सूरह तौबा के संक्षिप्त विषय
यह सूरह मदनी है, इस में 129 आयतें है।
- इस सुरह में तौबा की शुभ सूचना तथा वचन भंगी काफ़िरों से विरक्त होने की घोषणा है। इसलिये इस का नाम सूरह तौबा और बराआ (विरक्ति) दोनों है।
- यह सन् (8-9) हिजरी के बीच मक्का की विजय के पश्चात् नबी (सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम) पर समय-समय से उतरी। और सन् (9) हिजरी में जब आप ने अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) को हज्ज का अमीर बना कर भेजा तो इस की आरंभिक आयतें उतरीं। और यह एलान किया गया कि काफिरों से संधि तोड़ दी गई और अहले किताब से संबंधित इस्लामी शासन की नीति बताते हुये उन्हें सावधान किया गया।
- इस में इस्लामी वर्ष और महीने का पालन करने का निर्देश दिया गया।
- तबूक के युद्ध के लिये मुसलमानों को उभारा गया तथा मुनाफ़िकों की निन्दा की गई जो जिहाद से जी चुराते थे।
- यह बताया गया कि ज़कात किन को दी जाये। और ईमान वालों को सफल होने की शुभ सूचना दी गई। मुनाफ़िकों के साथ जिहाद करने का आदेश दिया गया। और उन्हें सुधर जाने और अल्लाह तथा रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की आज्ञा का पालन करने को कहा गया अन्यथा वह अपने ईमान के दावे में झूठे हैं।
- नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सच्चे साथियों को शुभ सूचना देने के साथ ग्रामीण वासियों को उन के निफ़ाक़ पर धमकी दी गई।
- जिहाद से जी चुराने वालों के झूठ को उजागर किया गया और ईमान वालों के दोष क्षमा करने का एलान किया गया। मुनाफ़िकों के मस्जिद बना कर षड्यंत्र रचने का भंडा फोड़ने के साथ मुश्रिकों के लिये क्षमा की प्रार्थना करने से रोक दिया गया। और मदीना के आस-पास के ग्रामिणों को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के लिये जान दे देने तथा धर्म के समझने के निर्देश दिये गये।
- ईमान वालों को जिहाद का निर्देश और मुनाफ़िकों को अन्तिम चेतावनी दी गई।
- अन्त में कहा गया कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तुम्हारी केवल भलाई चाहते हैं। इसलिये यदि तुम उन का आदर करोगे तो तुम्हारा ही भला होगा।
सूरह अत तौबा | Surah Tauba in Hindi
بَرَاءَةٌ مِّنَ اللَّهِ وَرَسُولِهِ إِلَى الَّذِينَ عَاهَدتُّم مِّنَ الْمُشْرِكِينَ ﴾ 1 ﴿
बराअतुम्-मिनल्लाहि व रसूलिहि इलल्लज़ी-न आहत्तुम् मिनल मुश्रिकीन
अल्लाह तथा उसके रसूल की ओर से संधि मुक्त होने की घोषणा है, उन मिश्रणवादियों के लिए जिनसे तुमने संधि (समझौता) किया[1] था। 1. यह सूरह सन 9 हिजरी में उतरी। जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना पहुँचे तो आप ने अनेक जातियों से समझौता किया था। परन्तु सभी ने समय समय से समझौते का उल्लंघन किया। लेकिन आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) बराबर उस की पालन करते रहे। और अब यह घोषणा कर दी गई कि मिश्रणवादियों से कोई समझौता नहीं रहेगा।
فَسِيحُوا فِي الْأَرْضِ أَرْبَعَةَ أَشْهُرٍ وَاعْلَمُوا أَنَّكُمْ غَيْرُ مُعْجِزِي اللَّهِ ۙ وَأَنَّ اللَّهَ مُخْزِي الْكَافِرِينَ ﴾ 2 ﴿
फ़सीहू फ़िल्अर्ज़ि अर्ब-अ-त अश्हुरिंव्व अ्लमू अन्नकुम् ग़ैरू मुअ्जिज़िल्लाहि, व अन्नल्ला-ह मुख़्ज़िल-काफ़िरीन
तो (हे कीफ़िरो!) तुम धरती में चार महीने (स्वतंत्र होकर) फिरो तथा जान लो कि तुम अल्लाह को विवश नहीं कर सकोगे और निश्चय अल्लाह, काफ़िरों को अपमानित करने वाला है।
وَأَذَانٌ مِّنَ اللَّهِ وَرَسُولِهِ إِلَى النَّاسِ يَوْمَ الْحَجِّ الْأَكْبَرِ أَنَّ اللَّهَ بَرِيءٌ مِّنَ الْمُشْرِكِينَ ۙ وَرَسُولُهُ ۚ فَإِن تُبْتُمْ فَهُوَ خَيْرٌ لَّكُمْ ۖ وَإِن تَوَلَّيْتُمْ فَاعْلَمُوا أَنَّكُمْ غَيْرُ مُعْجِزِي اللَّهِ ۗ وَبَشِّرِ الَّذِينَ كَفَرُوا بِعَذَابٍ أَلِيمٍ ﴾ 3 ﴿
व अज़ानुम् मिनल्लाहि व रसूलिही इलन्नासि यौमल्- हज्जिल्-अक्बरि अन्नल्ला-ह बरीउम् मिनल्-मुश्रिकी-न, व रसूलुहू, फ़-इन् तुब्तुम् फहु-व ख़ैरूल्लकुम्, व इन् तवल्लैतुम् फअ्लमू अन्नकुम् ग़ैरू मुअ्जिज़िल्लाहि, व बश्शिरिल्लज़ी-न क-फरू बि-अ़ज़ाबिन अलीम
तथा अल्लाह और उसके रसूल की ओर से सार्वजनिक सूचना है, महा ह़ज[1] के दिन कि अल्लाह मिश्रणवादियों (मुश्रिकों) से अलग है तथा उसका रसूल भी। फिर यदि तुम तौबा (क्षमा याचना) कर लो, तो वह तुम्हारे लिए उत्तम है और यदि तुमने मुँह फेरा, तो जान लो कि तुम अल्लाह को विवश करने वाले नहीं हो और आप उन्हें जो काफ़िर हो गये, दुःखदायी यातना का शुभ समाचार सुना दें। 1. यह एलान ज़िल-ह़िज्जा सन् (10) हिजरी को मिना में किया गया कि अब काफ़िरों से कोई संधि नहीं रहेगी। इस वर्ष के बाद कोई मुश्रिक ह़ज्ज नहीं करेगा और न कोई काबा का नंगा तवाफ़ करेगा। (बुख़ारीः4655)
إِلَّا الَّذِينَ عَاهَدتُّم مِّنَ الْمُشْرِكِينَ ثُمَّ لَمْ يَنقُصُوكُمْ شَيْئًا وَلَمْ يُظَاهِرُوا عَلَيْكُمْ أَحَدًا فَأَتِمُّوا إِلَيْهِمْ عَهْدَهُمْ إِلَىٰ مُدَّتِهِمْ ۚ إِنَّ اللَّهَ يُحِبُّ الْمُتَّقِينَ ﴾ 4 ﴿
इल्लल्लज़ी-न आहत्तुम् मिनल मुश्रिकी-न सुम्म लम् यन्क़ुसूकुम् शैअंव्-व लम् युज़ाहिरू अलैकुम् अ-हदन् फ़-अतिम्मू इलैहिम् अह्-दहुम् इला मुद्दतिहिम्, इन्नल्ला-ह युहिब्बुल-मुत्तक़ीन
सिवाय उन मुश्रिकों के, जिनसे तुमने संधि की, फिर उन्होंने तुम्हारे साथ कोई कमी नहीं की और न तुम्हारे विरुध्द किसी की सहायता की, तो उनसे उनकी संधि उनकी अवधि तक पूरी करो। निश्चय अल्लाह आज्ञाकारियों से प्रेम करता है।
فَإِذَا انسَلَخَ الْأَشْهُرُ الْحُرُمُ فَاقْتُلُوا الْمُشْرِكِينَ حَيْثُ وَجَدتُّمُوهُمْ وَخُذُوهُمْ وَاحْصُرُوهُمْ وَاقْعُدُوا لَهُمْ كُلَّ مَرْصَدٍ ۚ فَإِن تَابُوا وَأَقَامُوا الصَّلَاةَ وَآتَوُا الزَّكَاةَ فَخَلُّوا سَبِيلَهُمْ ۚ إِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 5 ﴿
फ़-इज़न्स-लखल् अश्हुरूल्-हुरूमु फक़्तुलुल्- मुश्रिकी-न हैसु वजत्तुमूहूम् व ख़ुज़ूहुम् वह्सुरुहुम् वक़्अुदू लहुम् कुल-ल मर्सदिन्, फ़-इन् ताबू व अक़ामुस्सला-त व आतवुज़्ज़का-त फ़-ख़ल्लू सबीलहुम्, इन्नल्ला-ह ग़फूरुर्रहीम
अतः जब सम्मानित महीने बीत जायें, तो मिश्रणवादियों (मुश्रिकों) का वध करो, उन्हें जहाँ पाओ और उन्हें पकड़ो और घेरो[1] और उनकी घात में रहो। फिर यदि वे तौबा कर लें और नमाज़ की स्थापना करें तथा ज़कात दें, तो उन्हें छोड़ दो। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है। 1. यद आदेश मक्का के मुश्रिकों के बारे में दिया गया है, जो इस्लाम के विरोधी थे और मुसलमानों पर आक्रमण कर रहे थे। (Surah 9 Ayat 5 in Hindi)
وَإِنْ أَحَدٌ مِّنَ الْمُشْرِكِينَ اسْتَجَارَكَ فَأَجِرْهُ حَتَّىٰ يَسْمَعَ كَلَامَ اللَّهِ ثُمَّ أَبْلِغْهُ مَأْمَنَهُ ۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمْ قَوْمٌ لَّا يَعْلَمُونَ ﴾ 6 ﴿
व इन् अ-हदुम् मिनल् मुश्रिकीनस्तजार-क फ- अजिरहु हत्ता यस्म-अ कलामल्लाहि सुम्-म अब्लिग़्हु मअ् म-नहू, ज़ालि-क बिअन्नहुम् क़ौमुल्ला यअ्लमून *
और यदि मुश्रिकों में से कोई तुमसे श्रण माँगे, तो उसे श्रण दो, यहाँ तक कि अल्लाह की बातें सुन ले। फिर उसे पहुँचा दो, उसके शान्ति के स्थान तक। ये इसलिए कि वे ज्ञान नहीं रखते।
كَيْفَ يَكُونُ لِلْمُشْرِكِينَ عَهْدٌ عِندَ اللَّهِ وَعِندَ رَسُولِهِ إِلَّا الَّذِينَ عَاهَدتُّمْ عِندَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۖ فَمَا اسْتَقَامُوا لَكُمْ فَاسْتَقِيمُوا لَهُمْ ۚ إِنَّ اللَّهَ يُحِبُّ الْمُتَّقِينَ ﴾ 7 ﴿
कै-फ़ यकूनु लिल्मुश्रिकी-न अह़्दुन् अिन्दल्लाहि व अिन्-द रसूलिही इल्लल्लज़ी-न आहत्तुम् अिन्दल् मस्जिदिल्-हरामि, फ़मस्तक़ामू लकुम् फ़स्तक़ीमू लहुम्, इन्नल्ला-ह युहिब्बुल मुत्तक़ीन
इन मुश्रिकों (मिश्रणवादियों) की कोई संधि अल्लाह और उसके रसूल के पास कैसे हो सकती है? उनके सिवाय जिनसे तुमने सम्मानित मस्जिद (काबा) के पास संधि[1] की थी। तो जब तक वे तुम्हारे लिए सीधे रहें, तो तुम भी उनके लिए सीधे रहो। वास्तव में, अल्लाह आज्ञाकारियों से प्रेम करता है। 1. इस से अभिप्रेत ह़ुदैबिया की संधि है, जो सन् (6) हिजरी में हुई थी। जिसे काफ़िरों ने तोड़ दिया। और यही सन् (8) हिजरी में मक्का के विजय का कारण बना।
كَيْفَ وَإِن يَظْهَرُوا عَلَيْكُمْ لَا يَرْقُبُوا فِيكُمْ إِلًّا وَلَا ذِمَّةً ۚ يُرْضُونَكُم بِأَفْوَاهِهِمْ وَتَأْبَىٰ قُلُوبُهُمْ وَأَكْثَرُهُمْ فَاسِقُونَ ﴾ 8 ﴿
कै-फ़ व इंय्य़ज़्हरू अलैकुम् ला यरक़ुबू फ़ीकुम् इल्लंव् -व ला ज़िम्म-तन्, युर्ज़ुनकुम् बिअफ़्वाहिहिम् व तअ्बा क़ुलूबुहुम्, व अक्सरूहुम् फ़ासिक़ून
और उनकी संधि कैसे रह सकती है, जबकि वे यदि तुमपर अधिकार पा जायें, तो किसी संधि और किसी वचन का पालन नहीं करेंगे। वे तुम्हें अपने मुखों से प्रसन्न करते हैं, जबकि उनके दिल इन्कार करते हैं और उनमें अधिकांश वचनभंगी हैं।
اشْتَرَوْا بِآيَاتِ اللَّهِ ثَمَنًا قَلِيلًا فَصَدُّوا عَن سَبِيلِهِ ۚ إِنَّهُمْ سَاءَ مَا كَانُوا يَعْمَلُونَ ﴾ 9 ﴿
इश्तरौ बिआयातिल्लाहि स-मनन् क़लीलन् फ़-सद्दू अन् सबीलिही, इन्नहुम् सा-अ मा कानू यअ्मलून
उन्होंने अल्लाह की आयतों के बदले तनिक मूल्य ख़रीद लिया[1], और (लोगों को) अल्लाह की राह (इस्लाम) से रोक दिया। वास्तव में, वे बड़ा कुकर्म कर रहे हैं। 1. अर्थात संसारिक स्वार्थ के लिये सत्धर्म इस्लाम को नहीं माना।
لَا يَرْقُبُونَ فِي مُؤْمِنٍ إِلًّا وَلَا ذِمَّةً ۚ وَأُولَٰئِكَ هُمُ الْمُعْتَدُونَ ﴾ 10 ﴿
ला यर्क़ुबू-न फी मुअ्मिनिन् इल्लंव्-व ला ज़िम्म-तन्, व उलाइ-क हुमुल मुअ्तदून
वह किसी ईमान वाले के बारे में किसी संधि और वचन का पालन नहीं करते और वही उल्लंघनकारी हैं।
فَإِن تَابُوا وَأَقَامُوا الصَّلَاةَ وَآتَوُا الزَّكَاةَ فَإِخْوَانُكُمْ فِي الدِّينِ ۗ وَنُفَصِّلُ الْآيَاتِ لِقَوْمٍ يَعْلَمُونَ ﴾ 11 ﴿
फ़-इन् ताबू व अक़ामुस्सला-त व आतवुज़्ज़का-त फ़- इख़्वानुकुम् फ़िद्दीनि, व नुफस्सिलुल्-आयाति लिकौमिंय्य अ्लमून
तो यदि वे (शिर्क से) तौबा कर लें, नमाज़ की स्थापना करें और ज़कात दें, तो तुम्हारे धर्म-बंधु हैं और हम उन लोगों के लिए आयतों का वर्णन कर हे हैं, जो ज्ञान रखते हों।
وَإِن نَّكَثُوا أَيْمَانَهُم مِّن بَعْدِ عَهْدِهِمْ وَطَعَنُوا فِي دِينِكُمْ فَقَاتِلُوا أَئِمَّةَ الْكُفْرِ ۙ إِنَّهُمْ لَا أَيْمَانَ لَهُمْ لَعَلَّهُمْ يَنتَهُونَ ﴾ 12 ﴿
व इन्न-कसू ऐमानहुम् मिम्-बअ्दि अह़्दिहिम् व त -अनू फी दीनिकुम् फ़क़ातिलू अ-इम्मतल्-कुफ्रि, इन्नहुम् ला ऐमा-न लहुम् लअ़ल्लहुम् यन्तहून
तो यदि वे अपनी शपथें अपना वचन देने के पश्चात तोड़ दें और तुम्हारे धर्म की निंदा करें, तो कुफ़्र के प्रमुखों से युध्द करो। क्योंकि उनकी शपथों का कोई विश्वास नहीं, ताकि वे (अत्याचार से) रुक जायेँ।
أَلَا تُقَاتِلُونَ قَوْمًا نَّكَثُوا أَيْمَانَهُمْ وَهَمُّوا بِإِخْرَاجِ الرَّسُولِ وَهُم بَدَءُوكُمْ أَوَّلَ مَرَّةٍ ۚ أَتَخْشَوْنَهُمْ ۚ فَاللَّهُ أَحَقُّ أَن تَخْشَوْهُ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ ﴾ 13 ﴿
अला तुक़ातिलू-न क़ौमन् न कसू ऐमानहुम् व हम्मू बि -इख़्राजिर्रसूलि व हुम् ब-दऊकुम् अव्व-ल मर्रतिन्, अतख़्शौनहुम् फ़ल्लाहु अहक़्क़ु अन् तख़्शौहु इन् कुन्तुम् मुअ्मिनीन
तुम उन लोगों से युध्द क्यों नहीं करते, जिन्होंने अपने वचन भंग कर दिये तथा रसूल को निकालने का निश्चय किया और उन्होंने ही युध्द का आरंभ किया है? क्या तुम उनसे डरते हो? तो अल्लाह अधिक योग्य है कि तुम उससे डरो, यदि तुम ईमान[1] वाले हो। 1. आयत संख्या 7 से लेकर 13 तक यह बताया गया है कि शत्रु ने निरन्तर संधि को तोड़ा है। और तुम्हें युध्द के लिये बाध्य कर दिया है। अब उन के अत्याचार और आक्रमण को रोकने का यही उपाय रह गया है कि उन से युध्द किया जाये।
قَاتِلُوهُمْ يُعَذِّبْهُمُ اللَّهُ بِأَيْدِيكُمْ وَيُخْزِهِمْ وَيَنصُرْكُمْ عَلَيْهِمْ وَيَشْفِ صُدُورَ قَوْمٍ مُّؤْمِنِي ﴾ 14 ﴿
क़ातिलूहुम् युअ़ज़्ज़िबहुमुल्लाहु बिऐदीकुम व युख़्ज़िहिम् व यन्सुरकुम् अलैहिम् व यश्फि सुदू-र क़ौमिम्-मुअ्मिनीन
उनसे युध्द करो, उन्हें अल्लाह तुम्हारे हाथों दण्ड देगा, उन्हें अपमानित करेगा, उनके विरुध्द तुम्हारी सहायता करेगा और ईमान वालों के दिलों का सब दुःख दूर करेगा।
وَيُذْهِبْ غَيْظَ قُلُوبِهِمْ ۗ وَيَتُوبُ اللَّهُ عَلَىٰ مَن يَشَاءُ ۗ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ﴾ 15 ﴿
व युज़्हिब् ग़ै-ज़ क़ुलूबिहिम्, व यतूबुल्लाहु अ़ला मंय्यशा-उ, वल्लाहु अलीमुन् हकीम
और उनके दिलों की जलन दूर कर देगा और जिसपर चाहेगा, दया करेगा और अल्लाह अति ज्ञानी, नीतिज्ञ है।
أَمْ حَسِبْتُمْ أَن تُتْرَكُوا وَلَمَّا يَعْلَمِ اللَّهُ الَّذِينَ جَاهَدُوا مِنكُمْ وَلَمْ يَتَّخِذُوا مِن دُونِ اللَّهِ وَلَا رَسُولِهِ وَلَا الْمُؤْمِنِينَ وَلِيجَةً ۚ وَاللَّهُ خَبِيرٌ بِمَا تَعْمَلُونَ ﴾ 16 ﴿
अम् हसिब्तुम् अन् तुत्रकू व लम्मा यअ्- लमिल्लाहुल्लज़ी-न जाहदू मिन्कुम् व लम् यत्तख़िज़ू मिन् दूनिल्लाहि व ला रसूलिही व लल्मुअ्मिनी-न वली-जतन्, वल्लाहु ख़बीरूम्-बिमा तअ्मलून *
क्या तुमने समझा है कि यूँ ही छोड़ दिये जाओगे, जबकि (परीक्षा लेकर) अल्लाह ने उन्हें नहीं जाना है, जिसने तुममें से जिहाद किया तथा अल्लाह और उसके रसूल और ईमान वालों के सिवाय किसी को भेदी मित्र नहीं बनाया? और अल्लाह उससे सूचित है, जो तुम कर रहे हो।
مَا كَانَ لِلْمُشْرِكِينَ أَن يَعْمُرُوا مَسَاجِدَ اللَّهِ شَاهِدِينَ عَلَىٰ أَنفُسِهِم بِالْكُفْرِ ۚ أُولَٰئِكَ حَبِطَتْ أَعْمَالُهُمْ وَفِي النَّارِ هُمْ خَالِدُونَ ﴾ 17 ﴿
मा का-न लिल्मुश्रिकी-न अंय्यअ्मुरू मसाजिदल्लाहि शाहिदी न अ़ला अन्फुसिहिम् बिल्कुफ्रि, उलाइ-क हबितत् अअ्मालुहुम्, व फिन्नारि हुम् ख़ालिदून
मुश्रिकों (मिश्रणवादियों) के लिए योग्य नहीं है कि वे अल्लाह की मस्जिदों को आबाद करें, जबकि वे स्वयं अपने विरुध कुफ़्र (अधर्म) के साक्षी हैं। इन्हींके कर्म व्यर्थ हो गये और नरक में यही सदावासी होंगे।
إِنَّمَا يَعْمُرُ مَسَاجِدَ اللَّهِ مَنْ آمَنَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ وَأَقَامَ الصَّلَاةَ وَآتَى الزَّكَاةَ وَلَمْ يَخْشَ إِلَّا اللَّهَ ۖ فَعَسَىٰ أُولَٰئِكَ أَن يَكُونُوا مِنَ الْمُهْتَدِينَ ﴾ 18 ﴿
इन्नमा यअ्मुरू मसाजिदल्लाहि मन् आम-न बिल्लाहि वल्यौमिल्-आख़िरि व अक़ामस्सला-त व आतज़्ज़का-त व लम् यख़्-श इल्लल्ला-ह, फ़-अ़सा उलाइ-क अंय्यकूनू मिनल् मुह्तदीन
वास्तव में, अल्लाह की मस्जिदों को वही आबाद करता है, जो अल्लाह पर और अन्तिम दिन (प्रलय) पर ईमान लाया, नमाज़ की स्थापना की, ज़कात दी और अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरा। तो आशा है कि वही सीधी राह चलेंगे।
أَجَعَلْتُمْ سِقَايَةَ الْحَاجِّ وَعِمَارَةَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ كَمَنْ آمَنَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ وَجَاهَدَ فِي سَبِيلِ اللَّهِ ۚ لَا يَسْتَوُونَ عِندَ اللَّهِ ۗ وَاللَّهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الظَّالِمِينَ ﴾ 19 ﴿
अ-जअ़ल्तुम् सिक़ा-यतल्-हाज्जि व अिमा-रतल् मस्जिदिल्-हरामि कमन् आम-न बिल्लाहि वल्यौमिल्-आख़िरि व जाह-द फी सबीलिल्लाहि, ला यस्तवू-न अिन्दल्लाहि, वल्लाहु ला यह़्दिल् क़ौमज़्ज़ालिमीन
क्या तुम ह़ाजियों को पानी पिलाने और सम्मानित मस्जिद (काबा) की सेवा को, उसके (ईमान के) बराबर समझते हो, जो अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान लाया तथा अल्लाह की राह में जिहाद किया? अल्लाह के समीप दोनों बराबर नहीं हैं तथा अल्लाह अत्याचारियों को सुपथ नहीं दिखाता!
الَّذِينَ آمَنُوا وَهَاجَرُوا وَجَاهَدُوا فِي سَبِيلِ اللَّهِ بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنفُسِهِمْ أَعْظَمُ دَرَجَةً عِندَ اللَّهِ ۚ وَأُولَٰئِكَ هُمُ الْفَائِزُونَ ﴾ 20 ﴿
अल्लज़ी-न आमनू व हाजरू व जाहदू फ़ी सबीलिल्लाहि बिअम्वालिहिम् व अन्फुसिहिम्, अअ् -ज़मु द-र-जतन् अिन्दल्लाहि, व उलाइ-क हुमुल् फ़ाइज़ून
जो लोग ईमान लाये तथा हिजरत कर गये और अल्लाह की राह में अपने धनों और प्राणों से जिहाद किया, अल्लाह के यहाँ उनका बहुत बड़ा पद है और वही सफल होने वाले हैं।
يُبَشِّرُهُمْ رَبُّهُم بِرَحْمَةٍ مِّنْهُ وَرِضْوَانٍ وَجَنَّاتٍ لَّهُمْ فِيهَا نَعِيمٌ مُّقِيمٌ ﴾ 21 ﴿
युबश्शिरूहुम् रब्बुहुम् बिरह़्मतिम् मिन्हु व रिज़्वानिंव्-व जन्नातिल् लहुम् फ़ीहा नईमुम्-मुक़ीम
उन्हें उनका पालनहार शुभ सूचना देता है अपनी दया और प्रसन्नता की तथा ऐसे स्वर्गों की, जिनमें स्थायी सुख के साधन हैं।
خَالِدِينَ فِيهَا أَبَدًا ۚ إِنَّ اللَّهَ عِندَهُ أَجْرٌ عَظِيمٌ ﴾ 22 ﴿
ख़ालिदी-न फ़ीहा अ-बदन्, इन्नल्ला-ह अिन्दहू अज्रुन् अज़ीम
जिनमें वे सदावासी होंगे। वास्तव में, अल्लाह के यहाँ (सत्कर्मियों के लिए) बड़ा प्रतिफल है।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَتَّخِذُوا آبَاءَكُمْ وَإِخْوَانَكُمْ أَوْلِيَاءَ إِنِ اسْتَحَبُّوا الْكُفْرَ عَلَى الْإِيمَانِ ۚ وَمَن يَتَوَلَّهُم مِّنكُمْ فَأُولَٰئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ ﴾ 23 ﴿
या अय्युहल्लज़ीन आमनू ला तत्तख़िज़ू आबा-अकुम् व इख़्वानकुम् औलिया-अ इनिस्त हब्बुल् कुफ्-र अलल् ईमानि, व मंय्य-तवल्लहुम् मिन्कुम् फ़-उलाइ-क हुमुज़्ज़ालिमून
हे ईमान वालो! अपने बापों और भाईयों को अपना सहायक न बनाओ, यदि वे ईमान की अपेक्षा कुफ़्र से प्रेम करें और तुममें से जो उन्हें सहायक बनाएँगे, तो वही अत्याचारी होंगे।
قُلْ إِن كَانَ آبَاؤُكُمْ وَأَبْنَاؤُكُمْ وَإِخْوَانُكُمْ وَأَزْوَاجُكُمْ وَعَشِيرَتُكُمْ وَأَمْوَالٌ اقْتَرَفْتُمُوهَا وَتِجَارَةٌ تَخْشَوْنَ كَسَادَهَا وَمَسَاكِنُ تَرْضَوْنَهَا أَحَبَّ إِلَيْكُم مِّنَ اللَّهِ وَرَسُولِهِ وَجِهَادٍ فِي سَبِيلِهِ فَتَرَبَّصُوا حَتَّىٰ يَأْتِيَ اللَّهُ بِأَمْرِهِ ۗ وَاللَّهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْفَاسِقِينَ ﴾ 24 ﴿
क़ुल् इन् का-न आबाउकुम् व अब्-नाउकुम् व इख़्वानुकुम् व अज़्वाजुकुम् व अ़शीरतुकुम् व अम्वालु -निक़्त-रफ्तुमूहा व तिजारतुन् तख़्शौ न कसादहा व मसाकिनु तरज़ौनहा अहब्-ब इलैकुम मिनल्लाहि व रसूलिही व जिहादिन् फी सबीलिही फ़ तरब्बसू हत्ता यअ्तियल्लाहु बिअम्रिही, वल्लाहु ला यह़्दिल क़ौमल्-फ़ासिक़ीन *
हे नबी! कह दो कि यदि तुम्हारे बाप, तुम्हारे पुत्र, तुम्हारे भाई, तुम्हारी पत्नियाँ, तुम्हारे परिवार, तुम्हारा धन जो तुमने कमाया है और जिस व्यपार के मंद हो जाने का तुम्हें भय है तथा वो घर जिनसे मोह रखते हो, तुम्हें अल्लाह तथा उसके रसूल और अल्लाह की राह में जिहाद करने से अधिक प्रिय हैं, तो प्रतीक्षा करो, यहाँ तक कि अल्लाह का निर्णय आ जाये और अल्लाह उल्लंघनकारियों को सुपथ नहीं दिखाता।
لَقَدْ نَصَرَكُمُ اللَّهُ فِي مَوَاطِنَ كَثِيرَةٍ ۙ وَيَوْمَ حُنَيْنٍ ۙ إِذْ أَعْجَبَتْكُمْ كَثْرَتُكُمْ فَلَمْ تُغْنِ عَنكُمْ شَيْئًا وَضَاقَتْ عَلَيْكُمُ الْأَرْضُ بِمَا رَحُبَتْ ثُمَّ وَلَّيْتُم مُّدْبِرِينَ ﴾ 25 ﴿
ल-क़द् न-स-रकुमुल्लाहु फ़ी मवाति-न कसीरतिंव् व यौ-म हुनैनिन्, इज़् अअ्-जबत्कुम् कस्-रतुकुम् फ़-लम् तुग़्नि अन्कुम् शैअंव्-व ज़ाक़त् अ़लैकुमुल् अरज़ु बिमा रहुबत् सुम्-म वल्लैतुम् मुद्-बिरीन
अल्लाह बहुत-से स्थानों पर तथा ह़ुनैन[1] के दिन, तुम्हारी सहायता कर चुका है, जब तुम्हें तुम्हारी अधिक्ता पर गर्व था, तो वह तुम्हारे कुछ काम न आई तथा तुमपर धरती अपने विस्तार के होते हुए संकीर्ण (तंग) हो गई, फिर तुम पीठ दिखाकर भागे। 1. “ह़ुनैन” मक्का तथा ताइफ़ के बीच एक वादी है। वहीं पर यह युध्द सन् 8 हिजरी में मक्का की विजय के पश्चात् हुआ। आप को मक्का में यह सूचना मिली के हवाज़िन और सक़ीफ़ क़बीले मक्का पर आक्रमण करने की तैयारियाँ कर रहे हैं। जिस पर आप बारह हज़ार की सेना ले कर निकले। जब की शत्रु की संख्या केवल चार हज़ार थी। फिर भी उन्हों ने अपनी तीरों से मुसलमानों का मुँह फेर दिया। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आप के कुछ साथी रणक्षेत्र में रह गये, अन्ततः फिर इस्लामी सेना ने व्यवस्थित हो कर विजय प्राप्त की। (इब्ने कसीर)
ثُمَّ أَنزَلَ اللَّهُ سَكِينَتَهُ عَلَىٰ رَسُولِهِ وَعَلَى الْمُؤْمِنِينَ وَأَنزَلَ جُنُودًا لَّمْ تَرَوْهَا وَعَذَّبَ الَّذِينَ كَفَرُوا ۚ وَذَٰلِكَ جَزَاءُ الْكَافِرِينَ ﴾ 26 ﴿
सुम्-म अन्ज़लल्लाहु सकीन-तहू अ़ला रसूलिही व अ़लल्-मुअ्मिनी-न व अन्ज़-ल जुनूदल्लम् तरौहा व अज़्ज़बल्लज़ी-न क-फ़रू, व ज़ालि-क जज़ाउल-काफ़िरीन
फिर अल्लाह ने अपने रसूल और ईमान वालों पर शान्ति उतारी तथा ऐसी सेनायें उतारीं, जिन्हें तुमने नहीं देखा[1] और काफ़िरों को यातना दी और यही काफ़िरों का प्रतिकार (बदला) है। 1. अर्थात फ़रिश्ते भी उतारे गये जो मुसलमानों के साथ मिल कर काफ़िरों से जिहाद कर रहे थे। जिन के कारण मुसलमान विजय हुये और काफ़िरों को बंदी बना लिया गया, जिन को बाद में मुक्त कर दिया गया।
ثُمَّ يَتُوبُ اللَّهُ مِن بَعْدِ ذَٰلِكَ عَلَىٰ مَن يَشَاءُ ۗ وَاللَّهُ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 27 ﴿
सुम्-म यतूबुल्लाहु मिम्-बअ्दि ज़ालि-क अ़ला मंय्यशा-उ, वल्लाहु ग़फूरुर्रहीम
फिर अल्लाह इसके पश्चात् जिसे चाहे, क्षमा कर दे[1] और अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान है। 1. अर्थात उस के सत्धर्म इस्लाम को स्वीकार कर लेने के कारण।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِنَّمَا الْمُشْرِكُونَ نَجَسٌ فَلَا يَقْرَبُوا الْمَسْجِدَ الْحَرَامَ بَعْدَ عَامِهِمْ هَٰذَا ۚ وَإِنْ خِفْتُمْ عَيْلَةً فَسَوْفَ يُغْنِيكُمُ اللَّهُ مِن فَضْلِهِ إِن شَاءَ ۚ إِنَّ اللَّهَ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ﴾ 28 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनू इन्नमल-मुश्रिकू-न न-जसुन् फ़ला यक़्रबुल् मस्जिदल्-हरा म बअ्-द आ़मिहिम् हाज़ा, व इन् ख़िफ़्तुम् ऐल-तन् फ़सौ-फ़ युग़्नीकुमुल्लाहु मिन् फ़ज़्लिही इन् शा-अ, इन्नल्ला-ह अलीमुन् हकीम
हे ईमान वालो! मुश्रिक (मिश्रणवादी) मलीन हैं। अतः इस वर्ष[1] के पश्चात् वे सम्मानित मस्जिद (काबा) के समीप भी न आयें और यदि तुम्हें निर्धनता का भय[2] हो, तो अल्लाह तुम्हें अपनी दया से धनी कर देगा, यदि वह चाहे। वास्तव में, अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वज्ञ है। 1. अर्थात सन् 9 हिजरी के पश्चात्। 2. अर्थात उन से व्यपार न करने के कारण। अपवित्र होने का अर्थ शिर्क के कारण मन की मलीनता है। (इब्ने कसीर)
قَاتِلُوا الَّذِينَ لَا يُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَلَا بِالْيَوْمِ الْآخِرِ وَلَا يُحَرِّمُونَ مَا حَرَّمَ اللَّهُ وَرَسُولُهُ وَلَا يَدِينُونَ دِينَ الْحَقِّ مِنَ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ حَتَّىٰ يُعْطُوا الْجِزْيَةَ عَن يَدٍ وَهُمْ صَاغِرُونَ ﴾ 29 ﴿
क़ातिलुल्लज़ी-न ला युअ्मिनू-न बिल्लाहि व ला बिल्यौमिल्-आख़िरि व ला युहर्रिमू-न मा हर्रमल्लाहु व रसूलुहू व ला यदीनू-न दीनल्-हक़्क़ि मिनल्लज़ी-न ऊतुल्किता-ब हत्ता युअ्तुल जिज़्य-त अंय्यदिंव्-व हुम् साग़िरून *
(हे ईमान वालो!) उनसे युध्द करो, जो न तो अल्लाह (सत्य) पर ईमान लाते हैं और न अन्तिम दिन (प्रलय) पर और न जिसे, अल्लाह और उसके रसूल ने ह़राम (वर्जित) किया है, उसे ह़राम (वर्जित) समझते हैं, न सत्धर्म को अपना धर्म बनाते हैं, उनमें से जो पुस्तक दिये गये हैं, यहाँ तक कि वे अपने हाथ से जिज़या[1] दें और वे अपमानित होकर रहें। 1. जिज़या अर्थात रक्षा-कर, जो उस रक्षा का बदला है जो इस्लामी देश में बसे हुये अह्ले किताब से इस लिये लिया जाता है ताकि वह यह सोचें कि अल्लाह के लिये ज़कात न देने और गुमराही पर अड़े रहने का मूल्य चुकाना कितना बड़ा दुर्भाग्य है जिस में वह फंसे हुये हैं।
وَقَالَتِ الْيَهُودُ عُزَيْرٌ ابْنُ اللَّهِ وَقَالَتِ النَّصَارَى الْمَسِيحُ ابْنُ اللَّهِ ۖ ذَٰلِكَ قَوْلُهُم بِأَفْوَاهِهِمْ ۖ يُضَاهِئُونَ قَوْلَ الَّذِينَ كَفَرُوا مِن قَبْلُ ۚ قَاتَلَهُمُ اللَّهُ ۚ أَنَّىٰ يُؤْفَكُونَ ﴾ 30 ﴿
व क़ालतिल्-यहूदु अुज़ैरू-निब्नुल्लाहि व क़ालतिन्नसारल्-मसीहुब्नुल्लाहि, ज़ालि-क क़ौलुहुम् बिअफ्वाहिहिम्, युज़ाहिऊ-न क़ौलल्लज़ी-न क-फ़रू मिन् क़ब्लु, क़ात-लहुमुल्लाहु, अन्ना युअ्फ़कून
तथा यहूद ने कहा कि उज़ैर अल्लाह का पुत्र है और नसारा (ईसाईयों) ने कहा कि मसीह़ अल्लाह का पुत्र है। ये उनके अपने मुँह की बातें हैं। वे उनके जैसी बातें कर रहे हैं, जो इनसे पहले काफ़िर हो गये। उनपर अल्लाह की मार! वे कहाँ बहके जा रहे हैं?
اتَّخَذُوا أَحْبَارَهُمْ وَرُهْبَانَهُمْ أَرْبَابًا مِّن دُونِ اللَّهِ وَالْمَسِيحَ ابْنَ مَرْيَمَ وَمَا أُمِرُوا إِلَّا لِيَعْبُدُوا إِلَٰهًا وَاحِدًا ۖ لَّا إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ۚ سُبْحَانَهُ عَمَّا يُشْرِكُونَ ﴾ 31 ﴿
इत्त-ख़जू अह़्बारहुम् व रूह़्बानहुम् अर्बाबम् मिन् दूनिल्लाहि वल्मसीहब्-न मर्य-म, व मा उमिरू इल्ला लियअ्बुदू इलाहंव्वाहिदन्, ला इला-ह इल्ला हु-व, सुब्हानहू अम्मा युश्रिकून
उन्होंने अपने विद्वानों और धर्माचारियों (संतों) को अल्लाह के सिवा पूज्य[1] बना लिया तथा मर्यम के पुत्र मसीह़ को, जबकि उन्हें जो आदेश दिया गया था, वो इसके सिवा कुछ न था कि एक अल्लाह की इबादत (वंदना) करें। कोई पूज्य नहीं है, परन्तु वही। वह उससे पवित्र है, जिसे उसका साझी बना रहे हैं। 1. ह़दीस में है कि उन के बनाये हुये वैध तथा अवैध को मानना ही उन को पूज्य बनाना है। (तिर्मिज़ीः2471, यह सह़ीह़ ह़दीस है।)
يُرِيدُونَ أَن يُطْفِئُوا نُورَ اللَّهِ بِأَفْوَاهِهِمْ وَيَأْبَى اللَّهُ إِلَّا أَن يُتِمَّ نُورَهُ وَلَوْ كَرِهَ الْكَافِرُونَ ﴾ 32 ﴿
युरीदून अंय्युत्फ़िऊ नूरल्लाहि बिअफ़्वाहिहिम् व यअ्बल्लाहु इल्ला अंय्युतिम्-म नूरहु व लौ करिहल् काफिरून
वे चाहते हैं कि अल्लाह के प्रकाश को अपनी फूकों से बुझा[1] दें और अल्लाह अपने प्रकाश को पूरा किये बिना नहीं रहेगा, यद्यपि काफ़िरों को बुरा लगे। 1. आयत का अर्थ यह है कि यहूदी, ईसाई तथा काफ़िर स्वयं तो कुपथ हैं ही वह सत्धर्म इस्लाम से रोकने के लिये भी धोखा-धड़ी से काम लेते हैं, जिस में वह कदापि सफल नहीं होंगे।
هُوَ الَّذِي أَرْسَلَ رَسُولَهُ بِالْهُدَىٰ وَدِينِ الْحَقِّ لِيُظْهِرَهُ عَلَى الدِّينِ كُلِّهِ وَلَوْ كَرِهَ الْمُشْرِكُونَ ﴾ 33 ﴿
हुवल्लज़ी अर्स-ल रसूलहू बिल्हुदा व दीनिल्-हक़्क़ि लियुज़्हि-रहू अलद्दीनि कुल्लिही, व लौ करिहल् मुश्रिकून
उसीने अपने रसूल[1] को मार्गदर्शन तथा सत्धर्म (इस्लाम) के साथ भेजा है, ताकि उसे प्रत्येक धर्म पर प्रभुत्व प्रदान कर दे[2], यद्यपि मिश्रणवादियों को बुरा लगे। 1. रसूल से अभिप्रेत मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हैं। 2. इस का सब से बड़ा प्रमाण यह है कि इस समय पूरे संसार में मुसलमानों की संख्या लग-भग दो अरब है। और अब भी इस्लाम पूरी दुनिया में तेज़ी से फैलता जा रहा है।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِنَّ كَثِيرًا مِّنَ الْأَحْبَارِ وَالرُّهْبَانِ لَيَأْكُلُونَ أَمْوَالَ النَّاسِ بِالْبَاطِلِ وَيَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ اللَّهِ ۗ وَالَّذِينَ يَكْنِزُونَ الذَّهَبَ وَالْفِضَّةَ وَلَا يُنفِقُونَهَا فِي سَبِيلِ اللَّهِ فَبَشِّرْهُم بِعَذَابٍ أَلِيمٍ ﴾ 34 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनू इन्-न कसीरम् मिनल् अह़्बारि वर्रूह़्बानि ल-यअ्कुलू-न अम्वालन्नासि बिल्बातिलि व यसुद्दू-न अन् सबीलिल्लाहि, वल्लज़ी -न यक्निज़ूनज़्ज़-ह-ब वल्-फिज़्ज़-त व ला युन्फिक़ूनहा फी सबीलिल्लाहि, फ़-बश्शिरहुम् बिअ़ज़ाबिन् अलीम
हे ईमान वालो! बहुत-से (अह्ले किताब के) विद्वान तथा धर्माचारी (संत) लोगों का धन अवैध खाते हैं और (उन्हें) अल्लाह की राह से रोकते हैं तथा जो सोना-चाँदी एकत्र करके रखते हैं और उसे अल्लाह की राह में दान नहीं करते, उन्हें दुःखदायी यातना की शुभ सूचना सुना दें।
يَوْمَ يُحْمَىٰ عَلَيْهَا فِي نَارِ جَهَنَّمَ فَتُكْوَىٰ بِهَا جِبَاهُهُمْ وَجُنُوبُهُمْ وَظُهُورُهُمْ ۖ هَٰذَا مَا كَنَزْتُمْ لِأَنفُسِكُمْ فَذُوقُوا مَا كُنتُمْ تَكْنِزُونَ ﴾ 35 ﴿
यौ-म युह़्मा अलैहा फी नारि जहन्न-म फतुक्-वा बिहा जिबाहुहुम् व जुनूबुहुम् व ज़ुहूरूहुम्, हाज़ा मा कनज़्तुम् लिअन्फुसिकुम् फ़जूक़ू मा कुन्तुम् तक्निज़ून
जिस (प्रलय के) दिन उसे नरक की अग्नि में तपाया जायेगा, फिर उससे उनके माथों, पार्शवों (पहलू) और पीठों को दागा जायेगा ( और कहा जायेगाः) यही है, जिसे तुम एकत्र कर रहे थे, तो (अब) अपने संचित किये धनों का स्वाद चखो।
إِنَّ عِدَّةَ الشُّهُورِ عِندَ اللَّهِ اثْنَا عَشَرَ شَهْرًا فِي كِتَابِ اللَّهِ يَوْمَ خَلَقَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ مِنْهَا أَرْبَعَةٌ حُرُمٌ ۚ ذَٰلِكَ الدِّينُ الْقَيِّمُ ۚ فَلَا تَظْلِمُوا فِيهِنَّ أَنفُسَكُمْ ۚ وَقَاتِلُوا الْمُشْرِكِينَ كَافَّةً كَمَا يُقَاتِلُونَكُمْ كَافَّةً ۚ وَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّهَ مَعَ الْمُتَّقِينَ ﴾ 36 ﴿
इन्-न अिद्द-तश्शुहूरि अिन्दल्लाहिस्-ना अ-श-र शह्-रन् फी किताबिल्लाहि यौ-म ख़-लक़स्समावाति वल्अर्-ज़ मिन्हा अर्ब-अतुन् हुरूमुन्, ज़ालिकद्दीनुल-क़य्यिमु, फ़ला तज़्लिमू फीहिन्-न अन्फु-सकुम्, व क़ातिलुल, मुश्रिकी-न काफ्फ़-तन् कमा युक़ातिलूनकुम् काफ्फ़ तन्, वअ्लमू अन्नल्ला-ह मअ़ल्मुत्तक़ीन
वास्तव में, महीनों की संख्या बारह महीने हैं, अल्लाह के लेख में, जिस दिन से उसने आकाशों तथा धरती की रचना की है। उनमें से चार ह़राम (सम्मानित)[1] महीने हैं। यही सीधा धर्म है। अतः अपने प्राणों पर अत्याचार[2] न करो तथा मिश्रणवादियों से सब मिलकर युध्द करो।, जैसे वे तुमसे मिलकर युध्द करते हैं और विश्वास रखो कि अल्लाह आज्ञाकीरियों के साथ है। 1. जिन में युध्द निषेध है। और वह ज़ुलक़ादा, ज़ुल ह़िज्जा, मुह़र्रम तथा रजब के अर्बी महीने हैं। (बुख़ारीः4662) 2. अर्थात इन में युध्द तथा रक्तपात न करो, इन का आदर करो।
إِنَّمَا النَّسِيءُ زِيَادَةٌ فِي الْكُفْرِ ۖ يُضَلُّ بِهِ الَّذِينَ كَفَرُوا يُحِلُّونَهُ عَامًا وَيُحَرِّمُونَهُ عَامًا لِّيُوَاطِئُوا عِدَّةَ مَا حَرَّمَ اللَّهُ فَيُحِلُّوا مَا حَرَّمَ اللَّهُ ۚ زُيِّنَ لَهُمْ سُوءُ أَعْمَالِهِمْ ۗ وَاللَّهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكَافِرِينَ ﴾ 37 ﴿
इन्नमन्नसी-उ ज़ियादतुन् फ़िल्कुफ्रि युज़ल्लु बिहिल्लज़ी-न क-फरू युहिल्लूनहू आमंव्-व युहर्रिमूनहू आमल्-लियुवातिऊ अिद्द-त मा हर्रमल्लाहु फयुहिल्लू मा हर्रमल्लाहु, ज़ुय्यि-न लहुम् सू-उ अअ्मालिहिम्, वल्लाहु ला यह्दिल क़ौमल्-काफ़िरीन *
नसी[1] (महीनों को आगे-पीछे करना) कुफ़्र (अधर्म) में अधिक्ता है। इससे काफ़िर कुफथ किये जाते हैं। एक ही महीने को एक वर्ष ह़लाल (वैध) कर देते हैं तथा उसी को दूसरे वर्ष ह़राम (अवैध) कर देते हैं। ताकि अल्लाह ने सम्मानित महीनों की जो गिनती निश्चित कर दी है, उसे अपनी गिनती के अनुसार करके, अवैध महीनों को वैध कर लें। उनके लिए उनके कुकर्म सुन्दर बना दिये गये हैं और अल्लाह काफ़िरों को सुपथ नहीं दर्शाता। 1. इस्लाम से पहले मक्का के मिश्रणवादी अपने स्वार्थ के लिये सम्मानित महीनों साधारणतः मुह़र्रम के महीने को सफ़र के महीने से बदल कर युध्द कर लेते थे। इसी प्रकार प्रत्येक तीन वर्ष पर एक महीना अधिक कर लिया जाता था ताकि चाँद का वर्ष सूर्य के वर्ष के अनुसार रहे। क़ुर्आन ने इस कुरीति का खण्डन किया है, और इसे अधर्म कहा है। (इब्ने कसीर)
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا مَا لَكُمْ إِذَا قِيلَ لَكُمُ انفِرُوا فِي سَبِيلِ اللَّهِ اثَّاقَلْتُمْ إِلَى الْأَرْضِ ۚ أَرَضِيتُم بِالْحَيَاةِ الدُّنْيَا مِنَ الْآخِرَةِ ۚ فَمَا مَتَاعُ الْحَيَاةِ الدُّنْيَا فِي الْآخِرَةِ إِلَّا قَلِيلٌ ﴾ 38 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनू मा लकुम् इज़ा क़ी-ल लकुमुन्फिरू फ़ी सबीलिल्लाहिस्सा क़ल्तुम् इलल्-अर्ज़ि, अ-रज़ीतुम् बिल्हयातिद्दुन्या मिनल्-आख़िरति, फ़मा मताअुल्-हयातिद्दुन्या फिल्आख़िरति इल्ला क़लील
हे ईमान वालो! तुम्हें क्या हो गया है कि जब तुमसे कहा जाये कि अल्लाह की राह में निकलो, तो धरती के बोझ बन जाते हो, क्या तुम आख़िरत (परलोक) की अपेक्षा सांसारिक जीवन से प्रसन्न हो गये हो? जबकि परलोक की अपेक्षा सांसारिक जीवन के लाभ बहुत थोड़े हैं[1]। 1. यह आयतें तबूक के युध्द से संबन्धित हैं। तबूक मदीने और शाम के बीच एक स्थान का नाम है। जो मदीने से 610 किलो मीटर दूर है। सन् 9 हिजरी में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को यह सूचना मिली कि रोम के राजा क़ैसर ने मदीने पर आक्रमण करने का आदेश दिया है। यह मुसलमानों के लिये अरब से बाहर एक बड़ी शक्ति से युध्द करने का प्रथम अवसर था। अतः आप ने तैयारी और कूच का एलान कर दिया। यह बड़ा भीषण समय था, इस लिये मुसलमानों को प्रेरणा दी जा रही है कि इस युध्द के लिये निकलें। तबूक का युध्दः- मक्का की विजय के पश्चात् ऐसे समाचार मिलने लगे कि रोम का राजा क़ैसर मुसलमानों पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहा है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जब यह सुना तो आप ने भी मुसलमानों को तैयारी का आदेश दे दिया। उस समय स्थिति बड़ी गंभीर थी। मदीना में अकाल था। कड़ी धूप तथा खजूरों के पकने का समय था। सवारी तथा यात्रा के संसाधन की कमी थी। मदीना के मुनाफ़िक़ अबु आमिर राहिब के द्वारा ग़स्सान के ईसाई राजा और क़ैसर मिले हुये थे। उन्हों ने मदीना के पास अपने षड्यंत्र के लिये एक मस्जिद भी बना ली थी। और चाहते थे कि मुसलमान पराजित हो जायें। वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म और मुसलमानों का उपहास करते थे। और तबूक की यात्रा के बीच आप पर प्राण-घातक आक्रमण भी किया। और बहुत से द्विधावादियों ने आप का साथ भी नहीं दिया और झूठे बहाने बना लिये। रजब सन् 9 हिजरी में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तीस हज़ार मुसलमानों के साथ निकले। इन में दस हज़ार सवार थे। तबूक पहुँच कर पता लगा कि क़ैसर और उस के सहयोगियों ने साहस खो दिया है। क्यों कि इस से पहले मूता के रणक्षेत्र में तीन हज़ार मुसलमानों ने एक लाख ईसाईयों का मुक़ाबला किया था। इस लिये क़ैसर तीस हज़ार की सेना से भिड़ने का साहस न कर सका। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने तबूक में बीस दिन रह कर रूमियों के अधीन इस क्षेत्र के राज्यों को अपने अधीन बनाया। जिस से इस्लामी राज्य की सीमायें रूमी राज्य की सीमा तक पहुँच गईं। जब आप मदीना पहुँचे तो द्विधावादियों ने झूठे बहाने बना कर क्षमा माँग ली। तीन मुसलमान जो आप के साथ आलस्य के कारण नहीं जा सके थे और अपना दोष स्वीकार कर लिया था आप ने उन का सामाजिक बहिष्कार कर दिया। किन्तु अल्लाह ने उन तीनों को भी उन के सत्य के कारण क्षमा कर दिया। आप ने उस मस्जिद को भी गिराने का आदेश दिया, जिसे मुनाफ़िक़ों ने अपने षड्यंत्र का केंद्र बनाया था।
إِلَّا تَنفِرُوا يُعَذِّبْكُمْ عَذَابًا أَلِيمًا وَيَسْتَبْدِلْ قَوْمًا غَيْرَكُمْ وَلَا تَضُرُّوهُ شَيْئًا ۗ وَاللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ ﴾ 39 ﴿
इल्ला तन्फिरू युअ़ज़्ज़िब़्कुम् अ़ज़ाबन् अलीमंव्-व यस्तब्दिल् क़ौमन् ग़ैरकुम् व ला तज़ुर्रूहु शैअन्, वल्लाहु अला कुल्लि शैइन् क़दीर
यदि तुम नहीं निकलोगे, तो तुम्हें अल्लाह दुःखदायी यातना देगा, तथा तुम्हारे सिवाय दूसरे लोगों को लायेगा। और तुम उसे कोई हानि नहीं पहुँचा सकोगे। और अल्लाह जो चाहे कर सकता है।
إِلَّا تَنصُرُوهُ فَقَدْ نَصَرَهُ اللَّهُ إِذْ أَخْرَجَهُ الَّذِينَ كَفَرُوا ثَانِيَ اثْنَيْنِ إِذْ هُمَا فِي الْغَارِ إِذْ يَقُولُ لِصَاحِبِهِ لَا تَحْزَنْ إِنَّ اللَّهَ مَعَنَا ۖ فَأَنزَلَ اللَّهُ سَكِينَتَهُ عَلَيْهِ وَأَيَّدَهُ بِجُنُودٍ لَّمْ تَرَوْهَا وَجَعَلَ كَلِمَةَ الَّذِينَ كَفَرُوا السُّفْلَىٰ ۗ وَكَلِمَةُ اللَّهِ هِيَ الْعُلْيَا ۗ وَاللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ﴾ 40 ﴿
इल्ला तन्सुरूहू फ़-क़द् न-सरहुल्लाहु इज़् अख़्र-जहुल्लज़ी-न क-फरू सानियस्नैनी इज़् हुमा फ़िल्ग़ारि इज़् यक़ूलु लिसाहिबिही ला तह़्ज़न् इन्नल्ला-ह म अना, फ़-अन्ज़ लल्लाहु सकीन-तहू अलैहि व अय्य-दहू बिजुनूदिल्लम् तरौहा व ज-अ-ल कलि-मतल्लज़ी-न क-फ़रूस्सुफ्ला, व कलि-मतुल्लाहि हियल्-अुल्या, वल्लाहु अ़ज़ीज़ुन् हकीम
यदि तुम उस (नबी) की सहायता नहीं करोगे, तो अल्लाह ने उसकी सहायता उस समय[1] की है, जब काफ़िरों ने उसे (मक्का से) निकाल दिया। वह दो में दूसरे थे। जब दोनों गुफा में थे, जब वह अपने साथी से कह रहे थेः उदासीन न हो, निश्चय अल्लाह हमारे साथ है[2]। तो अल्लाह ने अपनी ओर से शान्ति उतार दी और आपको ऐसी सेना से समर्थन दिया, जिसे तुमने नहीं देखा और काफ़िरों की बात नीची कर दी और अल्लाह की बात ही ऊँची रही और अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ है। 1. यह उस अवसर की चर्चा है जब मक्का के मिश्रणवादियों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का वध कर देने का निर्णय किया। उसी रात आप मक्का से निकल कर सौर पर्वत नामक गुफा में तीन दिन तक छुपे रहे। फिर मदीना पहुँचे। उस समय गुफा में केवल आदरणीय अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु आप के साथ थे। 2. ह़दीस में है कि अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा कि मैं गुफा में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथ था। और मैं ने मुश्रिकों के पैर देख लिये। और आप से कहाः यदि इन में से कोई अपना पैर उठा दे तो हमें देख लेगा। आप ने कहाः उन दो के बारे में तुम्हारा क्या विचार है जिन का तीसरा अल्लाह है। ( सह़ीह़ बुख़ारीः4663)
انفِرُوا خِفَافًا وَثِقَالًا وَجَاهِدُوا بِأَمْوَالِكُمْ وَأَنفُسِكُمْ فِي سَبِيلِ اللَّهِ ۚ ذَٰلِكُمْ خَيْرٌ لَّكُمْ إِن كُنتُمْ تَعْلَمُونَ ﴾ 41 ﴿
इन्फिरू ख़िफ़ाफंव्-व सिक़ालंव् व जाहिदू बिअम्वा लिकुम् व अन्फुसिकुम् फ़ी सबीलिल्लाहि, ज़ालिकुम् ख़ैरूल्लकुम् इन् कुन्तुम् तअ्लमून
हल्के[1] होकर और बोझल (जैसे हो) निकल पड़ो। और अपने धनों तथा प्राणों से अल्लाह की राह में जिहाद करो। यही तुम्हारे लिए उत्तम है, यदि तुम ज्ञान रखते हो। 1. संसाधन हो या न हो।
لَوْ كَانَ عَرَضًا قَرِيبًا وَسَفَرًا قَاصِدًا لَّاتَّبَعُوكَ وَلَٰكِن بَعُدَتْ عَلَيْهِمُ الشُّقَّةُ ۚ وَسَيَحْلِفُونَ بِاللَّهِ لَوِ اسْتَطَعْنَا لَخَرَجْنَا مَعَكُمْ يُهْلِكُونَ أَنفُسَهُمْ وَاللَّهُ يَعْلَمُ إِنَّهُمْ لَكَاذِبُونَ ﴾ 42 ﴿
लौ का-न अ-रज़न् क़रीबंव्-व स-फ़रन् क़ासिदल्लत्तबअू-क व लाकिम्-बअुदत् अलैहिमुश्शुक्कतु, व स-यह़्लि फू-न बिल्लाहि लविस्त-तअ्ना ल-ख़रज्-ना म-अ़कुम्, युह़्लिकू-न अन्फु-सहुम्, वल्लाहु यअ्लमु इन्नहुम् लकाज़िबून *
(हे नबी!) यदि लाभ समीप और यात्रा सरल होती, तो ये (मुनाफ़िक़) अवश्य आपके साथ हो जाते। परन्तु उन्हें मार्ग दूर लगा और (अब) अल्लाह की शपथ लेंगे कि यदि हम निकल सकते, तो अवश्य तुम्हारे साथ निकल पड़ते, वे अपना विनाश स्वयं कर रहे हैं और अल्लाह जानता है कि वे वास्तव में झूठे हैं।
عَفَا اللَّهُ عَنكَ لِمَ أَذِنتَ لَهُمْ حَتَّىٰ يَتَبَيَّنَ لَكَ الَّذِينَ صَدَقُوا وَتَعْلَمَ الْكَاذِبِينَ ﴾ 43 ﴿
अ़फ़ल्लाहु अन्-क, लि-म अज़िन्-त लहुम् हत्ता य -तबय्य-न लकल्लज़ी-न स-द-क़ू व तअ्-लमल् काज़िबीन
(हे नबी!) अल्लाह आपको क्षमा करे! आपने उन्हें अनुमति क्यों दे दी? यहाँ तक कि आपके लिए जो सच्चे हैं, उजागर हो जाते और झूठों को जान लेते?
لَا يَسْتَأْذِنُكَ الَّذِينَ يُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ أَن يُجَاهِدُوا بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنفُسِهِمْ ۗ وَاللَّهُ عَلِيمٌ بِالْمُتَّقِينَ ﴾ 44 ﴿
ला यस्तअ्ज़िनुकल्लज़ी-न युअ्मिनू-न बिल्लाहि वल्यौमिल्-आख़िरि अंय्युजाहिदू बिअम्वालिहिम् व अन्फुसिहिम्, वल्लाहु अलीमुम् बिल्मुत्तक़ीन
आपसे (पीछे रह जाने की) अनुमति वह नहीं माँग रहे हैं, जो अल्लाह तथा अन्तिम दिन (प्रलय) पर ईमान रखते हों कि अपने धनों तथा प्राणों से जिहाद करेंगे और अल्लाह आज्ञाकारियों को भलि-भाँति जानता है।
إِنَّمَا يَسْتَأْذِنُكَ الَّذِينَ لَا يُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ وَارْتَابَتْ قُلُوبُهُمْ فَهُمْ فِي رَيْبِهِمْ يَتَرَدَّدُونَ ﴾ 45 ﴿
इन्नमा यस्तअ्ज़िनुकल्लज़ी-न ला युअ्मिनू-न बिल्लाहि वलयौमिल्-आख़िरि वरताबत् क़ुलूबुहुम् फहुम् फी रैबिहिम् य-तरद्ददून
आपसे अनुमति वही माँग रहे हैं, जो अल्लाह तथा अन्तिम दिवस (परलोक) पर ईमान नहीं रखते और अपने संदेह में पड़े हुए हैं।
وَلَوْ أَرَادُوا الْخُرُوجَ لَأَعَدُّوا لَهُ عُدَّةً وَلَٰكِن كَرِهَ اللَّهُ انبِعَاثَهُمْ فَثَبَّطَهُمْ وَقِيلَ اقْعُدُوا مَعَ الْقَاعِدِينَ ﴾ 46 ﴿
व लौ अरादुल-खुरू-ज ल-अअ़द्दू लहू अुद्दतंव्-व लाकिन् करिहल्लाहुम् बिआ-सहुम् फ़ सब्ब तहुम् व क़ीलक़्अुदू मअल् क़ाअिदीन
यदि वे निकलना चाहते, तो अवश्य उसके लिए कुछ तैयारी करते। परन्तु अल्लाह को उनका जाना अप्रिय था, अतः उन्हें आलसी बना दिया तथा कह दिया गया कि बैठने वालों के साथ बैठे रहो।
لَوْ خَرَجُوا فِيكُم مَّا زَادُوكُمْ إِلَّا خَبَالًا وَلَأَوْضَعُوا خِلَالَكُمْ يَبْغُونَكُمُ الْفِتْنَةَ وَفِيكُمْ سَمَّاعُونَ لَهُمْ ۗ وَاللَّهُ عَلِيمٌ بِالظَّالِمِينَ ﴾ 47 ﴿
लौ ख़-रजू फ़ीकुम् मा ज़ादूकुम इल्ला ख़बालंव्-व ल-औज़अू ख़िलालकुम् यब्ग़ूनकुमुल् फ़ित् न-त, व फ़ीकुम् सम्माअू-न लहुम्, वल्लाहु अलीमुम्-बिज़्ज़ालिमीन
और यदि वे तुममें निकलते, तो तुममें बिगाड़ ही अधिक करते और तुम्हारे बीच उपद्रव के लिए दौड़ धूप करते और तुममें वह भी हैं, जो उनकी बातों पर ध्यान देते हैं और अल्लाह अत्याचारियों को भली-भाँति जानता है।
لَقَدِ ابْتَغَوُا الْفِتْنَةَ مِن قَبْلُ وَقَلَّبُوا لَكَ الْأُمُورَ حَتَّىٰ جَاءَ الْحَقُّ وَظَهَرَ أَمْرُ اللَّهِ وَهُمْ كَارِهُونَ ﴾ 48 ﴿
ल-क़दिब्त-ग़वुल फित् न-त मिन् क़ब्लु व क़ल्लबू ल-कल् उमू-र हत्ता जाअल्-हक़्क़ु व ज़-ह-र अम्रुल्लाहि व हुम् कारिहून
(हे नबी!) वे इससे पहले भी उपद्रव का प्रयास कर चुके हैं तथा आपके लिए बातों में हेर-फेर कर चुके हैं। यहाँ तक कि सत्य आ गया और अल्लाह का आदेश प्रभुत्वशाली हो गया और ये बात उन्हें अप्रिय है।
وَمِنْهُم مَّن يَقُولُ ائْذَن لِّي وَلَا تَفْتِنِّي ۚ أَلَا فِي الْفِتْنَةِ سَقَطُوا ۗ وَإِنَّ جَهَنَّمَ لَمُحِيطَةٌ بِالْكَافِرِينَ ﴾ 49 ﴿
व मिन्हुम् मंय्यक़ूलुअ्ज़ल्ली व ला तफ़्तिन्नी, अला फ़िल्-फ़ित्-नति स-क़तू, व इन्-न जहन्न-म लमुही-ततुम् बिल्काफ़िरीन
उनमें से कोई ऐसा भी है, जो कहता है कि आप मुझे अनुमति दे दें और परीक्षा में न डालें। सुन लो! परीक्षा में तो ये पहले ही से पड़े हुए हैं और वास्तव में, नरक काफ़िरों को घेरी हुई है।
إِن تُصِبْكَ حَسَنَةٌ تَسُؤْهُمْ ۖ وَإِن تُصِبْكَ مُصِيبَةٌ يَقُولُوا قَدْ أَخَذْنَا أَمْرَنَا مِن قَبْلُ وَيَتَوَلَّوا وَّهُمْ فَرِحُونَ ﴾ 50 ﴿
इन् तुसिब्-क ह-स-नतुन् तसुअ्हुम्, व इन् तुसिब्-क मुसीबतुंय्यक़ूलू क़द् अख़ज़्ना अम्-रना मिन् क़ब्लु व य -तवल्लौ व हुम् फ़रिहून
(हे नबी!) यदि आपका कुछ भला होता है, तो उन (द्विधावादियों) को बुरा लगता है और यदि आपपर कोई आपदा आ पड़े, तो कहते हैं: हमने पहले ही अपनी सावधानी बरत ली थी और प्रसन्न होकर फिर जाते हैं।
قُل لَّن يُصِيبَنَا إِلَّا مَا كَتَبَ اللَّهُ لَنَا هُوَ مَوْلَانَا ۚ وَعَلَى اللَّهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُونَ ﴾ 51 ﴿
क़ुल् लंय्युसीबना इल्ला मा क-तबल्लाहु लना, हु-व मौलाना, व अ़लल्लाहि फ़ल्य-तवक्कलिल् मुअ्मिनून
आप कह दें: हमें कदापि कोई आपदा नहीं पहुँचेगी, परन्तु वही जो अल्लाह ने हमारे भाग्य में लिख दी है। वही हमारा सहायक है और अल्लाह ही पर ईमान वालों को निर्भर रहना चाहिए।
قُلْ هَلْ تَرَبَّصُونَ بِنَا إِلَّا إِحْدَى الْحُسْنَيَيْنِ ۖ وَنَحْنُ نَتَرَبَّصُ بِكُمْ أَن يُصِيبَكُمُ اللَّهُ بِعَذَابٍ مِّنْ عِندِهِ أَوْ بِأَيْدِينَا ۖ فَتَرَبَّصُوا إِنَّا مَعَكُم مُّتَرَبِّصُونَ ﴾ 52 ﴿
क़ुल हल् तरब्बसू-न बिना इल्ला इह़्दल हुस्-नयैनि, व नह़्नु न-तरब्बसु बिकुम् अंय्युसी-बकुमुल्लाहु बिअ़ज़ाबिम् मिन् अिन्दिही औ बिऐदीना, फ़-तरब्बसू इन्ना म-अ़कुम् मु-तरब्बिसून
आप उनसे कह दें कि तुम हमारे बारे में जिसकी प्रतीक्षा कर रहे हो, वह यही है कि हमें दो[1] भलाईयों में से एक मिल जाये और हम तुम्हारे बारे में इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि अल्लाह तुम्हें अपने पास से यातना देता है या हमारे हाथों से। तो तुम प्रतीक्षा करो। हम भी तुम्हारे साथ प्रतीक्षा कर रहे हैं। 1. दो भलाईयों से अभिप्राय विजय या अल्लाह की राह में शहीद होना है। (इब्ने कसीर)
قُلْ أَنفِقُوا طَوْعًا أَوْ كَرْهًا لَّن يُتَقَبَّلَ مِنكُمْ ۖ إِنَّكُمْ كُنتُمْ قَوْمًا فَاسِقِينَ ﴾ 53 ﴿
क़ुल अन्फ़िक़ू तौअन् औ कर्हल्-लंय्यु तक़ब्ब-ल मिन्कुम्, इन्नकुम् कुन्तुम् क़ौमन् फ़ासिक़ीन
आप (मुनाफ़िक़ों से) कह दें कि तुम स्वेच्छा दान करो अथवा अनिच्छा, तुमसे कदापि स्वीकार नहीं किया जायेगा। क्योंकि तुम अवज्ञाकारी हो।
وَمَا مَنَعَهُمْ أَن تُقْبَلَ مِنْهُمْ نَفَقَاتُهُمْ إِلَّا أَنَّهُمْ كَفَرُوا بِاللَّهِ وَبِرَسُولِهِ وَلَا يَأْتُونَ الصَّلَاةَ إِلَّا وَهُمْ كُسَالَىٰ وَلَا يُنفِقُونَ إِلَّا وَهُمْ كَارِهُونَ ﴾ 54 ﴿
व मा म-न अहुम् अन् तुक़्ब-ल मिन्हुम् न-फक़ातुहुम् इल्ला अन्नहुम् क-फरू बिल्लाहि व बि-रसूलिही वला यअ् तू नस्सला-त इल्ला व हुम् कुसाला व ला युन्फिक़ू-न इल्ला व हुम् कारिहूनव मा म-न अहुम् अन् तुक़्ब-ल मिन्हुम् न-फक़ातुहुम् इल्ला अन्नहुम् क-फरू बिल्लाहि व बि-रसूलिही वला यअ् तू नस्सला-त इल्ला व हुम् कुसाला व ला युन्फिक़ू-न इल्ला व हुम् कारिहून
और उनके दानों के स्वीकार न किये जाने का कारण, इसके सिवाय कुछ नहीं है कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया है और वे नमाज़ के लिए आलसी होकर आते हैं तथा दान भी करते हैं, तो अनिच्छा करते हैं।
فَلَا تُعْجِبْكَ أَمْوَالُهُمْ وَلَا أَوْلَادُهُمْ ۚ إِنَّمَا يُرِيدُ اللَّهُ لِيُعَذِّبَهُم بِهَا فِي الْحَيَاةِ الدُّنْيَا وَتَزْهَقَ أَنفُسُهُمْ وَهُمْ كَافِرُونَ ﴾ 55 ﴿
फ़ला तुअ्जिब्-क अम्वालुहुम् वला औलादुहुम्, इन्नमा युरीदुल्लाहु लियुअ़ज़्ज़ि-बहुम् बिहा फ़िल्हयातिद्दुन्या व तज़्ह-क़ अन्फुसुहुम् व हुम् काफ़िरून
अतः आपको उनके धन तथा उनकी संतान चकित न करे। अल्लाह तो ये चाहता है कि उन्हें इनके द्वारा सांसारिक जीवन में यातना दे और उनके प्राण इस दशा में निकलें कि वे काफ़िर हों।
وَيَحْلِفُونَ بِاللَّهِ إِنَّهُمْ لَمِنكُمْ وَمَا هُم مِّنكُمْ وَلَٰكِنَّهُمْ قَوْمٌ يَفْرَقُونَ ﴾ 56 ﴿
व यह़्लिफू-न बिल्लाहि इन्नहुम् लमिन्कुम्, व मा हुम् मिन्कुम् व लाकिन्नहुम् क़ौमुंय्यफ्रक़ून
वे (मुनाफ़िक़) अल्लाह की शपथ लेकर कहते हैं कि वे तुम में से हैं, जबकि वे तुममें से नहीं हैं, परन्तु भयभीत लोग हैं।
لَوْ يَجِدُونَ مَلْجَأً أَوْ مَغَارَاتٍ أَوْ مُدَّخَلًا لَّوَلَّوْا إِلَيْهِ وَهُمْ يَجْمَحُونَ ﴾ 57 ﴿
लौ यजिदू न मल्ज अन् औ मग़ारातिन् औ मुद्द-ख़लल -लवल्लौ इलैहि व हुम् यज्महून
यदि वे कोई शरणगार, गुफा या प्रवेश स्थान पा जायेँ, तो उसकी ओर भागते हुए फिर जायेंगे।
وَمِنْهُم مَّن يَلْمِزُكَ فِي الصَّدَقَاتِ فَإِنْ أُعْطُوا مِنْهَا رَضُوا وَإِن لَّمْ يُعْطَوْا مِنْهَا إِذَا هُمْ يَسْخَطُونَ ﴾ 58 ﴿
व मिन्हुम् मंय्यल्मिज़ु-क फ़िस्स दक़ाति, फ़-इन् उअ्तू मिन्हा रज़ू व इल्लम् युअ्तौ मिन्हा इज़ा हुम् यस्-ख़तून
(हे नबी!) उन (मुनाफ़िक़ों) में से कुछ ज़कात के वितरण में आपपर आक्षेप करते हैं। फिर यदि उन्हें उसमें से कुछ दे दिया जाये, तो प्रसन्न हो जाते हैं और यदि न दिया जाये, तो तुरन्त अप्रसन्न हो जाते हैं।
وَلَوْ أَنَّهُمْ رَضُوا مَا آتَاهُمُ اللَّهُ وَرَسُولُهُ وَقَالُوا حَسْبُنَا اللَّهُ سَيُؤْتِينَا اللَّهُ مِن فَضْلِهِ وَرَسُولُهُ إِنَّا إِلَى اللَّهِ رَاغِبُونَ ﴾ 59 ﴿
व लौ अन्नहुम् रज़ू मा आताहुमुल्लाहु व रसूलुहू, व क़ालू हस्बुनल्लाहु सयुअ्तीनल्लाहु मिन् फ़ज़्लिही व रसूलुहू, इन्ना इलल्लाहि राग़िबून *
और क्या ही अच्छा होता, यदि वे उससे प्रसन्न हो जाते, जो उन्हें अल्लाह और उसके रसूल ने दिया है तथा कहते कि हमारे लिए अल्लाह काफ़ी है। हमें अपने अनुग्रह से (बहुत कुछ) प्रदान करेगा तथा उसके रसूल भी, हम तो उसी की ओर रूचि रखते हैं।
إِنَّمَا الصَّدَقَاتُ لِلْفُقَرَاءِ وَالْمَسَاكِينِ وَالْعَامِلِينَ عَلَيْهَا وَالْمُؤَلَّفَةِ قُلُوبُهُمْ وَفِي الرِّقَابِ وَالْغَارِمِينَ وَفِي سَبِيلِ اللَّهِ وَابْنِ السَّبِيلِ ۖ فَرِيضَةً مِّنَ اللَّهِ ۗ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ﴾ 60 ﴿
इन्नमस्स दक़ातु लिल्फु-क़रा-इ वल्मसाकीनि वल्आ़मिली-न अलैहा वल्मुअल्ल-फ़ति क़ुलूबुहुम् व फ़िर्रिक़ाबि वल्ग़ारिमी-न व फ़ी सबीलिल्लाहि वब्-निस्सबीलि, फ़री-ज़तम् मिनल्लाहि, वल्लाहु अ़लीमुन् हकीम
ज़कात (देय, दान) केवल फ़क़ीरों[1], मिस्कीनों, कार्य-कर्ताओं[2] तथा उनके लिए जिनके दिलों को जोड़ा जा रहा है[3] और दास मुक्ति, ऋणियों (की सहायता), अल्लाह की राह में तथा यात्रियों के लिए है। अल्लाह की ओरसे अनिवार्य (देय) है[4] और अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वज्ञ है। 1. क़ुर्आन ने यहाँ फ़क़ीर और मिस्कीन के शब्दों का प्रयोग किया है। फ़क़ीर का अर्थ है जिस के पास कुछ न हो। परन्तु मिस्कीन वह है जिस के पास कुछ धन हो, मगर उस की आवश्यक्ता की पूर्ति न होती हो। 2. जो ज़कात के काम में लगे हों। 3. इस से अभिप्राय वह हैं जो नये नये इस्लाम लाये हों। तो उन के लिये भी ज़कात है। या जो इस्लाम में रूचि रखते हों, और इस्लाम के सहायक हों। 4.संसार में कोई धर्म ऐसा नहीं है जिस ने दीन दुःखियों की सहायता और सेवा की प्रेरणा न दी हो। और उसे इबादत (वंदना) का अनिवार्य अंश न कहा हो। परन्तु इस्लाम की यह विशेषता है कि उस ने प्रत्येक धनी मुसलमान पर एक विशेष कर निरिधारित कर दिया है जो उस पर अपनी पूरी आय का ह़िसाब कर के प्रत्येक वर्ष देना अनिवार्य है। फिर उसे इतना महत्व दिया है कि कर्मों में नमाज़ के पश्चात् उसी का स्थान है। और क़ुर्आन में दोनों कर्मों की चर्चा एक साथ करके यह स्पष्ट कर दिया गया है कि किसी समुदाय में इस्लामी जीवन के सब से पहले यही दो लक्षण हैं, नमाज़ तथा ज़कात। यदि इस्लाम में ज़कात के नियम का पालन किया जाये तो समाज में कोई ग़रीब नहीं रह जायेगा। और धनवानों तथा निर्धनों के बीच प्रेम की ऐसी भावना पैदा हो जायेगी कि पूरा समाज सुखी और शान्तिमय बन जायेगा। ब्याज का भी निवारण हो जायेगा। तथा धन कुछ हाथों में सीमित नहीं रह कर उस का लाभ पूरे समाज को मिलेगा। फिर इस्लाम ने इस का नियम निर्धारित किया है। जिस का पूरा विवरण ह़दीसों में मिलेगा और यह भी निश्चित कर दियया है कि ज़कात का धन किन को दिया जायेगा और इस आयत में उन्हीं की चर्चा की गई है, जो यह हैः1. फ़क़ीर 2. मिस्कीन, 3. ज़कात के कार्यकर्ता, 4. नये मुसलमान, 5. दास-दासी, 6. ऋणी, 7. धर्म के रक्षक, 8. और यात्री। अल्लाह की राह से अभिप्राय वह लोग हैं जो धर्म की रक्षा के लिये काम कर रहे हैं।
وَمِنْهُمُ الَّذِينَ يُؤْذُونَ النَّبِيَّ وَيَقُولُونَ هُوَ أُذُنٌ ۚ قُلْ أُذُنُ خَيْرٍ لَّكُمْ يُؤْمِنُ بِاللَّهِ وَيُؤْمِنُ لِلْمُؤْمِنِينَ وَرَحْمَةٌ لِّلَّذِينَ آمَنُوا مِنكُمْ ۚ وَالَّذِينَ يُؤْذُونَ رَسُولَ اللَّهِ لَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ ﴾ 61 ﴿
व मिन्हुमुल्लज़ी-न युअ्ज़ूनन्नबिय्-य व यक़ूलू-न हु-व उज़ुनुन् , क़ुल उज़ुनु ख़ैरिल्लकुम्, युअ्मिनु बिल्लाहि व युअ्मिनु लिल्मुअ्मिनी-न व रह़्मतुल् लिल्लज़ी-न आमनू मिन्कुम्, वल्लज़ी-न युअ्ज़ू-न रसूलल्लाहि लहुम् अज़ाबुन् अलीम
तथा उन (मुनाफ़िक़ों) में से कुछ नबी को दुःख देते हैं और कहते हैं कि वह बड़े सुनवा[1] हैं। आप कह दें कि वह तुम्हारी भलाई के लिए ऐसे हैं। वह अल्लाह पर ईमान रखते हैं और ईमान वालों की बात का विश्वास करते है और उनके लिए दया हैं, जो तुममें से ईमान लाये हैं और जो अल्लाह के रसूल को दुःख देते हैं, उनके लिए दुःखदायी यातना है। 1. अर्थात जो कहो मान लेते हैं।
يَحْلِفُونَ بِاللَّهِ لَكُمْ لِيُرْضُوكُمْ وَاللَّهُ وَرَسُولُهُ أَحَقُّ أَن يُرْضُوهُ إِن كَانُوا مُؤْمِنِينَ ﴾ 62 ﴿
यह़्लिफू-न बिल्लाहि लकुम् लियुरज़ूकुम्, वल्लाहु व रसूलुहू अहक़्क़ु अंय्युरज़ूहु इन् कानू मुअ्मिनीन
वे तुम्हारे समक्ष अल्लाह की शपथ लेते हैं, ताकि तुम्हें प्रसन्न कर लें। जबकि अल्लाह और उसके रसूल इसके अधिक योग्य हैं कि उन्हें प्रसन्न करें, यदि वे वास्तव में, ईमान वाले हैं।
أَلَمْ يَعْلَمُوا أَنَّهُ مَن يُحَادِدِ اللَّهَ وَرَسُولَهُ فَأَنَّ لَهُ نَارَ جَهَنَّمَ خَالِدًا فِيهَا ۚ ذَٰلِكَ الْخِزْيُ الْعَظِيمُ ﴾ 63 ﴿
अलम् यअ्लमू अन्नहू मंय्युहादिदिल्ला-ह व रसूलहू फ़-अन्-न लहू ना-र जहन्न-म ख़ालिदन् फ़ीहा, ज़ालिकल् ख़िज़्युल-अ़ज़ीम
क्या वे नहीं जानते कि जो अल्लाह और उसके रसूल का विरोध करता है, उसके लिए नरक की अग्नि है, जिसमें वे सदावासी होंगे और ये बहुत बड़ा अपमान है?
يَحْذَرُ الْمُنَافِقُونَ أَن تُنَزَّلَ عَلَيْهِمْ سُورَةٌ تُنَبِّئُهُم بِمَا فِي قُلُوبِهِمْ ۚ قُلِ اسْتَهْزِئُوا إِنَّ اللَّهَ مُخْرِجٌ مَّا تَحْذَرُونَ ﴾ 64 ﴿
यह़्ज़रूल मुनाफ़िक़ू-न अन् तुनज़्ज़-ल अलैहिम् सूरतुन् तुनब्बिउहुम् बिमा फ़ी क़ुलूबिहिम्, क़ुलिस्तह़्ज़िऊ, इन्नल्ला-ह मुख़रिजुम् मा तह़्ज़रून
मुनाफ़िक़ (द्विधावादी) इससे डरते हैं कि उन[1] पर कोई ऐसी सूरह न उतार दी जाये, जो उन्हें इनके दिलों की दशा बता दे। आप कह दें कि हँसी उड़ा लो। निश्चय अल्लाह उसे खोलकर रहेगा, जिससे तुम डर रहे हो। 1. ईमान वालों पर।
وَلَئِن سَأَلْتَهُمْ لَيَقُولُنَّ إِنَّمَا كُنَّا نَخُوضُ وَنَلْعَبُ ۚ قُلْ أَبِاللَّهِ وَآيَاتِهِ وَرَسُولِهِ كُنتُمْ تَسْتَهْزِئُونَ ﴾ 65 ﴿
व ल-इन् सअल्तहुम् ल-यक़ूलुन्-न इन्नमा कुन्ना नख़ूज़ु व नल् अबु, क़ुल अबिल्लाहि व आयातिही व रसूलिही कुन्तुम् तस्तह़्ज़िऊन
और यदि आप उनसे प्रश्न करें, तो वे अवश्य कह देंगे कि हमतो यूँ ही बातें तथा उपहास कर रहे थे। आप कह दें कि क्या अल्लाह, उसकी आयतों और उसके रसूल के ही साथ उपहास कर रहे थे? 1. तबूक की यात्रा के बीच मुनाफ़िक़ लोग, नबी तथा इस्लाम के विरुध्द बहुत सी दुःखदायी बातें कर रहे थे।
لَا تَعْتَذِرُوا قَدْ كَفَرْتُم بَعْدَ إِيمَانِكُمْ ۚ إِن نَّعْفُ عَن طَائِفَةٍ مِّنكُمْ نُعَذِّبْ طَائِفَةً بِأَنَّهُمْ كَانُوا مُجْرِمِينَ ﴾ 66 ﴿
ला तअ्तज़िरू क़द् कफ़र्तुम् बअ्-द ईमानिकुम्, इन्नअ्फु अन् ताइ-फ़तिम् मिन्कुम् नुअ़ज़्ज़िब् ताइ-फ़तम् बिअन्नहुम् कानू मुज्रिमीन *
तुम बहाने न बनाओ, तुमने अपने ईमान के पश्चात् कुफ़्र किया है। यदि हम तुम्हारे एक गिरोह को क्षमा कर दें, तो भी एक गिरोह को अवश्य यातना देंगे। क्योंकि वही अपराधी हैं।
الْمُنَافِقُونَ وَالْمُنَافِقَاتُ بَعْضُهُم مِّن بَعْضٍ ۚ يَأْمُرُونَ بِالْمُنكَرِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمَعْرُوفِ وَيَقْبِضُونَ أَيْدِيَهُمْ ۚ نَسُوا اللَّهَ فَنَسِيَهُمْ ۗ إِنَّ الْمُنَافِقِينَ هُمُ الْفَاسِقُونَ ﴾ 67 ﴿
अल्मुनाफ़िक़ू-न वल्मुनाफ़िक़ातु बअ्ज़ुहुम् मिम् -बअ्ज़िन् • यअ्मुरू-न बिल्मुन्करि व यन्हौ-न अनिल् -मअरूफि व यक़्बिज़ू न ऐदि-यहुम्, नसुल्ला-ह फ़-नसि-यहुम्, इन्नल-मुनाफ़िक़ी न हुमुल्-फ़ासिक़ून
मुनाफ़िक़ पुरुष तथा स्त्रियाँ, सब एक-दूसरे जैसे हैं। वे बुराई का आदेश देते तथा भलाई से रोकते हैं और अपने हाथ बंद किये रहते[1] हैं। वे अल्लाह को भूल गये, तो अल्लाह ने भी उन्हें भुला[2] दिया। वास्तव में, मुनाफ़िक़ ही भ्रषटाचारी हैं। 1. अर्थात दान नहीं करते। 2. अल्लाह के भुला देने का अर्थ है उन पर दया न करना।
وَعَدَ اللَّهُ الْمُنَافِقِينَ وَالْمُنَافِقَاتِ وَالْكُفَّارَ نَارَ جَهَنَّمَ خَالِدِينَ فِيهَا ۚ هِيَ حَسْبُهُمْ ۚ وَلَعَنَهُمُ اللَّهُ ۖ وَلَهُمْ عَذَابٌ مُّقِيمٌ ﴾ 68 ﴿
व-अदल्लाहुल् मुनाफ़िक़ी-न वल्मुनाफ़िक़ाति वल्कुफ्फ़ा-र ना-र जहन्न-म ख़ालिदी-न फ़ीहा, हि-य हस्बुहुम्, व ल-अ-नहुमुल्लाहु, व लहुम् अज़ाबुम् मुक़ीम
अल्लाह ने मुनाफ़िक़ पुरुषों तथा स्त्रियों और काफ़िरों को नरक की अग्नि का वचन दिया है, जिसमें सदावासी होंगे। वही उन्हें प्रयाप्त है और अल्लाह ने उन्हें धिक्कार दिया है और उन्हीं के लिए स्थायी यातना है।
كَالَّذِينَ مِن قَبْلِكُمْ كَانُوا أَشَدَّ مِنكُمْ قُوَّةً وَأَكْثَرَ أَمْوَالًا وَأَوْلَادًا فَاسْتَمْتَعُوا بِخَلَاقِهِمْ فَاسْتَمْتَعْتُم بِخَلَاقِكُمْ كَمَا اسْتَمْتَعَ الَّذِينَ مِن قَبْلِكُم بِخَلَاقِهِمْ وَخُضْتُمْ كَالَّذِي خَاضُوا ۚ أُولَٰئِكَ حَبِطَتْ أَعْمَالُهُمْ فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ ۖ وَأُولَٰئِكَ هُمُ الْخَاسِرُونَ ﴾ 69 ﴿
कल्लज़ी-न मिन् क़ब्लिकुम् कानू अशद्-द मिन्कुम् कुव्वतंव्-व अक्स-र अम्वालंव्-व औलादन, फ़स् तम् तअू बि-ख़लाक़िहिम् फ़स् तम् तअ्तुम् बि- ख़लाक़िकुम कमस् तम्त अल्लज़ी-न मिन् क़ब्लिकुम् बि-ख़लाक़िहिम् व ख़ुज़्तुम् कल्लज़ी ख़ाज़ू, उलाइ-क हबितत् अअ्मालुहुम् फ़िद्दुन्या वल्आख़िरति व उलाइ-क हुमुल-ख़ासिरून
इनकी दशा वही हुई, जो इनसे पहले के लोगों की हुई। वे बल में इनसे कड़े और धन तथा संतान में इनसे अधिक थे। तो उन्होंने अपने (सांसारिक) भाग का आनंद लिया, अतः तुमभी अपने भाग का आनंद लो, जैसे तुमसे पूर्व के लोगों ने आनंद लिया और तुमभी उलझते हो, जैसे वे उलझते रहे, उन्हीं के कर्म लोक तथा परलोक में व्यर्थ गये और वही क्षति में हैं।
أَلَمْ يَأْتِهِمْ نَبَأُ الَّذِينَ مِن قَبْلِهِمْ قَوْمِ نُوحٍ وَعَادٍ وَثَمُودَ وَقَوْمِ إِبْرَاهِيمَ وَأَصْحَابِ مَدْيَنَ وَالْمُؤْتَفِكَاتِ ۚ أَتَتْهُمْ رُسُلُهُم بِالْبَيِّنَاتِ ۖ فَمَا كَانَ اللَّهُ لِيَظْلِمَهُمْ وَلَٰكِن كَانُوا أَنفُسَهُمْ يَظْلِمُونَ ﴾ 70 ﴿
अलम् यअ्तिहिम् न-बउल्लज़ी-न मिन् क़ब्लिहिम् क़ौमि नूहिंव्-व आदिंव्व समू-द, व क़ौमि इब्राही-म व अस्हाबि मद य-न वल्मुअ्तफ़िकाति, अतत्हुम् रूसुलुहुम् बिल्बय्यिनाति, फ़मा कानल्लाहु लि-यज़्लि-महुम् व लाकिन् कानू अन्फु-सहुम् यज़्लिमून
क्या इन्हें उनके समाचार नहीं पहुँचे, जो इनसे पहले थे; नूह़, आद, समूद तथा इब्राहीम की जाति के और मद्यन[1] के वासियों और उन बस्तियों के, जो पलट दी[2] गईं? उनके पास उनके रसूल खुली निशानियाँ लाये और ऐसा नहीं हो सकता था कि अल्लाह उनपर अत्याचार करता, परन्तु वे स्वयं अपने ऊपर अत्याचार[3] कर रहे थे। 1. मद्यन के वासी शोऐब अलैहिस्सलाम की जाति थे। 2. इस से अभिप्राय लूत अलैहिस्सलाम की जाति है। (इब्ने कसीर) 3. अपने रसूलों को अस्वीकार कर के।
وَالْمُؤْمِنُونَ وَالْمُؤْمِنَاتُ بَعْضُهُمْ أَوْلِيَاءُ بَعْضٍ ۚ يَأْمُرُونَ بِالْمَعْرُوفِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنكَرِ وَيُقِيمُونَ الصَّلَاةَ وَيُؤْتُونَ الزَّكَاةَ وَيُطِيعُونَ اللَّهَ وَرَسُولَهُ ۚ أُولَٰئِكَ سَيَرْحَمُهُمُ اللَّهُ ۗ إِنَّ اللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ﴾ 71 ﴿
वल्मुअ्मिनू-न वल्मुअ्मिनातु बअ्ज़ुहुम् औलिया-उ बअ्ज़िन्, यअ्मुरू-न बिल मअ्-रूफ़ि व यन्हौ-न अनिल्मुन्करि व युक़ीमूनस्सला-त व युअ्तूनज़्ज़का-त व युतीअूनल्ला-ह व रसूलहू, उलाइ-क स-यर् हमुहुमुल्लाहु, इन्नल्ला-ह अ़ज़ीज़ुन हकीम
तथा ईमान वाले पुरुष और स्त्रियाँ एक-दूसरे के सहायक हैं। वे भलाई का आदेश देते तथा बुराई से रोकते हैं, नामज़ की स्थापना करते तथा ज़कात देते हैं और अल्लाह तथा उसके रसूल की आज्ञा का पालन करते हैं। इन्हीं पर अल्लाह दया करेगा, वास्तव में, अल्लाह प्रभुत्वशाली, त्तवज्ञ है।
وَعَدَ اللَّهُ الْمُؤْمِنِينَ وَالْمُؤْمِنَاتِ جَنَّاتٍ تَجْرِي مِن تَحْتِهَا الْأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا وَمَسَاكِنَ طَيِّبَةً فِي جَنَّاتِ عَدْنٍ ۚ وَرِضْوَانٌ مِّنَ اللَّهِ أَكْبَرُ ۚ ذَٰلِكَ هُوَ الْفَوْزُ الْعَظِيمُ ﴾ 72 ﴿
व-अ़ दल्लाहुल् मुअ्मिनी-न वल्मुअ्मिनाति जन्नातिन् तज्री मिन् तह़्तिहल्-अन्हारू ख़ालिदी-न फ़ीहा व मसाकि-न तय्यि-बतन् फी जन्नाति अदनिन्, व रिज़्वानुम् मिनल्लाहि अक्बरू, ज़ालि-क हुवल् फौज़ुल् -अ़ज़ीम *
अल्लाह ने ईमान वाले पुरुषों तथा ईमान वाली स्त्रियों को ऐसे स्वर्गों का वचन दिया है, जिनमें नहरें प्रवाहित होंगी, वे उनमें सदावासी होंगे और स्थायी स्वर्गों में, पवित्र आवासों का। और अल्लाह की प्रसन्नता इनसबसे बड़ा प्रदान होगी, यही बहुत बड़ी सफलता है।
يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ جَاهِدِ الْكُفَّارَ وَالْمُنَافِقِينَ وَاغْلُظْ عَلَيْهِمْ ۚ وَمَأْوَاهُمْ جَهَنَّمُ ۖ وَبِئْسَ الْمَصِيرُ ﴾ 73 ﴿
या अय्युहन्नबिय्यू ज़ाहिदिल्-कुफ़्फ़ा-र वल्मुनाफ़िक़ी- न वग़्लुज़् अलैहिम्, व मअ्वाहुम् जहन्नमु, व बिअ्सल मसीर
हे नबी! काफ़िरों और मुनाफ़िक़ों से जिहाद करो और उनपर सख़्ती करो, उनका आवास नरक है और वह बहुत बुरा स्थान है।
يَحْلِفُونَ بِاللَّهِ مَا قَالُوا وَلَقَدْ قَالُوا كَلِمَةَ الْكُفْرِ وَكَفَرُوا بَعْدَ إِسْلَامِهِمْ وَهَمُّوا بِمَا لَمْ يَنَالُوا ۚ وَمَا نَقَمُوا إِلَّا أَنْ أَغْنَاهُمُ اللَّهُ وَرَسُولُهُ مِن فَضْلِهِ ۚ فَإِن يَتُوبُوا يَكُ خَيْرًا لَّهُمْ ۖ وَإِن يَتَوَلَّوْا يُعَذِّبْهُمُ اللَّهُ عَذَابًا أَلِيمًا فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ ۚ وَمَا لَهُمْ فِي الْأَرْضِ مِن وَلِيٍّ وَلَا نَصِيرٍ ﴾ 74 ﴿
यह़्लिफू-न बिल्लाहि मा क़ालू, व ल-क़द् क़ालू कलि-मतल्कुफ्रि व क-फरू बअ्-द इस्लामिहिम् व हम्मू बिमा लम् यनालू, व मा न-क़मू इल्ला अन् अग़्नाहुमुल्लाहु व रसूलुहू मिन् फ़ज्लिही, फ़-इंय्यतूबू यकु खैरल्लहुम्, व इंय्य-तवल्लौ युअ़ज़्ज़िबहुमुल्लाहु अ़ज़ाबन अलीमन्, फिद्दुन्या वल्आख़िरति, व मा लहुम् फिल्अर्ज़ि मिंव्वलिय्यिंव्वला नसीर
वे अल्लाह की शपथ लेते हैं कि उन्होंने ये[1] बात नहीं कही। जबकि वास्तव में, उन्होंने कुफ़्र की बात कही[2] है और इस्लाम ले आने के पश्चात् काफ़िर हो गये हैं और उन्होंने ऐसी बात का निश्चय किया था, जो वे कर नहीं सके और उन्हें यही बात बुरी लगी कि अल्लाह और उसके रसूल ने उन्हें अपने अनुग्रह से धनी[3] कर दिया। अब यदि वे क्षमा याचना कर लें, तो उनके लिए उत्तम है और यदि विमुःख हों, तो अल्लाह उन्हें दुःखदायी यातना लोक तथा प्रलोक में देगा और उनका धरती में कोई संरक्षक और सहायक न होगा। 1. अर्थात ऐसी बात जो रसूल और मुसलमानों को बुरी लगे। 2. यह उन बातों की ओर संकेत हैं जो द्विधावादियों ने तबूक की मुहिम के समय की थीं। (उन की ऐसी बातों के विवरण के लिये देखियेः सूरह मुनाफ़िक़ून, आयतः 7-8) 3. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मदीना आने से पहले मदीने का कोई महत्व न था। आर्थिक दशा भी अच्छी नहीं थी। जो कुछ था यहूदियों के अधिकार में था। वह ब्याज भक्षी थे, शराब का व्यापार करते थे, और अस्त्र-शस्त्र बनाते थे। आप के आगमन के पश्चात आर्थिक दशा सुधर गई, और व्यवसायिक उन्नति हुई।
وَمِنْهُم مَّنْ عَاهَدَ اللَّهَ لَئِنْ آتَانَا مِن فَضْلِهِ لَنَصَّدَّقَنَّ وَلَنَكُونَنَّ مِنَ الصَّالِحِينَ ﴾ 75 ﴿
व मिन्हुम् मन् आ-हदल्ला-ह ल-इन् आताना मिन् फ़ज़्लिही लनस्सद्-द-क़न्-न व ल-नकूनन्-न मिनस्सालिहीन
उनमें से कुछ ने अल्लाह को वचन दिया था कि यदि वे अपनी दया से हमें (धन-धान्य) प्रदान करेगा, तो हम अवश्य दान करेंगे और सुकर्मियों में हो जायेंगे।
فَلَمَّا آتَاهُم مِّن فَضْلِهِ بَخِلُوا بِهِ وَتَوَلَّوا وَّهُم مُّعْرِضُونَ ﴾ 76 ﴿
फ़-लम्मा आताहुम् मिन् फ़ज़्लिही बख़िलू बिही व त- वल्लौ व हुम् मुअ्-रिज़ून
फिर जब अल्लाह ने अपनी दया से उन्हें प्रदान कर दिया, तो उससे कंजूसी कर गये और वचन से विमुख होकर फिर गये।
فَأَعْقَبَهُمْ نِفَاقًا فِي قُلُوبِهِمْ إِلَىٰ يَوْمِ يَلْقَوْنَهُ بِمَا أَخْلَفُوا اللَّهَ مَا وَعَدُوهُ وَبِمَا كَانُوا يَكْذِبُونَ ﴾ 77 ﴿
फ़-अअ्क़-बहुम् निफ़ाक़न् फ़ी क़ुलूबिहिम् इला यौमि यल्क़ौनहू बिमा अख़्लफुल्ला-ह मा व अ़दूहु व बिमा कानू यक्ज़िबून
तो इसका परिणाम ये हुआ कि उनके दिलों में द्विधा का रोग, उस दिन तक के लिए हो गया, जब ये अल्लाह से मिलेंगे। क्योंकि उन्होंने उस वचन को भंग कर दिया, जो अल्लाह से किया था और इसलिए कि वे झूठ बोलते रहे।
أَلَمْ يَعْلَمُوا أَنَّ اللَّهَ يَعْلَمُ سِرَّهُمْ وَنَجْوَاهُمْ وَأَنَّ اللَّهَ عَلَّامُ الْغُيُوبِ ﴾ 78 ﴿
अलम् यअ्लमू अन्नल्ला-ह यअ्लमु सिर्रहुम् व नज्वाहुम् व अन्नल्ला-ह अ़ल्लामुल ग़ुयूब
क्या उन्हें इसका ज्ञान नहीं हुआ कि अल्लाह उनके भेद की बातें तथा सुनगुन को भी जानता है और वह सभी भेदों का अति ज्ञानी है?
الَّذِينَ يَلْمِزُونَ الْمُطَّوِّعِينَ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ فِي الصَّدَقَاتِ وَالَّذِينَ لَا يَجِدُونَ إِلَّا جُهْدَهُمْ فَيَسْخَرُونَ مِنْهُمْ ۙ سَخِرَ اللَّهُ مِنْهُمْ وَلَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ ﴾ 79 ﴿
अल्लज़ी-न यल्मिज़ूनल मुत्तव्विई-न मिनल् मुअ्मिनी -न फ़िस्स दक़ाति वल्लज़ी-न ला यजिदू-न इल्ला जुह़्दहुम् फ़-यस्ख़रू-न मिन्हुम्, सख़िरल्लाहु मिन्हुम् व लहुम् अज़ाबुन् अलीम
जिनकी दशा ये है कि वे ईमान वालों में से स्वेच्छा दान करने वालों पर, दानों के विषय में आक्षेप करते हैं तथा उन्हें जो अपने परिश्रम ही से कुछ पाते (और दान करते हैं), ये (मुनाफ़िक़) उनसे उपहास करते हैं, अल्लाह उनसे उपहास करता[1] है और उन्हीं के लिए दुःखदायी यातना है। 1. अर्थात उन के उपहास का कुफल दे रहा है। अबू मस्ऊद रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि जब हमें दान देने का आदेश दिया गया तो हम कमाने के लिये बोझ लादने लगे, ताकि हम दान कर सकें। और अबू अक़ील (रज़ियल्लाहु अन्हु) आधा साअ (सवा किलो) लाये। और एक व्यक्ति उन से अधिक ले कर आया। तो मुनाफ़िक़ों ने कहाः अल्लाह को उस के थोड़े से दान की ज़रूरत नहीं। और यह दिखाने के लिये (अधिक) लाया है। इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारीः4668)
اسْتَغْفِرْ لَهُمْ أَوْ لَا تَسْتَغْفِرْ لَهُمْ إِن تَسْتَغْفِرْ لَهُمْ سَبْعِينَ مَرَّةً فَلَن يَغْفِرَ اللَّهُ لَهُمْ ۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمْ كَفَرُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ ۗ وَاللَّهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْفَاسِقِينَ ﴾ 80 ﴿
इस्तग़्फिर् लहुम् औ ला तस्तग़्फिर लहुम्, इन् तस्तग़्फिर् लहुम् सब्ई-न मर्रतन् फ़-लंय्यग्फ़िरल्लाहु लहुम, ज़ालि-क बिअन्नहुम क-फरू बिल्लाहि व रसूलिही, वल्लाहु ला यह़्दिल् क़ौमल-फ़ासिक़ीन *
(हे नबी!) आप उनके लिए क्षमा याचना करें अथवा न करें, यदि आप उनके लिए सत्तर बार भी क्षमा याचना करें, तो भी अल्लाह उन्हें क्षमा नहीं करेगा, इस कारण कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया और अल्लाह अवज्ञाकीरियों को मार्गदर्शन नहीं देता।
فَرِحَ الْمُخَلَّفُونَ بِمَقْعَدِهِمْ خِلَافَ رَسُولِ اللَّهِ وَكَرِهُوا أَن يُجَاهِدُوا بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنفُسِهِمْ فِي سَبِيلِ اللَّهِ وَقَالُوا لَا تَنفِرُوا فِي الْحَرِّ ۗ قُلْ نَارُ جَهَنَّمَ أَشَدُّ حَرًّا ۚ لَّوْ كَانُوا يَفْقَهُونَ ﴾ 81 ﴿
फ़रिहल मुख़ल्लफू न बिमक़् अदिहिम् ख़िला-फ़ रसूलिल्लाहि व करिहू अंय्युज़ाहिदू बिअम्वालिहिम् व अन्फुसिहिम् फ़ी सबीलिल्लाहि व क़ालू ला तन्फिरू फ़िल्हर्रि, क़ुल नारू जहन्न-म अशद्दु हर्रन्, लौ कानू यफ्क़हून
वे प्रसन्न[1] हुए, जो पीछे कर दिये गये, अपने बैठे रहने के कारण अल्लाह के रसूल के पीछे और उन्हें बुरा लगा कि जिहाद करें अपने धनों तथा प्राणों से अल्लाह की राह में और उन्होंने कहा कि गर्मी में न निकलो। आप कह दें कि नरक की अग्नि गर्मी में इससे भीषण है, यदि वे समझते (तो ऐसी बात न करते)। 1. अर्थात मुनाफ़िक़ जो मदीना में रह गये और तबूक की यात्रा में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ नहीं गये।
فَلْيَضْحَكُوا قَلِيلًا وَلْيَبْكُوا كَثِيرًا جَزَاءً بِمَا كَانُوا يَكْسِبُونَ ﴾ 82 ﴿
फ़ल्यज़्हकू क़लीलंव् वल्यब्कू कसीरन, जज़ाअम् – बिमा कानू यक्सिबून
तो उन्हें चाहिए कि हँसें कम और रोयें अधिक। जो कुछ वे कर रहे हैं, उसका बदला यही है।
فَإِن رَّجَعَكَ اللَّهُ إِلَىٰ طَائِفَةٍ مِّنْهُمْ فَاسْتَأْذَنُوكَ لِلْخُرُوجِ فَقُل لَّن تَخْرُجُوا مَعِيَ أَبَدًا وَلَن تُقَاتِلُوا مَعِيَ عَدُوًّا ۖ إِنَّكُمْ رَضِيتُم بِالْقُعُودِ أَوَّلَ مَرَّةٍ فَاقْعُدُوا مَعَ الْخَالِفِينَ ﴾ 83 ﴿
फ़-इर्र-ज-अ़कल्लाहु इला ताइ-फ़तिम् मिन्हुम् फ़स्तअ्ज़नू-क लिल्ख़ुरूजि फक़ुल्-लन् तख़्रुजू मअि- य अ-बदंव्-व लन् तुक़ातिलू मअि-य अदुव्वन, इन्नकुम् रज़ीतुम बिल्क़ुअूदि अव्व-ल मर्रतिन् फक़्अुदू मअ़ल् ख़ालिफ़ीन
तो (हे नबी!) यदि आपको अल्लाह इन (द्विधावादियों) के किसी गिरोह के पास (तबूक से) वापस लाये और वे आपसे (किसी दूसरे युध्द में) निकलने की अनुमति माँगें, तो आप कह दें कि तुम मेरे साथ कभी न निकलोगे और न मेरे साथ किसी शत्रु से युध्द कर सकोगे। तुम प्रथम बार बैठे रहने पर प्रसन्न थे, तो अबभी पीछे रहने वालों के साथ बैठे रहो।
وَلَا تُصَلِّ عَلَىٰ أَحَدٍ مِّنْهُم مَّاتَ أَبَدًا وَلَا تَقُمْ عَلَىٰ قَبْرِهِ ۖ إِنَّهُمْ كَفَرُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ وَمَاتُوا وَهُمْ فَاسِقُونَ ﴾ 84 ﴿
व ला तुसल्लि अ़ला अ-हदिम् मिन्हुम् मा-त अ-बदंव् – व ला तक़ुम् अला क़ब्रिही, इन्नहुम् क-फरू बिल्लाहि व रसूलिही व मातू व हुम् फ़ासिक़ून
(हे नबी!) आप उनमें से कोई मर जाये, तो उसके जनाज़े की नमाज़ कभी न पढ़ें और न उसकी समाधि (क़ब्र) पर खड़े हों। क्योंकि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया है और अवज्ञाकारी रहते हुए मरे[1] हैं। 1. सह़ीह़ ह़दीस में है कि जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मुनाफ़िक़ों के मुख्या अब्दुल्लाह बिन उबय्य का जनाज़ा पढ़ा तो यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारीः4672)
وَلَا تُعْجِبْكَ أَمْوَالُهُمْ وَأَوْلَادُهُمْ ۚ إِنَّمَا يُرِيدُ اللَّهُ أَن يُعَذِّبَهُم بِهَا فِي الدُّنْيَا وَتَزْهَقَ أَنفُسُهُمْ وَهُمْ كَافِرُونَ ﴾ 85 ﴿
व ला तुअ्जिब्-क अम्वालुहुम् व औलादुहुम्, इन्नमा युरीदुल्लाहु अंय्युअ़ज़्ज़ि-बहुम् बिहा फ़िद्दुन्या व तज़्ह- क़ अन्फुसुहुम् व हुम् काफिरून
आपको उनके धन तथा उनकी संतान चकित न करे, अल्लाह तो चाहता है कि इनके द्वारा उन्हें संसार में यातना दे और उनके प्राण इस दशा में निकलें कि वे काफ़िर हों।
وَإِذَا أُنزِلَتْ سُورَةٌ أَنْ آمِنُوا بِاللَّهِ وَجَاهِدُوا مَعَ رَسُولِهِ اسْتَأْذَنَكَ أُولُو الطَّوْلِ مِنْهُمْ وَقَالُوا ذَرْنَا نَكُن مَّعَ الْقَاعِدِينَ ﴾ 86 ﴿
व इज़ा उन्ज़िलत् सूरतुन् अन् आमिनू बिल्लाहि व जाहिदू म-अ रसूलिहिस्तअ्ज़-न-क उलुत्तौलि मिन्हुम् व क़ालू ज़र्ना नकुम् मअल् क़ाअिदीन
तथा जब कोई सूरह उतारी गयी कि अल्लाह पर ईमान लाओ तथा उसके रसूल के साथ जिहाद करो, तो आपसे उन (मुनाफ़िक़ों) में से समाई वालों ने अनुमति ली और कहा कि आप हमें छोड़ दें। हम बैठने वालों के साथ रहेंगे।
رَضُوا بِأَن يَكُونُوا مَعَ الْخَوَالِفِ وَطُبِعَ عَلَىٰ قُلُوبِهِمْ فَهُمْ لَا يَفْقَهُونَ ﴾ 87 ﴿
रज़ू बिअंय्यकूनू मअल् ख़्वालिफ़ि व तुबि-अ़ अला क़ुलूबिहिम् फ़हुम् ला यफ़्क़हून
तथा प्रसन्न हो गये कि स्त्रियों के साथ रहें और उनके दिलों पर मुहर लगा दी गई। अतः वे नहीं समझते।
لَٰكِنِ الرَّسُولُ وَالَّذِينَ آمَنُوا مَعَهُ جَاهَدُوا بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنفُسِهِمْ ۚ وَأُولَٰئِكَ لَهُمُ الْخَيْرَاتُ ۖ وَأُولَٰئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ ﴾ 88 ﴿
लाकिनिर्रसूलु वल्लज़ी-न आमनू म-अहू जाहदू बिअम्वालिहिम् व अन्फुसिहिम्, व उलाइ-क लहुमुल् – ख़ैरातु व उलाइ-क हुमुल मुफ्लिहून
परन्तु रसूल ने और जो आपके साथ ईमान लाये, अपने धनों और प्राणों से जिहाद किया और उन्हीं के लिए भलाईयाँ हैं और वही सफल होने वाले हैं।
أَعَدَّ اللَّهُ لَهُمْ جَنَّاتٍ تَجْرِي مِن تَحْتِهَا الْأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا ۚ ذَٰلِكَ الْفَوْزُ الْعَظِيمُ ﴾ 89 ﴿
अ-अद्दल्लाहु लहुम् जन्नातिन् तज्री मिन् तह़्तिहल् अन्हारू ख़ालिदी-न फ़ीहा, ज़ालिकल् फौज़ुल अज़ीम*
अल्लाह ने उनके लिए ऐसे स्वर्ग तैयार कर दिये हैं, जिनमें नहरें प्रवाहित हैं। वे उनमें सदावासी होंगे और यही बड़ी सफता है।
وَجَاءَ الْمُعَذِّرُونَ مِنَ الْأَعْرَابِ لِيُؤْذَنَ لَهُمْ وَقَعَدَ الَّذِينَ كَذَبُوا اللَّهَ وَرَسُولَهُ ۚ سَيُصِيبُ الَّذِينَ كَفَرُوا مِنْهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ ﴾ 90 ﴿
व जाअल् मुअ़ज़्ज़िरू-न मिनल् अअ्-राबि लियुअ् ज़-न लहुम् व क़-अदल्लज़ी-न क-ज़बुल्ला-ह व रसूलहू, सयुसीबुल्लज़ी-न क-फ़रू मिन्हुम् अ़ज़ाबुन अलीम
और देहातियों में से कुछ बहाना करने वाले आये, ताकि आप उन्हें अनुमति दें तथा वह बैठे रह गये, जिन्होंने अल्लाह और उसके रसूल से झूठ बोला। तो इनमें से काफ़िरों को दुःखदायी यातना पहुँचेगी।
لَّيْسَ عَلَى الضُّعَفَاءِ وَلَا عَلَى الْمَرْضَىٰ وَلَا عَلَى الَّذِينَ لَا يَجِدُونَ مَا يُنفِقُونَ حَرَجٌ إِذَا نَصَحُوا لِلَّهِ وَرَسُولِهِ ۚ مَا عَلَى الْمُحْسِنِينَ مِن سَبِيلٍ ۚ وَاللَّهُ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 91 ﴿
लै-स अ़लज़्जु-अफ़ा इ वला अलल् मरज़ा वला अलल्लज़ी-न ला यजिदू-न मा युन्फ़िक़ू-न ह-रजुन् इज़ा न-सहू लिल्लाहि व रसूलिही, मा अलल् मुह्सिनी-न मिन् सबीलिन्, वल्लाहु ग़फूरुर्रहीम
निर्बलों तथा रोगियों और उनपर, जो इतना नहीं पाते कि (तैयारी के लिए) व्यय कर सकें, कोई दोष नहीं, जब अल्लाह और उसके रसूल के भक्त हों, तो उनपर (दोषारोपण) की कोई राह नहीं।
وَلَا عَلَى الَّذِينَ إِذَا مَا أَتَوْكَ لِتَحْمِلَهُمْ قُلْتَ لَا أَجِدُ مَا أَحْمِلُكُمْ عَلَيْهِ تَوَلَّوا وَّأَعْيُنُهُمْ تَفِيضُ مِنَ الدَّمْعِ حَزَنًا أَلَّا يَجِدُوا مَا يُنفِقُونَ ﴾ 92 ﴿
वला अ़लल्लज़ी-न इज़ा मा अतौ-क लितह़्मि-लहुम् क़ुल्-त ला अजिदु मा अह़्मिलुकुम् अ़लैहि, तवल्लौ व अअ्युनुहुम् तफ़ीज़ु मिनद्-दम्अिह-ज़नन् अल्ला यजिदू मा युन्फ़िक़ून
और उनपर, जो आपके पास जब आयें कि आप उनके लिए सवारी की व्यवस्था कर दें और आप कहें कि मेरे पास इतना नहीं कि तुम्हारे लिए सवारी की व्यवस्था करूँ, तो वे इस दशा में वापस हुए कि शोक के कारण, उनकी आँखें आँसू बहा रही[1] थीं। 1. यह विभिन्न क़बीलों के लोग थे, जो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सेवा में उपस्थित हुये कि आप हमारे लिये सवारी का प्रबंध कर दें। हम भी आप के साथ तबूक के जिहाद में जायेंगे। परन्तु आप सवारी का कोई प्रबंध न कर सके और वह रोते हुये वापिस हो गये। (इब्ने कसीर)
إِنَّمَا السَّبِيلُ عَلَى الَّذِينَ يَسْتَأْذِنُونَكَ وَهُمْ أَغْنِيَاءُ ۚ رَضُوا بِأَن يَكُونُوا مَعَ الْخَوَالِفِ وَطَبَعَ اللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمْ فَهُمْ لَا يَعْلَمُونَ ﴾ 93 ﴿
इन्नमस्सबीलु अलल्लज़ी-न यस्तअ्ज़िनून-क व हुम् अग़्निया-उ, रज़ू बिअंय्यकूनू मअ़ल् ख़्वालिफ़ि, व त-बअ़ल्लाहु अला क़ुलूबिहिम् फ़हुम् ला यअ्लमून
दोष केवल उनपर है, जो आपसे अनुमति माँगते हैं, जबकि वे धनी हैं और वे इससे प्रसन्न हो गये कि स्त्रियों के साथ रह जायेंगे और अल्लाह ने उनके दिलों पर मुहर लगा दी, इसलिए, वे कुछ नहीं जानते।
يَعْتَذِرُونَ إِلَيْكُمْ إِذَا رَجَعْتُمْ إِلَيْهِمْ ۚ قُل لَّا تَعْتَذِرُوا لَن نُّؤْمِنَ لَكُمْ قَدْ نَبَّأَنَا اللَّهُ مِنْ أَخْبَارِكُمْ ۚ وَسَيَرَى اللَّهُ عَمَلَكُمْ وَرَسُولُهُ ثُمَّ تُرَدُّونَ إِلَىٰ عَالِمِ الْغَيْبِ وَالشَّهَادَةِ فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمْ تَعْمَلُونَ ﴾ 94 ﴿
यअ्तज़िरू-न इलैकुम् इज़ा र-जअ्तुम् इलैहिम्, क़ुल-ला तअ्तज़िरू लन्नुअ्मि-न लकुम् क़द् नब्ब अनल्लाहु मिन् अख्बारिकुम्, व स-यरल्लाहु अ-म-लकुम् व रसूलुहू सुम्म तुरद्दू-न इला आलिमिल्ग़ैबि वश्शहादति फ़्युनब्बिउकुम् बिमा कुन्तुम् तअ्मलून
वे तुमसे बहाने बनायेंगे, जब तुम उनके पास (तबूक से) वापस आओगे। आप कह दें कि बहाने न बनाओ, हम तुम्हारा विश्वास नहीं करेंगे। अल्लाह ने हमें तुम्हारी दशा बता दी है तथा भविष्य में भी अल्लाह और उसके रसूल तुम्हारा कर्म देखेंगे। फिर तुम परोक्ष और प्रत्यक्ष के ज्ञानी (अल्लाह) की ओर फेरे जाओगे। फिर वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या कर रहे थे।
سَيَحْلِفُونَ بِاللَّهِ لَكُمْ إِذَا انقَلَبْتُمْ إِلَيْهِمْ لِتُعْرِضُوا عَنْهُمْ ۖ فَأَعْرِضُوا عَنْهُمْ ۖ إِنَّهُمْ رِجْسٌ ۖ وَمَأْوَاهُمْ جَهَنَّمُ جَزَاءً بِمَا كَانُوا يَكْسِبُونَ ﴾ 95 ﴿
स-यह़्लिफू-न बिल्लाहि लकुम् इज़न्क़लब्तुम् इलैहिम् लितुअ्-रिज़ू अन्हुम्, फ़-अअ्-रिज़ू अन्हुम्, इन्नहुम् रिज्युंव-व मअ्वाहुम् जहन्नमु, जज़ाअम् बिमा कानू यक्सिबून
वे तुमसे अल्लाह की शपथ लेंगे, जब तुम उनकी ओर वापस आओगे, ताकि तुम उनसे विमुख हो जाओ। तो तुम उनसे विमुख हो जाओ। वास्तव में, वे मलीन हैं और उनका आवास नरक है, उसके बदले, जो वे करते रहे।
يَحْلِفُونَ لَكُمْ لِتَرْضَوْا عَنْهُمْ ۖ فَإِن تَرْضَوْا عَنْهُمْ فَإِنَّ اللَّهَ لَا يَرْضَىٰ عَنِ الْقَوْمِ الْفَاسِقِينَ ﴾ 96 ﴿
यह़्लिफू-न लकुम् लितरज़ौ अन्हुम्, फ़-इन् तरज़ौ अ़न्हुम् फ़-इन्नल्ला-ह ला यरज़ा अनिल् क़ौमिल्-फ़ासिक़ीन
वे तुम्हारे लिए शपथ लेंगे, ताकि तुम उनसे प्रसन्न हो जाओ, तो यदि तुम उनसे प्रसन्न हो गये, तबभी अल्लाह उल्लंघनकारी लोगों से प्रसन्न नहीं होगा।
الْأَعْرَابُ أَشَدُّ كُفْرًا وَنِفَاقًا وَأَجْدَرُ أَلَّا يَعْلَمُوا حُدُودَ مَا أَنزَلَ اللَّهُ عَلَىٰ رَسُولِهِ ۗ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ﴾ 97 ﴿
अल्अअ़राबु अशद्दु कुफ्रंव्-व निफाक़ंव् व अज्दरू अल्ला यअ्लमू हुदू-द मा अन्ज़लल्लाहु अला रसूलिही, वल्लाहु अ़लीमुन्, हकीम
देहाती[1] अविश्वास तथा द्विधा में अधिक कड़े और अधिक योग्य हैं कि उस (धर्म) की सीमाओं को न जानें, जिसे अल्लाह ने उतारा है और अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वज्ञ है। 1. इस से अभिप्राय मदीना के आस पास के क़बीले हैं।
وَمِنَ الْأَعْرَابِ مَن يَتَّخِذُ مَا يُنفِقُ مَغْرَمًا وَيَتَرَبَّصُ بِكُمُ الدَّوَائِرَ ۚ عَلَيْهِمْ دَائِرَةُ السَّوْءِ ۗ وَاللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ﴾ 98 ﴿
व मिनल्-अअ्-राबि मंय्यत्तख़िज़ु मा युन्फ़िक़ु मग़्र्मंव्-व य-तरब्बसु बिकुमुद् दवाइ-र, अलैहिम् दाइ-रतुस्सौ-इ, वल्लाहु समीअुन् अ़लीम
देहातियों में कुछ ऐसे भी हैं, जो अपने दिये हुए दान को अर्थदण्ड समझते हैं और तुमपर कालचक्र की प्रतीक्षा करते हैं। उन्हींपर कालकुचक्र आ पड़ा है और अल्लाह सबकुछ सुनने-जानने वाला है।
وَمِنَ الْأَعْرَابِ مَن يُؤْمِنُ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ وَيَتَّخِذُ مَا يُنفِقُ قُرُبَاتٍ عِندَ اللَّهِ وَصَلَوَاتِ الرَّسُولِ ۚ أَلَا إِنَّهَا قُرْبَةٌ لَّهُمْ ۚ سَيُدْخِلُهُمُ اللَّهُ فِي رَحْمَتِهِ ۗ إِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 99 ﴿
व मिनल-अअ्-राबि मंय्युअ्मिनु बिल्लाहि वल्यौमिल् आख़िरि व यत्तख़िज़ु मा युन्फ़िक़ु क़ुरूबातिन् अिन्दल्लाहि व स-लवातिर्रसूलि, अला इन्नहा क़ुर- बतुल्लहुम् सयुदख़िलुहुमुल्लाहु फ़ी रह़्मतिही, इन्नल्ला-ह ग़फूरुर्रहीम *
और देहातियों में कुछ ऐसे भी हैं, जो अल्लाह तथा अन्तिम दिन (प्रलय) पर ईमान (विश्वास) रखते हैं और अपने दिये हुए दान को अल्लाह की समीप्ता तथा रसूल के आशीर्वादों का साधन समझते हैं। सुन लो! ये वास्तव में, उनके लिए समीप्य का साधन है। शीघ्र ही अल्लाह उन्हें अपनी दया में प्रवेश देगा, वास्तव में, अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।
وَالسَّابِقُونَ الْأَوَّلُونَ مِنَ الْمُهَاجِرِينَ وَالْأَنصَارِ وَالَّذِينَ اتَّبَعُوهُم بِإِحْسَانٍ رَّضِيَ اللَّهُ عَنْهُمْ وَرَضُوا عَنْهُ وَأَعَدَّ لَهُمْ جَنَّاتٍ تَجْرِي تَحْتَهَا الْأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا أَبَدًا ۚ ذَٰلِكَ الْفَوْزُ الْعَظِيمُ ﴾ 100 ﴿
वस्साबिक़ू नल् अव्वलू न मिनल्मुहाजिरी-न वल् अन्सारि वल्लज़ीनत्त-ब अूहुम् बि-इह़्सानिर्- रज़ियल्लाहु अन्हुम् व रज़ू अन्हु व अ-अद्-द लहुम् जन्नातिन् तज्री तह् तहल्-अन्हारू ख़ालिदी-न फ़ीहा अ-बदन्, ज़ालिकल् फौज़ुल अज़ीम
तथा प्रथम अग्रसर मुहाजिरीन[1] और अन्सार और जिन लोगों ने सुकर्म के साथ उनका अनुसरण किया, अल्लाह उनसे प्रसन्न हो गया और वे उससे प्रसन्न हो गये तथा उसने उनके लिए ऐसे स्वर्ग तैयार किये हैं, जिनमें नहरें प्रवाहित हैं। वे उनमें सदावासी होंगे, यही बड़ी सफलता है। 1. प्रथम अग्रसर मुहाजिरीन उन को कहा गया है जो मक्का से हिजरत कर के ह़ुदैबिया की संधि सन् 6 से पहले मदीना आ गये थे। और प्रथम अग्रसर अन्सार मदीना के वह मुसलमान हैं जो मुहाजिरीन के सहायक बने और ह़ुदैबिया में उपस्थित थे। (इब्ने कसीर)
وَمِمَّنْ حَوْلَكُم مِّنَ الْأَعْرَابِ مُنَافِقُونَ ۖ وَمِنْ أَهْلِ الْمَدِينَةِ ۖ مَرَدُوا عَلَى النِّفَاقِ لَا تَعْلَمُهُمْ ۖ نَحْنُ نَعْلَمُهُمْ ۚ سَنُعَذِّبُهُم مَّرَّتَيْنِ ثُمَّ يُرَدُّونَ إِلَىٰ عَذَابٍ عَظِيمٍ ﴾ 101 ﴿
व मिम्-मन् हौलकुम् मिनल-अअ्-राबि मुनाफ़िक़ू-न, व मिन् अह़्लिल-मदीनति, म-रदू अलन्निफ़ाक़ि, ला तअ्लमुहुम्, नह्नु नअ्लमुहुम्, सनुअ़ज़्ज़िबुहुम् मर्रतैनि सुम्-म युरद्दू-न इला अ़ज़ाबिन अज़ीम
और जो तुम्हारे आस-पास ग्रामीन हैं, उनमें से कुछ मुनाफ़िक़ (द्विधावादी) हैं और कुछ मदीने में हैं। जो (अपने) निफ़ाक़ में अभ्यस्त (निपुण) हैं। आप उन्हें नहीं जानते, उन्हें हम जानते हैं। हम उन्हें दो बार[1] यातना देंगे। फिर घोर यातना की ओर फेर दिये जायेंगे। 1. संसार में तथा क़ब्र में। फिर प्रलोक की घोर यातना होगी। (इब्ने कसीर)
وَآخَرُونَ اعْتَرَفُوا بِذُنُوبِهِمْ خَلَطُوا عَمَلًا صَالِحًا وَآخَرَ سَيِّئًا عَسَى اللَّهُ أَن يَتُوبَ عَلَيْهِمْ ۚ إِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 102 ﴿
व आखरू-नअ् त-रफू बिज़ुनूबिहिम् ख़-लतू अ़-मलन् सालिहंव्-व आख़-र सय्यिअन्, असल्लाहु अंय्यतू-ब अ़लैहिम्, इन्नल्ला-ह ग़फूरुर्रहीम
और कुछ दूसरे भी हैं, जिन्होंने अपने पापों को स्वीकार कर लिया है। उन्होंने कुछ सुकर्म और कुछ दूसरे कुकर्म को मिश्रित कर दिया है। आशा है कि अल्लाह उन्हें क्षमा कर देगा। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमी, दयावान् है।
خُذْ مِنْ أَمْوَالِهِمْ صَدَقَةً تُطَهِّرُهُمْ وَتُزَكِّيهِم بِهَا وَصَلِّ عَلَيْهِمْ ۖ إِنَّ صَلَاتَكَ سَكَنٌ لَّهُمْ ۗ وَاللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ﴾ 103 ﴿
ख़ुज़् मिन् अम्वालिहिम् स-द-क़तन् तुतह़्हिरूहुम् व तुज़क्कीहिम् बिहा व सल्लि अलैहिम्, इन्-न सलात-क स-कनुल्लहुम्, वल्लाहु समीअुन् अलीम
(हे नबी!) आप उनके धनों से दान लें और उसके द्वारा उन (के धनों) को पवित्र और उन (के मनों) को शुध्द करें और उन्हें आशीर्वाद दें। वास्तव में, आपका आशीर्वाद उनके लिए संतोष का कारण है और अल्लाह सब सुनने-जानने वाला है।
أَلَمْ يَعْلَمُوا أَنَّ اللَّهَ هُوَ يَقْبَلُ التَّوْبَةَ عَنْ عِبَادِهِ وَيَأْخُذُ الصَّدَقَاتِ وَأَنَّ اللَّهَ هُوَ التَّوَّابُ الرَّحِيمُ ﴾ 104 ﴿
अलम् यअ्लमू अन्नल्ला-ह हु-व यक़्बलुत्तौब-त अन् अिबादिही व यअ्ख़ुज़ुस्स-दक़ाति व अन्नल्ला-ह हुवत्-तव्वाबुर्रहीम
क्या वे नहीं जानते कि अल्लाह ही अपने भक्तों की क्षमा स्वीकार करता तथा (उनके) दानों को अंगीकार करता है और वास्तव में, अल्लाह अति क्षमी दयावान् है?
وَقُلِ اعْمَلُوا فَسَيَرَى اللَّهُ عَمَلَكُمْ وَرَسُولُهُ وَالْمُؤْمِنُونَ ۖ وَسَتُرَدُّونَ إِلَىٰ عَالِمِ الْغَيْبِ وَالشَّهَادَةِ فَيُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمْ تَعْمَلُونَ ﴾ 105 ﴿
व क़ुलिअ्मलू फ़-स-यरल्लाहु अ-म-लकुम् व रसूलुहू वल्-मुअ्मिनू-न, व सतुरद्दू-न इला आलिमिल-ग़ैबि वश्शहा दति फ़-युनब्बिउकुम् बिमा कुन्तुम् तअ्मलून
और (हे नबी!) उनसे कहो कि कर्म करते जाओ। अल्लाह, उसके रसूल और ईमान वाले तुम्हारा कर्म देखेंगे। (फिर) उस (अल्लाह) की ओर फेरे जाओगे, जो परोक्ष तथा प्रत्यक्ष (छुपे तथा खुले) का ज्ञानी है। तो वह तुम्हें बता देगा, जो तुम करते रहे।
وَآخَرُونَ مُرْجَوْنَ لِأَمْرِ اللَّهِ إِمَّا يُعَذِّبُهُمْ وَإِمَّا يَتُوبُ عَلَيْهِمْ ۗ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ﴾ 106 ﴿
व आख़रू-न मुरजौ-न लिअम्रिल्लाहि इम्मा युअ़ज़्ज़िबुहुम् व इम्मा यतूबु अलैहिम्, वल्लाहु अलीमुन् हकीम
और (इनके सिवाय) कुछ दूसरे भी हैं, जो अल्लाह के आदेश के लिए विलंबित[1] हैं। वह उन्हें दण्ड दे अथवा उन्हें क्षमा कर दे, अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वज्ञ है। 1. अर्थात अपने विषय में अल्लाह के निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह तीन व्यक्ति थे जिन्हों ने आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के तबूक से वापिस आने पर यह कहा कि वह अपने आलस्य के कारण आप का साथ नहीं दे सके। आप ने उन से कहा कि अल्लाह के आदेश की प्रतीक्षा करो। और आगामी आयत 117 में उन के बारे में आदेश आ रहा है।
وَالَّذِينَ اتَّخَذُوا مَسْجِدًا ضِرَارًا وَكُفْرًا وَتَفْرِيقًا بَيْنَ الْمُؤْمِنِينَ وَإِرْصَادًا لِّمَنْ حَارَبَ اللَّهَ وَرَسُولَهُ مِن قَبْلُ ۚ وَلَيَحْلِفُنَّ إِنْ أَرَدْنَا إِلَّا الْحُسْنَىٰ ۖ وَاللَّهُ يَشْهَدُ إِنَّهُمْ لَكَاذِبُونَ ﴾ 107 ﴿
वल्लज़ीनत्त-ख़ज़ू मस्जिदन ज़िरारंव्-व कुफ्रंव् व तफ्रीक़म्-बैनल्मुअ्मिनी-न व इरसादल्-लिमन् हा-रबल्ला-ह व रसूलहू मिन् क़ब्लु, व ल यह़्लिफुन्-न इन् अरद्-ना इल्लल्-हुस्-ना, वल्लाहु यश्हदु इन्नहुम् लकाज़िबून
तथा (द्विधावादियों में) वे भी हैं, जिन्होंने एक मस्जिद[1] बनाई; इसलिए कि (इस्लाम को) हानि पहुँचायें, कुफ़्र करें, ईमान वालों में विभेद उतपन्न करें तथा उसका घात-स्थल बनाने के लिए, जो इससे पूर्व अल्लाह और उसके रसूल से युध्द कर[2] चुका है और वे अवश्य शपथ लेंगे कि हमारा संकल्प भलाई के सिवा और कुछ न था तथा अल्लाह साक्ष्य देता है कि वे निश्चय मिथ्यावादी हैं। 1. इस्लामी इतिहास में यह “मस्जिदे ज़िरार” के नाम से याद की जाती है। जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना आये तो आप के आदेश से “क़ुबा” नाम के स्थान में एक मस्जिद बनाई गई। जो इस्लामी युग की प्रथम मस्जिद है। कुछ मुनाफ़िक़ों ने उसी के पास एक नई मस्जिद का निर्मान किया। और जब आप तबूक के लिये निकल रहे थे तो आप से कहा कि आप एक दिन उस में नमाज़ पढ़ा दें। आप ने कहा कि यात्रा से वापसी पर देखा जायेगा। और जब वापिस मदीना के समीप पहुँचे तो यह आयत उतरी, और आप के आदेश से उसे ध्वस्त कर दिया गया। (इब्ने कसीर) 2. इस से अभीप्रेत अबू आमिर राहिब है। जिस ने कुछ लोगों से कहा कि एक मस्जिद बनाओ और जितनी शक्ति और अस्त्र-शस्त्र हो सके तैयार कर लो। मैं रोम के राजा क़ैसर के पास जा रहा हूँ। रोमियों की सेना लाऊँगा, और मुह़म्मद तथा उस के साथियों को मदीना से निकाल दूँगा। (इब्ने कसीर)
لَا تَقُمْ فِيهِ أَبَدًا ۚ لَّمَسْجِدٌ أُسِّسَ عَلَى التَّقْوَىٰ مِنْ أَوَّلِ يَوْمٍ أَحَقُّ أَن تَقُومَ فِيهِ ۚ فِيهِ رِجَالٌ يُحِبُّونَ أَن يَتَطَهَّرُوا ۚ وَاللَّهُ يُحِبُّ الْمُطَّهِّرِينَ ﴾ 108 ﴿
ला तक़ुम् फ़ीहि अ-बदन्, ल-मस्जिदुन् उस्सि-स अलत्तक़्वा मिन् अव्वलि यौमिन् अ-हक़्क़ु अन् तक़ू-म फ़ीहि, फीहि रिजालुंय्युहिब्बू-न अंय्यत तह़्हरू, वल्लाहु युहिब्बुल मुत्तह़्हिरीन
(हे नबी!) आप उसमें कभी खड़े न हों। वास्तव में, वो मस्जिद[1] जिसका शिलान्यास प्रथम दिन से अल्लाह के भय पर किया गया है, वो अधिक योग्य है कि आप उसमें (नमाज़ के लिए) खड़े हों। उसमें ऐसे लोग हैं, जो स्वच्छता से प्रेम[2] करते हैं और अल्लाह स्वच्छ रहने वालों से प्रेम करता है। 1. इस मस्जिद से अभिप्राय क़ुबा की मस्जिद है। तथा मस्जिद नबवी शरीफ़ भी इसी में आती है। (इब्ने कसीर) 2. अर्थात शुध्दता के लिये जल का प्रयोग करते हैं।
أَفَمَنْ أَسَّسَ بُنْيَانَهُ عَلَىٰ تَقْوَىٰ مِنَ اللَّهِ وَرِضْوَانٍ خَيْرٌ أَم مَّنْ أَسَّسَ بُنْيَانَهُ عَلَىٰ شَفَا جُرُفٍ هَارٍ فَانْهَارَ بِهِ فِي نَارِ جَهَنَّمَ ۗ وَاللَّهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الظَّالِمِينَ ﴾ 109 ﴿
अ-फ़-मन् अस्स-स बुन्यानहू अ़ला तक़्वा मिनल्लाहि व रिज़्वानिन् ख़ैरून् अम् मन् अस्स-स बुन्यानहू अला शफा जुरूफ़िन् हारिन् फ़न्हा-र बिही फी नारि जहन्न-म, वल्लाहु ला यह़्दिल कौमज़्-ज़ालिमीन
तो क्या जिसने अपने निर्माण का शिलान्यास अल्लाह के भय और प्रसन्नता के आधार पर किया हो, वह उत्तम है अथवा जिसने उसका शिलान्यास एक खाई के गिरते हुए किनारे पर किया हो, जो उसके साथ नरक की अग्नि में गिर पड़ा? और अल्लाह अत्याचारियों को मार्गदर्शन नहीं देता।
لَا يَزَالُ بُنْيَانُهُمُ الَّذِي بَنَوْا رِيبَةً فِي قُلُوبِهِمْ إِلَّا أَن تَقَطَّعَ قُلُوبُهُمْ ۗ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ﴾ 110 ﴿
ला यज़ालु बुन्यानु-हुमुल्लज़ी बनौ री-बतन् फ़ी क़ुलूबिहिम् इल्ला अन् त-क़त्त-अ क़ुलूबुहुम्, वल्लाहु अ़लीमुन् हकीम *
ये निर्माण जो उन्होंने किया, बराबर उनके दिलों में एक संदेह बना रहेगा, परन्तु ये कि उनके दिलों को खण्ड-खण्ड कर दिया जाये और अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वज्ञ है।
إِنَّ اللَّهَ اشْتَرَىٰ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ أَنفُسَهُمْ وَأَمْوَالَهُم بِأَنَّ لَهُمُ الْجَنَّةَ ۚ يُقَاتِلُونَ فِي سَبِيلِ اللَّهِ فَيَقْتُلُونَ وَيُقْتَلُونَ ۖ وَعْدًا عَلَيْهِ حَقًّا فِي التَّوْرَاةِ وَالْإِنجِيلِ وَالْقُرْآنِ ۚ وَمَنْ أَوْفَىٰ بِعَهْدِهِ مِنَ اللَّهِ ۚ فَاسْتَبْشِرُوا بِبَيْعِكُمُ الَّذِي بَايَعْتُم بِهِ ۚ وَذَٰلِكَ هُوَ الْفَوْزُ الْعَظِيمُ ﴾ 111 ﴿
इन्नल्लाहश्तरा मिनल्मुअ्मिनी न अन्फु सहुम् व अम्वालहुम् बिअन्-न लहुमुल्जन्न-त, युक़ातिलू-न फ़ी सबीलिल्लाहि फ़-यक़्तुलू-न व युक़्तलू-न, वअ्दन् अलैहि हक़्क़न् फित्तौराति वल्इन्जीलि वल्क़ुरआनि, व मन् औफ़ा बि-अ़ह़्दिही मिनल्लाहि फ़स्तब्शिरू बिबैअिकुमुल्लज़ी बायअ्तुम् बिही, व ज़ालि-क हुवल् फौज़ुल अज़ीम
निःसंदेह अल्लाह ने ईमान वालों के प्राणों तथा उनके धनों को इसके बदले ख़रीद लिया है कि उनके लिए स्वर्ग है। वे अल्लाह की राह में युध्द करते हैं, वे मारते तथा मरते हैं। ये अल्लाह पर सत्य वचन है, तौरात, इंजील और क़ुर्आन में और अल्लाह से बढ़कर अपना वचन पूरा करने वाला कौन हो सकता है? अतः, अपने इस सौदे पर प्रसन्न हो जाओ, जो तुमने किया और यही बड़ी सफलता है।
التَّائِبُونَ الْعَابِدُونَ الْحَامِدُونَ السَّائِحُونَ الرَّاكِعُونَ السَّاجِدُونَ الْآمِرُونَ بِالْمَعْرُوفِ وَالنَّاهُونَ عَنِ الْمُنكَرِ وَالْحَافِظُونَ لِحُدُودِ اللَّهِ ۗ وَبَشِّرِ الْمُؤْمِنِينَ ﴾ 112 ﴿
अत्ता-इबूनल्-आबिदूनल् हामिदूनस् सा-इहूनर् – राकिअूनस्-साजिदूनल् आमिरू-न बिल्मअ्-रूफ़ि वन्नाहू-न अनिल्मुन्करि वल्हाफ़िज़ू-न लिहुदूदिल्लाहि, व बश्शिरिल् मुअ्मिनीन
जो क्षमा याचना करने, वंदना करने तथा अल्लाह की स्तुति करने वाले, रोज़ा रखने तथा रुकूअ और सज्दा करने वाले, भलाई का आदेश देने और बुराई से रोकने वाले तथा अल्लाह की सीमाओं की रक्षा करने वाले हैं और (हे नबी!) आप ऐसे ईमान वालों को शुभ सूचना सुना दें।
مَا كَانَ لِلنَّبِيِّ وَالَّذِينَ آمَنُوا أَن يَسْتَغْفِرُوا لِلْمُشْرِكِينَ وَلَوْ كَانُوا أُولِي قُرْبَىٰ مِن بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمْ أَنَّهُمْ أَصْحَابُ الْجَحِيمِ ﴾ 113 ﴿
मा का-न लिन्नबिय्यि वल्लज़ी-न आमनू अंय्यस्तग़्फिरू लिल्मुश्रिकी-न व लौ कानू उली क़ुर्बा मिम्-बअ्दि मा तबय्य-न लहुम् अन्नहुम् अस्हाबुल्-जहीम
किसी नबी तथा[1] उनके लिए जो ईमान लाये हों, योग्य नहीं है कि मुश्रिकों (मिश्रणवादियों) के लिए क्षमा की प्रार्थना करें। यद्यपि वे उनके समीपवर्ती हों, जब ये उजागर हो गया कि वास्तव में, वह नारकी[2] हैं। 1. ह़दीस में है कि जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के चाचा अबू तालिब के निधन का समय आया तो आप उस के पास गये। और कहाः चाचा! “ला इलाहा इल्लल्लाह” पढ़ लो। मैं अल्लाह के पास तुम्हारे लिये इस को प्रमाण बना लूँगा। उस समय अबू जह्ल और अब्दुल्लाह बिन उमय्या ने कहाः क्या तुम अब्दुल मुत्तलिब के धर्म से फिर जाओगे? (अतः वह काफ़िर ही मरा।) तब आप ने कहाः मैं तुम्हारे लिये क्षमा की प्रार्थना करता रहूँगा, जब तक उस से रोक न दिया जाऊँ। और इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारीः4675) 2. देखियेः सूरह माइदा, आयतः72, तथा सूरह निसा, आयतः48,116
وَمَا كَانَ اسْتِغْفَارُ إِبْرَاهِيمَ لِأَبِيهِ إِلَّا عَن مَّوْعِدَةٍ وَعَدَهَا إِيَّاهُ فَلَمَّا تَبَيَّنَ لَهُ أَنَّهُ عَدُوٌّ لِّلَّهِ تَبَرَّأَ مِنْهُ ۚ إِنَّ إِبْرَاهِيمَ لَأَوَّاهٌ حَلِيمٌ ﴾ 114 ﴿
व मा कानस्तिग़्फ़ारू इब्राही-म लिअबीहि इल्ला अम्- मौअि-दतिंव् व-अ-दहा इय्याहु, फ़-लम्मा तबय्य-न लहू अन्नहू अदुव्वुल्-लिल्लाहि त बर्र-अ मिन्हु, इन्-न इब्राही-म ल-अव्वाहुन् हलीम
और इब्राहीम का अपने बाप के लिए क्षमा की प्रार्थना करना, केवल इसलिए हुआ की उसने उसे, इसका वचन दिया[1] था और जब उसके लिए उजागर हो गया कि वह अल्लाह का शत्रु है, तो उससे विरक्त हो गया। वास्तव में, इब्राहीम बड़ा कोमल हृदय, सहनशील था। 1. देखियेः सूरह मुमतह़िना, आयतः4
وَمَا كَانَ اللَّهُ لِيُضِلَّ قَوْمًا بَعْدَ إِذْ هَدَاهُمْ حَتَّىٰ يُبَيِّنَ لَهُم مَّا يَتَّقُونَ ۚ إِنَّ اللَّهَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ ﴾ 115 ﴿
व मा कानल्लाहु लियुज़िल्-ल क़ौमम् बअ्-द इज़् हदाहुम् हत्ता युबय्यि-न लहुम् मा यत्तक़ू-न, इन्नल्ला-ह बिकुल्लि शैइन् अलीम
अल्लाह ऐसा नहीं है कि किसी जाति को, मार्गदर्शन देने के पश्चात् कुपथ कर दे, जब तक उनके लिए जिससे बचना चाहिए, उसे उजागर न कर दे। वास्तव में, अल्लाह प्रत्येक वस्तु को भली-भाँति जानने वाला है।
إِنَّ اللَّهَ لَهُ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۖ يُحْيِي وَيُمِيتُ ۚ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ اللَّهِ مِن وَلِيٍّ وَلَا نَصِيرٍ ﴾ 116 ﴿
इन्नल्ला-ह लहू मुल्कुस्समावाति वल्अर्ज़ि, युह़्यी व युमीतु, व मा लकुम् मिन् दूनिल्लाहि मिंव्वलिय्यिंव्-वला नसीर
वास्तव में, अल्लाह ही है, जिसके अधिकार में आकाशों तथा धरती का राज्य है। वही जीवन देता तथा मारता है और तुम्हारे लिए उसके सिवा कोई संरक्षक और सहायक नहीं है।
لَّقَد تَّابَ اللَّهُ عَلَى النَّبِيِّ وَالْمُهَاجِرِينَ وَالْأَنصَارِ الَّذِينَ اتَّبَعُوهُ فِي سَاعَةِ الْعُسْرَةِ مِن بَعْدِ مَا كَادَ يَزِيغُ قُلُوبُ فَرِيقٍ مِّنْهُمْ ثُمَّ تَابَ عَلَيْهِمْ ۚ إِنَّهُ بِهِمْ رَءُوفٌ رَّحِيمٌ ﴾ 117 ﴿
ल-क़त्ताबल्लाहु अलन्नबिय्यि वल्मुहाजिरी-न वल् अन्सारिल्लज़ीनत् त-बअूहु फ़ी सा अ़तिल्-अुस्रति मिम्-बअ्दि मा का-द यज़ीग़ु क़ुलूबु फरीक़िम् मिन्हुम् सुम्-म ता-ब अ़लैहिम्, इन्नहू बिहिम् रऊफुर्रहीम
अल्लाह ने नबी तथा मुहाजिरीन और अन्सार पर दया की, जिन्होंने तंगी के समय आपका साथ दिया, इसके पश्चात् कि उनमें से कुछ लोगों के दिल कुटिल होने लगे थे। फिर उनपर दया की। निश्चय वह उनके लिए अति करुणामय, दयावान् है।
وَعَلَى الثَّلَاثَةِ الَّذِينَ خُلِّفُوا حَتَّىٰ إِذَا ضَاقَتْ عَلَيْهِمُ الْأَرْضُ بِمَا رَحُبَتْ وَضَاقَتْ عَلَيْهِمْ أَنفُسُهُمْ وَظَنُّوا أَن لَّا مَلْجَأَ مِنَ اللَّهِ إِلَّا إِلَيْهِ ثُمَّ تَابَ عَلَيْهِمْ لِيَتُوبُوا ۚ إِنَّ اللَّهَ هُوَ التَّوَّابُ الرَّحِيمُ ﴾ 118 ﴿
व अलस्-सला-सतिल्लज़ी-न खुल्लिफू, हत्ता इज़ा ज़ाक़त् अ़लैहिमुल्-अर्ज़ु बिमा रहुबत् व ज़ाक़त् अ़लैहिम् अन्फुसुहुम् व ज़न्नू अल्ला मल्ज-अ मिनल्लाहि इल्ला इलैहि, सुम्-म ता-ब अलैहिम् लि-यतूबू, इन्नल्ला-ह हुवत्तव्वाबुर्रहीम *
तथा उन तीनों[1] पर जिनका मामला विलंबित कर दिया गाय था, जब उनपर धरती अपने विस्तार के होते सिकुड़ गयी और उनपर उनके प्राण संकीर्ण[2] हो गये और उन्हें विश्वास था कि अल्लाह के सिवा उनके लिए कोई शरणागार नहीं, परन्तु उसी की ओर। फिर उनपर दया की, ताकि तौबा (क्षमा याचना) कर लें। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है। 1. यह वही तीन हैं जिन की चर्चा आयत संख्या 106 में आ चुकी है। इन के नाम थेः1-काब बिन मालिक, 2-हिलाल बिन उमय्या, 3- मुरारह बिन रबीअ। (सह़ीह़ बुख़ारीः 4677) 2. क्यों कि उन का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया था।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اتَّقُوا اللَّهَ وَكُونُوا مَعَ الصَّادِقِينَ ﴾ 119 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनुत्तक़ुल्ला-ह व कूनू मअ़स्सादिक़ीन
हे ईमान वालो! अल्लाह से डरो तथा सचों के साथ हो जाओ।
مَا كَانَ لِأَهْلِ الْمَدِينَةِ وَمَنْ حَوْلَهُم مِّنَ الْأَعْرَابِ أَن يَتَخَلَّفُوا عَن رَّسُولِ اللَّهِ وَلَا يَرْغَبُوا بِأَنفُسِهِمْ عَن نَّفْسِهِ ۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمْ لَا يُصِيبُهُمْ ظَمَأٌ وَلَا نَصَبٌ وَلَا مَخْمَصَةٌ فِي سَبِيلِ اللَّهِ وَلَا يَطَئُونَ مَوْطِئًا يَغِيظُ الْكُفَّارَ وَلَا يَنَالُونَ مِنْ عَدُوٍّ نَّيْلًا إِلَّا كُتِبَ لَهُم بِهِ عَمَلٌ صَالِحٌ ۚ إِنَّ اللَّهَ لَا يُضِيعُ أَجْرَ الْمُحْسِنِينَ ﴾ 120 ﴿
मा का-न लिअह़्लिल-मदीनति व मन् हौ-लहुम् मिनल्-अअ्-राबि अंय्य-तख़ल्लफू अर्रसूलिल्लाहि व ला यर्ग़बू बिअन्फुसिहिम् अन् नफ़्सिही, ज़ालि-क बिअन्नहुम् ला युसीबुहुम् ज़-मउंव्व ला न-सबुंव्व ला मख़्म-सतुन फ़ी सबीलिल्लाहि व ला य-तऊ-न मौति अंय्यग़ीज़ुल्-कुफ्फा-र वला यनालू-न मिन् अदुव्विन्- नैलन् इल्ला कुति-ब लहुम् बिही अ-मलुन् सालिहुन्, इन्नल्ला-ह ला युज़ीअु अज्रल्-मुह़्सिनीन
मदीना के वासियों तथा उनके आस-पास के देहातियों के लिए उचित नहीं था कि अल्लाह के रसूल से पीछे रह जायें और अपने प्राणों को आपके प्राण से प्रिय समझें। ये इसलिए कि उन्हें अल्लाह की राह में कोई प्यास और थकान तथा भूक नहीं पहुँचती है और न वे किसी ऐसे स्थान को रोंदते हैं, जो काफ़िरों को अप्रिय हो या किसी शत्रु से वह कोई सफलता प्राप्त नहीं करते हैं, परन्तु उनके लिए एक सत्कर्म लिख दिया जाता है। वास्तव में, अल्लाह सत्कर्मियों का फल व्यर्थ नहीं करता।
وَلَا يُنفِقُونَ نَفَقَةً صَغِيرَةً وَلَا كَبِيرَةً وَلَا يَقْطَعُونَ وَادِيًا إِلَّا كُتِبَ لَهُمْ لِيَجْزِيَهُمُ اللَّهُ أَحْسَنَ مَا كَانُوا يَعْمَلُونَ ﴾ 121 ﴿
व ला युन्फ़िक़ू-न न-फ-क़तन् सग़ी-रतंव्-वला कबी-रतंव्-वला यक़्तअू-न वादियन् इल्ला कुति-ब लहुम् लियज्ज़ि यहुमुल्लाहु अह़्स-न मा कानू यअ्मलून
और वे (अल्लाह की राह में) थोड़ा या अधिक, जो भी व्यय करते हैं, और जो भी घाटी पार करते हैं, उसे उनके लिए लिख दिया जाता है, ताकि वह उन्हें उससे उत्तम प्रतिफल प्रदान करे, जो वे कर रहे थे।
وَمَا كَانَ الْمُؤْمِنُونَ لِيَنفِرُوا كَافَّةً ۚ فَلَوْلَا نَفَرَ مِن كُلِّ فِرْقَةٍ مِّنْهُمْ طَائِفَةٌ لِّيَتَفَقَّهُوا فِي الدِّينِ وَلِيُنذِرُوا قَوْمَهُمْ إِذَا رَجَعُوا إِلَيْهِمْ لَعَلَّهُمْ يَحْذَرُونَ ﴾ 122 ﴿
व मा कानल्-मुअ्मिनू-न लियन्फ़िरू काफ्फ़-तन्, फ़लौ ला न-फ़-र मिन् कुल्लि फिरक़तिम् मिन्हुम् ताइ-फतुल् लि-य तफ़क़्क़हू फ़िद्दीनि व लियुन्ज़िरू क़ौमहुम् इज़ा र-जअू इलैहिम् लअ़ल्लहुम् यह़्ज़रून*
ईमान वालों के लिए उचित नहीं कि सब एक साथ निकल पड़ें; तो क्यों नहीं प्रत्येक समुदाय से एक गिरोह निकलता, ताकि धर्म में बोध ग्रहण करें और ताकि अपनी जाति को सावधान करें, जब उनकी ओर वापस आयें, संभवतः वे (कुकर्मों से) बचें[1]। 1. इस आयत में यह संकेत है कि धार्मिक शिक्षा की एक साधारण व्यवस्था होनी चाहिये। और यह नहीं हो सकता कि सब धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने के लिये निकल पड़ें। इस लिये प्रत्येक समुदाय से कुछ लोग जा कर धर्म की शिक्षा ग्रहण करें। फिर दूसरों को धर्म की बातें बताये। क़ुर्आन के इसी संकेत ने मुसलमानों में शिक्षा ग्रहण करने की ऐसी भावना उत्पन्न कर दी कि एक शताब्दी के भीतर उन्होंने शीक्षा ग्रहण करने की ऐसी व्यवस्था बना दी जिस का उदाहरण संसार के इतिहास में नहीं मिलता।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا قَاتِلُوا الَّذِينَ يَلُونَكُم مِّنَ الْكُفَّارِ وَلْيَجِدُوا فِيكُمْ غِلْظَةً ۚ وَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّهَ مَعَ الْمُتَّقِينَ ﴾ 123 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनू कातिलुल्लज़ी-न यलूनकुम् मिनल्कुफ्फ़ारि वल्यजिदू फ़ीकुम् गिल्ज़-तन्, वअ्लमू अन्नल्ला-ह मअ़ल्मुत्तकीन
हे ईमान वलो! अपने आस-पास के काफ़िरों से युध्द करो[1] और चाहिए कि वे तुममें कुटिलता पायें तथा विश्वास रखो कि अल्लाह आज्ञाकारियों के साथ है। 1. जो शत्रु इस्लामी केंद्र के समीप के क्षेत्रों में हों पहले उन से अपनी रक्षा करो।
وَإِذَا مَا أُنزِلَتْ سُورَةٌ فَمِنْهُم مَّن يَقُولُ أَيُّكُمْ زَادَتْهُ هَٰذِهِ إِيمَانًا ۚ فَأَمَّا الَّذِينَ آمَنُوا فَزَادَتْهُمْ إِيمَانًا وَهُمْ يَسْتَبْشِرُونَ ﴾ 124 ﴿
व इज़ा मा उन्ज़िलत् सूरतुन् फ़-मिन्हुम् मंय्यक़ूलु अय्युकुम् जादत्हु हाज़िही ईमानन्, फ़-अम्मल्लज़ी-न आमनू फ़ज़ादत्हुम् ईमानंव्-व हुम् यस्तब्शिरून
और जब (क़ुर्आन की) कोई आयत उतारी जाती है, तो इन (द्विधावादियों में) से कुछ कहते हैं कि तुममें से किसका ईमान (विश्वास) इसने अधिक किया[1]? तो वास्तव में, जो ईमान रखते हैं, उनका विश्वास अवश्य अधिक कर दिया और वे इसपर प्रसन्न हो रहे हैं। 1. अर्थात उपहास करते हैं।
وَأَمَّا الَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ فَزَادَتْهُمْ رِجْسًا إِلَىٰ رِجْسِهِمْ وَمَاتُوا وَهُمْ كَافِرُونَ ﴾ 125 ﴿
व अम्मल्लज़ी-न फी क़ुलूबिहिम् म-रज़ुन् फज़ादत्हुम् रिज्सन् इला रिज्सिहिम् व मातू व हुम् काफिरून
परन्तु, जिनके दिलों में (द्विधा) का रोग है, तो उसने उनकी गंदगी और अधिक बढ़ा दी और वे काफ़िर रहते हुए ही मर गये।
أَوَلَا يَرَوْنَ أَنَّهُمْ يُفْتَنُونَ فِي كُلِّ عَامٍ مَّرَّةً أَوْ مَرَّتَيْنِ ثُمَّ لَا يَتُوبُونَ وَلَا هُمْ يَذَّكَّرُونَ ﴾ 126 ﴿
अ-वला यरौ-न अन्नहुम् युफ्तनू-न फ़ी कुल्लि आमिम्-मर्र-तन् औ मर्रतैनि सुम्म ला यतूबू-न वला हुम् यज़्ज़क्करून
क्या वे नहीं देखते कि उनकी परीक्षा प्रत्येक वर्ष एक बार अथवा दो बार ली जाती[1] है? फिर भी वे तौबा (क्षमा याचना) नहीं करते और न शिक्षा ग्रहण करते हैं! 1. अर्थात उन पर आपदा आती है तथा अपमानित किये जाते हैं। (इब्ने कसीर)
وَإِذَا مَا أُنزِلَتْ سُورَةٌ نَّظَرَ بَعْضُهُمْ إِلَىٰ بَعْضٍ هَلْ يَرَاكُم مِّنْ أَحَدٍ ثُمَّ انصَرَفُوا ۚ صَرَفَ اللَّهُ قُلُوبَهُم بِأَنَّهُمْ قَوْمٌ لَّا يَفْقَهُونَ ﴾ 127 ﴿
व इज़ा मा उन्ज़िलत् सूरतुन् न-ज़-र बअ्ज़ुहुम् इला बअ्ज़िन्, हल् यराकुम् मिन् अ-हदिन् सुम्मन्स-रफू, स -रफ़ल्लाहु क़ुलूबहुम् बिअन्नहुम् क़ौमुल् ला यफ़्क़हून
और जब कोई सूरह उतारी जाये, तो वे एक-दूसरे की ओर देखते हैं कि तुम्हें कोई देख तो नहीं रहा है? फिर मुँह फेरकर चल देते हैं। अल्लाह ने उनके दिलों को (ईमान से)[1] फेर दिया है। इस कारण कि वे समझ-बूझ नहीं रखते। 1. इस से अभिप्राय मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हैं।
لَقَدْ جَاءَكُمْ رَسُولٌ مِّنْ أَنفُسِكُمْ عَزِيزٌ عَلَيْهِ مَا عَنِتُّمْ حَرِيصٌ عَلَيْكُم بِالْمُؤْمِنِينَ رَءُوفٌ رَّحِيمٌ ﴾ 128 ﴿
ल-क़द् जा-अकुम् रसूलुम् मिन् अन्फुसिकुम् अज़ीज़ुन अ़लैहि मा अनित्तुम् हरीसुन् अ़लैकुम् बिल्मुअ्मिनी न रऊफुर्रहीम
(हे ईमान वालो!) तुम्हारे पास तुम्हीं में से अल्लाह का एक रसूल आ गया है। उसे वो बात भारी लगती है, जिससे तुम्हें दुःख हो, वह तुम्हारी सफलता की लालसा रखते हैं और ईमान वालों के लिए करुणामय दयावान् हैं।
فَإِن تَوَلَّوْا فَقُلْ حَسْبِيَ اللَّهُ لَا إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ۖ عَلَيْهِ تَوَكَّلْتُ ۖ وَهُوَ رَبُّ الْعَرْشِ الْعَظِيمِ ﴾ 129 ﴿
फ इन् तवल्लौ फ़क़ुल हस्बियल्लाहु, ला इला-ह इल्ला हु-व, अलैहि तवक्कल्तु व हु-व रब्बुल अर्शिल्-अज़ीम*
(हे नबी!) फिर भी यदि वे आपसे मुँह फेरते हों, तो उनसे कह दो कि मेरे लिए अल्लाह (का सहारा) बस है। उसके अतिरिक्त कोई ह़क़ीक़ी पूज्य नहीं और वही महासिंहासन का मालिक (स्वामी) है।