 ﴿
इन्नमा यस्तजीबुल्लज़ी-न यस्मअू-न, वल्मौता यब् असुहुमुल्लाहु सुम्-म इलैहि युर्जअन
आपकी बात वही स्वीकार करेंगे, जो सुनते हों, परन्तु जो मुर्दे हैं, उन्हें अल्लाह[1] ही जीवित करेगा, फिर उसी की ओर फेरे जायेंगे। 1. अर्थात प्रलय के दिन उन की समाधियों से। आयत का भावार्थ यह है कि आप के सदुपदेश को वही स्वीकार करेंगे, जिन की अन्तरात्मा जीवित हो। परन्तु जिन के दिल निर्जीव हैं, तो यदि आप धरती अथवा आकाश से ला कर उन्हें कोई चमत्कार भी दिखा दें, तब भी वह उन के लिये व्यर्थ होगा। यह सत्य को स्वीकार करने की योग्यता ही खो चुके हैं।
وَقَالُوا لَوْلَا نُزِّلَ عَلَيْهِ آيَةٌ مِّن رَّبِّهِ ۚ قُلْ إِنَّ اللَّهَ قَادِرٌ عَلَىٰ أَن يُنَزِّلَ آيَةً وَلَٰكِنَّ أَكْثَرَهُمْ لَا يَعْلَمُونَ ﴾ 37 ﴿
व क़ालू लौ ला नुज़्ज़ि-ल अलैहि आयतुम् मिर्रब्बिही, क़ुल इन्नल्ला-ह क़ादिरून् अला अंय्युनज़्ज़ि-ल आयतंव्-व लाकिन्-न अक्स रहुम् ला यअ्लमून
तथा उन्होंने कहा कि नबी पर उनके पालनहार की ओर से कोई चमत्कार क्यों नहीं उतारा गया? आप कह दें कि अल्लाह इसका सामर्थ्य रखता है, परन्तु अधिक्तर लोग अज्ञान हैं।
وَمَا مِن دَابَّةٍ فِي الْأَرْضِ وَلَا طَائِرٍ يَطِيرُ بِجَنَاحَيْهِ إِلَّا أُمَمٌ أَمْثَالُكُم ۚ مَّا فَرَّطْنَا فِي الْكِتَابِ مِن شَيْءٍ ۚ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّهِمْ يُحْشَرُونَ ﴾ 38 ﴿
व मा मिन् दाब्बतिन् फिल् अर्ज़ि व ला ताइरिंय्यतीरू बिजनाहैहि इल्ला उ-ममुन् अम्सालुकुम्, मा फर्रत्-ना फ़िल्किताबि मिन् शैइन् सुम्-म इला रब्बिहिम् युह्शरून
धरती में विचरते जीव तथा अपने दो पंखों से उड़ते पक्षी तुम्हारी जैसी जातियाँ हैं, हमने पुस्तक[1] में कुछ कमी नहीं की[2] है, फिर वे अपने पालनहार की ओर ही एकत्र किये[3] जायेंगे। 1. पुस्तक का अर्थ "लौह़े मह़्फ़ूज़" है, जिस में सारे संसार का भाग्य लिखा हुआ है। 2. इन आयतों का भावार्थ यह है कि यदि तुम निशानियों और चमत्कारों की माँग करते हो तो यह पूरे विश्व में जो जीव और पक्षी हैं, जिन के जीवन साधनों की व्यवस्था अल्लाह ने की है, और सब के भाग्य में जो लिख दिया है, वह पूरा हो रहा है। क्या तुम्हारे लिये अल्लाह के अस्तित्व और गुणों के प्रतीक नहीं हैं? यदि तुम ज्ञान तथा समझ से काम लो, तो यह विश्व की व्यवस्था ही ऐसा लक्षण और प्रमाण है कि जिस के पश्चात किसी अन्य चमत्कार की आवश्यक्ता नहीं रह जाती। 3. अर्थ यह है कि सब जीवों के प्राण मरने के पश्चात् उसी के पास एकत्र हो जाते हैं, क्यों कि वही सब का उत्पत्तिकार है।
وَالَّذِينَ كَذَّبُوا بِآيَاتِنَا صُمٌّ وَبُكْمٌ فِي الظُّلُمَاتِ ۗ مَن يَشَإِ اللَّهُ يُضْلِلْهُ وَمَن يَشَأْ يَجْعَلْهُ عَلَىٰ صِرَاطٍ مُّسْتَقِيمٍ ﴾ 39 ﴿
वल्लज़ी-न कज़्ज़बू बिआयातिना सुम्मुंव्-व बुक्मुन् फिज़्ज़ुलुमाति, मंय्य-श इल्लाहु युज़्लिल्हु, व मंय्यशअ् यज्अ़ल्हु अला सिरातिम् मुस्तक़ीम
तथा जिन्होंने हमारी निशानियों को झुठला दिया, वे गूँगे, बहरे, अंधेरों में हैं। जिसे अल्लाह चाहता है, कुपथ करता है और जिसे चाहता है, सीधी राह पर लगा देता है।
قُلْ أَرَأَيْتَكُمْ إِنْ أَتَاكُمْ عَذَابُ اللَّهِ أَوْ أَتَتْكُمُ السَّاعَةُ أَغَيْرَ اللَّهِ تَدْعُونَ إِن كُنتُمْ صَادِقِينَ ﴾ 40 ﴿
क़ुल अ-रऐतकुम् इन् अताकुम् अज़ाबुल्लाहि औ अतत्कुमुस्-सा अतु अग़ैरल्लाहि तदअू-न, इन् कुन्तुम् सादिक़ीन
(हे नबी!) उनसे कहो कि यदि तुमपर अल्लाह का प्रकोप आ जाये अथवा तुमपर प्रलय आ जाये, तो क्या तुम अल्लाह के सिवा किसी और को पुकारोगे, यदि तुम सच्चे हो?
بَلْ إِيَّاهُ تَدْعُونَ فَيَكْشِفُ مَا تَدْعُونَ إِلَيْهِ إِن شَاءَ وَتَنسَوْنَ مَا تُشْرِكُونَ ﴾ 41 ﴿
बल् इय्याहु तद्अू-न फ़-यक्शिफु मा तद्अू-न इलैहि इन् शा-अ व तन्सौ-न मा तुश्रिकून *
बल्कि तुम उसी को पुकारते हो, तो वह दूर करता है, उसे, जिसके लिए तुम पुकारते हो, यदि वह चाहे, और तुम उसे भूल जाते हो, जिसे साझी[1] बनाते हो। 1. इस आयत का भावार्थ यह है कि किसी घोर आपदा के समय तुम्हारा अल्लाह ही को गुहारना, स्वयं तुम्हारी ओर से उस के अकेले पूज्य होने का प्रमाण और स्वीकार है।
وَلَقَدْ أَرْسَلْنَا إِلَىٰ أُمَمٍ مِّن قَبْلِكَ فَأَخَذْنَاهُم بِالْبَأْسَاءِ وَالضَّرَّاءِ لَعَلَّهُمْ يَتَضَرَّعُونَ ﴾ 42 ﴿
व ल-क़द् अरसल्ना इला उ-ममिम् मिन् क़ब्लि-क फ़-अख़ज़्नाहुम् बिल्बअ्सा-इ वज़्ज़र्रा-इ लअ़ल्लहुम् य तज़र्रअून
और आपसे पहले भी समुदायों की ओर हमने रसूल भेजे, तो हमने उन्हें आपदाओं और दुखों में डाला[1], ताकि वे विनय करें। 1. अर्थात ताकि अल्लाह से विनय करें, और उस के सामने झुक जायें।
فَلَوْلَا إِذْ جَاءَهُم بَأْسُنَا تَضَرَّعُوا وَلَٰكِن قَسَتْ قُلُوبُهُمْ وَزَيَّنَ لَهُمُ الشَّيْطَانُ مَا كَانُوا يَعْمَلُونَ ﴾ 43 ﴿
फ़लौ ला इज़् जाअहुम् बअ्सुना तज़र्रअू व लाकिन् क़-सत् क़ुलूबुहुम् व ज़य्य-न लहुमुश्शैतानु मा कानू यअ्मलून
तो जब उनपर हमारी यातना आई, तो वे हमारे समक्ष झुक क्यों नहीं गये? परन्तु उनके दिल और भी कड़े हो गये तथा शैतान ने उनके लिए उनके कुकर्मों को सुन्दर बना[1] दिया। 1. आयत का अर्थ यह है कि जब कुकर्मों के कारण दिल कड़े हो जाते हैं, तो कोई भी बात उन्हें सुधार के लिये तैयार नहीं कर सकती।
فَلَمَّا نَسُوا مَا ذُكِّرُوا بِهِ فَتَحْنَا عَلَيْهِمْ أَبْوَابَ كُلِّ شَيْءٍ حَتَّىٰ إِذَا فَرِحُوا بِمَا أُوتُوا أَخَذْنَاهُم بَغْتَةً فَإِذَا هُم مُّبْلِسُونَ ﴾ 44 ﴿
फ़-लम्मा नसू मा ज़ुक्किरू बिही फ़तह़्ना अलैहिम् अब्वा-ब कुल्लि शैइन्, हत्ता इज़ा फ़रिहू बिमा ऊतू अख़ज़्नाहुम् बग़्-ततन् फ़-इज़ा हुम् मुब्लिसून
तो जब उन्होंने उसे भुला दिया, जो याद दिलाये गये थे, तो हमने उनपर प्रत्येक (सुख-सुविधा) के द्वार खोल दिये। यहाँ तक कि जब, जो कुछ वे दिये गये, उससे प्रफुल्ल हो गये, तो हमने उन्हें अचानक घेर लिया और वे निराश होकर रह गये।
فَقُطِعَ دَابِرُ الْقَوْمِ الَّذِينَ ظَلَمُوا ۚ وَالْحَمْدُ لِلَّهِ رَبِّ الْعَالَمِينَ ﴾ 45 ﴿
फ़क़ुति-अ दाबिरूल् क़ौमिल्लज़ी-न ज़-लमू, वल्हम्दु लिल्लाहि रब्बिल-आ़लमीन
तो उनकी जड़ काट दी गयी, जिन्होंने अत्याचार किया और सब प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है, जो पूरे विश्व का पालनहार है।
قُلْ أَرَأَيْتُمْ إِنْ أَخَذَ اللَّهُ سَمْعَكُمْ وَأَبْصَارَكُمْ وَخَتَمَ عَلَىٰ قُلُوبِكُم مَّنْ إِلَٰهٌ غَيْرُ اللَّهِ يَأْتِيكُم بِهِ ۗ انظُرْ كَيْفَ نُصَرِّفُ الْآيَاتِ ثُمَّ هُمْ يَصْدِفُونَ ﴾ 46 ﴿
क़ुल अ-रऐतुम् इन् अ-ख़ज़ल्लाहु सम्अ़कुम् व अब्सारकुम् व ख़-त म अला क़ुलूबिकुम् मन् इलाहुन् ग़ैरूल्लाहि यअ्तीकुम् बिही, उन्ज़ुर् कै-फ़ नुसर्रिफुल् -आयाति सुम्-म हुम् यस्दिफून
(हे नबी!) आप कहें कि क्या तुमने इसपर भी विचार किया कि यदि अल्लाह तुम्हारे सुनने तथा देखने की शक्ति छीन ले और तुम्हारे दिलों पर मुहर लगा दे, तो अल्लाह के सिवा कौन है, जो तुम्हें इसे वापस दिला सके? देखो, हम कैसे बार-बार आयतें[1] प्रस्तुत कर रहे हैं, फिर भी वे मुँह[2] फेर रहे हैं। 1. अर्थात इस बात की निशानियाँ कि अल्लाह ही पूज्य है, और दूसरे सभी पूज्य मिथ्या हैं। (इब्ने कसीर) 2. अर्थात सत्य से।
قُلْ أَرَأَيْتَكُمْ إِنْ أَتَاكُمْ عَذَابُ اللَّهِ بَغْتَةً أَوْ جَهْرَةً هَلْ يُهْلَكُ إِلَّا الْقَوْمُ الظَّالِمُونَ ﴾ 47 ﴿
क़ुल अ-रऐतकुम् इन् अताकुम् अज़ाबुल्लाहि बग़्- ततन् औ जह् रतन् हल् युह़्लकु इल्लल् क़ौमुज़्ज़ालिमून
आप कहें कि कभी तुमने इस बात पर विचार किया कि यदि तुमपर अल्लाह की यातना अचानक या खुल कर आ जाये, तो अत्याचारियों (मुश्रिकों) के सिवा किसका विनाश होगा?
وَمَا نُرْسِلُ الْمُرْسَلِينَ إِلَّا مُبَشِّرِينَ وَمُنذِرِينَ ۖ فَمَنْ آمَنَ وَأَصْلَحَ فَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُونَ ﴾ 48 ﴿
व मा नुर्सिलुल-मुरसली-न इल्ला मुबश्शिरी-न व मुन्ज़िरी-न, फ़-मन् आम-न व अस्ल-ह फ़ला ख़ौफुन् अलैहिम् व ला हुम् यह्ज़नून
और हम रसूलों को, इसीलिए भेजते हैं कि वे (आज्ञाकारियों को) शुभ सूचना दें तथा (अवज्ञाकारियों को) डरायें। तो जो ईमान लाये तथा अपने कर्म सुधार लिए, उनके लिए कोई भय नहीं और न वह उदासीन होंगे।
وَالَّذِينَ كَذَّبُوا بِآيَاتِنَا يَمَسُّهُمُ الْعَذَابُ بِمَا كَانُوا يَفْسُقُونَ ﴾ 49 ﴿
वल्लज़ी-न कज़्ज़बू बिआयातिना यमस्सुहुमुल्-अज़ाबु बिमा कानू यफ्सुक़ून
और जिन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया, उन्हें अपनी अवज्ञा के कारण यातना अवश्य मिलेगी।
قُل لَّا أَقُولُ لَكُمْ عِندِي خَزَائِنُ اللَّهِ وَلَا أَعْلَمُ الْغَيْبَ وَلَا أَقُولُ لَكُمْ إِنِّي مَلَكٌ ۖ إِنْ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَىٰ إِلَيَّ ۚ قُلْ هَلْ يَسْتَوِي الْأَعْمَىٰ وَالْبَصِيرُ ۚ أَفَلَا تَتَفَكَّرُونَ ﴾ 50 ﴿
क़ुल ला अक़ूलु लकुम् अिन्दी ख़ज़ाइनुल्लाहि व ला अअ्लमुल्ग़ै-ब व ला अक़ूलु लकुम् इन्नी म-लकुन्, इन् अत्तबिअु इल्ला मा यूहा इलय्-य, क़ुल हल यस्तविल्- अअ्मा वल्बसीरू, अ-फ़ला त-तफ़क्करून *
(हे नबी!) आप कह दें कि मेरे पास अल्लाह का कोष नहीं है, न मैं परोक्ष का ज्ञान रखता हूँ और न मैं ये कहता हूँ कि मैं कोई फ़रिश्ता हूँ। मैं तो केवल उसीपर चल रहा हूँ, जो मेरी ओर वह़्यी (प्रकाशना) की जा रही है। आप कहें कि क्या अंधा[1] तथा आँख वाला बराबर हो जायेंगे? क्या तुम सोच विचार नहीं करते? 1. अंधा से अभिप्राय, सच से विचलित है। इस आयत में कहा गया है कि नबी, मानव पुरुष से अधिक और कुछ नहीं होता। वह सत्य का अनुयायी तथा उसी का प्रचारक होता है।
وَأَنذِرْ بِهِ الَّذِينَ يَخَافُونَ أَن يُحْشَرُوا إِلَىٰ رَبِّهِمْ ۙ لَيْسَ لَهُم مِّن دُونِهِ وَلِيٌّ وَلَا شَفِيعٌ لَّعَلَّهُمْ يَتَّقُونَ ﴾ 51 ﴿
व अन्ज़िर् बिहिल्लज़ी न यख़ाफू-न अंय्युह्शरू इला रब्बिहिम् लै-स लहुम् मिन् दूनिही वलिय्युंव-व ला शफ़ीअुल् लअल्लहुम् यत्तक़ून
और इस (वह़्यी) के द्वारा उन्हें सचेत करो, जो इस बात से डरते हों कि वे अपने पालनहार के पास (प्रलय के दिन) एकत्र किये जायेंगे, इस दशा में कि अल्लाह के सिवा कोई सहायक तथा अनुशंसक (सिफ़ारिशी) न होगा, संभवतः वे आज्ञाकारी हो जायेँ।
وَلَا تَطْرُدِ الَّذِينَ يَدْعُونَ رَبَّهُم بِالْغَدَاةِ وَالْعَشِيِّ يُرِيدُونَ وَجْهَهُ ۖ مَا عَلَيْكَ مِنْ حِسَابِهِم مِّن شَيْءٍ وَمَا مِنْ حِسَابِكَ عَلَيْهِم مِّن شَيْءٍ فَتَطْرُدَهُمْ فَتَكُونَ مِنَ الظَّالِمِينَ ﴾ 52 ﴿
व ला ततरूदिल्लज़ी-न यद्अू-न रब्बहुम् बिल्ग़दाति वल् अशिय्यि युरीदू-न वज्हहू, मा अलै-क मिन हिसाबिहिम् मिन् शैइंव्-व मा मिन् हिसाबि-क अलैहिम् मिन् शैइन् फ़-ततरू-दहुम् फ़-तकू-न मिनज़्ज़ालिमीन
(हे नबी!) आप उन्हें अपने से दूर न करें, जो अपने पालनहार की वंदना प्रातः संध्या करते एवं उसकी प्रसन्नता की चाह में लगे रहते हैं। उनके ह़िसाब का कोई भार आपपर नहीं है और न आपके ह़िसाब का कोई भार उनपर[1] है, अतः यदि आप उन्हें दूर करेंगे, तो अत्याचारियों में हो जायेंगे। 1. अर्थात न आप उन के कर्मों के उत्तरदायी हैं, न वे आप के कर्मों के। रिवायतों से विध्दित होता है कि मक्का के कुछ धनी मिश्रणवादियों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कहा कि हम आप की बातें सुनना चाहते हैं, किन्तु आप के पास नीच लोग रहते हैं, जिन के साथ हम नहीं बैठ सकते। इसी पर यह आयत उतरी। (इबने कसीर) ह़दीस में है कि अल्लाह, तुमहारे रूप और वस्त्र नहीं देखता किन्तु तुम्हारे दिलों और कर्मों को देखता है। (सह़ीह़ मुस्लिमः2564)
وَكَذَٰلِكَ فَتَنَّا بَعْضَهُم بِبَعْضٍ لِّيَقُولُوا أَهَٰؤُلَاءِ مَنَّ اللَّهُ عَلَيْهِم مِّن بَيْنِنَا ۗ أَلَيْسَ اللَّهُ بِأَعْلَمَ بِالشَّاكِرِينَ ﴾ 53 ﴿
व कज़ालि-क फ़तन्ना बअ्ज़हुम् बिबअ्ज़िल्-लियक़ूलू अ-हाउला-इ मन्नल्लाहु अलैहिम् मिम्-बैनिना, अलैसल्लाहु बिअअ् ल-म बिश्शाकिरीन
और इसी प्रकार[1] हमने कुछ लोगों की परीक्षा कुछ लोगों द्वारा की है, ताकि वे कहें कि क्या यही हैं, जिनपर हमारे बीच से अल्लाह ने उपकार किया[2] है? तो क्या अल्लाह कृतज्ञयों को भली-भाँति जानता नहीं है? 1. अर्थात धनी और निर्धन बना कर। 2. अर्थात मार्गदर्शन प्रदान किया।
وَإِذَا جَاءَكَ الَّذِينَ يُؤْمِنُونَ بِآيَاتِنَا فَقُلْ سَلَامٌ عَلَيْكُمْ ۖ كَتَبَ رَبُّكُمْ عَلَىٰ نَفْسِهِ الرَّحْمَةَ ۖ أَنَّهُ مَنْ عَمِلَ مِنكُمْ سُوءًا بِجَهَالَةٍ ثُمَّ تَابَ مِن بَعْدِهِ وَأَصْلَحَ فَأَنَّهُ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 54 ﴿
व इज़ा जा-अकल्लज़ी-न युअ्मिनू न बिआयातिना फ़क़ुल् सलामुन् अलैकुम् क-त-ब रब्बुकुम् अला नफ्सिहिर्रह़्म-त अन्नहू मन् अमि-ल मिन्कुम् सूअम् बि- जहालतिन् सुम्-म ता-ब मिम्-बअ्दिही व अस्ल-ह फ़-अन्नहू ग़फूरुर्रहीम
तथा (हे नबी!) जब आपके पास वे लोग आयें, जो हमारी आयतों (क़ुर्आन) पर ईमान लाये हैं, तो आप कहें कि तुम[1] पर सलाम (शान्ति) है। अल्लाह ने अपने ऊपर दया अनिवार्य कर ली है कि तुममें से जो भी अज्ञानता के कारण, कोई कुकर्म कर लेगा, फिर उसके पश्चात् तौबा (क्षमा याचना) कर लेगा और अपना सुधार कर लेगा, तो निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील दयावान् है। 1. अर्तथात उन के सलाम का उत्तर दें, और उन का आदर सम्मान करें।
وَكَذَٰلِكَ نُفَصِّلُ الْآيَاتِ وَلِتَسْتَبِينَ سَبِيلُ الْمُجْرِمِينَ ﴾ 55 ﴿
व कज़ालि-क नुफस्सिलुल्-आयाति व लितस्तबी-न सबीलुल-मुज्रिमीन *
और इसी प्रकार हम आयतों का वर्णन करते हैं और इस लिए ताकि अपराधियों का पथ उजागर हो जाये (और सत्यवादियों का पथ संदिग्ध न हो)।
قُلْ إِنِّي نُهِيتُ أَنْ أَعْبُدَ الَّذِينَ تَدْعُونَ مِن دُونِ اللَّهِ ۚ قُل لَّا أَتَّبِعُ أَهْوَاءَكُمْ ۙ قَدْ ضَلَلْتُ إِذًا وَمَا أَنَا مِنَ الْمُهْتَدِينَ ﴾ 56 ﴿
क़ुल इन्नी नुहीतु अन् अअ्बुदल्लज़ी-न तद्अू-न मिन् दूनिल्लाहि, क़ुल ला अत्तबिअु अह़्वा-अकुम्, क़द् ज़लल्तु इज़ंव्-व मा अ-ना मिनल मुह्तदीन
(हे नबी!) आप (मुश्रिकों से) कह दें कि मुझे रोक दिया गया है कि मैं उनकी वंदना करूँ, जिन्हें तुम अल्लाह के सिवा पुकारते हो। उनसे कह दो कि मैं तुम्हारी आकांक्षाओं पर नहीं चल सकता। मैंने ऐसा किया तो मैं सत्य से कुपथ हो गया और मैं सुपथों में से नहीं रह जाऊँगा।
قُلْ إِنِّي عَلَىٰ بَيِّنَةٍ مِّن رَّبِّي وَكَذَّبْتُم بِهِ ۚ مَا عِندِي مَا تَسْتَعْجِلُونَ بِهِ ۚ إِنِ الْحُكْمُ إِلَّا لِلَّهِ ۖ يَقُصُّ الْحَقَّ ۖ وَهُوَ خَيْرُ الْفَاصِلِينَ ﴾ 57 ﴿
क़ुल इन्नी अला बय्यि-नतिम् मिर्रब्बी व कज़्ज़ब्तुम् बिही, मा अिन्दी मा तस्तअ्जिलू-न बिही, इनिल्हुक्मु इल्ला लिल्लाहि, यक़ुस्सुल्हक़्-क़ व हु-व ख़ैरूल्-फ़ासिलीन
आप कह दें कि मैं अपने पालनहार के खुले तर्क पर स्थित[1] हूँ। और तुमने उसे झुठला दिया है। जिस (निर्णय) के लिए तुम शीघ्रता करते हो, वह मेरे पास नहीं। निर्णय तो केवल अल्लाह के अधिकार में है। वह सत्य को वर्णित कर रहा है और सर्वोत्तम निर्णयकारी है। 1. अर्थात सत्धर्म पर, जो वह़्यी द्वारा मुझ पर उतारा गया है। आयत का भावार्थ यह है कि वह़्यी (प्रकाशना) की राह ही सत्य और विश्वास तथा ज्ञान की राह है। और जो उसे नहीं मानते, उन के पास शंका और अनुमान के सिवा कुछ नहीं।
قُل لَّوْ أَنَّ عِندِي مَا تَسْتَعْجِلُونَ بِهِ لَقُضِيَ الْأَمْرُ بَيْنِي وَبَيْنَكُمْ ۗ وَاللَّهُ أَعْلَمُ بِالظَّالِمِينَ ﴾ 58 ﴿
क़ुल् लौ अन्-न अिन्दी मा तस्तअ्जिलू-न बिही लक़ुज़ियल्-अम्रू बैनी व बैनकुम्, वल्लाहु अअ्लमु बिज़्ज़ालिमीन
आप कह दें कि जिस (निर्णय) के लिए तुम शीघ्रता कर रहे हो, मेरे अधिकार में होता, तो हमारे और तुम्हारे बीच निर्णय हो गया होता तथा अल्लाह अत्याचारियों[1] को भली-भाँति जानता है। 1. अर्थात निर्णय का अधिकार अल्लाह को है, जो उस के निर्धारित समय पर हो जायेगा।
۞ وَعِندَهُ مَفَاتِحُ الْغَيْبِ لَا يَعْلَمُهَا إِلَّا هُوَ ۚ وَيَعْلَمُ مَا فِي الْبَرِّ وَالْبَحْرِ ۚ وَمَا تَسْقُطُ مِن وَرَقَةٍ إِلَّا يَعْلَمُهَا وَلَا حَبَّةٍ فِي ظُلُمَاتِ الْأَرْضِ وَلَا رَطْبٍ وَلَا يَابِسٍ إِلَّا فِي كِتَابٍ مُّبِينٍ ﴾ 59 ﴿
व अिन्दहू मफ़ातिहुल्ग़ैबि ला यअ्लमुहा इल्ला हु-व, व यअ्लमु मा फ़िल्बर्रि वल्बह्-रि, व मा तस्क़ुतु मिंव्व-र क़तिन् इल्ला यअ्लमुहा व ला हब्बतिन् फ़ी ज़ुलुमातिल्-अर्ज़ि व ला रतबिंव्-व ला याबिसिन् इल्ला फ़ी किताबिम् मुबीन
और उसी (अल्लाह) के पास ग़ैब (परोक्ष) की कुंजियाँ[1] हैं। उन्हें केवल वही जानता है तथा जो कुछ थल और जल में है, वह सबका ज्ञान रखता है और कोई पत्ता नहीं गिरता परन्तु उसे वह जानता है और न कोई अन्न, जो धरती के अंधेरों में हो और न कोई आर्द्र (भीगा) और न कोई शुष्क (सूखा) है, परन्तु वह एक खुली पुस्तक में है। 1. सह़ीह़ ह़दीस में है कि ग़ैब की कुंजियाँ पाँच हैं; अल्लाह ही के पास प्रलय का ज्ञान है। और वही वर्षा करता है। और जो गर्भाषयों में है उस को वही जानता है। तथा कोई जीव नहीं जानता कि वह कल क्या कमायेगा। और न ही यह जानता है कि वह किस भूमि में मरेगा। (सह़ीह़ बुख़ारीः4627)
وَهُوَ الَّذِي يَتَوَفَّاكُم بِاللَّيْلِ وَيَعْلَمُ مَا جَرَحْتُم بِالنَّهَارِ ثُمَّ يَبْعَثُكُمْ فِيهِ لِيُقْضَىٰ أَجَلٌ مُّسَمًّى ۖ ثُمَّ إِلَيْهِ مَرْجِعُكُمْ ثُمَّ يُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمْ تَعْمَلُونَ ﴾ 60 ﴿
व हुवल्लज़ी य-तवफ्फाकुम् बिल्लैलि व यअ्लमु मा जरह्तुम् बिन्नहारि सुम्-म यब्अ़सुकुम् फ़ीहि लियुक्ज़ा अ-जलुम् मुसम्मन्, सुम्-म इलैहि मर्जिअुकुम् सुम्-म युनब्बिअुकुम् बिमा कुन्तुम् तअ्मलून*
वही है, जो रात्रि में तुम्हारी आत्माओं को ग्रहण कर लेता है तथा दिन में जो कुछ किया है, उसे जानता है। फिर तुम्हें उस (दिन) में जगा देता है, ताकि निर्धारित अवधि पूरी हो जाये[1]। फिर तुम्हें उसी की ओर प्रत्यागत (वापस) होना है। फिर वह तुम्हें तुम्हारे कर्मों से सूचित कर देगा। 1. अर्थात संसारिक जीवन की निर्धारित अवधि।
وَهُوَ الْقَاهِرُ فَوْقَ عِبَادِهِ ۖ وَيُرْسِلُ عَلَيْكُمْ حَفَظَةً حَتَّىٰ إِذَا جَاءَ أَحَدَكُمُ الْمَوْتُ تَوَفَّتْهُ رُسُلُنَا وَهُمْ لَا يُفَرِّطُونَ ﴾ 61 ﴿
व हुवलक़ाहिरू फौ-क़ अिबादिही व युर्सिलु अ़लैकुम ह-फ़-ज़तन्, हत्ता इज़ा जा-अ अ-हद कुमुल्मौतु तवफ्फ़त्हु रूसुलुना व हुम् ला युफ़र्रितून
तथा वही है, जो अपने सेवकों पर पूरा अधिकार रखता है और तुमपर रक्षकों[1] को भेजता है। यहाँ तक कि जब तुममें से किसी के मरण का समय आ जाता है, तो हमारे फ़रिश्ते उसका प्राण ग्रहण कर लेते हैं और वह तनिक भी आलस्य नहीं करते। 1. अर्थात फ़रिश्तों को तुम्हारे कर्म लिखने के लिये।
ثُمَّ رُدُّوا إِلَى اللَّهِ مَوْلَاهُمُ الْحَقِّ ۚ أَلَا لَهُ الْحُكْمُ وَهُوَ أَسْرَعُ الْحَاسِبِينَ ﴾ 62 ﴿
सुम्-म रूद्दू इलल्लाहि मौलाहुमुल्-हक़्क़ि, अला लहुल्हुक्मु, व हु-व अस्रअुल-हासिबीन
फिर सब, अल्लाह, अपने वास्तविक स्वामी की ओर वापिस लाये जाते हैं। सावधान! उसी को निर्णय करने का अधिकार है और वह अति शीध्र ह़िसाब लेने वाला है।
قُلْ مَن يُنَجِّيكُم مِّن ظُلُمَاتِ الْبَرِّ وَالْبَحْرِ تَدْعُونَهُ تَضَرُّعًا وَخُفْيَةً لَّئِنْ أَنجَانَا مِنْ هَٰذِهِ لَنَكُونَنَّ مِنَ الشَّاكِرِينَ ﴾ 63 ﴿
क़ुल मंय्युनज्जीकुम् मिन् ज़ुलुमातिल बर्रि वल्बह़रि तद्अूनहू तज़र्रुअंव्-व खुफ्यतन्, ल-इन् अन्जाना मिन् हाज़िही ल-नकूनन्-न मिनश्शाकिरीन
(हे नबी!) उनसे पूछिए कि थल तथा जल के अंधेरों में तुम्हें कौन बचाता है, जिसे तुम विनय पूर्वक और धीरे-धीरे पुकारते हो कि यदि उसने हमें बचा लिया, तो हम अवश्य कृतज्ञों में हो जायेंगे?
قُلِ اللَّهُ يُنَجِّيكُم مِّنْهَا وَمِن كُلِّ كَرْبٍ ثُمَّ أَنتُمْ تُشْرِكُونَ ﴾ 64 ﴿
क़ुलिल्लाहु युनज्जीकुम् मिन्हा व मिन् कुल्लि करबिन् सुम्-म अन्तुम् तुश्रिकून
आप कह दें कि अल्लाह ही उससे तथा प्रत्येक आपदा से तुम्हें बचाता है। फिर भी तुम उसका साझी बनाते हो!
قُلْ هُوَ الْقَادِرُ عَلَىٰ أَن يَبْعَثَ عَلَيْكُمْ عَذَابًا مِّن فَوْقِكُمْ أَوْ مِن تَحْتِ أَرْجُلِكُمْ أَوْ يَلْبِسَكُمْ شِيَعًا وَيُذِيقَ بَعْضَكُم بَأْسَ بَعْضٍ ۗ انظُرْ كَيْفَ نُصَرِّفُ الْآيَاتِ لَعَلَّهُمْ يَفْقَهُونَ ﴾ 65 ﴿
क़ुल हुवल्क़ादिरू अला अंय्यब्अ़-स अलैकुम् अज़ाबम् मिन् फौक़िकुम् औ मिन् तह़्ति अर्जुलिकुम् औ यल्बि सकुम् शि यअ़ंव् व युज़ी-क बअ्ज़कुम् बअ्-स बअ्ज़िन्, उन्ज़ुर् कै-फ नुसर्रिफुल्-आयाति लअल्लहुम् यफ़्क़हून
आप उनसे कह दें कि वह इसका सामर्थ्य रखता है कि वह कोई यातना तुम्हारे ऊपर (आकाश) से भेज दे अथवा तुम्हारे पैरों के नीचे (धरती) से या तुम्हें सम्प्रदायों में करके एक को दूसरे के आक्रमण[1] का स्वाद चखा दे। देखिये कि हम किस प्रकार आयतों का वर्णन कर रहे हैं कि संभवतः वे समझ जायेँ। 1. ह़दीस में है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपनी उम्मत के लिये तीन दुआयें कीं: मेरी उम्मत का विनाश डूब कर न हो। साधारण आकाल से न हो। और आपस के संघर्ष से न हो। तो पहली दो दुआ स्वीकार हूई और तीसरी से आप को रोक दिया गया। (बुख़ारीः2216)
وَكَذَّبَ بِهِ قَوْمُكَ وَهُوَ الْحَقُّ ۚ قُل لَّسْتُ عَلَيْكُم بِوَكِيلٍ ﴾ 66 ﴿
व कज़्ज़-ब बिही क़ौमु-क व हुवल्हक़्क़ु, क़ुल् लस्तु अलैकुम् बि-वकील
और (हे नबी!) आपकी जाति ने इस (क़ुर्आन) को झुठला दिया, जबकि वह सत्य है और आप कह दें कि मैं तुमपर अधिकारी नहीं[1] हूँ। 1. कि तुम्हें बलपूर्वक मनवाऊँ। मेरा दायित्व केवल तुम को अल्लाह का आदेश पहुँचा देना है।
لِّكُلِّ نَبَإٍ مُّسْتَقَرٌّ ۚ وَسَوْفَ تَعْلَمُونَ ﴾ 67 ﴿
लिकुल्लि-न-बइम् मुस्तक़ररूंव्-व सौ-फ तअ्लमून
प्रत्येक सूचना के पूरे होने का एक निश्चित समय है और शीघ्र ही तुम जान लोगे।
وَإِذَا رَأَيْتَ الَّذِينَ يَخُوضُونَ فِي آيَاتِنَا فَأَعْرِضْ عَنْهُمْ حَتَّىٰ يَخُوضُوا فِي حَدِيثٍ غَيْرِهِ ۚ وَإِمَّا يُنسِيَنَّكَ الشَّيْطَانُ فَلَا تَقْعُدْ بَعْدَ الذِّكْرَىٰ مَعَ الْقَوْمِ الظَّالِمِينَ ﴾ 68 ﴿
व इज़ा रऐतल्लज़ी-न यख़ूज़ू-न फी आयातिना फ-अअ्-रिज़् अन्हुम् हत्ता यख़ूज़ू फी हदीसिन् ग़ैरिही, व इम्मा युन्सियन्न-कश्शैतानु फला तक़अुद् बअ्दज़्ज़िक्रा मअ़ल् क़ौमिज़्ज़ालिमीन
और जब आप, उन लोगों को देखें, जो हमारी आयतों में दोष निकालते हों, तो उनसे विमुख हो जायेँ, यहाँ तक कि वे किसी दूसरी बात में लग जायें और यदि आपको शैतान भुला दे, तो याद आ जाने के पश्चात् अत्याचारी लोगों के साथ न बैठें।
وَمَا عَلَى الَّذِينَ يَتَّقُونَ مِنْ حِسَابِهِم مِّن شَيْءٍ وَلَٰكِن ذِكْرَىٰ لَعَلَّهُمْ يَتَّقُونَ ﴾ 69 ﴿
व मा अलल्लज़ी न यत्तक़ू-न मिन् हिसाबिहिम् मिन् शैइंव्-व लाकिन् ज़िक्रा लअ़ल्लहुम् यत्तक़ून
तथा उन[1] के ह़िसाब में से कुछ का भार उनपर नहीं है, जो अल्लाह से डरते हों, परन्तु याद दिला[2] देना उनका कर्तव्य है, ताकि वे भी डरने लगें। 1. अर्थात जो अल्लाह की आयतों में दोष निकालते हैं। 2. अर्थात समझा देना।
وَذَرِ الَّذِينَ اتَّخَذُوا دِينَهُمْ لَعِبًا وَلَهْوًا وَغَرَّتْهُمُ الْحَيَاةُ الدُّنْيَا ۚ وَذَكِّرْ بِهِ أَن تُبْسَلَ نَفْسٌ بِمَا كَسَبَتْ لَيْسَ لَهَا مِن دُونِ اللَّهِ وَلِيٌّ وَلَا شَفِيعٌ وَإِن تَعْدِلْ كُلَّ عَدْلٍ لَّا يُؤْخَذْ مِنْهَا ۗ أُولَٰئِكَ الَّذِينَ أُبْسِلُوا بِمَا كَسَبُوا ۖ لَهُمْ شَرَابٌ مِّنْ حَمِيمٍ وَعَذَابٌ أَلِيمٌ بِمَا كَانُوا يَكْفُرُونَ ﴾ 70 ﴿
व ज़रिल्लज़ीनत्त-ख़ज़ू दीनहुम् लअिबंव् व लह़्वंव्-व ग़र्रत्हुमुल् हयातुद्दुन्या व ज़क्किर् बिही अन् तुब्स-ल नफ्सुम्-बिमा क-सबत्, लै-स लहा मिन् दूनिल्लाहि वलिय्युंव्-व ला शफ़ीअुन्, व इन् तअ्दिल् कुल्-ल अद्लिल्-ला युअ्ख़ज़् मिन्हा, उला-इकल्लज़ी-न उब्सिलू बिमा क-सबू, लहुम् शराबुम् मिन् हमीमिंव्-व अ़ज़ाबुन् अलीमुम् बिमा कानू यक्फुरून *
तथा आप उन्हें छोड़ें जिन्होंने अपने धर्म को क्रीड़ा और खेल बना लिया है। दरअसल सांसारिक जीवन ने उन्हें धोखे में डाल रखा है। आप इस (क़ुर्आन) द्वारा उन्हें शिक्षा दें। ताकि कोई प्राणी अपने करतूतों के कारण बंधक न बन जाये, जिसका अल्लाह के सिवा कोई सहायक और अभिस्तावक (सिफ़ारिशी) न होगा।फिर यदि वे, सबकुछ बदले में दे दें, तो भी उनसे नहीं लिया जायेगा[1]। यही लोग अपने करतूतों के कारण बंधक होंगे। उनके लिए उनके कुफ़्र (अविश्वास) के कारण खौलता पेय तथा दुःखदायी यातना होगी। 1. संसारिक दण्ड से बचाव के लिये तीन साधनों से काम लिया जाता है- मैत्री, सिफ़ारिश और अर्थदण्ड। परन्तु अल्लाह के हाँ ऐसे साधन किसी काम नहीं आयेंगे। वहाँ केवल ईमान और सत्कर्म ही काम आयेंगे।
قُلْ أَنَدْعُو مِن دُونِ اللَّهِ مَا لَا يَنفَعُنَا وَلَا يَضُرُّنَا وَنُرَدُّ عَلَىٰ أَعْقَابِنَا بَعْدَ إِذْ هَدَانَا اللَّهُ كَالَّذِي اسْتَهْوَتْهُ الشَّيَاطِينُ فِي الْأَرْضِ حَيْرَانَ لَهُ أَصْحَابٌ يَدْعُونَهُ إِلَى الْهُدَى ائْتِنَا ۗ قُلْ إِنَّ هُدَى اللَّهِ هُوَ الْهُدَىٰ ۖ وَأُمِرْنَا لِنُسْلِمَ لِرَبِّ الْعَالَمِينَ ﴾ 71 ﴿
क़ुल् अ-नद्अू मिन् दूनिल्लाहि मा ला यन्फ़अु-ना व ला यज़ुर्रूना व नुरद्दू अ़ला अअ्क़ाबिना बज्-द इज़् हदानल्लाहु कल्लज़िस् तह़्वत्हुश्शयातीनु फिल्अर्ज़ि हैरा-न, लहू अस्हाबुंय्-यद्अूनहू इलल्-हुदअ्तिना, क़ुल इन्-न हुदल्लाहि हुवल्हुदा, व उमिरना लिनुस्लि-म लिरब्बिल् आ़लमीन
(हे नबी!) उनसे कहिए कि क्या हम अल्लाह के सिवा उनकी वंदना करें, जो हमें कोई लाभ और हानि नहीं पहुँचा सकते? और हम एड़ियों के बल फिर जायेँ, इसके पश्चात कि हमें अल्लाह ने मार्गदर्शन दे दिया है, उसके सामने, जिसे शैतानों ने धरती में बहका दिया हो, वह आश्चर्यचकित हो, उसके साथी उसे पुकार रहे हों कि सीधी राह की ओर हमारे पास आ जाओ[1]? आप कह दें कि मार्गदर्शन तो वास्तव में वही है, जो अल्लाह का मार्गदर्शन है। और हमें तो, यही आदेश दिया गया है कि हम विश्व के पालनहार के आज्ञाकारी हो जायेँ। 1. इस में कुफ़्र और ईमान का उदाहरण दिया गया है कि ईमान की राह निश्चित है और अविश्वास की राह अनिश्चित तथा अनेक है।
وَأَنْ أَقِيمُوا الصَّلَاةَ وَاتَّقُوهُ ۚ وَهُوَ الَّذِي إِلَيْهِ تُحْشَرُونَ ﴾ 72 ﴿
व अन् अक़ीमुस्सला-त वत्तक़ूहु, व हुवल्लज़ी इलैहि तुह्शरून
और नमाज़ की स्थाप्ना करें और उससे डरते रहें तथा वही है, जिसके पास तुम एकत्र किये जाओगे।
وَهُوَ الَّذِي خَلَقَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ بِالْحَقِّ ۖ وَيَوْمَ يَقُولُ كُن فَيَكُونُ ۚ قَوْلُهُ الْحَقُّ ۚ وَلَهُ الْمُلْكُ يَوْمَ يُنفَخُ فِي الصُّورِ ۚ عَالِمُ الْغَيْبِ وَالشَّهَادَةِ ۚ وَهُوَ الْحَكِيمُ الْخَبِيرُ ﴾ 73 ﴿
व हुवल्लज़ी ख़-लक़स्समावाति वल्अर्-ज़ बिल्हक़्क़ि, व यौ-म यक़ूलु कुन् फ़-यकून • क़ौलुहुल्-हक़्क़ु, व लहुल्मुल्कु यौ-म युन्फख़ु फिस्सूरि, आलिमुल्ग़ैबि वश्शहा-दति, व हुवल हकीमुल-ख़बीर
और वही है, जिसने आकाशों तथा धरती की रचना सत्य के साथ की[1] है और जिस दिन वह कहेगा कि "हो जा" तो वह (प्रलय) हो जायेगा। उसका कथन सत्य है और जिस दिन नरसिंघा में फूँक दिया जायेगा, उस दिन उसी का राज्य होगा। वह परोक्ष तथा[2] प्रत्यक्ष का ज्ञानी है और वही गुणी सर्वसूचित है। 1. अर्थात विश्व की व्यवस्था यह बता रही है कि इस का कोई रचयिता है। 2. जिन चीज़ों को हम अपनी पाँच ज्ञान-इंद्रियों से जान लेते हैं वह हमारे लिये प्रत्यक्ष हैं, और जिन का ज्ञान नहीं कर सकते वह परोक्ष हैं।
۞ وَإِذْ قَالَ إِبْرَاهِيمُ لِأَبِيهِ آزَرَ أَتَتَّخِذُ أَصْنَامًا آلِهَةً ۖ إِنِّي أَرَاكَ وَقَوْمَكَ فِي ضَلَالٍ مُّبِينٍ ﴾ 74 ﴿
व इज़् क़ा-ल इब्राहीमु लि-अबीहि आज़-र अ-तत्तख़िज़ु अस् नामन् आलि-हतन्, इन्नी अरा-क व क़ौम-क फ़ी ज़लालिम् मुबीन
तथा जब इब्राहीम ने अपने पिता आज़र से कहाः क्या आप मुर्तियों को पूज्य बनाते हो? मैं आपको तथा आपकी जाति को खुले कुपथ में देख रहा हूँ।
وَكَذَٰلِكَ نُرِي إِبْرَاهِيمَ مَلَكُوتَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَلِيَكُونَ مِنَ الْمُوقِنِينَ ﴾ 75 ﴿
व कज़ालि-क नुरी इब्राही-म म-लकूतस्समावाति वल्अर्ज़ि व लियकू-न मिनल् मूक़िनीन
और इब्राहीम को इसी प्रकार हम आकाशों तथा धरती के राज्य की व्यवस्था दिखाते रहे और ताकि वह विश्वासियों में हो जाये।
فَلَمَّا جَنَّ عَلَيْهِ اللَّيْلُ رَأَىٰ كَوْكَبًا ۖ قَالَ هَٰذَا رَبِّي ۖ فَلَمَّا أَفَلَ قَالَ لَا أُحِبُّ الْآفِلِينَ ﴾ 76 ﴿
फ़-लम्मा जन्-न अलैहिल्लैलु रआ कौ-कबन्, क़ा-ल हाज़ा रब्बी, फ़-लम्मा अ-फ़-ल क़ा-ल ला उहिब्बुल् आफ़िलीन
तो जब उसपर रात छा गयी, तो उसने एक तारा देखा। कहाः ये मेरा पालनहार है। फिर जब वह डूब गया, तो कहाः मैं डूबने वालों से प्रेम नहीं करता।
فَلَمَّا رَأَى الْقَمَرَ بَازِغًا قَالَ هَٰذَا رَبِّي ۖ فَلَمَّا أَفَلَ قَالَ لَئِن لَّمْ يَهْدِنِي رَبِّي لَأَكُونَنَّ مِنَ الْقَوْمِ الضَّالِّينَ ﴾ 77 ﴿
फ़-लम्मा रअल् क़-म-र बाज़िग़न् क़ा-ल हाज़ा रब्बी, फ़-लम्मा अ-फ़-ल क़ा-ल ल-इल्लम् यह़्दिनी रब्बी ल-अकूनन्-न मिनल् क़ौमिज़्ज़ाल्लीन
फिर जब उसने चाँद को चमकते देखा, तो कहाः ये मेरा पालनहार है। फिर जब वह डूब गया, तो कहाः यदि मुझे मेरे पालनहार ने मार्गदर्शन नहीं दिया, तो मैं अवश्य कुपथों में से हो जाऊँगा।
فَلَمَّا رَأَى الشَّمْسَ بَازِغَةً قَالَ هَٰذَا رَبِّي هَٰذَا أَكْبَرُ ۖ فَلَمَّا أَفَلَتْ قَالَ يَا قَوْمِ إِنِّي بَرِيءٌ مِّمَّا تُشْرِكُونَ ﴾ 78 ﴿
फ़-लम्मा रअश्शम् स बाज़ि-ग़तन् क़ा-ल हाज़ा रब्बी हाज़ा अक्बरू, फ़-लम्मा अ-फ़लत् क़ा-ल याक़ौमि इन्नी बरीउम् मिम्मा तुश्रिकून
फिर जब (प्रातः) सूर्य को चमकते देखा, तो कहाः ये मेरा पालनहार है। ये सबसे बड़ा है। फिर जब वह भी डूब गया, तो उसने कहाः हे मेरी जाति के लोगो! निःसंदेह मैं उससे विरक्त हूँ, जिसे तुम (अल्लाह का) साझी बनाते हो।
إِنِّي وَجَّهْتُ وَجْهِيَ لِلَّذِي فَطَرَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ حَنِيفًا ۖ وَمَا أَنَا مِنَ الْمُشْرِكِينَ ﴾ 79 ﴿
इन्नी वज्जह्तु वज्हि-य लिल्लज़ी फ़-तरस्समावाति वल्अर्-ज़ हनीफंव् व मा अ-ना मिनल्-मुश्रिकीन
मैंने तो अपना मुख एकाग्र होकर, उसकी ओर कर लिया है, जिसने आकाशों तथा धरती की रचना की है और मैं मुश्रिकों में से नहीं[1] हूँ। 1. इब्राहीम अलैहिस्सलाम उस युग में नबी हुये जब बाबिल तथा नेनवा के निवासी आकाशीय ग्रहों की पूजा कर रहे थे। परन्तु इब्राहीम अलैहिस्सलाम पर अल्लाह ने सत्य की राह खोल दी। उन्हों ने इन आकाशीय ग्रहों पर विचार किया तथा उन को निकलते और फिर डूबते देख कर ये निर्णय लिया कि यह किसी की रचना तथा उस के अधीन हैं। और इन का रचयिता कोई और है। अतः रचित तथा रचना कभी पूज्य नहीं हो सकती, पूज्य वही हो सकता है जो इन सब का रचयिता तथा व्यवस्थापक है।
وَحَاجَّهُ قَوْمُهُ ۚ قَالَ أَتُحَاجُّونِّي فِي اللَّهِ وَقَدْ هَدَانِ ۚ وَلَا أَخَافُ مَا تُشْرِكُونَ بِهِ إِلَّا أَن يَشَاءَ رَبِّي شَيْئًا ۗ وَسِعَ رَبِّي كُلَّ شَيْءٍ عِلْمًا ۗ أَفَلَا تَتَذَكَّرُونَ ﴾ 80 ﴿
व हाज्जहू क़ौमुहू, क़ा-ल अतुहाज्जून्नी फ़िल्लाहि व क़द् हदानि, व ला अख़ाफु मा तुश्रिकू-न बिही इल्ला अंय्यशा-अ रब्बी शैअन्, वसि-अ रब्बी कुल-ल शैइन् अिल्मन्, अ-फ़ ला त-तज़क्करून
और जब उसकी जाति ने उससे वाद-झगड़ा किया, तो उसने कहाः क्या तुम अल्लाह के विषय में मुझसे झगड़ रहे हो, जबकि उसने मुझे सुपथ दिखा दिया है तथा मैं उससे नहीं डरता हूँ, जिसे तुम साझी बनाते हो। परन्तु मेरा पालनहार कुछ चाहे (तभी वह मुझे हानि पहुँचा सकता है)। मेरा पालनहार प्रत्येक वस्तु को अपने ज्ञान में समोये हुए है। तो क्या तुम शिक्षा नहीं लेते?
وَكَيْفَ أَخَافُ مَا أَشْرَكْتُمْ وَلَا تَخَافُونَ أَنَّكُمْ أَشْرَكْتُم بِاللَّهِ مَا لَمْ يُنَزِّلْ بِهِ عَلَيْكُمْ سُلْطَانًا ۚ فَأَيُّ الْفَرِيقَيْنِ أَحَقُّ بِالْأَمْنِ ۖ إِن كُنتُمْ تَعْلَمُونَ ﴾ 81 ﴿
व कै-फ़ अख़ाफु मा अश्रक्तुम् व ला तख़ाफू-न अन्नकुम् अश्रक़्तुम् बिल्लाहि मा लम् युनज़्ज़िल् बिही अलैकुम् सुल्तानन्, फ़ अय्युल फ़रीक़ैनि अहक़्क़ु बिल्-अम्नि, इन् कुन्तुम् तअ्लमून •
और मैं उनसे कैसे डरूँ, जिन्हें तुमने उसका साझी बना लिया है, जब तुम उस चीज़ को उसका साझी बनाने से नहीं डरते, जिसका अल्लाह ने कोई तर्क (प्रमाण) नहीं उतारा है? तो दोनों पक्षों में कौन अधिक शान्त रहने का अधिकारी है, यदि तुम कुछ ज्ञान रखते हो?
الَّذِينَ آمَنُوا وَلَمْ يَلْبِسُوا إِيمَانَهُم بِظُلْمٍ أُولَٰئِكَ لَهُمُ الْأَمْنُ وَهُم مُّهْتَدُونَ ﴾ 82 ﴿
अल्लज़ी-न आमनू व लम् यल्बिसू ईमानहुम् बिज़ुल्मिन् उलाइ-क लहुमुल्-अम्नु व हुम् मुह्तदून *
जो लोग ईमान लाये और अपने ईमान को अत्याचार (शिर्क) से लिप्त नहीं[1] किया, उन्हीं के लिए शान्ति है तथा वही मार्गदर्शन पर हैं। 1. ह़दीस में है कि जब यह आयत उतरी तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथियों ने कहाः हम में कौन है जिस ने अत्याचार न किया हो? उस समय वह आयत उतरी, जिस का अर्थ यह है कि निश्चय शिर्क (मिश्रणवाद) ही सब से बड़ा अत्याचार है। (सह़ीह़ बुख़ारीः4629)
وَتِلْكَ حُجَّتُنَا آتَيْنَاهَا إِبْرَاهِيمَ عَلَىٰ قَوْمِهِ ۚ نَرْفَعُ دَرَجَاتٍ مَّن نَّشَاءُ ۗ إِنَّ رَبَّكَ حَكِيمٌ عَلِيمٌ ﴾ 83 ﴿
व तिल्-क हुज्जतुना आतैनाहा इब्राही-म अला क़ौमिही, नरफ़अु द-रजातिम् मन्-नशा उ, इन्-न रब्ब-क हकीमुन् अलीम
ये हमारा तर्क था, जो हमने इब्राहीम को उसकी जाति के विरुध्द प्रदान किया, हम जिसके पदों[1] को चाहते हैं, ऊँचा कर देते हैं। वास्तव में, आपका पालनहार गुणी तथा ज्ञानी है। 1. एक व्यक्ति नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास आया और कहाः हे सर्वोत्तम पुरुष! आप ने कहाः वह (सर्वोत्तम पुरुष) इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) हैं। (सह़ीह़ मुस्लिमः2369)
وَوَهَبْنَا لَهُ إِسْحَاقَ وَيَعْقُوبَ ۚ كُلًّا هَدَيْنَا ۚ وَنُوحًا هَدَيْنَا مِن قَبْلُ ۖ وَمِن ذُرِّيَّتِهِ دَاوُودَ وَسُلَيْمَانَ وَأَيُّوبَ وَيُوسُفَ وَمُوسَىٰ وَهَارُونَ ۚ وَكَذَٰلِكَ نَجْزِي الْمُحْسِنِينَ ﴾ 84 ﴿
व वहब्-ना लहू इस्हा-क़ व यअ्क़ू-ब, कुल्लन् हदैना, व नूहन् हदैना मिन् क़ब्लु व मिन् ज़ुर्रिय्यतिही दावू-द व सुलैमा-न व अय्यू-ब व यूसु-फ़ व मूसा व हारू-न, व कज़ालि-क नजज़िल् मुह़्सिनीन,
और हमने, इब्राहीम को (पुत्र) इस्ह़ाक़ तथा (पौत्र) याक़ूब प्रदान किये। प्रत्येक को हमने मार्गदर्शन दिया और उससे पहले हमने नूह़ को मार्गदर्शन दिया और इब्राहीम की संतति में से दावूद, सुलैमान, अय्यूब, यूसुफ, मूसा तथा हारून को। इसी प्रकार हम सदाचारियों को प्रतिफल प्रदान करते हैं।
وَزَكَرِيَّا وَيَحْيَىٰ وَعِيسَىٰ وَإِلْيَاسَ ۖ كُلٌّ مِّنَ الصَّالِحِينَ ﴾ 85 ﴿
वज़-करिय्या व यह्-या व ईसा व इल्या-स, कुल्लुम् मिनस्सालिहीन
तथा ज़करिय्या, यह़्या, ईसा और इल्यास को। ये सभी सदाचारियों में थे।
وَإِسْمَاعِيلَ وَالْيَسَعَ وَيُونُسَ وَلُوطًا ۚ وَكُلًّا فَضَّلْنَا عَلَى الْعَالَمِينَ ﴾ 86 ﴿
व इस्माई-ल वल्य-स-अ व यूनु-स व लूतन्, व कुल्लन् फज़्ज़ल्ना अलल् आलमीन
तथा इस्माईल, यस्अ, यूनुस और लूत को। प्रत्येक को हमने संसार वासियों पर प्रधानता दी है।
وَمِنْ آبَائِهِمْ وَذُرِّيَّاتِهِمْ وَإِخْوَانِهِمْ ۖ وَاجْتَبَيْنَاهُمْ وَهَدَيْنَاهُمْ إِلَىٰ صِرَاطٍ مُّسْتَقِيمٍ ﴾ 87 ﴿
व मिन् आबाइहिम् व ज़ुर्रिय्यातिहिम् व इख़्वानिहिम्, वज्तबैनाहुम् व हदैनाहुम् इला सिरातिम् मुस्तक़ीम
तथा उनके पूर्वजों, उनकी संतति तथा उनके भाईयों को। हमने इनसब को निर्वाचित कर लिया और इन्हें सुपथ दिखा दिया था।
ذَٰلِكَ هُدَى اللَّهِ يَهْدِي بِهِ مَن يَشَاءُ مِنْ عِبَادِهِ ۚ وَلَوْ أَشْرَكُوا لَحَبِطَ عَنْهُم مَّا كَانُوا يَعْمَلُونَ ﴾ 88 ﴿
ज़ालि-क हुदल्लाहि यह़्दी बिही मंय्यशा-उ मिन् अिबादिही, व लौ अश्रकू ल-हबि-त अन्हुम् मा कानू यअ्मलून
यही अल्लाह का मार्गदर्शन है, जिसके द्वारा अपने भक्तों में से जिसे चाहे, सुपथ दर्शा देता है और यदि वे शिर्क करते, तो उनका सब किया-धरा व्यर्थ हो जाता[1]। 1. इन आयतों में अठारह नबियों की चर्चा करने के पश्चात् यह कहा गया है कि यदि यह सब भी मिश्रण करते, तो इन के सत्कर्म व्यर्थ हो जाते। जिस से अभिप्राय शिर्क (मिश्रणवाद) की गंभीरता से सावधान करना है।
أُولَٰئِكَ الَّذِينَ آتَيْنَاهُمُ الْكِتَابَ وَالْحُكْمَ وَالنُّبُوَّةَ ۚ فَإِن يَكْفُرْ بِهَا هَٰؤُلَاءِ فَقَدْ وَكَّلْنَا بِهَا قَوْمًا لَّيْسُوا بِهَا بِكَافِرِينَ ﴾ 89 ﴿
उला-इ कल्लज़ी-न आतैनाहुमुल-किता-ब वल्हुक्-म वन्नुबुव्व-त, फ़-इंय्यक्फुर् बिहा हा-उला-इ फ़-क़द् वक्कल्ना बिहा क़ौमल्लैसू बिहा बिकाफ़िरीन
(हे नबी!) ये वे लोग हैं, जिन्हें हमने पुस्तक, निर्णय शक्ति एवं नुबूवत प्रदान की। फिर यदि ये (मुश्रिक) इन बातों को नहीं मानते, तो हमने इसे, कुछ ऐसे लोगों को सौंप दिया है, जो इसका इन्कार नहीं करते।
أُولَٰئِكَ الَّذِينَ هَدَى اللَّهُ ۖ فَبِهُدَاهُمُ اقْتَدِهْ ۗ قُل لَّا أَسْأَلُكُمْ عَلَيْهِ أَجْرًا ۖ إِنْ هُوَ إِلَّا ذِكْرَىٰ لِلْعَالَمِينَ ﴾ 90 ﴿
उला-इकल्लज़ी-न हदल्लाहु फबिहुदा हुमुक़्तदिह, क़ुल ला अस्अलुकुम् अलैहि अज्रन्, इन् हु-व इल्ला ज़िक्रा लिल आलमीन *
(हे नबी!) ये वे लोग हैं, जिन्हें अल्लाह ने सुपथ दर्शा दिया, तो आपभी उन्हीं के मार्गदर्शन पर चलें तथा कह दें कि मैं इस (कार्य)[1] पर तुमसे कोई प्रतिदान नहीं माँगता। ये सब संसार वासियों के लिए एक शिक्षा के सिवा कुछ नहीं है। 1. अर्थात इस्लाम का उपदेश देने पर।
وَمَا قَدَرُوا اللَّهَ حَقَّ قَدْرِهِ إِذْ قَالُوا مَا أَنزَلَ اللَّهُ عَلَىٰ بَشَرٍ مِّن شَيْءٍ ۗ قُلْ مَنْ أَنزَلَ الْكِتَابَ الَّذِي جَاءَ بِهِ مُوسَىٰ نُورًا وَهُدًى لِّلنَّاسِ ۖ تَجْعَلُونَهُ قَرَاطِيسَ تُبْدُونَهَا وَتُخْفُونَ كَثِيرًا ۖ وَعُلِّمْتُم مَّا لَمْ تَعْلَمُوا أَنتُمْ وَلَا آبَاؤُكُمْ ۖ قُلِ اللَّهُ ۖ ثُمَّ ذَرْهُمْ فِي خَوْضِهِمْ يَلْعَبُونَ ﴾ 91 ﴿
व मा क़-दरूल्ला-ह हक़्-क़ क़द्रिही इज़् क़ालू मा अन्ज़लल्लाहु अला ब-शरिम् मिन् शैइन्, क़ुल् मन् अन्ज़लल्-किताबल्लज़ी जा-अ बिही मूसा नूरंव्-व हुदल्-लिन्नासि तज् अलूनहू क़राती-स तुब्दूनहा व तुख़्फू-न कसीरन्, व अुल्लिम्तुम् मा लम् तअ्लमू अन्तुम् वला आबाउकुम्, क़ुलिल्लाहु, सुम्-म ज़रहुम् फी ख़ौज़िहिम् यल्अबून
तथा उन्होंने अल्लाह का सम्मान जैसे करना चाहिए, नहीं किया। जब उन्होंने कहा कि अल्लाह ने किसी पुरुष पर कुछ नहीं उतारा। उनसे पूछिए कि वो पुस्तक, जिसे मूसा लाये, जो लोगों के लिए प्रकाश तथा मार्गदर्शन है, किसने उतारी है, जिसे तुम पन्नों में करके रखते हो? जिसमें से तुम कुछ को, लोगों के लिए बयान करते हो और बहुत-कुछ छुपा रहे हो तथा तुम्हें उसका ज्ञान दिया गया, जिसका तुम्हें और तुम्हारे पूर्वजों को ज्ञान न था? और कह दें कि अल्लाह ने। फिर उन्हें उनके विवादों में खेलते हुए छोड़ दें।
وَهَٰذَا كِتَابٌ أَنزَلْنَاهُ مُبَارَكٌ مُّصَدِّقُ الَّذِي بَيْنَ يَدَيْهِ وَلِتُنذِرَ أُمَّ الْقُرَىٰ وَمَنْ حَوْلَهَا ۚ وَالَّذِينَ يُؤْمِنُونَ بِالْآخِرَةِ يُؤْمِنُونَ بِهِ ۖ وَهُمْ عَلَىٰ صَلَاتِهِمْ يُحَافِظُونَ ﴾ 92 ﴿
व हाज़ा किताबुन् अन्ज़ल्नाहु मुबारकुम् -मुसद्दिक़ुल्लज़ी बै-न यदैहि व लितुन्ज़ि-र उम्मल्क़ुरा व मन् हौलहा, वल्लज़ी-न युअ्मिनू-न बिल्आखि-रति युअ्मिनू-न बिही व हुम् अला सलातिहिम् युहाफिज़ून
तथा ये (क़ुर्आन) एक पुस्तक है, जिसे हमने (तौरात के समान) उतारा है। जो शुभ तथा अपने से पूर्व (की पुस्तकों) को सच बताने वाली है, ताकि आप "उम्मुल क़ुरा" (मक्का नगर) तथा उसके चतुर्दिक के निवासियों को सचेत[1] करें तथा जो परलोक के प्रति विश्वास रखते हैं, वही इसपर ईमान लाते हैं और वही अपनी नमाज़ों का पालन करते[2] हैं। 1. अर्थात पूरे मानव संसार को अल्लाह की अवैज्ञा के दुष्परिणाम से सावधान करें। इस में यह संकेत है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पूरे मानव संसार के पथपर्दर्शक तथा क़ुर्आन सब के लिये मार्ग दर्शन है। और आप केवल किसी एक ज़ाति या क्षेत्र अथवा देश के लिये नबी नहीं हैं। 2. अर्थात नमाज़ उस के निर्धारित समय पर बराबर पढ़ते हैं।
وَمَنْ أَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرَىٰ عَلَى اللَّهِ كَذِبًا أَوْ قَالَ أُوحِيَ إِلَيَّ وَلَمْ يُوحَ إِلَيْهِ شَيْءٌ وَمَن قَالَ سَأُنزِلُ مِثْلَ مَا أَنزَلَ اللَّهُ ۗ وَلَوْ تَرَىٰ إِذِ الظَّالِمُونَ فِي غَمَرَاتِ الْمَوْتِ وَالْمَلَائِكَةُ بَاسِطُو أَيْدِيهِمْ أَخْرِجُوا أَنفُسَكُمُ ۖ الْيَوْمَ تُجْزَوْنَ عَذَابَ الْهُونِ بِمَا كُنتُمْ تَقُولُونَ عَلَى اللَّهِ غَيْرَ الْحَقِّ وَكُنتُمْ عَنْ آيَاتِهِ تَسْتَكْبِرُونَ ﴾ 93 ﴿
व मन् अज़्लमु मिम्-मनिफ्तरा अलल्लाहि कज़िबन औ क़ा-ल ऊहि-य इलय्-य व लम् यू-ह इलैहि शैउंव्-व मन् क़ा-ल स-उन्ज़िलु मिस्-ल मा अन्ज़लल्लाहु, व लौ तरा इज़िज़्ज़ालिमू-न फी ग़-मरातिल मौति वल्मलाइ- कतु बासितू ऐदीहिम्, अख़्रिजू अन्फु सकुम्, अल्यौ-म तुज्ज़ौ-न अज़ाबल्हूनि बिमा कुन्तुम् तक़ूलू-न अलल्लाहि ग़ैरल्हक़्क़ि व कुन्तुम् अ़न् आयातिही तस्तक्बिरून
और उससे बड़ा अत्याचारी कौन होगा, जो अल्लाह पर झूठ घड़े और कहे कि मेरी ओर प्रकाशना (वह़्यी) की गयी है, जबकि उसकी ओर वह़्यी (प्रकाशना) नहीं की गयी? तथा जो ये कहे कि अल्लाह ने जो उतारा है, उसके समान मैं भी उतार दूँगा? और (हे नबी!) आप यदि ऐसे अत्याचारी को मरण की घोर दशा में देखते, जबकि फ़रिश्ते उनकी ओर हाथ बढ़ाये (कहते हैं:) अपने प्राण निकालो! आज तुम्हें इस कारण अपमानकारी यातना दी जायेगी कि तुम अल्लाह पर झूठ बोलते और उसकी आयतों को (मानने से) अभिमान करते थे।
وَلَقَدْ جِئْتُمُونَا فُرَادَىٰ كَمَا خَلَقْنَاكُمْ أَوَّلَ مَرَّةٍ وَتَرَكْتُم مَّا خَوَّلْنَاكُمْ وَرَاءَ ظُهُورِكُمْ ۖ وَمَا نَرَىٰ مَعَكُمْ شُفَعَاءَكُمُ الَّذِينَ زَعَمْتُمْ أَنَّهُمْ فِيكُمْ شُرَكَاءُ ۚ لَقَد تَّقَطَّعَ بَيْنَكُمْ وَضَلَّ عَنكُم مَّا كُنتُمْ تَزْعُمُونَ ﴾ 94 ﴿
व ल-क़द् जिअ्तुमूना फुरादा कमा ख़लक़्नाकुम् अव्व-ल मर्रतिंव्-व तरक्तुम् मा ख़व्वल्नाकुम् वरा-अ-ज़ुहूरिकुम्, व मा नरा-म-अकुम् शु-फ़आ अकुमुल्लज़ी न ज़अ़म्तुम् अन्नहुम् फ़ीकुम् शु-रका-उ, लक़त्त-क़त्त-अ बैनकुम् व ज़ल्-ल अन्कुम् मा कुन्तुम् तज़् अमून *
तथा (अल्लाह) कहेगाः तुम मेरे सामने उसी प्रकार अकेले आ गये, जैसे तुम्हें प्रथम बार हमने पैदा किया था तथा हमने जो कुछ दिया था, अपने पीछे (संसार ही में) छोड़ आये और आज हम तुम्हारे साथ, तुम्हारे अभिस्तावकों (सिफ़ारिशियों) को नहीं देख रहे हैं, जिनके बारे में तुम्हारा भ्रम था कि तुम्हारे कामों में वे (अल्लाह के) साझी हैं? निश्चय तुम्हारे बीच के संबंध भंग हो गये हैं और तुम्हारा सब भ्रम खो गया है।
۞ إِنَّ اللَّهَ فَالِقُ الْحَبِّ وَالنَّوَىٰ ۖ يُخْرِجُ الْحَيَّ مِنَ الْمَيِّتِ وَمُخْرِجُ الْمَيِّتِ مِنَ الْحَيِّ ۚ ذَٰلِكُمُ اللَّهُ ۖ فَأَنَّىٰ تُؤْفَكُونَ ﴾ 95 ﴿
इन्नल्लाह फ़ालिक़ुल-हब्बि वन्नवा, युख़्रिजुल हय्-य मिनल्मय्यिति व मुख़्रिजुल्मय्यिति मिनल्-हय्यि, ज़ालिकुमुल्लाहु फ़-अन्ना तुअ्फ़कून
वास्तव में, अल्लाह ही अन्न तथा गुठली को (धरती के भीतर) फाड़ने वाला है। वह निर्जीव से जीवित को निकालता है तथा जीवित से निर्जीव को निकालने वाला है। वही अल्लाह (सत्य पूज्य) है। फिर तुम कहाँ बहके जा रहे हो?
فَالِقُ الْإِصْبَاحِ وَجَعَلَ اللَّيْلَ سَكَنًا وَالشَّمْسَ وَالْقَمَرَ حُسْبَانًا ۚ ذَٰلِكَ تَقْدِيرُ الْعَزِيزِ الْعَلِيمِ ﴾ 96 ﴿
फ़ालिक़ुल-इस्बाहि, व ज-अलल्लै-ल स-कनंव्-वश्शम् स वल्क़-म-र हुस्बानन्, ज़ालि-क तक़्दीरूल अज़ीज़िल अलीम
वह प्रभात का तड़काने वाला है और उसीने सुख के लिए रात्रि बनाई तथा सूर्य और चाँद ह़िसाब के लिए बनाये। ये प्रभावी गुणी का निर्धारित किया हुआ अंकन (माप)[1] है। 1. जिस में एक पल की भी कमी अथवा अधिक्ता नहीं होती।
وَهُوَ الَّذِي جَعَلَ لَكُمُ النُّجُومَ لِتَهْتَدُوا بِهَا فِي ظُلُمَاتِ الْبَرِّ وَالْبَحْرِ ۗ قَدْ فَصَّلْنَا الْآيَاتِ لِقَوْمٍ يَعْلَمُونَ ﴾ 97 ﴿
व हुवल्लज़ी ज-अ-ल लकुमुन्नुजू-म लितह्तदू बिहा फी ज़ुलुमातिल्बर्रि वल्बह़रि, क़द् फस्सलनल-आयाति लिकौमिंय्-यअ्लमून
उसीने तुम्हारे लिए तारे बनाये हैं, ताकि उनकी सहायता से थल तथा जल के अंधकारों में रास्ता पाओ। हमने (अपनी दया के) लक्षणों का उनके लिए विवरण दे दिया है, जो लोग ज्ञान रखते हैं।
وَهُوَ الَّذِي أَنشَأَكُم مِّن نَّفْسٍ وَاحِدَةٍ فَمُسْتَقَرٌّ وَمُسْتَوْدَعٌ ۗ قَدْ فَصَّلْنَا الْآيَاتِ لِقَوْمٍ يَفْقَهُو ﴾ 98 ﴿
व हुवल्लज़ी अन्श-अकुम् मिन् नफ़्सिंवाहि-दतिन् फमुस्त क़र्रूंव्-व मुस्तौदअुन्, क़द् फस्सलनल -आयाति लिक़ौमिंय्-यफ्क़हून
वही है, जिसने तुम्हें एक जीव से पैदा किया। फिर तुम्हारे लिए (संसार में) रहने का स्थान है और एक समर्पन (मरण) का स्थान है। हमने उन्हें अपनी आयतों (लक्षणों) का विवरण दे दिया, जो समझ-बूझ रखते हैं।
وَهُوَ الَّذِي أَنزَلَ مِنَ السَّمَاءِ مَاءً فَأَخْرَجْنَا بِهِ نَبَاتَ كُلِّ شَيْءٍ فَأَخْرَجْنَا مِنْهُ خَضِرًا نُّخْرِجُ مِنْهُ حَبًّا مُّتَرَاكِبًا وَمِنَ النَّخْلِ مِن طَلْعِهَا قِنْوَانٌ دَانِيَةٌ وَجَنَّاتٍ مِّنْ أَعْنَابٍ وَالزَّيْتُونَ وَالرُّمَّانَ مُشْتَبِهًا وَغَيْرَ مُتَشَابِهٍ ۗ انظُرُوا إِلَىٰ ثَمَرِهِ إِذَا أَثْمَرَ وَيَنْعِهِ ۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكُمْ لَآيَاتٍ لِّقَوْمٍ يُؤْمِنُونَ ﴾ 99 ﴿
व हुवल्लज़ी अन्ज़-ल मिनस्समा-इ माअन्, फ़-अख़्रज्ना बिही नबा-त कुल्लि शैइन फ़-अख्रज्ना मिन्हु ख़ज़िरन् नुख़्रिजु मिन्हु हब्बम् मु-तराकिबन्, व मिनन्नख्लि मिन् तल्अिहा क़िन्वानुन् दानियतुंव्-व जन्नातिम् मिन् अअ्नाबिंव्-वज़्ज़ैतू-न वर्रूम्मा-न मुश्तबिहंव्-व ग़ै-र मु-तशाबिहिन्, उन्ज़ुरू इला स-मरिही इज़ा अस्म-र व यन्अिही, इन-न फ़ी ज़ालिकुम् लआयातिल्-लिकौमिंय्युअ्मिनून
वही है, जिसने आकाश से जल की वर्षा की, फिर हमने उससे प्रत्येक प्रकार की उपज निकाल दी। फिर उससे हरियाली निकाल दी। फिर उससे तह पर तह दाने निकालते हैं तथा खजूर के गाभ से गुच्छे झुके हुए और अंगूरों तथा ज़ैतून और अनार के बाग़, समरूप तथा स्वाद में अलग-अलग। उसके फल को देखो, जब फल लाता है तथा उसके पकने को। निःसंदेह इनमें उन लोगों के लिए बड़ी निशानियाँ (लक्षण)[1] हैं, जो ईमान लाते हैं। 1. अर्थात अल्लाह के पालनहार होने की निशानियाँ। आयत का भावार्थ यह है कि जब अल्लाह ने तुम्हारे आर्थिक जीवन के साधन बनाये हैं, तो फिर तुम्हारे आत्मिक जीवन के सुधार के लिये भी प्रकाशना और पुस्तक द्वारा तुम्हारे मार्गदर्शन की व्यवस्था की है, तो तुम्हें उस पर आश्चर्य क्यों है तथा इसे अस्वीकार क्यों करते हो?
وَجَعَلُوا لِلَّهِ شُرَكَاءَ الْجِنَّ وَخَلَقَهُمْ ۖ وَخَرَقُوا لَهُ بَنِينَ وَبَنَاتٍ بِغَيْرِ عِلْمٍ ۚ سُبْحَانَهُ وَتَعَالَىٰ عَمَّا يَصِفُونَ ﴾ 100 ﴿
व ज-अलू लिल्लाहि शु-रकाअल्-जिन्-न व ख़-ल क़हुम् व ख़-रक़ू लहू बनी-न व बनातिम् बिग़ैरि अिल्मिन्, सुब्हानहू व तआ़ला अम्मा यसिफून *
और उन्होंने जिन्नों को अल्लाह का साझी बना लिया। जबकि अल्लाह ही ने उनकी उत्पत्ति की है और बिना ज्ञान के उसके लिए पुत्र तथा पुत्रियाँ घड़ लीं। वह पवित्र तथा उच्च है, उन बातों से, जो वे लोग कह रहे हैं।
بَدِيعُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۖ أَنَّىٰ يَكُونُ لَهُ وَلَدٌ وَلَمْ تَكُن لَّهُ صَاحِبَةٌ ۖ وَخَلَقَ كُلَّ شَيْءٍ ۖ وَهُوَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ ﴾ 101 ﴿
बदी अुस्समावाति वल्अर्ज़ि, अन्ना यकूनु लहू व-लदुंव् व लम् तकुल्लहू साहि-बतुन्, व ख़-ल-क़ कुल-ल शैइन् व हु-व बिकुल्लि शैइन् अ़लीम
वह आकाशों तथा धरती का अविष्कारक है, उसके संतान कहाँ से हो सकते हैं, जबकि उसकी पत्नी नहीं है? तथा उसीने प्रत्येक वस्तु को पैदा किया है और वह प्रत्येक वस्तु को भली-भाँति जानता है।
ذَٰلِكُمُ اللَّهُ رَبُّكُمْ ۖ لَا إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ۖ خَالِقُ كُلِّ شَيْءٍ فَاعْبُدُوهُ ۚ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ وَكِيلٌ ﴾ 102 ﴿
ज़ालिकुमुल्लाहु रब्बुकुम्, ला इला-ह इल्ला हु-व, ख़ालिक़ु कुल्लि शैइन् फ़अ्बुदूहु, व हु-व अला कुल्लि शैइंव्-वकील
वही अल्लाह तुम्हारा पालनहार है, उसके अतिरिक्त कोई सच्चा पूज्य नहीं। वह प्रत्येक वस्तु का उत्पत्तिकार है। अतः उसकी इबादत (वंदना) करो तथा वही प्रत्येक चीज़ का अभिरक्षक है।
لَّا تُدْرِكُهُ الْأَبْصَارُ وَهُوَ يُدْرِكُ الْأَبْصَارَ ۖ وَهُوَ اللَّطِيفُ الْخَبِيرُ ﴾ 103 ﴿
ला तुदरिकुहुल्-अब्सारू, व हु-व युदरिकुल्-अब्सा-र, व हुवल् लतीफुल्-ख़बीर
उसका, आँखें इद्राक नहीं कर सकतीं[1], जबकी वह सब कुछ देख रहा है। वह अत्यंत सूक्ष्मदर्शी और सब चीज़ों से अवगत है। 1. अर्थात इस संसार में उसे कोई नहीं देख सकता।
قَدْ جَاءَكُم بَصَائِرُ مِن رَّبِّكُمْ ۖ فَمَنْ أَبْصَرَ فَلِنَفْسِهِ ۖ وَمَنْ عَمِيَ فَعَلَيْهَا ۚ وَمَا أَنَا عَلَيْكُم بِحَفِيظٍ ﴾ 104 ﴿
क़द् जा-अकुम बसा-इरू मिर्रब्बिकुम्, फ-मन् अब्स-र फ़लिनफ्सिही, व मन् अमि-य फ़ अलैहा, व मा अ-ना अलैकुम् बिहफ़ीज़
तुम्हारे पास निशानियाँ आ चुकी हैं। तो जिसने समझ-बूझ से काम लिया, उसका लाभ उसी के लिए है और जो अन्धा हो गया, तो उसकी हानि उसीपर है और मैं तुमपर संरक्षक[1] नहीं हूँ। 1. अर्थात नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) सत्धर्म के प्रचारक हैं।
وَكَذَٰلِكَ نُصَرِّفُ الْآيَاتِ وَلِيَقُولُوا دَرَسْتَ وَلِنُبَيِّنَهُ لِقَوْمٍ يَعْلَمُونَ ﴾ 105 ﴿
व कज़ालि-क नुसर्रिफुल्-आयाति व लियक़ूलू दरस्-त व लिनुबय्यि-नहू लिक़ौमिंय्-यअ्लमून
और इसी प्रकार, हम अनेक शैलियों में आयतों का वर्णन कर रहे हैं। ताकि वे (काफ़िर) कहें कि आपने पढ़[1] लिया है और ताकि हम उन लोगों के लिए (तर्कों को) उजागर कर दें, जो ज्ञान रखते हैं। 1. अर्थात काफ़िर यह कहें कि आप ने यह अह्ले किताब से सीख लिया है और इसे अस्वीकार कर दें। (इब्ने कसीर)
اتَّبِعْ مَا أُوحِيَ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ ۖ لَا إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ۖ وَأَعْرِضْ عَنِ الْمُشْرِكِينَ ﴾ 106 ﴿
इत्तबिअ् मा ऊहि-य इलै-क मिर्रब्बि-क, ला इला-ह इल्ला हु-व, व अअ्-रिज़ अ़निल मुश्रिकीन
आप उसपर चलें, जो आपपर आपके पालनहार की ओर से वह़्यी (प्रकाशना) की जा रही है। उसके सिवा कोई सत्य पूज्य नहीं है और मुश्रिकों की बातों पर ध्यान न दें।
وَلَوْ شَاءَ اللَّهُ مَا أَشْرَكُوا ۗ وَمَا جَعَلْنَاكَ عَلَيْهِمْ حَفِيظًا ۖ وَمَا أَنتَ عَلَيْهِم بِوَكِيلٍ ﴾ 107 ﴿
व लौ शाअल्लाहु मा अश्रकू, व मा जअ़ल्ना-क अलैहिम् हफ़ीज़न, व मा अन्-त अलैहिम् बि-वकील
और यदि अल्लाह चाहता, तो वो लोग साझी न बनाते और हमने आपको उनपर निरीक्षक नहीं बनाया है और न ही आप उनपर[1] अधिकारी हैं। 1. आयत का भावार्थ यह है कि नबी का यह कर्तव्य नहीं कि वह सब को सीधी राह दिखा दे। उस का कर्तव्य केवल अल्लाह का संदेश पहुँचा देना है।
وَلَا تَسُبُّوا الَّذِينَ يَدْعُونَ مِن دُونِ اللَّهِ فَيَسُبُّوا اللَّهَ عَدْوًا بِغَيْرِ عِلْمٍ ۗ كَذَٰلِكَ زَيَّنَّا لِكُلِّ أُمَّةٍ عَمَلَهُمْ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّهِم مَّرْجِعُهُمْ فَيُنَبِّئُهُم بِمَا كَانُوا يَعْمَلُونَ ﴾ 108 ﴿
व ला तसुब्बुल्लज़ी-न यद्अू-न मिन् दूनिल्लाहि फ़- यसुब्बुल्ला-ह अद् वम् बिग़ैरि अिल्मिन्, कज़ालि-क ज़य्यन्ना लिकुल्लि उम्मतिन् अ-म-लहुम्, सुम्-म इला रब्बिहिम् मर्जिअुहुम् फ़-युनब्बिउहुम् बिमा कानू यअ्मलून
और हे ईमान वालो! उन्हें बुरा न कहो, जिन (मूर्तियों) को वे अल्लाह के सिवा पुकारते हैं। अन्यथा, वे लोग अज्ञानता के कारण अति करके अल्लाह को बुरा कहेंगे। इसी प्रकार, हमने प्रत्येक समुदाय के लिए उनके कर्म को सुशोभित बना दिया है। फिर उनके पालनहार की ओर ही उन्हें जाना है। तो उन्हें बता देगा, जो वे करते रहे।
وَأَقْسَمُوا بِاللَّهِ جَهْدَ أَيْمَانِهِمْ لَئِن جَاءَتْهُمْ آيَةٌ لَّيُؤْمِنُنَّ بِهَا ۚ قُلْ إِنَّمَا الْآيَاتُ عِندَ اللَّهِ ۖ وَمَا يُشْعِرُكُمْ أَنَّهَا إِذَا جَاءَتْ لَا يُؤْمِنُونَ ﴾ 109 ﴿
व अक़्समू बिल्लाहि जह्-द ऐमानिहिम् ल-इन् जाअत्हुम् आयतुल् लयुअ्मिनुन्-न बिहा, क़ुल इन्नमल्-आयातु अिन्दल्लाहि व मा युश्अिरूकुम्, अन्नहा इज़ा जाअत् ला युअ्मिनून
और उन मुश्रिकों ने बलपूर्वक शपथें लीं कि यदि हमारे पास कोई आयत (निशानी) आ जाये, तो हम उसपर अवश्य ईमान लायेंगे। आप कह दें: आयतें (निशानियाँ) तो अल्लाह ही के पास हैं और (हे ईमान वालो!) तुम्हें क्या पता कि वह निशानियाँ जब आ जायेँगी, तो वे ईमान[1] नहीं लायेंगे। 1. मक्का के मुश्रिकों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कहा कि यदि सफ़ा (पर्वत) सोने का हो जाये तो वह ईमान लायेंगे। कुछ मुसलमानों ने भी सोचा कि यदि ऐसा हो जाये तो संभव है कि वह ईमान ले आयें। इसी पर यह आयत उतरी। (इब्ने कसीर)
وَنُقَلِّبُ أَفْئِدَتَهُمْ وَأَبْصَارَهُمْ كَمَا لَمْ يُؤْمِنُوا بِهِ أَوَّلَ مَرَّةٍ وَنَذَرُهُمْ فِي طُغْيَانِهِمْ يَعْمَهُونَ ﴾ 110 ﴿
व नुक़ल्लिबु अफ्इ-द तहुम् व अब्सारहुम् कमा लम् युअ्मिनू बिही अव्व-ल मर्रतिंव्-व न-ज़रूहुम् फ़ी तुग़्यानिहिम् यअ्महून *
और हम उनके दिलों और आँखों को ऐसे ही फेर[1] देंगे, जैसे वे पहली बार इस (क़ुर्आन) पर ईमान नहीं लाये और हम उन्हें उनके कुकर्मों में बहकते छोड़ देंगे। 1. अर्थात कोई चमत्कार आ जाने के पश्चात् भी ईमान नहीं लायेंगे, क्यों कि अल्लाह, जिसे सुपथ दर्शाना चाहता है, वह सत्य को सुनते ही उसे स्वीकार कर लेता है। किन्तु जिस ने सत्य के विरोध ही को अपना आचरण-स्वभाव बना लिया हो, तो वह चमत्कार देख कर भी कोई बहाना बना लेता है। और ईमान नहीं लाता। जैसे इस से पहले नबियों के साथ हो चुका है। और स्वयं नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने बहुत सी निशानियाँ दिखाईं, फिर भी ये मुश्रिख ईमान नहीं लाये। जैसे आप ने मक्का वासियों की माँग पर चाँद के दो भाग कर दिये। जिन दोनों के बीच लोगों ने ह़िरा (पर्वत) को देखा। (परन्तु वे फिर भी ईमान नहीं लाये) (सह़ीह़ बुख़ारीः3637, मुस्लिमः2802)
۞ وَلَوْ أَنَّنَا نَزَّلْنَا إِلَيْهِمُ الْمَلَائِكَةَ وَكَلَّمَهُمُ الْمَوْتَىٰ وَحَشَرْنَا عَلَيْهِمْ كُلَّ شَيْءٍ قُبُلًا مَّا كَانُوا لِيُؤْمِنُوا إِلَّا أَن يَشَاءَ اللَّهُ وَلَٰكِنَّ أَكْثَرَهُمْ يَجْهَلُونَ ﴾ 111 ﴿
व लौ अन्नना नज़्ज़ल्ना इलैहिमुल-मलाइ-क-त व कल्ल-महुमुल्-मौता व हशरना अलैहिम् कुल्-ल शैइन् कुबुलम् मा कानू लियुअ्मिनू इल्ला अंय्यशा-अल्लाहु व लाकिन्-न अक्स-रहुम् यज्हलून
और यदि हम इनकी ओर (आकाश से) फ़रिश्ते उतार देते और इनसे मुर्दे बात करते और इनके समक्ष प्रत्येक वस्तु एकत्र कर देते, तबभी ये ईमान नहीं लाते, परन्तु जिसे अल्लाह (मार्गदर्शन देना) चाहता। और इनमें से अधिक्तर (तथ्य से) अज्ञान हैं।
وَكَذَٰلِكَ جَعَلْنَا لِكُلِّ نَبِيٍّ عَدُوًّا شَيَاطِينَ الْإِنسِ وَالْجِنِّ يُوحِي بَعْضُهُمْ إِلَىٰ بَعْضٍ زُخْرُفَ الْقَوْلِ غُرُورًا ۚ وَلَوْ شَاءَ رَبُّكَ مَا فَعَلُوهُ ۖ فَذَرْهُمْ وَمَا يَفْتَرُونَ ﴾ 112 ﴿
व कज़ालि-क जअ़ल्ना लिकुल्लि नबिय्यिन् अदुव्वन् शयातीनल-इन्सि वलजिन्नि यूही बअ्ज़ुहुम् इला बअ्ज़िन् जुख़्रूफ़ल्क़ौलि ग़ुरूरन्, व लौ शा-अ रब्बु-क मा फ़-अलूहु फ़-ज़र्हुम् व मा यफ़्तरून
और (हे नबी!) इसी प्रकार, हमने मनुष्यों तथा जिन्नों में से प्रत्येक नबी का शत्रु बना दिया, जो धोखा देने के लिए एक-दूसरे को शोभनीय बात सुझाते रहते हैं और यदि आपका पालनहार चाहता, तो ऐसा नहीं करते। तो आप उन्हें छोड़ दें और उनकी घड़ी हई बातों को।
وَلِتَصْغَىٰ إِلَيْهِ أَفْئِدَةُ الَّذِينَ لَا يُؤْمِنُونَ بِالْآخِرَةِ وَلِيَرْضَوْهُ وَلِيَقْتَرِفُوا مَا هُم مُّقْتَرِفُونَ ﴾ 113 ﴿
व लितस्गा इलैहि अफ्इ दतुल्लजी-न ला युअ्मिनू-न बिल्-आख़िरति व लियरज़ौहु व लियक़्तरिफू मा हुम् मुक़्तरिफून
(वे ऐसा इस लिए करते हैं) ताकि उसकी ओर, उन लोगों के दिल झुक जायें, जो प्रलोक पर विश्वास नहीं रखते और ताकि वे उससे प्रसन्न हो जायेँ और ताकि वे भी वही कुकर्म करने लगें, जो कुकर्म वे लोग कर रहे हैं।
أَفَغَيْرَ اللَّهِ أَبْتَغِي حَكَمًا وَهُوَ الَّذِي أَنزَلَ إِلَيْكُمُ الْكِتَابَ مُفَصَّلًا ۚ وَالَّذِينَ آتَيْنَاهُمُ الْكِتَابَ يَعْلَمُونَ أَنَّهُ مُنَزَّلٌ مِّن رَّبِّكَ بِالْحَقِّ ۖ فَلَا تَكُونَنَّ مِنَ الْمُمْتَرِينَ ﴾ 114 ﴿
अ-फग़ैरल्लाहि अब्तग़ी ह-कमंव्-व हुवल्लज़ी अन्ज़-ल इलैकुमुल्-किता-ब मुफ़स्सलन्, वल्लज़ी न आतैनाहुमुल किता-ब यअ्लमू-न अन्नहू मुनज़्ज़लुम्-मिर्रब्बि-क बिल्हक़्क़ि फ़ला तकूनन्-न मिनल्-मुम्तरीन
(हे नबी!) उनसे कहो कि क्या मैं अल्लाह के सिवा किसी दूसरे न्यायकारी की खोज करूँ, जबकि उसीने तुम्हारी ओर ये खुली पुस्तक (क़ुर्आन) उतारी[1] है? तथा जिहें हमने पुस्तक[2] प्रदान की है, वे जानते हैं कि ये क़ुर्आन आपके पालनहार की ओर से सत्य के साथ उतरा है। अतः आप संदेह करने वालों में से न हों। 1. अर्थात इस में निर्णय के नियमों का विवरण है। 2. अर्थात जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर जिब्रील प्रथम वह़्यी लाये और आप ने मक्का के ईसाई विद्वान वरक़ा बिन नौफ़ल को बताया, तो उस ने कहा कि यह वही फ़रिश्ता है जिसे अल्लाह ने मूसा पर उतारा था। (बुख़ारीः3, मुस्लिमः160) इसी प्रकार मदीना के यहूदी विद्वान अब्दुल्लाह बिन सलाम ने भी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को माना और इस्लाम लाये।
وَتَمَّتْ كَلِمَتُ رَبِّكَ صِدْقًا وَعَدْلًا ۚ لَّا مُبَدِّلَ لِكَلِمَاتِهِ ۚ وَهُوَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ ﴾ 115 ﴿
व तम्मत् कलि-मतु रब्बि-क सिद्कंव्-व अद्लन्, ला मुबद्दि-ल लि-कलिमातिही, व हुवस्समीअुल्-अ़लीम
आपके पालनहार की बात सत्य तथा न्याय की है, कोई उसकी बात (नियम) बदल नहीं सकता और वह सबकुछ सुनने-जानने वाला है।
وَإِن تُطِعْ أَكْثَرَ مَن فِي الْأَرْضِ يُضِلُّوكَ عَن سَبِيلِ اللَّهِ ۚ إِن يَتَّبِعُونَ إِلَّا الظَّنَّ وَإِنْ هُمْ إِلَّا يَخْرُصُونَ ﴾ 116 ﴿
व इन् तुतिअ् अक्स-र मन् फिल्अर्ज़ि युज़िल्लू-क अन् सबीलिल्लाहि, इंय्यत्तबिअू-न इल्लज़्ज़न् न व इन् हुम् इल्ला यख्रूसून
और (हे नबी!) यदि, आप संसार के अधिक्तर लोगों की बात मानेंगे, तो वे आपको अल्लाह के मार्ग से बहका देंगे। वे केवल अनुमान पर चलते[1] और आँकलन करते हैं। 1. आयत का भावार्थ यह है कि सत्योसत्य का निर्णय उस के अनुयायियों की संख्या से नहीं। सत्य के मूल नियमों से ही किया जा सकता है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहाः मेरी उम्मत के 72 सम्प्रदाय नरक में जायेंगे। और एक स्वर्ग में जायेगा। और वह, वह होगा जो मेरे और मेरे साथियों के पथ पर होगा। (तिर्मिज़ीः263)
إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعْلَمُ مَن يَضِلُّ عَن سَبِيلِهِ ۖ وَهُوَ أَعْلَمُ بِالْمُهْتَدِينَ ﴾ 117 ﴿
इन्-न रब्ब-क हु-व अअ्लमु मंय्यज़िल्लु अन् सबीलिही, व हु-व अअ्लमु बिल्मुह्तदीन
वास्तव में, आपका पालनहार ही अधिक जानता है कि कौन उसकी राह से बहकता है तथा वही उन्हें भी जानता है, जो सुपथ पर हैं।
فَكُلُوا مِمَّا ذُكِرَ اسْمُ اللَّهِ عَلَيْهِ إِن كُنتُم بِآيَاتِهِ مُؤْمِنِينَ ﴾ 118 ﴿
फ़-कुलू मिम्मा ज़ुकिरस् मुल्लाहि अलैहि इन् कुन्तुम् बिआयातिही मुअ्मिनीन
तो उन पशुओं में से, जिनपर वध करते समय अल्लाह का नाम लिया गया हो खाओ[1], यदि तुम उसकी आयतों (आदेशों) पर ईमान (विश्वास) रखते हो। 1. इस का अर्थ यह है कि वध करते समय जिस जानवर पर अल्लाह का नाम न लिया गया हो, बल्कि देवी-देवता तथा पीर-फ़क़ीर के नाम पर बलि दिया गया हो तो वह तुम्हारे लिये वर्जित है। (इब्ने कसीर)
وَمَا لَكُمْ أَلَّا تَأْكُلُوا مِمَّا ذُكِرَ اسْمُ اللَّهِ عَلَيْهِ وَقَدْ فَصَّلَ لَكُم مَّا حَرَّمَ عَلَيْكُمْ إِلَّا مَا اضْطُرِرْتُمْ إِلَيْهِ ۗ وَإِنَّ كَثِيرًا لَّيُضِلُّونَ بِأَهْوَائِهِم بِغَيْرِ عِلْمٍ ۗ إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعْلَمُ بِالْمُعْتَدِينَ ﴾ 119 ﴿
व मा लकुम् अल्ला तअ्कुलू मिम्मा ज़ुकिरस्मुल्लाहि अलैहि व क़द् फस्स-ल लकुम् मा हर्र-म अलैकुम् इल्ला मज़्तुरिरतुम् इलैहि, व इन्-न कसीरल्-लयुज़िल्लू-न बिअहवाइहिम् बिग़ैरि अिल्मिन्, इन्-न रब्ब-क हु-व अअ्लमु बिल्मुअ्तदीन
और तुम्हारे, उसमें से न खाने का क्या कारण है, जिसपर अल्लाह का नाम लिया गया[1] हो, जबकि उसने तुम्हारे लिए स्पष्ट कर दिया है, जिसे तुमपर ह़राम (अवैध) किया है? परन्तु जिस (वर्जित) के (खाने के पर) विवश कर दिये जाओ[2] और वास्तव में, बहुत-से लोग अपनी मनमानी के लिए, लोगों को अपनी अज्ञानता के कारण बहकाते हैं। निश्चय आपका पालनहार उल्लंघनकारियों को भली-भाँति जानता है। 1. अर्थात उन पशुओं को खाने में कोई ह़रज नहीं जो मुसलसानों की दुकानों में मिलते हैं क्योंकि कोई मुसलमान अल्लाह का नाम लिये बिना वध नहीं करता। और यदि शंका हो तो खाते समय 'बिस्मिल्लाह कह लो।' जैसा कि ह़दीस शरीफ़ में आया है। (देखियेः बुख़ारीः 5507) 2. अर्थात उस वर्जित को प्राण रक्षा के लिये खाना उचित है।
وَذَرُوا ظَاهِرَ الْإِثْمِ وَبَاطِنَهُ ۚ إِنَّ الَّذِينَ يَكْسِبُونَ الْإِثْمَ سَيُجْزَوْنَ بِمَا كَانُوا يَقْتَرِفُونَ ﴾ 120 ﴿
व ज़रू ज़ाहिरल्-इस्मि व बाति-नहू, इन्नल्लज़ी-न यक्सिबूनल्-इस्-म सयुज्ज़ौ-न बिमा कानू यक़्तरिफून
(हे लोगो!) खुले तथा छुपे पाप छोड़ दो। जो लोग पाप कमाते हैं, वे अपने कुकर्मों का प्रतिकार (बदला) दिये जायेंगे।
وَلَا تَأْكُلُوا مِمَّا لَمْ يُذْكَرِ اسْمُ اللَّهِ عَلَيْهِ وَإِنَّهُ لَفِسْقٌ ۗ وَإِنَّ الشَّيَاطِينَ لَيُوحُونَ إِلَىٰ أَوْلِيَائِهِمْ لِيُجَادِلُوكُمْ ۖ وَإِنْ أَطَعْتُمُوهُمْ إِنَّكُمْ لَمُشْرِكُونَ ﴾ 121 ﴿
व ला तअ्कुलू मिम्मा लम् युज़् करिस् मुल्लाहि अलैहि व इन्नहू लफिस्क़ुन्, व इन्नश्शयाती-न लयूहू-न इला औलिया-इहिम् लियुजादिलूकुम्, व इन् अतअ्तुमूहुम् इन्नकुम् लमुश्रिकून *
तथा उसमें से न खाओ, जिसपर अल्लाह का नाम न लिया गया हो। वास्तव में, उसे खाना (अल्लाह की) अवज्ञा है। निःसंदेंह, शैतान अपने सहायकों के मन में संशय डालते रहते हैं, ताकि वे तुमसे विवाद करें[1] और यदि तुमने उनकी बात मान ली, तो निश्चय तुम मुश्रिक हो। 1. अर्थात यह कहे कि जिसे अल्लाह ने मारा हो, उसे नहीं खाते। और जिसे तुमने वध किया हो उसे खाते हो? (इब्ने कसीर)
أَوَمَن كَانَ مَيْتًا فَأَحْيَيْنَاهُ وَجَعَلْنَا لَهُ نُورًا يَمْشِي بِهِ فِي النَّاسِ كَمَن مَّثَلُهُ فِي الظُّلُمَاتِ لَيْسَ بِخَارِجٍ مِّنْهَا ۚ كَذَٰلِكَ زُيِّنَ لِلْكَافِرِينَ مَا كَانُوا يَعْمَلُونَ ﴾ 122 ﴿
अ-व मन् का-न मैतन् फ़-अह़्यैनाहु व जअ़ल्ना लहू नूरंय्यम्शी बिही फिन्नासि कमम् म-सलुहू फिज़्जुलुमाति लै-स बिख़ारिजिम् मिन्हा, कज़ालि-क ज़ुय्यि-न लिल्काफ़िरी-न मा कानू यअ्मलून
तो क्या, जो निर्जीव रहा हो, फिर हमने उसे जीवन प्रदान किया हो तथा उसके लिए प्रकाश बना दिया हो, जिसके उजाले में वह लोगों के बीच चल रहा हो, उस जैसा हो सकता है, जो अंधेरों में हो, उससे निकल न रहा हो[1]? इसी प्रकार, काफ़िरों के लिए उनके कुकर्म सुंदर बना दिये गये हैं। 1. इस आयत में ईमान की उपमा जीवन से तथा ज्ञान की प्रकाश से, और अविश्वास की मरण तथा अज्ञानता की उपमा अंधकारों से दी गई है।
وَكَذَٰلِكَ جَعَلْنَا فِي كُلِّ قَرْيَةٍ أَكَابِرَ مُجْرِمِيهَا لِيَمْكُرُوا فِيهَا ۖ وَمَا يَمْكُرُونَ إِلَّا بِأَنفُسِهِمْ وَمَا يَشْعُرُونَ ﴾ 123 ﴿
व कज़ालि-क जअ़ल्ना फ़ी कुल्लि क़र् यतिन् अकाबि-र मुज्रिमीहा लियम्कुरू फ़ीहा, व मा यम्कुरू-न इल्ला बिअन्फुसिहिम् व मा यश्अुरून
और इसी प्रकार, हमने प्रत्येक बस्ती में उसके बड़े अपराधियों को लगा दिया, ताकि उससे षड्यंत्र रचें तथा वे अपने ही विरुध्द षड्यंत्र रचते[1] हैं, परन्तु समझते नहीं हैं। 1. भावार्थ यह है कि जब किसी नगर में कोई सत्य का प्रचारक खड़ा होता है, तो वहाँ के प्रमुखों को यह भय होता है कि हमारा अधिकार समाप्त हो जायेगा। इस लिये वह सत्य के विरोधी बन जाते हैं। और उस के विरुध्द षड्यंत्र रचने लगते हैं। मक्का के प्रमुखों ने भी यही नीति अपना रखी थी।
وَإِذَا جَاءَتْهُمْ آيَةٌ قَالُوا لَن نُّؤْمِنَ حَتَّىٰ نُؤْتَىٰ مِثْلَ مَا أُوتِيَ رُسُلُ اللَّهِ ۘ اللَّهُ أَعْلَمُ حَيْثُ يَجْعَلُ رِسَالَتَهُ ۗ سَيُصِيبُ الَّذِينَ أَجْرَمُوا صَغَارٌ عِندَ اللَّهِ وَعَذَابٌ شَدِيدٌ بِمَا كَانُوا يَمْكُرُونَ ﴾ 124 ﴿
व इज़ा जाअत्हुम् आयतुन् क़ालू लन्-नुअ्मि-न हत्ता नुअ्ता मिस्-ल मा ऊति-य रूसुलुल्लाहि • अल्लाहु अअ्लमु हैसु यज्अलु रिसाल-तहू, सयुसीबुल्लज़ी-न अज्रमू सग़ारून अिन्दल्लाहि व अज़ाबुन शदीदुम् बिमा कानू यम्कुरून
और जब उनके पास कोई निशानी आती है, तो कहते हैं कि हम उसे कदापि नहीं मानेंगे, जब तक उसी के समान हमें भी प्रदान न किया जाये, जो अल्लाह के रसूलों को प्रदान किया गया है। अल्लाह ही अधिक जानता है कि अपना संदेश पहुँचाने का काम किससे ले। जो अपराधी हैं, शीध्र ही अल्लाह के पास उन्हें अपमान तथा कड़ी यातना, उस षड्यंत्र के बदले में मिलेगी, जो वे कर रहे हैं।
فَمَن يُرِدِ اللَّهُ أَن يَهْدِيَهُ يَشْرَحْ صَدْرَهُ لِلْإِسْلَامِ ۖ وَمَن يُرِدْ أَن يُضِلَّهُ يَجْعَلْ صَدْرَهُ ضَيِّقًا حَرَجًا كَأَنَّمَا يَصَّعَّدُ فِي السَّمَاءِ ۚ كَذَٰلِكَ يَجْعَلُ اللَّهُ الرِّجْسَ عَلَى الَّذِينَ لَا يُؤْمِنُونَ ﴾ 125 ﴿
फ़मंय्युरिदिल्लाहु अंय्यह़्दि-यहू यशरह् सद्-रहू लिल्इस्लामि, व मंय्युरिद् अंय्युज़िल्लहू यज्अल् सद्- रहू ज़य्यिक़न् ह-रजन् कअन्नमा यस्सअ्-अ़दु फिस्समा-इ, कज़ालि-क यज्अलुल्लाहुर्रिज्-स अलल्लज़ी-न ला युअ्मिनून
तो जिसे अल्लाह मार्ग दिखाना चाहता है, उसका सीना (वक्ष) इस्लाम के लिए खोल देता है और जिसे कुपथ करना चाहता है, उसका सीना संकीर्ण (तंग) कर देता है। जैसे वह बड़ी कठिनाई से आकाश पर चढ़ रहा[1] हो। इसी प्रकार, अल्लाह उनपर यातना भेज देता है, जो ईमान नहीं लाते। 1. अर्थात उसे इस्लाम का मार्ग एक कठिन चढ़ाई लगता है, जिस के विचार ही से उस का सीना तंग हो जाता है और श्वास रोध होने लगता है।
وَهَٰذَا صِرَاطُ رَبِّكَ مُسْتَقِيمًا ۗ قَدْ فَصَّلْنَا الْآيَاتِ لِقَوْمٍ يَذَّكَّرُونَ ﴾ 126 ﴿
व हाज़ा सिरातु रब्बि-क मुस्तक़ीमन्, क़द् फस्सल्नल -आयाति लिकौमिंय्-यज़्ज़क्करून
और यही (इस्लाम) आपके पालनहार की सीधी राह है। हमने उन लोगों के लिए आयतें खोल दी हैं, जो शिक्षा ग्रहण करते हों।
۞ لَهُمْ دَارُ السَّلَامِ عِندَ رَبِّهِمْ ۖ وَهُوَ وَلِيُّهُم بِمَا كَانُوا يَعْمَلُونَ ﴾ 127 ﴿
लहुम् दारूस्सलामि अिन्-द रब्बिहिम् व हु-व वलिय्युहुम् बिमा कानू यअ्मलून
उन्हीं के लिए आपके पालनहार के पास शान्ति का घर (स्वर्ग) है और वही उनके सुकर्मों के कारण उनका सहायक होगा।
وَيَوْمَ يَحْشُرُهُمْ جَمِيعًا يَا مَعْشَرَ الْجِنِّ قَدِ اسْتَكْثَرْتُم مِّنَ الْإِنسِ ۖ وَقَالَ أَوْلِيَاؤُهُم مِّنَ الْإِنسِ رَبَّنَا اسْتَمْتَعَ بَعْضُنَا بِبَعْضٍ وَبَلَغْنَا أَجَلَنَا الَّذِي أَجَّلْتَ لَنَا ۚ قَالَ النَّارُ مَثْوَاكُمْ خَالِدِينَ فِيهَا إِلَّا مَا شَاءَ اللَّهُ ۗ إِنَّ رَبَّكَ حَكِيمٌ عَلِيمٌ ﴾ 128 ﴿
व यौ-म यह्शुरूहुम् जमीअन्, या मअ्शरल्-जिन्नि क़दिस्तक्सरतुम् मिनल्-इन्सि, व क़ा-ल औलियाउहुम् मिनल-इन्सि रब्बनस् तम् त-अ बअ्ज़ुना बि बअ्ज़िंव् – व बलग्ना अ-ज लनल्लज़ी अज्जल्-त लना, क़ालन्नारू मस्वाकुम् ख़ालिदी-न फ़ीहा इल्ला मा शाअल्लाहु, इन्-न रब्ब-क हकीमुन अ़लीम
तथा (हे नबी!) याद करो, जब वह सबको एकत्र करके (कहेगाः) हे जिन्नों के गिरोह! तुमने बहुत-से मनुष्यों को कुपथ कर दिया और मानव में से उनके मित्र कहेंगे कि हे हमारे पालनहार! हम एक-दूसरे से लाभान्वित होते रहे[1] और वह समय आ पहुँचा, जो तूने हमारे लिए निर्धारित किया था। (अल्लाह) कहेगाः तुम सबका आवास नरक है, जिसमें सदावासी होगे। परन्तु, जिसे अल्लाह (बचाना) चाहे। वास्तव में, आपका पालनहार गुणी सर्व ज्ञानी है। 1. इस का भावार्थ यह है कि जिन्नों ने लोगों को संशय और धोखे में रख कर कुपथ किया, और लोगों ने उन्हें अल्लाह का साझी बनाया और उन के नाम पर बलि देते और चढ़ावे चढ़ाते रहे और ओझाई तथा जादू तंत्र द्वारा लोगों धोखा दे कर अपना उल्लू सीधा करते रहे।
وَكَذَٰلِكَ نُوَلِّي بَعْضَ الظَّالِمِينَ بَعْضًا بِمَا كَانُوا يَكْسِبُونَ ﴾ 129 ﴿
व कज़ालि-क नुवल्ली बअ्ज़ज़्ज़ालिमी-न बअ्ज़म् बिमा कानू यक्सिबून *
और इसी प्रकार, हम अत्याचारियों को उनके कुकर्मों के कारण एक-दूसरे का सहायक बना देते हैं।
يَا مَعْشَرَ الْجِنِّ وَالْإِنسِ أَلَمْ يَأْتِكُمْ رُسُلٌ مِّنكُمْ يَقُصُّونَ عَلَيْكُمْ آيَاتِي وَيُنذِرُونَكُمْ لِقَاءَ يَوْمِكُمْ هَٰذَا ۚ قَالُوا شَهِدْنَا عَلَىٰ أَنفُسِنَا ۖ وَغَرَّتْهُمُ الْحَيَاةُ الدُّنْيَا وَشَهِدُوا عَلَىٰ أَنفُسِهِمْ أَنَّهُمْ كَانُوا كَافِرِينَ ﴾ 130 ﴿
या मअ्शरल्-जिन्नि वल्-इन्सि अलम् यअ्तिकुम् रूसुलुम् मिन्कुम् यक़ुस्सू-न अलैकुम् आयाती व युन्ज़िरूनकुम् लिक़ा-अ यौमिकुम् हाज़ा, क़ालू शहिद्ना अला अन्फुसिना व ग़र्रत्हुमुल्-हयातुद्दुन्या व शहिदू अला अन्फुसिहिम् अन्नहुम् कानू काफ़िरीन
(तथा कहेगाः) हे जिन्नों तथा मनुष्यों के (मुश्रिक) समुदाय! क्या तुम्हारे पास तुम्हीं में से रसूल नहीं आये,[1] जो तुम्हें हमारी आयतें सुनाते और तुम्हें तुम्हारे इस दिन (के आने) से सावधान करते? वे कहेंगेः हम स्वयं अपने ही विरुध्द गवाह हैं। उन्हें सांसारिक जीवन ने धोखे में रखा था और अपने ही विरुध्द गवाह हो गये कि वास्तव में वही काफ़िर थे। 1. क़ुर्आन की अनेक आयतों से यह विध्दित होता है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जिन्नों के भी नबी थे, जैसा कि सूरह जिन्न आयत 1, 2 में उन के क़ुर्आन सुनने और ईमान लाने का वर्णन है। ऐसे ही सूरह अह़क़ाफ़ में है कि जिन्नों ने कहाः हम ने ऐसी पुस्तक सुनी जो मूसा के पश्चात् उतरी है। इसी प्रकार वह सुलैमान के अधीन थे। परन्तु क़ुर्आन और ह़दीस से जिन्नों में नबी होने का कोई संकेत नहीं मिलता। एक विचार यह भी है कि जिन्न आदम (अलैहिस्सलाम) से पहले के हैं, इस लिये हो सकता है कि पहले उन में भी नबी आये हों।
ذَٰلِكَ أَن لَّمْ يَكُن رَّبُّكَ مُهْلِكَ الْقُرَىٰ بِظُلْمٍ وَأَهْلُهَا غَافِلُونَ ﴾ 131 ﴿
ज़ालि-क अल्लम् यकुर्रब्बु-क मुह़्लिकल्क़ुरा बिज़ुल्मिंव्-व अह़्लुहा ग़ाफ़िलून
(हे नबी!) ये (नबियों का भेजना) इसलिए हुआ कि आपका पालनहार ऐसा नहीं है कि अत्याचार से बस्तियों का विनाश कर दे[1] , जबकि उसके निवासी (सत्य से) अचेत रहे हों। 1. अर्थात संसार की कोई बस्ती ऐसी नहीं है जिस में संमार्ग दर्शाने के लिये नबी न आये हों। अल्लाह का यह नियम नहीं है कि किसी जाति को वह़्यी द्वारा मार्गदर्शन से वंचित रखे और फिर उस का नाश कर दे। यह अल्लाह के न्याय के बिल्कुल प्रतिकूल है।
وَلِكُلٍّ دَرَجَاتٌ مِّمَّا عَمِلُوا ۚ وَمَا رَبُّكَ بِغَافِلٍ عَمَّا يَعْمَلُونَ ﴾ 132 ﴿
व लिकुल्लिन् द-रजातुम्-मिम्मा अ़मिलू, व मा रब्बु-क बिग़ाफ़िलिन् अम्मा यअ्मलून
प्रत्येक के लिए उसके कर्मानुसार पद हैं और आपका पालनहार लोगों के कर्मों से अचेत नहीं है।
وَرَبُّكَ الْغَنِيُّ ذُو الرَّحْمَةِ ۚ إِن يَشَأْ يُذْهِبْكُمْ وَيَسْتَخْلِفْ مِن بَعْدِكُم مَّا يَشَاءُ كَمَا أَنشَأَكُم مِّن ذُرِّيَّةِ قَوْمٍ آخَرِينَ ﴾ 133 ﴿
व रब्बुकल-ग़निय्यु जुर्रहमति, इंय्यशअ् युज़्हिब्कुम् व यस्तख़्लिफ् मिम्-बअ्दिकुम् मा यशा-उ कमा अन्श-अकुम् मिन् ज़ुर्रिय्यति क़ौमिन् आख़रीन
तथा आपका पालनहार निस्पृह दयाशील है। वह चाहे तो तुम्हें ले जाये और तुम्हारे स्थान पर दूसरों को ले आये। जैसे तुम लोगों को दूसरे लोगों की संतति से पैदा किया है।
إِنَّ مَا تُوعَدُونَ لَآتٍ ۖ وَمَا أَنتُم بِمُعْجِزِينَ ﴾ 134 ﴿
इन्-न मा तू-अदू-न लआतिंव्-व मा अन्तुम् बिमुअ्जिज़ीन
तुम्हें जिस (प्रलय) का वचन दिया जा रहा है, उसे अवश्य आना है और तुम (अल्लाह को) विवश नहीं कर लकते।
قُلْ يَا قَوْمِ اعْمَلُوا عَلَىٰ مَكَانَتِكُمْ إِنِّي عَامِلٌ ۖ فَسَوْفَ تَعْلَمُونَ مَن تَكُونُ لَهُ عَاقِبَةُ الدَّارِ ۗ إِنَّهُ لَا يُفْلِحُ الظَّالِمُونَ ﴾ 135 ﴿
क़ुल या क़ौमिअ्मलू अला मकानतिकुम् इन्नी आमिलुन फ़सौ-फ़ तअ्लमू-न, मन् तकूनु लहू आक़ि-बतुद्दारि, इन्नहू ला युफ्लिहुज़्ज़ालिमून
आप कह दें: हे मेरी जाति के लोगो! (यदि तुम नहीं मानते) तो अपनी दशा पर कर्म करते रहो। मैं भी कर्म कर रहा हूँ। शीघ्र ही तुम्हें ये ज्ञान हो जायेगा कि किसका अन्त (परिणाम)[1] अच्छा है। निःसंदेह अत्याचारी सफल नहीं होंगे। 1. इस आयत में काफ़िरों को सचेत किया गया है कि यदि सत्य को नहीं मानते तो जो कर रहे हो वही करो तुम्हें जल्द ही इस के परिणाम का पता चल जायेगा।
وَجَعَلُوا لِلَّهِ مِمَّا ذَرَأَ مِنَ الْحَرْثِ وَالْأَنْعَامِ نَصِيبًا فَقَالُوا هَٰذَا لِلَّهِ بِزَعْمِهِمْ وَهَٰذَا لِشُرَكَائِنَا ۖ فَمَا كَانَ لِشُرَكَائِهِمْ فَلَا يَصِلُ إِلَى اللَّهِ ۖ وَمَا كَانَ لِلَّهِ فَهُوَ يَصِلُ إِلَىٰ شُرَكَائِهِمْ ۗ سَاءَ مَا يَحْكُمُونَ ﴾ 136 ﴿
व ज-अलू लिल्लाहि मिम्मा ज़-र-अ मिनल्-हर्सि वल्-अन्आमि नसीबन् फ़क़ालू हाज़ा लिल्लाहि बिज़अ्मिहिम् व हाज़ा लिशु-रकाइना, फ़मा का-न लिशु-र काइहिम् फला यसिलु इलल्लाहि, व मा का-न लिल्लाहि फहु-व यसिलु इला शु-रकाइहिम, सा-अ मा यह़्कुमून
तथा उन लोगों ने, उस खेती और पशुओं में, जिन्हें अल्लाह ने पैदा किया है, उसका एक भाग निश्चित कर दिया, फिर अपने विचार से कहते हैं: ये अल्लाह का है और ये उन (देवताओं) का है, जिन्हें उन्होंने (अल्लाह का) साझी बनाया है। फिर जो उनके बनाये हुए साझियों का है, वह तो अल्लाह को नहीं पहुँचता, परन्तु जो अल्लाह का है, वह उनके साझियों[1] को पहुँचता है। वे क्या ही बुरा निर्णय करते हैं! 1. इस आयत में अरब के मुश्रिकों की कुछ धार्मिक परम्पराओं का खण्डन किया गया है कि सब कुछ तो अल्लाह पैदा करता है और यह उस में से अपने देवताओं का भाग बनाते हैं। फिर अल्लाह का जो भाग है उसे देवताओं को दे देते हैं। परन्तु देवताओं के भाग में से अल्लाह के लिये व्यय करने को तैयार नहीं होते।
وَكَذَٰلِكَ زَيَّنَ لِكَثِيرٍ مِّنَ الْمُشْرِكِينَ قَتْلَ أَوْلَادِهِمْ شُرَكَاؤُهُمْ لِيُرْدُوهُمْ وَلِيَلْبِسُوا عَلَيْهِمْ دِينَهُمْ ۖ وَلَوْ شَاءَ اللَّهُ مَا فَعَلُوهُ ۖ فَذَرْهُمْ وَمَا يَفْتَرُونَ ﴾ 137 ﴿
व कज़ालि क ज़य्य-न लि-कसीरिम्-मिनल् मुश्रिकी-न कत्-ल औलादिहिम् शु-र काउहुम् लियुरदूहुम् व लियल्बिसू अलैहिम् दीनहुम्, व लौ शाअल्लाहु मा फ़-अलूहु फ़-ज़रहुम् व मा यफ़्तरून
और इसी प्रकार, बहुत-से मुश्रिकों के लिए अपनी संतान के वध करने को उनके बनाये हुए साझियों ने सुशोभित कर दिया है, ताकि उनका विनाश कर दें और ताकि उनके धर्म को उनपर संदिग्ध कर दें और यदि अल्लाह चाहता, तो वे ये (कुकर्म) नहीं करते। अतः, आप उन्हें छोड़[1] दें तथा उनकी बनायी हुई बातों को। 1. अरब के कुछ मुश्रिक अपनी पुत्रियों को जन्म लेते ही जीवित गाड़ दिया करते थे।
وَقَالُوا هَٰذِهِ أَنْعَامٌ وَحَرْثٌ حِجْرٌ لَّا يَطْعَمُهَا إِلَّا مَن نَّشَاءُ بِزَعْمِهِمْ وَأَنْعَامٌ حُرِّمَتْ ظُهُورُهَا وَأَنْعَامٌ لَّا يَذْكُرُونَ اسْمَ اللَّهِ عَلَيْهَا افْتِرَاءً عَلَيْهِ ۚ سَيَجْزِيهِم بِمَا كَانُوا يَفْتَرُونَ ﴾ 138 ﴿
व क़ालू हाज़िही अन्आमुंव् व हरसुन् हिज्रूल्ला यत्अमुहा इल्ला मन्-नशा-उ बिज़अ्मिहिम् व अन्आमुन् हुर्रिमत् ज़ुहूरूहा व अन्आमुल्ला यज़्कुरूनस्मल्लाहि अलै हफ़्तिराअन् अलैहि, सयज्ज़ीहिम् बिमा कानू यफ़्तरून
तथा वे कहते हैं कि ये पशु और खेत वर्जित हैं, इन्हें वही खा सकता है, जिसे हम अपने विचार से खिलाना चाहें, फिर कुछ पशु हैं, जिनकी पीठ ह़राम[1] (वर्जित) हैं और कुछ पशु हैं, जिनपर (वध करते समय) अल्लाह का नाम नहीं लेते, अल्लाह पर आरोप लगाने के कारण, अल्लाह उन्हें उनके आरोप लगाने का बदला अवश्य देगा। 1. अर्थात उन पर सवारी करना तथा बोझ लादना अवैध है। (देखियेः सूरह माइदाः103)
وَقَالُوا مَا فِي بُطُونِ هَٰذِهِ الْأَنْعَامِ خَالِصَةٌ لِّذُكُورِنَا وَمُحَرَّمٌ عَلَىٰ أَزْوَاجِنَا ۖ وَإِن يَكُن مَّيْتَةً فَهُمْ فِيهِ شُرَكَاءُ ۚ سَيَجْزِيهِمْ وَصْفَهُمْ ۚ إِنَّهُ حَكِيمٌ عَلِيمٌ ﴾ 139 ﴿
व क़ालू मा फी बुतूनि हाज़िहिल-अन्आमि ख़ालि-सतुल लिज़ुकूरिना व मुहर्रमुन् अला अज़्वाजिना, व इंय्यकुम् मै-ततन् फहुम् फ़ीहि शु-रका-उ, सयज्ज़ीहिम् वस्फ़हुम्, इन्नहू हकीमुन् अलीम
तथा उन्होंने कहा कि जो इन पशुओं के गर्भों में है, वो हमारे पुरुषों के लिए विशेष है और हमारी पत्नियों के लिए वर्जित है और यदि मुर्दा हो, तो सभी उसमें साझी हो सकते[1] हैं। अल्लाह उनके विशेष करने का कुफल उन्हें अवश्य देगा। वास्तव में, वह तत्वज्ञ अति ज्ञानी है। 1. अर्थात वधित पशु के गर्भ से बच्चा निकल जाता और जीवित होता तो उसे केवल पुरुष खा सकते थे और मुर्दा होता तो सभी (स्त्री-पुरुष) खा सकते थे। (देखियेः सूरह नह़्ल 16, 58-59, सूरह अन्आमः151, तथा सूरह इस्राः31)
قَدْ خَسِرَ الَّذِينَ قَتَلُوا أَوْلَادَهُمْ سَفَهًا بِغَيْرِ عِلْمٍ وَحَرَّمُوا مَا رَزَقَهُمُ اللَّهُ افْتِرَاءً عَلَى اللَّهِ ۚ قَدْ ضَلُّوا وَمَا كَانُوا مُهْتَدِينَ ﴾ 140 ﴿
क़द् ख़सिरल्लज़ी-न क़-तलू औलादहुम् स-फ़हम् बिग़ैरि अिल्मिंव्-व हर्रमू मा र-ज़-क़हुमुल्लाहुफ तिरा-अन् अलल्लाहि, क़द् ज़ल्लू व मा कानू मुह्तदीन • *
वास्तव में वे क्षति में पड़ गये, जिन्होंने मूर्खता से किसी ज्ञान के बिना अपनी संतान को वध किया[1] और उस जीविका को, जो अल्लाह ने उन्हें प्रदान की, अल्लाह पर आरोप लगाकर, अवैध बना लिया, वे बहक गये और सीधी राह पर नहीं आ सके। 1. जैसा कि आधुनिक सभ्य़ समाज में "सुखी परिवार" के लिये अनेक प्रकार से किया जा रहा है।
۞ وَهُوَ الَّذِي أَنشَأَ جَنَّاتٍ مَّعْرُوشَاتٍ وَغَيْرَ مَعْرُوشَاتٍ وَالنَّخْلَ وَالزَّرْعَ مُخْتَلِفًا أُكُلُهُ وَالزَّيْتُونَ وَالرُّمَّانَ مُتَشَابِهًا وَغَيْرَ مُتَشَابِهٍ ۚ كُلُوا مِن ثَمَرِهِ إِذَا أَثْمَرَ وَآتُوا حَقَّهُ يَوْمَ حَصَادِهِ ۖ وَلَا تُسْرِفُوا ۚ إِنَّهُ لَا يُحِبُّ الْمُسْرِفِينَ ﴾ 141 ﴿
व हुवल्लज़ी अन्श-अ जन्नातिम् मअ् रूशातिंव्-व ग़ै-र मअ्-रूशातिंव्-वन्नख्-ल वज़्ज़र्-अ मुख़्तलिफ़न् उकुलुहू वज़्ज़ैतू-न वर्रूम्मा-न मु-तशाबिहंव्-व ग़ै-र मु-तशाबिहिन्, कुलू मिन् स-मरिही इज़ा अस्म-र व आतू हक़्क़हू यौ-म हसादिही, व ला तुस्रिफू, इन्नहू ला युहिब्बुल मुस्रिफ़ीन
अल्लाह वही है, जिसने बेलों वाले तथा बिना बेलों वाले बाग़ पैदा किये तथा खजूर और खेत, जिनसे विभिन्न प्रकार की पैदावार होती है और ज़ैतुन तथा अनार समरूप तथा स्वाद में विभिन्न, इसका फल खाओ, जब फले और फल तोड़ने के समय कुछ दान करो तथा अपव्यय[1] (बेजा खर्च) न करो। निःसंदेह, अल्लाह बेजा ख़र्च करने वालों से प्रेम नहीं करता। 1. अर्थात इस प्रकार उन्हों ने पशुओं में विभिन्न रूप बना लिये थे। जिन को चाहते अल्लाह के लिये विशेष कर देते और जिसे चाहते अपने देवी देवताओं के लिये विशेष कर देते। यहाँ इन्हीं अन्धविश्वासियों का खण्डन किया जा रहा है। दान करो अथवा खाओ, परन्तु अपव्यय न करो। क्यों कि यह शैतान का काम है, सब में संतुलन होना चाहिये।
وَمِنَ الْأَنْعَامِ حَمُولَةً وَفَرْشًا ۚ كُلُوا مِمَّا رَزَقَكُمُ اللَّهُ وَلَا تَتَّبِعُوا خُطُوَاتِ الشَّيْطَانِ ۚ إِنَّهُ لَكُمْ عَدُوٌّ مُّبِينٌ ﴾ 142 ﴿
व मिनल्-अन्आमि हमूलतंव-व फ़र्शन, कुलू मिम्मा र-ज़-क़कुमुल्लाहु व ला तत्तबिअू ख़ुतुवातिश्शैतानि, इन्नहू लकुम् अदुव्वुम् मुबीन
तथा चौपायों में कुछ सवारी और बोझ लादने योग्य[1] हैं और कुछ धरती से लगे[2] हुए। तुम उनमें से खाओ, जो अल्लाह ने तुम्हें जीविका प्रदान की है और शैतान के पदचिन्हों पर न चलो, वास्तव में, वह तुम्हारा खुला शत्रु[3] है। 1. जैसे ऊँट और बैल आदि। 2. जैसे बकरी और भेड़ आदि। 3. अल्लाह ने चौपायों को केवल सवारी और खाने के लिये बनाया है, देवी-देवताओं के नाम चढ़ाने के लिये नहीं। अब यदि कोई ऐसा करता है तो वह शैतान का बन्दा है और शैतान के बनाये मार्ग पर चलता है, जिस से यहाँ मना किया जा रहा है।
ثَمَانِيَةَ أَزْوَاجٍ ۖ مِّنَ الضَّأْنِ اثْنَيْنِ وَمِنَ الْمَعْزِ اثْنَيْنِ ۗ قُلْ آلذَّكَرَيْنِ حَرَّمَ أَمِ الْأُنثَيَيْنِ أَمَّا اشْتَمَلَتْ عَلَيْهِ أَرْحَامُ الْأُنثَيَيْنِ ۖ نَبِّئُونِي بِعِلْمٍ إِن كُنتُمْ صَادِقِينَ ﴾ 143 ﴿
समानिय-त अज़्वाजिन्, मिनज़्ज़अ् निस्नैनि व मिनल्-मअ् ज़िस्नैनि, क़ुल आज़्ज़ करैनि हर्र-म अमिल् – उन्सयैनि अम्मश्त-मलत् अलैहि अर्हामुल उन्सयैनि, नब्बिऊनी बिअिल्मिन् इन् कुन्तुम् सादिक़ीन
आठ पशु आपस में जोड़े हैं: भेड़ में से दो तथा बकरी में से दो। आप उनसे पूछिये कि क्या अल्लाह ने दोनों के नर ह़राम (वर्जित) किये अथवा दोनों की मादा अथवा दोनों के गर्भ में जो बच्चे हों? मुझे ज्ञान के साथ बताओ, यदि तुम सच्चे हो।
وَمِنَ الْإِبِلِ اثْنَيْنِ وَمِنَ الْبَقَرِ اثْنَيْنِ ۗ قُلْ آلذَّكَرَيْنِ حَرَّمَ أَمِ الْأُنثَيَيْنِ أَمَّا اشْتَمَلَتْ عَلَيْهِ أَرْحَامُ الْأُنثَيَيْنِ ۖ أَمْ كُنتُمْ شُهَدَاءَ إِذْ وَصَّاكُمُ اللَّهُ بِهَٰذَا ۚ فَمَنْ أَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرَىٰ عَلَى اللَّهِ كَذِبًا لِّيُضِلَّ النَّاسَ بِغَيْرِ عِلْمٍ ۗ إِنَّ اللَّهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الظَّالِمِينَ ﴾ 144 ﴿
व मिनल् इबिलिस्नैनि व मिनल् ब-क़रिस्नैनि, क़ुल आज़्ज़ करैनि हर्र-म अमिल्-उन्सयैनि, अम्मश्त-मलत् अलैहि अरहामुल-उन्सयैनि, अम् कुन्तुम् शु-हदा-अ इज् वस्साकुमुल्लाहु बिहाज़ा, फ़-मन् अज़्लमु मिम्-मनिफ्तरा अलल्लाहि कज़िबल्-लियुज़िल्लन्ना-स बिग़ैरि अिल्मिन्, इन्नल्ला-ह ला यह्दिल क़ौमज़्ज़ालिमीन *
और ऊँट में से दो तथा गाय में से दो। आप पूछिये कि क्या अल्लाह ने दोनों के नर ह़राम (वर्जित) किये हैं अथवा दोनों की मादा अथवा दोनों के गर्भ में जो बच्चे हों? क्या तुम उपस्थित थे, जब अल्लाह ने तुम्हें इसका आदेश दिया था, तो बताओ? उससे बड़ा अत्याचारी कौन होगा, जो बिना ज्ञान के अल्लाह पर झूठ घड़े? निश्चय अल्लाह अत्याचारियों को संमार्ग नहीं दिखाता।
قُل لَّا أَجِدُ فِي مَا أُوحِيَ إِلَيَّ مُحَرَّمًا عَلَىٰ طَاعِمٍ يَطْعَمُهُ إِلَّا أَن يَكُونَ مَيْتَةً أَوْ دَمًا مَّسْفُوحًا أَوْ لَحْمَ خِنزِيرٍ فَإِنَّهُ رِجْسٌ أَوْ فِسْقًا أُهِلَّ لِغَيْرِ اللَّهِ بِهِ ۚ فَمَنِ اضْطُرَّ غَيْرَ بَاغٍ وَلَا عَادٍ فَإِنَّ رَبَّكَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 145 ﴿
क़ुल् ला अजिदु फ़ी मा ऊहि-य इलय्-य मुहर्रमन् अला ताअिमिंय्यत्-अमुहू इल्ला अंय्यकू-न मै-ततन् औ दमम्-मस्फूहन् औ लह्-म ख़िन्ज़ीरिन् फ़-इन्नहू रिज्सुन् औ फ़िस्कन् उहिल्-ल लिग़ैरिल्लाहि बिही, फ़- मनिज़्तुर्-र ग़ै-र बागिंव्-व ला आदिन् फ़-इन्-न रब्ब-क ग़फूरुर्रहीम
(हे नबी!) आप कह दें कि उसमें, जो मेरी ओर वह़्यी (प्रकाशना) की गई है, इन[1] में से खाने वालों पर कोई चीज़ वर्जित नहीं है, सिवाय उसके, जो मरा हुआ हो[2], बहा हुआ रक्त हो या सुअर का मांस हो; क्योंकि वह अशुध्द है, अथवा अवैध हो, जिसे अल्लाह के सिवा दूसरे के नाम पर वध किया गया हो। परन्तु जो विवश हो जाये (तो वह खा सकता है) यदि वह द्रोही तथा सीमा लांघने वाला न हो। तो वास्तव में आप का पालनहार अति क्षमी दयावान्[3] है। 1. जो तुमने वर्जित किया है। 2. अर्थात धर्म विधान अनुसार वध न किया गया हो। 3. अर्थात कोई भूक से विवश हो जाये तो अपनी प्राण रक्षा के लिये इन प्रतिबंधों के साथ ह़राम खा ले तो अल्लाह उसे क्षमा कर देगा।
وَعَلَى الَّذِينَ هَادُوا حَرَّمْنَا كُلَّ ذِي ظُفُرٍ ۖ وَمِنَ الْبَقَرِ وَالْغَنَمِ حَرَّمْنَا عَلَيْهِمْ شُحُومَهُمَا إِلَّا مَا حَمَلَتْ ظُهُورُهُمَا أَوِ الْحَوَايَا أَوْ مَا اخْتَلَطَ بِعَظْمٍ ۚ ذَٰلِكَ جَزَيْنَاهُم بِبَغْيِهِمْ ۖ وَإِنَّا لَصَادِقُونَ ﴾ 146 ﴿
व अलल्लज़ी-न हादू हर्रम्ना कुल्-लज़ी ज़ुफुरिन्, व मिनल् ब क़रि वल्ग़-नमि हर्रम्ना अलैहिम् शुहू-महुमा इल्ला मा ह-मलत् ज़ुहूरूहुमा अविल्हवाया औ मख़्त -ल त बिअ़ज़्मिन्, ज़ालि-क जज़ैनाहुम् बिबग़्यिहिम्, व इन्ना लसादिक़ून
तथा हमने यहूदियों पर नखधारी[1] जीव ह़राम कर दिये थे और गाय तथा बकरी में से उनपर दोनों की चर्बियाँ ह़राम (वर्जित) कर दी[2] थीं। परन्तु जो दोनों की पीठों या आँतों से लगी हों अथवा जो किसी हड्डी से मिली हुई हो। ये हमने उनकी अवज्ञा के कारण उन्हें[3] प्रतिकार (बदला) दिया था तथा निश्चय हम सच्चे हैं। 1. अर्थात जिन की उँग्लियाँ फटी हुई न हों, जैसे ऊँट, शुतुरमुर्ग, तथा बत्तख इत्यादि। (इब्ने कसीर) 2. ह़दीस में है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहाः यहूदियों पर अल्लाह की धिक्कार हो! जब चर्बियाँ वर्जित की गईं तो उन्हें पिघला कर उन का मुल्य खा गये। (बुख़ारीः2236) 3. देखियेः सूरह आले इमरान, आयतः93 तथा सूरह निसा, आयतः160।
فَإِن كَذَّبُوكَ فَقُل رَّبُّكُمْ ذُو رَحْمَةٍ وَاسِعَةٍ وَلَا يُرَدُّ بَأْسُهُ عَنِ الْقَوْمِ الْمُجْرِمِينَ ﴾ 147 ﴿
फ़-इन् कज़्ज़बू-क फ़-क़ुर्रब्बुकुम् ज़ू रह़्मतिंव्-वासि -अतिन्, व ला युरद्दु बअ्सुहू अनिल क़ौमिल् -मुजरिमीन
फिर (हे नबी!) यदि ये लोग आपको झुठलायें, तो कह दें कि तुम्हारा पालनहार विशाल दयाकारी है तथा उसकी यातना को अपराधियों से फेरा नहीं जा सकेगा।
سَيَقُولُ الَّذِينَ أَشْرَكُوا لَوْ شَاءَ اللَّهُ مَا أَشْرَكْنَا وَلَا آبَاؤُنَا وَلَا حَرَّمْنَا مِن شَيْءٍ ۚ كَذَٰلِكَ كَذَّبَ الَّذِينَ مِن قَبْلِهِمْ حَتَّىٰ ذَاقُوا بَأْسَنَا ۗ قُلْ هَلْ عِندَكُم مِّنْ عِلْمٍ فَتُخْرِجُوهُ لَنَا ۖ إِن تَتَّبِعُونَ إِلَّا الظَّنَّ وَإِنْ أَنتُمْ إِلَّا تَخْرُصُونَ ﴾ 148 ﴿
स-यक़ूलुल्लज़ी-न अश्रकू लौ शाअल्लाहु मा अश्रक्ना व ला आबाउना व ला हर्रम्ना मिन् शैइन्, कज़ालि-क कज़्ज़बल्लज़ी-न मिन् क़ब्लिहिम् हत्ता ज़ाक़ू बअ्सना, क़ुल हल् अिन्दकुम् मिन् अिल्मिन् फ़ तुख़्रिजू हु लना, इन् तत्तबिअू-न इल्लज़्ज़न्-न व इन् अन्तुम् इल्ला तख़्रूसून
मिश्रणवादी अवश्य कहेंगेः यदि अल्लाह चाहता, तो हम तथा हमारे पूर्वज (अल्लाह का) साझी न बनाते और न कुछ ह़राम (वर्जित) करते। इसी प्रकार, इनसे पूर्व के लोगों ने (रसूलों को) झुठलाया था, यहाँ तक कि हमारी यातना का स्वाद चख लिया। (हे नबी!) उनसे पूछिये कि क्या तुम्हारे पास (इस विषय में) कोई ज्ञान है, जिसे तुम हमारे समक्ष प्रस्तुत कर सको? तुम तो केवल अनुमान पर चलते हो और केवल आँकलन कर रहे हो।
قُلْ فَلِلَّهِ الْحُجَّةُ الْبَالِغَةُ ۖ فَلَوْ شَاءَ لَهَدَاكُمْ أَجْمَعِينَ ﴾ 149 ﴿
क़ुल फ़लिल्लाहिल-हुज्जतुल-बालि-ग़तु, फ़लौ शा-अ ल-हदाकुम् अज्मईन
(हे नबी!) आप कह दें कि पूर्ण तर्क अल्लाह ही का है। तो यदि वह चाहता, तो तुम सबको सुपथ दिखा देता[1]। 1. परन्तु उस ने इसे लोगों को समझ बूझ दे कर प्रत्येक दशा का एक परिणाम निर्धारित कर दिया है। और सत्योसत्य दोनों की राहें खोल दी हैं। अब जो व्यक्ति जो राह चाहे अपना ले और अब यह कहना अज्ञानता की बात है कि यदि अल्लाह चाहता तो हम संमार्ग पर होते।
قُلْ هَلُمَّ شُهَدَاءَكُمُ الَّذِينَ يَشْهَدُونَ أَنَّ اللَّهَ حَرَّمَ هَٰذَا ۖ فَإِن شَهِدُوا فَلَا تَشْهَدْ مَعَهُمْ ۚ وَلَا تَتَّبِعْ أَهْوَاءَ الَّذِينَ كَذَّبُوا بِآيَاتِنَا وَالَّذِينَ لَا يُؤْمِنُونَ بِالْآخِرَةِ وَهُم بِرَبِّهِمْ يَعْدِلُونَ ﴾ 150 ﴿
क़ुल हलुम्-म शु-हदा अकुमुल्लज़ी-न यश्हदू-न अन्नल्ला-ह हर्र-म हाज़ा, फ़-इन् शहिदू फ़ला तश्हद् म-अहुम्, व ला तत्तबिअ् अह़्वा-अल्लज़ी-न कज़्ज़बू बिआयातिना वल्लज़ी-न ला युअ्मिनू-न बिल्-आख़ि -रति व हुम् बिरब्बिहिम् यअ्दिलून *
आप कहिए कि अपने साक्षियों (गवाहों) को लाओ[1], जो साक्ष्य दें कि अल्लाह ने इसे ह़राम (अवैध) कर दिया है। फिर यदि वे साक्ष्य (गवाही) दें, तबभी आप उनके साथ होकर इसे न मानें तथा उनकी मनमानी पर न चलें, जिन्होंने हमारी आयतों को झुठला दिया और परलोक पर ईमान (विश्वास) नहीं रखते तथा दूसरों को अपने पालनहार के बराबर करते हैं। 1. ह़दीस में है कि सब से बड़ा पाप अल्लाह का साझी बनाना तथा माता-पिता के साथ बुरा व्यवहार करना और झूठी शपथ लेना है। (तिर्मिज़ीः3020, यह ह़दीस ह़सन है।)
۞ قُلْ تَعَالَوْا أَتْلُ مَا حَرَّمَ رَبُّكُمْ عَلَيْكُمْ ۖ أَلَّا تُشْرِكُوا بِهِ شَيْئًا ۖ وَبِالْوَالِدَيْنِ إِحْسَانًا ۖ وَلَا تَقْتُلُوا أَوْلَادَكُم مِّنْ إِمْلَاقٍ ۖ نَّحْنُ نَرْزُقُكُمْ وَإِيَّاهُمْ ۖ وَلَا تَقْرَبُوا الْفَوَاحِشَ مَا ظَهَرَ مِنْهَا وَمَا بَطَنَ ۖ وَلَا تَقْتُلُوا النَّفْسَ الَّتِي حَرَّمَ اللَّهُ إِلَّا بِالْحَقِّ ۚ ذَٰلِكُمْ وَصَّاكُم بِهِ لَعَلَّكُمْ تَعْقِلُونَ ﴾ 151 ﴿
क़ुल तआ़लौ अत्लु मा हर्र-म रब्बुकुम् अलैकुम् अल्ला तुश्रिकू बिही शैअंव्-व बिल्वालिदैनि इह़्सानन्, व ला तक़्तुलू औलादकुम् मिन् इम्लाक़िन्, नह़्नु नरज़ुक़ुकुम् व इय्याहुम्, व ला तक़्रबुल-फ़वाहि श मा ज़-ह-र मिन्हा व मा ब-त-न, वला तक़्तुलुन्नफ़्सल्लती हर्रमल्लाहु इल्ला बिल्हक़्क़ि, ज़ालिकुम् वस्साकुम् बिही लअ़ल्लकुम् तअ्क़िलून
आप उनसे कहें कि आओ, मैं तुम्हें (आयतें) पढ़कर सुना दूँ कि तुमपर, तुम्हारे पालनहार ने क्या ह़राम (अवैध) किया है? वो ये है कि किसी चीज़ को उसका साझी न बनाओ, माता-पिता के साथ उपकार करो और अपनी संतानों को निर्धनता के भय से वध न करो। हम तुम्हें जीविका देते हैं और उन्हें भी देंगे और निर्लज्जा की बातों के समीप भी न जाओ, खुली हों अथवा छुपी और जिस प्राण को अल्लाह ने ह़राम (अवैध) कर दिया है, उसे वध न करो, परन्तु उचित कारण[1] से। अल्लाह ने तुम्हें इसका आदेश दिया है, ताकि इसे समझो। 1. सह़ीह़ ह़दीस में है कि किसी मुसलमान का खून तीन कारणों के सिवा अवैध हैः 1. किसी ने विवाहित हो कर व्यभिचार किया हो। 2. किसी मुसलमान को जान-बूझ कर अवैध मार डाला हो। 3. इस्लाम से फिर गया हो और अल्लाह तता उस के रसूल से युध्द करने लगे। (सह़ीह़ मुस्लिम, ह़दीस संख्याः1676)
وَلَا تَقْرَبُوا مَالَ الْيَتِيمِ إِلَّا بِالَّتِي هِيَ أَحْسَنُ حَتَّىٰ يَبْلُغَ أَشُدَّهُ ۖ وَأَوْفُوا الْكَيْلَ وَالْمِيزَانَ بِالْقِسْطِ ۖ لَا نُكَلِّفُ نَفْسًا إِلَّا وُسْعَهَا ۖ وَإِذَا قُلْتُمْ فَاعْدِلُوا وَلَوْ كَانَ ذَا قُرْبَىٰ ۖ وَبِعَهْدِ اللَّهِ أَوْفُوا ۚ ذَٰلِكُمْ وَصَّاكُم بِهِ لَعَلَّكُمْ تَذَكَّرُونَ ﴾ 152 ﴿
व ला तक़्रबू मालल्-यतीमि इल्ला बिल्लती हि-य अह्सनु हत्ता यब्लु-ग़ अशुद्दहू, व औफुल्कै-ल वल्मीज़ा-न बिल्क़िस्ति, ला नुकल्लिफु नफ़्सन इल्ला वुस्अ़हा, व इज़ा क़ुल्तुम् फअ्दिलू व लौ का न ज़ा क़ुर्बा व बि-अह़्दिल्लाहि औफू, ज़ालिकुम् वस्साकुम् बिही लअ़ल्लकुम् तज़क्करून
और अनाथ के धन के समीप न जाओ, परन्तु ऐसे ढंग से, जो उचित हो। यहाँ तक कि वह अपनी युवा अवस्था को पहुँच जाये तथा नाप-तोल न्याय के साथ पूरा करो। हम किसी प्राण पर उसकी सकत से अधिक भार नहीं रखते और जब बोलो तो न्याय करो, यद्यपि समीपवर्ती ही क्यों न हो और अल्लाह का वचन पूरा करो, उसने तुम्हें इसका आदेश दिया है, संभवतः तुम शिक्षा ग्रहण करो।
وَأَنَّ هَٰذَا صِرَاطِي مُسْتَقِيمًا فَاتَّبِعُوهُ ۖ وَلَا تَتَّبِعُوا السُّبُلَ فَتَفَرَّقَ بِكُمْ عَن سَبِيلِهِ ۚ ذَٰلِكُمْ وَصَّاكُم بِهِ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ ﴾ 153 ﴿
व अन्-न हाज़ा सिराती मुस्तक़ीमन् फ़त्तबिऊहु, व ला तत्तबिअुस्सुबु-ल फ़-तफ़र्र-क़ बिकुम् अन् सबीलिही, ज़ालिकुम् वस्साकुम् बिही लअ़ल्लकुम् तत्तक़ून
तथा (उसने बताया कि) ये (इस्लाम ही) अल्लाह की सीधी राह[1] है। अतः इसीपर चलो और दूसरी राहों पर न चलो, अन्यथा वह तुम्हें उसकी राह से दूर करके तित्तर-बित्तर कर देंगे। यही है, जिसका आदेश उसने तुम्हें दिया है, ताकि तुम उसके आज्ञाकारी रहो। 1. नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक लकीर बनाई, और कहाः यह अल्लाह की राह है। फिर दायें-बायें कई लकीरें खीचीं और कहाः इन पर शैतान है जो इन की ओर बुलाता है और यही आयत पढ़ी। (मुस्नद अह़मदः431)
ثُمَّ آتَيْنَا مُوسَى الْكِتَابَ تَمَامًا عَلَى الَّذِي أَحْسَنَ وَتَفْصِيلًا لِّكُلِّ شَيْءٍ وَهُدًى وَرَحْمَةً لَّعَلَّهُم بِلِقَاءِ رَبِّهِمْ يُؤْمِنُونَ ﴾ 154 ﴿
सुम्-म आतैना मूसल्-किता-ब तमामन् अलल्लज़ी अह़्स-न व तफ़्सीलल्-लिकुल्लि शैइंव्-व हुदंव्-व रह़्म-तल् लअ़ल्लहुम् बिलिक़ा-इ रब्बिहिम् युअ्मिनून*
फिर हमने मूसा को पुस्तक (तौरात) प्रदान की थी, उसपर पुरस्कार पूरा करने के लिए, जो सदाचारी हो तथा प्रत्येक वस्तु के विवरण के लिए तथा ये मार्गदर्शन और दया थी, ताकि वे अपने पालनहार से मिलने पर ईमान लायें।
وَهَٰذَا كِتَابٌ أَنزَلْنَاهُ مُبَارَكٌ فَاتَّبِعُوهُ وَاتَّقُوا لَعَلَّكُمْ تُرْحَمُونَ ﴾ 155 ﴿
व हाज़ा किताबुन् अन्ज़ल्नाहु मुबारकुन् फत्तबिअूहु वत्तक़ू लअल्लकुम् तुरहमून
तथा (उसी प्रकार) ये पुस्तक (क़ुर्आन) हमने अवतरित की है, ये बड़ा शुभकारी है, अतः इसपर चलो[1] और अल्लाह से डरते रहो, ताकि तुमपर दया की जाये। 1. अर्थात जब अह्ले किताब सहित पूरे संसार वासियों के लिये प्रलय तक इसी क़ुर्आन का अनुसरण ही अल्लाह की दया का साधन है।
أَن تَقُولُوا إِنَّمَا أُنزِلَ الْكِتَابُ عَلَىٰ طَائِفَتَيْنِ مِن قَبْلِنَا وَإِن كُنَّا عَن دِرَاسَتِهِمْ لَغَافِلِينَ ﴾ 156 ﴿
अन् तक़ूलू इन्नमा उन्ज़िलल्-किताबु अला ताइ-फ़तैनि मिन् क़ब्लिना, व इन् कुन्ना अन् दिरा-सतिहिम् लग़ाफ़िलीन
ताकि (हे अरब वासियो!) तुम ये न कहो कि हमसे पूर्व दो समुदाय (यहूद तथा ईसाई) पर पुस्तक उतारी गयी और हम उनके पढ़ने-पढ़ाने से अनजान रह गये।
أَوْ تَقُولُوا لَوْ أَنَّا أُنزِلَ عَلَيْنَا الْكِتَابُ لَكُنَّا أَهْدَىٰ مِنْهُمْ ۚ فَقَدْ جَاءَكُم بَيِّنَةٌ مِّن رَّبِّكُمْ وَهُدًى وَرَحْمَةٌ ۚ فَمَنْ أَظْلَمُ مِمَّن كَذَّبَ بِآيَاتِ اللَّهِ وَصَدَفَ عَنْهَا ۗ سَنَجْزِي الَّذِينَ يَصْدِفُونَ عَنْ آيَاتِنَا سُوءَ الْعَذَابِ بِمَا كَانُوا يَصْدِفُونَ ﴾ 157 ﴿
औ तक़ूलू लौ अन्ना उन्ज़ि-ल अलैनल्-किताबु लकुन्ना अह़्दा मिन्हुम्, फ़-क़द् जाअकुम् बय्यि-नतुम् मिर्रब्बिकुम् व हुदंव्-व रह़्मतुन्, फ़-मन् अज़्लमु मिम्मन् कज्ज़-ब बिआयातिल्लाहि व स-द-फ़ अन्हा, स-नजज़िल्लज़ी-न यस्दिफू-न अन् आयातिना सूअल्- अ़ज़ाबि बिमा कानू यस्दिफून
या ये न कहो कि यदि हमपर पुस्तक उतारी जाती, तो हम निश्चय उनसे अधिक सीधी राह पर होते, तो अब तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से एक खुला तर्क आ गया, मार्गदर्शन तथा दया आ गयी। फिर उससे बड़ा अत्यचारी कौन होगा, जो अल्लाह की आयतों को मिथ्या कह दे और उनसे कतरा जाये? और जो लोग हमारी आयतों से कतराते हैं, हम उनके कतराने के बदले उन्हें कड़ी यातना देंगे।
هَلْ يَنظُرُونَ إِلَّا أَن تَأْتِيَهُمُ الْمَلَائِكَةُ أَوْ يَأْتِيَ رَبُّكَ أَوْ يَأْتِيَ بَعْضُ آيَاتِ رَبِّكَ ۗ يَوْمَ يَأْتِي بَعْضُ آيَاتِ رَبِّكَ لَا يَنفَعُ نَفْسًا إِيمَانُهَا لَمْ تَكُنْ آمَنَتْ مِن قَبْلُ أَوْ كَسَبَتْ فِي إِيمَانِهَا خَيْرًا ۗ قُلِ انتَظِرُوا إِنَّا مُنتَظِرُونَ ﴾ 158 ﴿
हल् यन्ज़ु रू-न इल्ला अन् तअ्ति-यहुमुल्मलाइ-कतु औ यअ्ति-य रब्बु-क औ यअ्ति य बअ्ज़ु आयाति रब्बि-क, यौ-म यअ्ती बअ्ज़ु आयाति रब्बि-क ला यन्फअु नफ़्सन् ईमानुहा लम् तकुन आ-मनत् मिन् क़ब्लु औ क-सबत् फी ईमानिहा खैरन्, क़ुलिन्तज़िरू इन्ना मुन्तज़िरून
क्या वे लोग इसी बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि उनके पास फ़रिश्ते आ जायें, या स्वयं उनका पालनहार आ जाये या आपके पालनहार की कोई आयत (निशानी) आ जाये?[1] जिस दिन आपके पालनहार की कोई निशानी आ जायेगी, तो किसी प्राणी को उसका ईमान लाभ नहीं देगा, जो पहले ईमान न लाया हो या अपने ईमान की स्थिति में कोई सत्कर्म न किया हो। आप कह दें कि तुम प्रतीक्षा करो, हम भी प्रतीक्षा कर रहे हैं। 1. आयत का भावार्थ यह है कि इन सभी तर्कों के परस्तुत किये जाने पर भी यदि यह ईमान नहीं लाते तो क्या उस समय ईमान लायेंगे जब फ़रिश्ते उन के प्राण निकालने आयेंगे? या प्रलय के दिन जब अल्लाह इन का निर्णय करने आयेगा? या जब प्रलय की कुछ निशानियाँ आ जायेंगी? जैसे सूर्य का पश्चिम से निकल आना। सह़ीह़ बुखारी की ह़दीस है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा कि प्रलय उस समय तक नहीं आयेगी जब तक कि सूर्य पश्चिम से नहीं निकलेगा। और जब निकलेगा तो जो देखेंगे सभी ईमान ले आयेंगे। और यह वह समय होगा कि किसी प्रणी को उस का ईमान लाभ नहीं देगा। फिर आप ने यही आयत पढ़ी। (सह़ीह़ बुख़ारी, ह़दीसः4636)
إِنَّ الَّذِينَ فَرَّقُوا دِينَهُمْ وَكَانُوا شِيَعًا لَّسْتَ مِنْهُمْ فِي شَيْءٍ ۚ إِنَّمَا أَمْرُهُمْ إِلَى اللَّهِ ثُمَّ يُنَبِّئُهُم بِمَا كَانُوا يَفْعَلُونَ ﴾ 159 ﴿
इन्नल्लज़ी-न फ़र्रक़ू दीनहुम् व कानू शि-यअ़ल्लस्-त मिन्हुम् फी शैइन्, इन्नमा अम्रूहुम् इलल्लाहि सुम्-म युनब्बिउहुम् बिमा कानू यफ्अलून
जिन लोगों ने अपने धर्म में विभेद किया और कई समुदाय हो गये, (हे नबी!) आपका उनसे कोई संबंध नहीं, उनका निर्णय अल्लाह को करना है, फिर वह उन्हें बतायेगा कि वे क्या कर रहे थे।
مَن جَاءَ بِالْحَسَنَةِ فَلَهُ عَشْرُ أَمْثَالِهَا ۖ وَمَن جَاءَ بِالسَّيِّئَةِ فَلَا يُجْزَىٰ إِلَّا مِثْلَهَا وَهُمْ لَا يُظْلَمُونَ ﴾ 160 ﴿
मन् जा अ बिल्ह-स नति फ़-लहू अश्रू अम्सालिहा, व मन् जा-अ बिस्सय्यि-अति फ़ला युज्ज़ा इल्ला मिस्लहा व हुम् ला युज़्लमून
जो (प्रलय के दिन) एक सत्कर्म लेकर (अल्लाह) से मिलेगा, उसे उसके दस गुना प्रतिफल मिलेगा और जो कुकर्म लायेगा, तो उसको उसी के बराबर कुफल दिया जायेगा तथा उनपर अत्याचार नहीं किया जायेगा।
قُلْ إِنَّنِي هَدَانِي رَبِّي إِلَىٰ صِرَاطٍ مُّسْتَقِيمٍ دِينًا قِيَمًا مِّلَّةَ إِبْرَاهِيمَ حَنِيفًا ۚ وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِينَ ﴾ 161 ﴿
क़ुल इन्ननी हदानी रब्बी इला सिरातिम् मुस्तक़ीम, दीनन् क़ि-य मम् मिल्ल-त इब्राही-म हनीफ़न, व मा का-न मिनल मुश्रिकीन
(हे नबी!) आप कह दें कि मेरे पालनहार ने निश्चय मुझे सीधी राह (सुपथ) दिखा दी है। वही सीधा धर्म, जो एकेश्वरवादी इब्राहीम का धर्म था और वह मुश्रिकों में से न था।
قُلْ إِنَّ صَلَاتِي وَنُسُكِي وَمَحْيَايَ وَمَمَاتِي لِلَّهِ رَبِّ الْعَالَمِينَ ﴾ 162 ﴿
क़ुल इन्-न सलाती व नुसुकी व मह़्या-य व ममाती लिल्लाहि रब्बिल्-आलमीन
आप कह दें कि निश्चय मेरी नमाज़, मेरी क़ुर्बानी तथा मेरा जीवन-मरण संसार के पालनहार अल्लाह के लिए है।
لَا شَرِيكَ لَهُ ۖ وَبِذَٰلِكَ أُمِرْتُ وَأَنَا أَوَّلُ الْمُسْلِمِينَ ﴾ 163 ﴿
ला शरी-क लहू, व बिज़ालि-क उमिरतु व अ-ना अव्वलुल् मुस्लिमीन
जिसका कोई साझी नहीं तथा मुझे इसी का आदेश दिया गया है और मैं प्रथम मुसलमानों में से हूँ।
قُلْ أَغَيْرَ اللَّهِ أَبْغِي رَبًّا وَهُوَ رَبُّ كُلِّ شَيْءٍ ۚ وَلَا تَكْسِبُ كُلُّ نَفْسٍ إِلَّا عَلَيْهَا ۚ وَلَا تَزِرُ وَازِرَةٌ وِزْرَ أُخْرَىٰ ۚ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّكُم مَّرْجِعُكُمْ فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمْ فِيهِ تَخْتَلِفُونَ ﴾ 164 ﴿
क़ुल् अग़ैरल्लाहि अब्ग़ी रब्बंव्-व हु-व रब्बु कुल्लि शैइन्, व ला तक्सिबु कुल्लु नफ्सिन् इल्ला अलैहा, व ला तज़िरू वाज़ि-रतुंव्विज़-र उख़्रा, सुम् म इला रब्बिकुम् मर्जिउकुम् फ़-युनब्बिउकुम् बिमा कुन्तुम् फ़ीहि तख़्तलिफून
आप उनसे कह दें कि क्या मैं अल्लाह के सिवा किसी और पालनहार की खोज करूँ? जबकि वह (अल्लाह) प्रत्येक चीज़ का पालनहार है तथा कोई प्राणी, कोई भी कुकर्म करेगा, तो उसका भार उसी के ऊपर होगा और कोई किसी दूसरे का बोझ नहीं उठायेगा। फिर (अंततः) तुम्हें अपने पालनहार के पास ही जाना है। तो जिन बातों में तुम विभेद कर रहे हो वो तुम्हें बता देगा।
وَهُوَ الَّذِي جَعَلَكُمْ خَلَائِفَ الْأَرْضِ وَرَفَعَ بَعْضَكُمْ فَوْقَ بَعْضٍ دَرَجَاتٍ لِّيَبْلُوَكُمْ فِي مَا آتَاكُمْ ۗ إِنَّ رَبَّكَ سَرِيعُ الْعِقَابِ وَإِنَّهُ لَغَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 165 ﴿
व हु वल्लज़ी ज-अ-लकुम् ख़ला-इफ़ल्-अर्ज़ि व र-फ़-अ बअ्ज़कुम् फ़ौ-क़ बअ्ज़िन् द-रजातिल् लियब्लु-वकुम् फ़ी मा आताकुम्, इन्-न रब्ब-क सरीअुल् अिक़ाबि, व इन्नहू ल-ग़फूरुर्रहीम •*
वही है, जिसने तुम्हें धरती में अधिकार दिया है और तुममें से कुछ को (धन शक्ति में) दूसरे से कई श्रेणियाँ ऊँचा किया है। ताकि उसमें तुम्हारी परीक्षा[1] ले, जो तुम्हें दिया है। वास्तव में, आपका पालनहार शीघ्र ही दण्ड देने वाला[2] है और वास्तव में, वह अति क्षमी दयावान् है। 1. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहाः काबा के रब की शपथ! वह क्षति में पड़ गया। अबूज़र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहाः कौन? आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहाः (धनी)। परन्तु जो दान करता रहता है। (सह़ीह़ बुख़ारीः6638, सह़ीह़ मुस्लिमः990) 2. अर्थात अवैज्ञाकारियों को।