सूरह नूर के संक्षिप्त विषय
यह सूरह मनी है, इस में 64 आयतें है।
- इस सूरह में व्यभिचार और उस का कलंक लगाने का दण्ड बताया गया है।
- मुनाफ़िकों को झूठे कलंक घड़ कर समाज में फैलाने पर चेतावनी दी गयी है।
- मान मर्यादा की रक्षा पर बल दिया गया है।
- अल्लाह की राह में चलने और उस के इन्कार पर लाभ और हानि का वर्णन किया गया है।
- ईमान वालों को अधिकार प्रदान करने की शुभ सूचना दी गयी है।
- घरेलू आदाब बताये गये हैं।
- और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का आदर करने पर बल दिया गया है।
सूरह नूर हिंदी में | Surah Noor in Hindi
بِسْمِ اللَّـهِ الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ
बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम
अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।
سُورَةٌ أَنزَلْنَاهَا وَفَرَضْنَاهَا وَأَنزَلْنَا فِيهَا آيَاتٍ بَيِّنَاتٍ لَّعَلَّكُمْ تَذَكَّرُونَ ﴾ 1 ﴿
सूरतुन् अन्ज़ल्नाहा व फ़रज़्नाहा व अन्ज़ल्ना फ़ीहा आयातिम् बय्यिनातिल् लअ़ल्लकुम् तज़क्करून
ये एक सूरह है, जिसे हमने उतारा तथा अनिवार्य किया है और उतारी हैं इसमें बहुत-सी खुली आयतें (निशानियाँ), ताकि तुम शिक्षा ग्रहण करो।
الزَّانِيَةُ وَالزَّانِي فَاجْلِدُوا كُلَّ وَاحِدٍ مِّنْهُمَا مِائَةَ جَلْدَةٍ ۖ وَلَا تَأْخُذْكُم بِهِمَا رَأْفَةٌ فِي دِينِ اللَّهِ إِن كُنتُمْ تُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ ۖ وَلْيَشْهَدْ عَذَابَهُمَا طَائِفَةٌ مِّنَ الْمُؤْمِنِينَ ﴾ 2 ﴿
अज़्ज़ानि-यतु वज़्ज़ानी फ़ज्लिदू कुल-ल् वाहिदिम्-मिन्हुमा मि-अ-त जल्दतिंव्-व ला तअ्खुज्कुम् बिहिमा रअ्-फ़तुन फ़ी दीनिल्लाहि इन् कुन्तुम् तुअ्मिनू-न बिल्लाहि वल्यौमिल्-आखिरि वल्यश्-हद् अ़ज़ाबहुमा ताइ-फ़तुम् मिनल्-मुअ्मिनीन
व्यभिचारिणी तथा[1]व्यभिचारी, दोनों में से प्रत्येक को सौ कोड़े मारो और तुम्हें उन दोनों पर कोई तरस न आये अल्लाह के धर्म के विषय[2] में, यदि तुम अल्लाह तथा अन्तिम दिन पर ईमान (विश्वास) रखते हो और चाहिए कि उनके दण्ड के समय उपस्थित रहे ईमान वालों का एक[3] गिरोह। 1. व्यभिचार से संबंधित आरंभिक आदेश सूरह निसा, आयत 15 में आ चुका है। अब यहाँ निश्चित रूप से उस का दण्ड नियत कर दिया गया है। आयत में वर्णित सौ कोड़े दण्ड अविवाहित व्यभिचारी तथा व्याभिचारिणी के लिये हैं। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अविवाहित व्यभिचारी को सौ कोड़े मारने का और एक वर्ष देश से निकाल देने का आदेश देते थे। (सह़ीह़ बुख़ारीः 6831) किन्तु यदि दोनों में कोई विवाहित है तो उस के लिये रज्म (पत्थरों से मार डालने) का दण्ड है। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः मुझ से (शिक्षा) ले लो, मुझ से (शिक्षा) ले लो। अल्लाह ने उन के लिये राह बना दी। अविवाहित के लिये सौ कोड़े और विवाहित के लिये रज्म है। (सह़ीह़ मुस्लिमः 1690, अबूदाऊदः4418) इत्यादि। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने युग में रज्म का दण्ड दिया जिस के सह़ीह़ ह़दीसों में कई उदाहरण हैं। और ख़ुलफ़ाये राशिदीन के युग में भी यही दण्ड दिया गया। और इस पर मुस्लिम समुदाय का इज्मा (मतैक्य) है। व्यभिचार ऐसा घोर पाप है जिस से परिवारिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है। पति-पत्नि को एक दूसरे पर विश्वास नहीं रह जाता। और यदि कोई शिशु जन्म ले तो उस के पालन-पोषण की भीषण समस्या सामने आती है। इसी लिये इस्लाम ने इस का घोर दण्ड रखा है ताकि समाज और समाज वालों को शान्त और सुरक्षित रखा जाये। 2. अर्थात दया भाव के कारण दण्ड देने से न रुक जाओ। 3. ताकि लोग दण्ड से शिक्षा लें।
الزَّانِي لَا يَنكِحُ إِلَّا زَانِيَةً أَوْ مُشْرِكَةً وَالزَّانِيَةُ لَا يَنكِحُهَا إِلَّا زَانٍ أَوْ مُشْرِكٌ ۚ وَحُرِّمَ ذَٰلِكَ عَلَى الْمُؤْمِنِينَ ﴾ 3 ﴿
अज़्जा़नी ला यन्किहु इल्ला जा़नि-यतन् औ मुशरि-कतंव्-वज़्जा़नि-यतु ला यन्किहुहा इल्ला जा़निन् औ मुश्रिकुन् व हुर्रि-म ज़ालि-क अ़लल्-मुअ्मिनीन
व्यभिचारी[1] नहीं विवाह करता, परन्तु व्यभिचारिणी अथवा मिश्रणवादी से और व्यभिचारिणी नहीं विवाह करती, परन्तु व्यभिचारी अथवा मिश्रणवादी से और इसे ह़राम (अवैध) कर दिया गया है ईमान वालों पर। 1. आयत का अर्थ यह है कि साधारणतः कुकर्मी विवाह के लिये अपने ही जैसों की ओर आकर्षित होते हैं। अतः व्यभिचारिणी व्यभिचारी से ही विवाह करने में रूचि रखती है। इस में ईमान वालों को सतर्क किया गया है कि जिस प्रकार व्यभिचार महा पाप है उसी प्रकार व्यभिचारियों के साथ विवाह संबन्ध स्थापित करना भी निषेध है। कुछ भाष्यकारों ने यहाँ विवाह का अर्थ व्यभिचार लिया है।
وَالَّذِينَ يَرْمُونَ الْمُحْصَنَاتِ ثُمَّ لَمْ يَأْتُوا بِأَرْبَعَةِ شُهَدَاءَ فَاجْلِدُوهُمْ ثَمَانِينَ جَلْدَةً وَلَا تَقْبَلُوا لَهُمْ شَهَادَةً أَبَدًا ۚ وَأُولَٰئِكَ هُمُ الْفَاسِقُونَ ﴾ 4 ﴿
वल्लज़ी-न यरमूनल् मुह्सनाति सुम्-म लम् यअतू बि-अर्-ब-अ़ति शु-हदा-अ फ़ज्लिदूहुम् समानी-न जल्दतंव्-व ला तक़्बलू लहुम् शहा-दतन् अ-बदन् व उलाइ-क हुमुल्-फ़ासिकून
तथा जो आरोप[1] लगायें व्यभिचार का सतवंती स्त्रियों पर, फिर न लायें चार साक्षी, तो उन्हें अस्सी कोड़े मारो और न स्वीकार करो उनका साक्ष्य कभी भी और वे स्वयं अवज्ञाकारी हैं। 1. इस में किसी पवित्र पुरुष या स्त्री पर व्यभिचार का कलंक लगाने का दण्ड बताया गया है कि जो पुरुष अथवा स्त्री किसी पर कलंक लगाये, तो वह चार ऐसे साक्षी लाये जिन्हों ने उन को व्यभिचार करते अपनी आँखों से देखा हो। और यदि वह प्रमाण स्वरूप चार साक्षी न लायें तो उस के तीन आदेश हैः (क) उसे अस्सी कोड़ लगाये जायें। (ख) उस का साक्ष्य कभी स्वीकार न किया जाये। (ग) वह अल्लाह तथा लोगों के समक्ष दुराचारी है।
إِلَّا الَّذِينَ تَابُوا مِن بَعْدِ ذَٰلِكَ وَأَصْلَحُوا فَإِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 5 ﴿
इल्लल्लज़ी-न ताबू मिम्-बअ्दि जा़लि-क व अस्लहू फ़-इन्नल्ला-ह ग़फूरूर्रहीम
परन्तु जिन्होंने क्षमा माँग ली इसके पश्चात् तथा अपना सुधार कर लिया, तो निःसंदेह अल्लाह अति क्षमी दयावान्[1] है। 1. सभी विद्वानों का मतैक्य है कि क्षमा याचना से उसे दण्ड (अस्सी कोड़े) से क्षमा नहीं मिलेगी। बल्कि क्षमा के पश्चात् वह भी अवैज्ञाकारी नहीं रह जायेगा, तथा उस का साक्ष्य स्वीकार किया जायेगा। अधिक्तर विद्वानों का यही विचार है।
وَالَّذِينَ يَرْمُونَ أَزْوَاجَهُمْ وَلَمْ يَكُن لَّهُمْ شُهَدَاءُ إِلَّا أَنفُسُهُمْ فَشَهَادَةُ أَحَدِهِمْ أَرْبَعُ شَهَادَاتٍ بِاللَّهِ ۙ إِنَّهُ لَمِنَ الصَّادِقِينَ ﴾ 6 ﴿
वल्लज़ी-न यरमू-न अज़्वाजहुम् व लम् यकुल्लहुम् शु-हदा-उ इल्ला अन्फुसुहुम् फ़-शहा-दतु अ-हदिहिम् अर-बअु शहादातिम्-बिल्लाहि इन्नहू लमिनस्-सादिक़ीन
और जो व्यभिचार का आरोप लगायें अपनी पत्नियों पर और उनके साक्षी न हों,[1] परन्तु वे स्वयं, तो चार साक्ष्य अल्लाह की शपथ लेकर देना है कि वास्तव में वह सच्चा है[2]। 1. अर्थात चार साक्षी। 2. अर्थात आरोप लगाने में।
وَالْخَامِسَةُ أَنَّ لَعْنَتَ اللَّهِ عَلَيْهِ إِن كَانَ مِنَ الْكَاذِبِينَ ﴾ 7 ﴿
वल्ख़ामि-सतु अन्-न लअ्-नतल्लाहि अ़लैहि इन् का-न मिनल्-काज़िबीन
और पाँचवीं बार ये (कहे) कि उसपर अल्लाह की धिक्कार है, यदि वह झूठा है।
وَيَدْرَأُ عَنْهَا الْعَذَابَ أَن تَشْهَدَ أَرْبَعَ شَهَادَاتٍ بِاللَّهِ ۙ إِنَّهُ لَمِنَ الْكَاذِبِينَ ﴾ 8 ﴿
व यद्रउ अ़न्हल्-अ़ज़ा-ब अन् तश्ह-द अर्ब-अ़ शहादातिम्-बिल्लाहि इन्नहू लमिनल्-काज़िबीन
और स्त्री से दण्ड[1] इस प्रकार दूर होगा कि वह चार बार साक्ष्य दे, अल्लाह की शपथ लेकर कि निःसंदेह, वह (पति) मिथ्यावादियों में से है। 1. अर्थात व्यभिचार का दण्ड।
وَالْخَامِسَةَ أَنَّ غَضَبَ اللَّهِ عَلَيْهَا إِن كَانَ مِنَ الصَّادِقِينَ ﴾ 9 ﴿
वल्ख़ामि-स-त अन्-न ग-ज़बल्लाहि अ़लैहा इन का-न मिनस्-सादिक़ीन
और पाँचवीं बार ये (कहे) कि उसपर अल्लाह की धिक्कार हो, यदि वह सच्चा[1] हो। 1. शरीअत की परिभाषा में इसे "लिआन" कहा जाता है। यह लिआन न्यायालय में अथवा न्यायालय के अधिकारी के समक्ष होना चाहिये। लिआन की माँग पुरुष की ओर से भी हो सकती है और स्त्री की ओर से भी। लिआन के पश्चात् दोनों सदा के लिये अलग हो जायेंगे। लिआन का अर्थ होता होता हैः धिक्कार। और इस में पति और पत्नि दोनों अपने को मिथ्यावादी होने की अवस्था में धिक्कार का पात्र स्वीकार करते हैं। यदि पति अपनी पत्नि के गर्भ का इन्कार करे तब भी लिआन होता है। (बुख़ारीः4746, 4747, 4748)
وَلَوْلَا فَضْلُ اللَّهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهُ وَأَنَّ اللَّهَ تَوَّابٌ حَكِيمٌ ﴾ 10 ﴿
व लौ ला फ़ज़्लुल्लाहि अ़लैकुम् व रह्मतुहू व अन्नल्ला-ह तव्वाबुन् हकीम*
और यदि तुमपर अल्लाह का अनुग्रह और दया न होती और ये कि अल्लाह अति क्षमी तत्वज्ञ है, (तो समस्या बढ़ जाती)।
إِنَّ الَّذِينَ جَاءُوا بِالْإِفْكِ عُصْبَةٌ مِّنكُمْ ۚ لَا تَحْسَبُوهُ شَرًّا لَّكُم ۖ بَلْ هُوَ خَيْرٌ لَّكُمْ ۚ لِكُلِّ امْرِئٍ مِّنْهُم مَّا اكْتَسَبَ مِنَ الْإِثْمِ ۚ وَالَّذِي تَوَلَّىٰ كِبْرَهُ مِنْهُمْ لَهُ عَذَابٌ عَظِيمٌ ﴾ 11 ﴿
इन्नल्लज़ी-न जाऊ बिल्-इफ़्कि अुस्बतुम्-मिन्कुम् , ला तह्सबूहु शर्रल्-लकुम , बल् हु-व खै़रुल्-लकुम , लिकुल्लिम्-रिइम्-मिन्हुम् मक्त-स-ब मिनल्-इस्मि वल्लज़ी तवल्ला किब्रहू मिन्हुम् लहू अ़ज़ाबुन् अ़ज़ीम
वास्तव[1] में, जो कलंक घड़ लाये हैं, (वे) तुम्हारे ही भीतर का एक गिरोह है, तुम इसे बुरा न समझो, बल्कि ये तुम्हारे लिए अच्छा[2]है। उनमें से प्रत्येक के लिए जितना भाग लिया, उतना पाप है और जिसने भार लिया उसके बड़े भाग[3] का, तो उसके लिए बड़ी यातना है। 1. यहाँ से आयत 26 तक उस मिथ्यारोपण का वर्णन किया गया है जो मुनाफ़िक़ों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की पत्नी आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) पर बनी मुस्तलिक़ के युध्द में वापसी के समय लगाया था। इस युध्द से वापसी के समय नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक स्थान पर पड़ाव किया। अभी कुछ रात रह गयी थी कि यात्रा की तैयारी होने लगी। उस समय आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) उस स्थान से दूर शौच के लिये गईं और उन का हार टूट कर गिर गया। वह उस की खोज में रह गयीं। सेवकों ने उन की पालकी को सवारी पर यह समझ कर लाद दिया कि वह उस में होंगी। वह आयीं तो वहीं लेट गयीं कि कोई अवश्य खोजने आयेगा। थोड़ी देर में सफ़्वान पुत्र मुअत्तल (रज़ियल्लाहु अन्हु) जो यात्रियों के पीछे उन की गिरी-पड़ी चीज़ों को संभालने का काम करते थे वहाँ आ गये। और इन्ना लिल्लाह पढ़ी, जिस से आप जाग गयीं। और उन को पहचान लिया। क्यों कि उन्हों ने पर्दें का आदेश आने से पहले उन्हें देखा था। उन्हों ने आप को अपने ऊँट पर सवार किया और स्वयं पैदल चल कर यात्रियों से जा मिले। द्विधावादियों ने इस अवसर को उचित जाना, और उन के मुखिया अब्दुल्लाह बिन उबय्य ने कहा कि यह एकांत अकारण नहीं था। और आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) को सफ़्वान के साथ कलंकित कर दिया। और उस के षड्यंत्र में कुछ सच्चे मुसलमान भी आ गये। इस का पूरा विवरण ह़दीस में मिलेगा। (देखियेः सह़ीह़ बुख़ारीः4750) 2. अर्थ यह है कि इस दुःख पर तुम्हें प्रतिफल मिलेगा। 3. इस से तात्पर्य अब्दुल्लाह बिन उबय्य द्विधावादियों का मुखिया है।
لَّوْلَا إِذْ سَمِعْتُمُوهُ ظَنَّ الْمُؤْمِنُونَ وَالْمُؤْمِنَاتُ بِأَنفُسِهِمْ خَيْرًا وَقَالُوا هَٰذَا إِفْكٌ مُّبِينٌ ﴾ 12 ﴿
लौ ला इज् समिअ्तुमूहु ज़न्नल्-मुअ्मिनू-न वल्-मुअ्मिनातु बिअन्फुसिहिम् खैरंव्-व कालू हाज़ा इफ़्कुम्-मुबीन
क्यों जब उसे ईमान वाले पुरुषों तथा स्त्रियों ने सुना, तो अपने आपमें अच्छा विचार नहीं किया तथा कहा कि ये खुला आरोप है?
لَّوْلَا جَاءُوا عَلَيْهِ بِأَرْبَعَةِ شُهَدَاءَ ۚ فَإِذْ لَمْ يَأْتُوا بِالشُّهَدَاءِ فَأُولَٰئِكَ عِندَ اللَّهِ هُمُ الْكَاذِبُونَ ﴾ 13 ﴿
लौ ला जाऊ अ़लैहि बि-अर्-ब-अ़ति शु-हदा-अ फ़-इज् लम् यअ्तू बिश्शु-हदा-इ फ़-उलाइ-क अिन्दल्लाहि हुमुल-काज़िबून
वे क्यों नहीं लाये इसपर चार साक्षी? (जब साक्षी नहीं लाये) तो निःसंदेह अल्लाह के समीप वही झूठे हैं।
وَلَوْلَا فَضْلُ اللَّهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهُ فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ لَمَسَّكُمْ فِي مَا أَفَضْتُمْ فِيهِ عَذَابٌ عَظِيمٌ ﴾ 14 ﴿
व लौ ला फ़ज़्लुल्लाहि अ़लैकुम् व रह्मतुहू फ़िद्दुन्या वल्-आख़िरति ल-मस्सकुम् फ़ीमा अफज़्तुम् फ़ीहि-अ़ज़ाबुन् अज़ीम
और यदि तुमपर अल्लाह का अनुग्रह और दया न होती लोक तथा परलोक में, तो जिन बातों में तुम पड़ गये, उनके बदले तुमपर कड़ी यातना आ जाती।
إِذْ تَلَقَّوْنَهُ بِأَلْسِنَتِكُمْ وَتَقُولُونَ بِأَفْوَاهِكُم مَّا لَيْسَ لَكُم بِهِ عِلْمٌ وَتَحْسَبُونَهُ هَيِّنًا وَهُوَ عِندَ اللَّهِ عَظِيمٌ ﴾ 15 ﴿
इज् तलक़्कौ़नहू बिअल्सि-नतिकुम् व तकूलू-न बिअफ़्वाहिकुम् मा लै-स लकुम् बिही अ़िल्मुंव्-व तहसबूनहू हय्यिनंव्-व हु-व अ़िन्दल्लाहि अ़ज़ीम
जबकि (बिना सोचे) तुम अपनी ज़बानों पर इसे लाने लगे और अपने मुखों से वह बात कहने लगे, जिसका तुम्हें कोई ज्ञान न था तथा तुम इसे सरल समझ रहे थे, जबकि अल्लाह के के समीप ये बहुत बड़ी बात थी।
وَلَوْلَا إِذْ سَمِعْتُمُوهُ قُلْتُم مَّا يَكُونُ لَنَا أَن نَّتَكَلَّمَ بِهَٰذَا سُبْحَانَكَ هَٰذَا بُهْتَانٌ عَظِيمٌ ﴾ 16 ﴿
व लौ ला इज् समिअ्तुमूहु कुल्तुम् मा यकूनु लना अन् न-तकल्ल-म बिहाज़ा सुब्हान-क हाज़ा बुह्तानुन् अ़ज़ीम
और क्यों नहीं जब तुमने इसे सुना, तो कह दिया कि हमारे लिए योग्य नहीं कि ये बात बोलें? हे अल्लाह! तू पवित्र है! ये तो बहुत बड़ा आरोप है।
يَعِظُكُمُ اللَّهُ أَن تَعُودُوا لِمِثْلِهِ أَبَدًا إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ ﴾ 17 ﴿
यअिजुकुमुल्लाहु अन् तअूदू लिमिस्लिही अ-बदन् इन् कुन्तुम् मुअ्मिनीन
अल्लाह तुम्हें शिक्षा देता है कि पुनः कभी इस जैसी बात न कहना, यदि तुम ईमान वाले हो।
وَيُبَيِّنُ اللَّهُ لَكُمُ الْآيَاتِ ۚ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ﴾ 18 ﴿
व युबय्यिनुल्लाहु लकुमुल्-आयाति , वल्लाहु अ़लीमुन् हकीम
और अल्लाह उजागर कर रहा है तुम्हारे लिए आयतों (आदेशों) को तथा अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वज्ञ है।
إِنَّ الَّذِينَ يُحِبُّونَ أَن تَشِيعَ الْفَاحِشَةُ فِي الَّذِينَ آمَنُوا لَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ ۚ وَاللَّهُ يَعْلَمُ وَأَنتُمْ لَا تَعْلَمُونَ ﴾ 19 ﴿
इन्नल्लज़ी-न युहिब्बू-न अन् तशीअ़ल्-फ़ाहि-शतु फ़िल्लज़ी-न आमनू लहुम् अ़ज़ाबुन् अलीमुन् फ़िद्दुन्या वल्-आख़िरति , वल्लाहु यअ्लमु व अन्तुम् ला तअ्लमून
जो लोग चाहते हैं कि उनमें अश्लीलता[1] फैले, जो ईमान लाये हैं, तो उनके लिए दुःखदायी यातना है, लोक तथा परलोक में तथा अल्लाह जानता[2] है और तुम नहीं जानते। 1. अशलीलता, व्यभिचार और व्यभिचार के निर्मूल आरोप दोनों को कहा गया है।
وَلَوْلَا فَضْلُ اللَّهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهُ وَأَنَّ اللَّهَ رَءُوفٌ رَّحِيمٌ ﴾ 20 ﴿
व लौ ला फ़ज़्लुल्लाहि अ़लैकुम् व रह्मतुहू व अन्नल्ला-ह रऊफुर-रहीम*
और यदि तुमपर अल्लाह का अनुग्रह तथा उसकी दया न होती, ( तो तुमपर यातना आ जाती)। और वास्तव में, अल्लाह अति करुणामय, दयावान् है। 1. उन के मिथ्यारोपण को।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَتَّبِعُوا خُطُوَاتِ الشَّيْطَانِ ۚ وَمَن يَتَّبِعْ خُطُوَاتِ الشَّيْطَانِ فَإِنَّهُ يَأْمُرُ بِالْفَحْشَاءِ وَالْمُنكَرِ ۚ وَلَوْلَا فَضْلُ اللَّهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهُ مَا زَكَىٰ مِنكُم مِّنْ أَحَدٍ أَبَدًا وَلَٰكِنَّ اللَّهَ يُزَكِّي مَن يَشَاءُ ۗ وَاللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ﴾ 21 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनू ला तत्तबिअू खु़तुवातिश्शैतानि , व मंय्यत्तबिअ् खुतुवातिश्शैतानि फ़-इन्नहू यअ्मुरु बिल्फ़हशा-इ वल्मुन्करि , व लौ ला फ़ज़्लुल्लाहि अ़लैकुम् व रह़्मतुहू मा ज़का मिन्कुम् मिन् अ-हदिन् अ-बदंव्-व लाकिन्नल्ला-ह युज़क्की मंय्यशा-उ , वल्लाहु समीअुन् अ़लीम
हे ईमान वालो! शैतान के पद्चिन्हों पर न चलो और जो उसके पदचिन्हों पर चलेगा, तो वह अश्लील कार्य तथा बुराई का ही आदेश देगा और यदि तुमपर अल्लाह का अनुग्रह और उसकी दया न होती, तो तुममें से कोई पवित्र कभी नहीं होता, परन्तु अल्लाह पवित्र करता है, जिसे चाहे और अल्लाह सब कुछ सुनने-जानने वाला है।
وَلَا يَأْتَلِ أُولُو الْفَضْلِ مِنكُمْ وَالسَّعَةِ أَن يُؤْتُوا أُولِي الْقُرْبَىٰ وَالْمَسَاكِينَ وَالْمُهَاجِرِينَ فِي سَبِيلِ اللَّهِ ۖ وَلْيَعْفُوا وَلْيَصْفَحُوا ۗ أَلَا تُحِبُّونَ أَن يَغْفِرَ اللَّهُ لَكُمْ ۗ وَاللَّهُ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 22 ﴿
व ला यअ्तलि उलुल्-फ़ज्लि मिन्कुम् वस्स-अ़ति अंय्युअतू उलिल्-कुरबा वल्मसाकी-न वल्मुहाजिरी-न फ़ी सबीलिल्लाहि वल्-यअ्फू वल्-यस्फ़हू , अला तुहिब्बू-न अंय्यग़्फिरल्लाहु लकुम् , वल्लाहु ग़फूरूर्रहीम
और न शपथ लें[1] तुममें से धनी और सुखी कि नहीं देंगे समीपवर्तियों तथा निर्धनों को और (उन्हें) जो हिजरत कर गये अल्लाह की राह में और चाहिये कि क्षमा कर दें तथा जाने दें! क्या तुम नहीं चाहते कि अल्लाह तुम्हें क्षमा कर दे और अल्लाह अति क्षमी, सहनशील हैं। 1. आदरणीय मिस्तह़ पुत्र उसासा (रज़ियल्लाहु अन्हु) निर्धन और आदरणीय अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) के समीपवर्ती थे। और वह उन की सहायता किया करते थे। वह भी आदरणीय आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के विरुध्द आक्षेप में लिप्त हो गये थे। अतः आदरणीय आइशा के निर्दोश होने के बारे में आयतें उतरने के पश्चात् आदरणीय अबू बक्र ने शपथ ली कि अब वह मिस्तह़ की कोई सहायता नहीं करेंगे। उसी पर यह आयत उतरी। और उन्हों ने कहाः निश्चय मैं चाहता हूँ कि अल्लाह मुझे क्षमा कर दे। और पुनः उन की सहायता करने लगे। (सह़ीह़ बुख़ारीः 4750)
إِنَّ الَّذِينَ يَرْمُونَ الْمُحْصَنَاتِ الْغَافِلَاتِ الْمُؤْمِنَاتِ لُعِنُوا فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ وَلَهُمْ عَذَابٌ عَظِيمٌ ﴾ 23 ﴿
इन्नल्लज़ी-न यरमूनल-मुह्सनातिल् ग़ाफ़िलातिल्-मुअ्मिनाति लुअिनू फिद्दुन्या वल-आख़िरति व लहुम् अ़ज़ाबुन् अ़ज़ीम
जो लोग आरोप लगाते हैं सतवंती भोली-भाली ईमान वाली स्त्रियों पर, वे धिक्कार दिये गये लोक तथा परलोक में और उन्हीं के लिए बड़ी यातना है।
يَوْمَ تَشْهَدُ عَلَيْهِمْ أَلْسِنَتُهُمْ وَأَيْدِيهِمْ وَأَرْجُلُهُم بِمَا كَانُوا يَعْمَلُونَ ﴾ 24 ﴿
यौ-म तश्-हदु अ़लैहिम् अल्सि-नतुहुम् व ऐदीहिम् व अरजुलूहुम् बिमा कानू यअ्मलून
जिस दिन साक्ष्य (गवाही) देंगी उनकी जीभें, उनके हाथ और उनके पैर, उनके कर्मों की।
يَوْمَئِذٍ يُوَفِّيهِمُ اللَّهُ دِينَهُمُ الْحَقَّ وَيَعْلَمُونَ أَنَّ اللَّهَ هُوَ الْحَقُّ الْمُبِينُ ﴾ 25 ﴿
यौ मइज़िंय्-युवफ़्फ़ीहिमुल्लाहु दीनहुमुल्-हक्-क़ व यअ्लमू-न अन्नल्ला-ह हुवल्-हक़्कुल-मुबीन
उस दिन अल्लाह उन्हें उनका पूरा न्याय पूर्वक बदला देगा तथा वे जान लेंगे कि अल्लाह ही सत्य (तथा सच को) उजागर करने वाला है।
الْخَبِيثَاتُ لِلْخَبِيثِينَ وَالْخَبِيثُونَ لِلْخَبِيثَاتِ ۖ وَالطَّيِّبَاتُ لِلطَّيِّبِينَ وَالطَّيِّبُونَ لِلطَّيِّبَاتِ ۚ أُولَٰئِكَ مُبَرَّءُونَ مِمَّا يَقُولُونَ ۖ لَهُم مَّغْفِرَةٌ وَرِزْقٌ كَرِيمٌ ﴾ 26 ﴿
अल्ख़बीसातु लिल्ख़बीसी-न वल्ख़बीसू-न लिल्ख़बीसाति वत्तय्यिबातु लित्तय्यिबी-न वत्तय्यिबू-न लित्तय्यिबाति उलाइ-क मुबर्रऊ-न मिम्मा यकूलू-न , लहुम् मग्फि-रतुंव्-व रिज़्कुन् करीम*
अपवित्र स्त्रियाँ, अपवित्र पुरुषों के लिए हैं तथा अपवित्र पुरुष, अपवित्र स्त्रियों के लिए और पवित्र स्त्रियाँ, पवित्र पुरुषों के लिए हैं तथा पवित्र पुरुष, पवित्र स्त्रियों के[1] लिए। वही निर्दोष हैं उन बातों से, जो वे कहते हैं। उन्हीं के लिए क्षमा तथा सम्मानित जीविका है। 1. इस में यह संकेत है कि जिन पुरुषों तथा स्त्रियों ने आदरणीय आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) पर आरोप लगाया वह मन के मलीन तथा अपवित्र हैं।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَدْخُلُوا بُيُوتًا غَيْرَ بُيُوتِكُمْ حَتَّىٰ تَسْتَأْنِسُوا وَتُسَلِّمُوا عَلَىٰ أَهْلِهَا ۚ ذَٰلِكُمْ خَيْرٌ لَّكُمْ لَعَلَّكُمْ تَذَكَّرُونَ ﴾ 27 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनू ला तद्खुलू बुयूतन् गै़-र बुयूतिकुम् हत्ता तस्तअ्निसू व तुसल्लिमू अ़ला अह़्लिहा , ज़ालिकुम् खै़रुल्-लकुम् लअ़ल्लकुम् तज़क्करून
हे ईमान वालो[1]! मत प्रवेश करो किसी घर में, अपने घरों के सिवा, यहाँ तक कि अनुमति ले लो और उनके वासियों को सलाम कर[1] लो, ये तुम्हारे लिए उत्तम है, ताकि तुम याद रखो। 1. सूरह के आरंभ में यह आदेश दिये गये थे कि समाज में कोई बुराई हो जाये तो उस का निवारण कैसे किया जाये? अब वह आदेश दिये जा रहे हैं जिन से समाज में बुराईयों को जन्म लेने ही से रोक दिया जाये। 2. ह़दीस में इस का नियम यह बताया गया है कि (द्वार पर दायें या बायें खड़े हो कर) सलाम करो। फिर कहो कि क्या भीतर आ जाऊँ? ऐसे तीन बार करो, और अनुमति न मिलने पर वापिस हो जाओ। (बुख़ारीः 6245, मुस्लिमः2153)
فَإِن لَّمْ تَجِدُوا فِيهَا أَحَدًا فَلَا تَدْخُلُوهَا حَتَّىٰ يُؤْذَنَ لَكُمْ ۖ وَإِن قِيلَ لَكُمُ ارْجِعُوا فَارْجِعُوا ۖ هُوَ أَزْكَىٰ لَكُمْ ۚ وَاللَّهُ بِمَا تَعْمَلُونَ عَلِيمٌ ﴾ 28 ﴿
फ़-इल्लम् तजिदू फ़ीहा अ-हदन् फ़ला तद्ख़ुलूहा हत्ता युअ्-ज़-न लकुम् व इन् की-ल लकुमुर्जिअू फ़रजिअू हु-व अज़्का लकुम् , वल्लाहु बिमा तअ्मलू-न अलीम
और यदि, उनमें किसी को न पाओ, तो उनमें प्रवेश न करो, यहाँ तक कि तुम्हें अनुमति दे दी जाये और यदि, तुमसे कहा जाये कि वापस हो जाओ, तो वापस हो जाओ, ये तुम्हारे लिए अधिक पवित्र है तथा अल्लाह जो कुछ तुम करते हो, भली-भाँति जानने वाला है।
لَّيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ أَن تَدْخُلُوا بُيُوتًا غَيْرَ مَسْكُونَةٍ فِيهَا مَتَاعٌ لَّكُمْ ۚ وَاللَّهُ يَعْلَمُ مَا تُبْدُونَ وَمَا تَكْتُمُونَ ﴾ 29 ﴿
लै-स अ़लैकुम् जुनाहुन् अन् तद्खुलू बुयूतन् गै़-र मस्कूनतिन् फ़ीहा मताअुल्-लकुम् , वल्लाहु यअ्लमु मा तुब्दू-न व मा तक्तुमून
तुमपर कोई दोष नहीं है कि प्रवेश करो निर्जन घरों में, जिनमें तुम्हारा सामान हो और अल्लाह जानता है, जो कुछ तुम बोलते हो और जो मन में रखते हो।
قُل لِّلْمُؤْمِنِينَ يَغُضُّوا مِنْ أَبْصَارِهِمْ وَيَحْفَظُوا فُرُوجَهُمْ ۚ ذَٰلِكَ أَزْكَىٰ لَهُمْ ۗ إِنَّ اللَّهَ خَبِيرٌ بِمَا يَصْنَعُونَ ﴾ 30 ﴿
कुल लिल्-मुअ्मिनी-न यगुज़्जू मिन् अब्सारिहिम् व यह्फ़जू फुरू-जहुम् , ज़ालि-क अज़्का लहुम् , इन्नल्ला-ह ख़बीरूम्-बिमा यस्नअून
(हे नबी!) आप ईमान वालों से कहें कि अपनी आँखें नीची रखें और अपने गुप्तांगों की रक्षा करें। ये उनके लिए अधिक पवित्र है, वास्तव में, अल्लाह सूचित है उससे, जो कुछ वे कर रहे हैं।
وَقُل لِّلْمُؤْمِنَاتِ يَغْضُضْنَ مِنْ أَبْصَارِهِنَّ وَيَحْفَظْنَ فُرُوجَهُنَّ وَلَا يُبْدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا مَا ظَهَرَ مِنْهَا ۖ وَلْيَضْرِبْنَ بِخُمُرِهِنَّ عَلَىٰ جُيُوبِهِنَّ ۖ وَلَا يُبْدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا لِبُعُولَتِهِنَّ أَوْ آبَائِهِنَّ أَوْ آبَاءِ بُعُولَتِهِنَّ أَوْ أَبْنَائِهِنَّ أَوْ أَبْنَاءِ بُعُولَتِهِنَّ أَوْ إِخْوَانِهِنَّ أَوْ بَنِي إِخْوَانِهِنَّ أَوْ بَنِي أَخَوَاتِهِنَّ أَوْ نِسَائِهِنَّ أَوْ مَا مَلَكَتْ أَيْمَانُهُنَّ أَوِ التَّابِعِينَ غَيْرِ أُولِي الْإِرْبَةِ مِنَ الرِّجَالِ أَوِ الطِّفْلِ الَّذِينَ لَمْ يَظْهَرُوا عَلَىٰ عَوْرَاتِ النِّسَاءِ ۖ وَلَا يَضْرِبْنَ بِأَرْجُلِهِنَّ لِيُعْلَمَ مَا يُخْفِينَ مِن زِينَتِهِنَّ ۚ وَتُوبُوا إِلَى اللَّهِ جَمِيعًا أَيُّهَ الْمُؤْمِنُونَ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُونَ ﴾ 31 ﴿
व कुल लिल्-मुअ्मिनाति यग्जुज्-न मिन् अब्सारिहिन्-न व यह्फ़ज्-न फुरू-जहुन्-न व ला युब्दी-न ज़ीन-तहुन्-न इल्ला मा ज़-ह-र मिन्हा वल्यज्रिब्-न बिखुमुरिहिन्-न अ़ला जुयूबिहिन्-न व ला युब्दी-न जीन-तहुन्-न इल्ला लिबुअ़ू-लतिहिन्-न औ आबाइ-हिन्-न औ आबाइ-बुअू-लतिहिन्-न औ अब्नाइ-हिन्-न औ अब्ना-इ बुअू-लतिहिन्-न औ इख़्वानिहिन्-न औ बनी इख़्वानिहिन्-न औ बनी अ-ख़वातिहिन्-न औ निसाइ-हिन्-न औ मा म-लकत् ऐमानुहुन्-न अवित्ताबिअ़ी-न गै़रि उलिल्-इरबति मिनर्-रिजालि अवित्-तिफ़्लिल्लज़ी-न लम् यज़्हरू अ़ला औरातिन्निसा-इ व ला यज्रिब्-न बि-अर्जुलिहिन्-न लियुअ्-ल-म मा युख्फी-न मिन् ज़ीनतिहिन्-न , व तूबू इलल्लाहि जमीअ़न् अय्युहल-मुअ्मिनू-न लअ़ल्लकुम् तुफ्लिहून
और ईमान वालियों से कहें कि अपनी आँखें नीची रखें और अपने गुप्तांगों की रक्षा करें और अपनी शोभा[1] का प्रदर्शन न करें, सिवाय उसके जो प्रकट हो जाये तथा अपनी ओढ़नियाँ अपने वक्षस्थलों (सीनों) पर डाली रहें और अपनी शोभा का प्रदर्शन न करें, परन्तु अपने पतियों के लिए अथवा अपने पिताओं अथवा अपने ससुरों के लिए अथवा अपने पुत्रों[2] अखवा अपने पति के पुत्रों के लिए अथवा अपने भाईयों[3] अथवा भतीजों अथवा अपने भांजों[4]के लिए अथवा अपनी स्त्रियों[5] अथवा अपने दास-दासियों अथवा ऐसे अधीन[6] पुरुषों के लिए, जो किसी और प्रकार का प्रयोजन न रखते हों अथवा उन बच्चों के लिए, जो स्त्रियों की गुप्त बातें ने जानते हों और अपने पैर धरती पर मारती हुई न चलें कि उसका ज्ञान हो जाये, जो शोभा उन्होंने छुपा रखी है और तुमसब मिलकर अल्लाह से क्षमा माँगो, हे ईमान वालो! ताकि तुम सफल हो जाओ। 1. शोभा से तात्पर्य वस्त्र तथा आभूषण हैं। 2. पुत्रों में पौत्र तथा नाती प्रनाती सब सम्मिलित हैं, इस में सगे सौतीले का कोई अन्तर नहीं। 3. भाईयों मे सगे और सौतीले तथा माँ जाये सब भाई आते हैं। 4. भतीजों और भांजों में उन के पुत्र तथा पौत्र और नाती सभी आते हैं। 5. अपनी स्त्रियों से अभिप्रेत मुस्लिम स्त्रियाँ हैं। 6. अर्थात जो अधीन होने के कारण घर की महिलाओं के साथ कोई अनुचित इच्छा का साहस न कर सकेंगे। कुछ ने इस का अर्थ नपुंसक लिया है। (इब्ने कसीर) इस में घर के भीतर उन पर शोभा के प्रदर्शन से रोका गया है जिन से विवाह हो सकता है।
وَأَنكِحُوا الْأَيَامَىٰ مِنكُمْ وَالصَّالِحِينَ مِنْ عِبَادِكُمْ وَإِمَائِكُمْ ۚ إِن يَكُونُوا فُقَرَاءَ يُغْنِهِمُ اللَّهُ مِن فَضْلِهِ ۗ وَاللَّهُ وَاسِعٌ عَلِيمٌ ﴾ 32 ﴿
व अन्किहुल-अयामा मिन्कुम् वस्सालिही-न मिन् अिबादिकुम व इमा-इकुम् , इंय्यकूनू फु-करा-अ युग्निहिमुल्लाहु मिन् फ़ज्लिही , वल्लाहु वासिअुन् अ़लीम
तथा तुम विवाह कर दो[1] अपने में से अविवाहित पुरुषों तथा स्त्रियों का और अपने सदाचारी दासों और अपनी दासियों का, यदि वे निर्धन होंगे, तो अल्लाह उन्हें धनी बना देगा अपने अनूग्रह से और अल्लाह उदार, सर्वज्ञ है। 1. विवाह के विषय में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का कथन हैः "जो मेरी सुन्नत से विमुख होगा वह मुझ से नहीं है।" (बुख़ारीः5063 तथा मुस्लिमः1020)
وَلْيَسْتَعْفِفِ الَّذِينَ لَا يَجِدُونَ نِكَاحًا حَتَّىٰ يُغْنِيَهُمُ اللَّهُ مِن فَضْلِهِ ۗ وَالَّذِينَ يَبْتَغُونَ الْكِتَابَ مِمَّا مَلَكَتْ أَيْمَانُكُمْ فَكَاتِبُوهُمْ إِنْ عَلِمْتُمْ فِيهِمْ خَيْرًا ۖ وَآتُوهُم مِّن مَّالِ اللَّهِ الَّذِي آتَاكُمْ ۚ وَلَا تُكْرِهُوا فَتَيَاتِكُمْ عَلَى الْبِغَاءِ إِنْ أَرَدْنَ تَحَصُّنًا لِّتَبْتَغُوا عَرَضَ الْحَيَاةِ الدُّنْيَا ۚ وَمَن يُكْرِههُّنَّ فَإِنَّ اللَّهَ مِن بَعْدِ إِكْرَاهِهِنَّ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 33 ﴿
वल्-यस्तअ्फिफ़िल्लज़ी-न ला यजिदू-न निकाहन हत्ता युग्नि-यहुमुल्लाहु मिन् फ़ज़्लिही, वल्लज़ी-न यब्तगूनल-किता-ब मिम्मा म-लकत् ऐमानुकुम् फ़कातिबूहुम् इन् अ़लिम्तुम् फ़ीहिम् खैरंव्-व आतूहुम् मिम्-मालिल्लाहिल्लज़ी आताकुम, व ला तुकरिहू फ़-तयातिकुम अलल्बिगा-इ इन् अरद्-न त-हस्सुनल्-लितब्तगू अ़-रज़ल-हयातिद्दुन्या , व मंय्युकरिह्हुन्-न फ़-इन्नल्ला-ह मिम्-बअ्दि इक्राहिहिन्-न गफूरूर्-रहीम
और उन्हें पवित्र रहना चाहिए, जो विवाह करने का सामर्थ्य नहीं रखते, यहाँ तक कि उन्हें धनी कर दे अल्लाह अपने अनुग्रह से तथा जो स्वाधीनता-लेख की माँग करें, तुम्हारे दास-दासियों में से, तो तुम उन्हें लिख दो, यदि तुम उनमें कुछ भलाई जानो[1] और उन्हें अल्लाह के उस माल से दो, जो उसने तुम्हें प्रदान किया है तथा बाध्य न करो अपनी दासियों को व्यभिचार पर, जब वे पवित्र रहना चाहती हैं,[2] ताकि तुम सांसारिक जीवन का लाभ प्राप्त करो और जो उन्हें बाध्य करेगा, तो अल्लाह उनके बाध्य किये जाने के पश्चात्,[3] अति क्षमी, दयावान् है। 1. इस्लाम ने दास-दासियों की स्वाधीनता के जो नियम बनाये हैं उन में यह भी है कि वह कुछ धनराशि दे कर स्वाधीनता लेख की माँग करें, तो यदि उन में इस धनराशि को चुकाने की योग्यता हो तो आयत में बल दिया गया है कि उन को स्वाधीलता-लेख दे दो। 2. अज्ञानकाल में स्वामी, धन अर्जित करने के लिये अपने दासियों को व्यभिचार के लिये बाध्य करते थे। इस्लाम ने इस व्यवसाय को वर्जिरत कर दिया। ह़दीस में आया है कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कुत्ते के मूल्य तथा वैश्या और ज्योतिषी की कमाई को रोक दिया। (बुख़ारीः2237, मुस्लिमः1567) 3. अर्थात दासी से बल पूर्वक व्यभिचार कराने का पाप स्वामी पर होगा, दासी पर नहीं।
وَلَقَدْ أَنزَلْنَا إِلَيْكُمْ آيَاتٍ مُّبَيِّنَاتٍ وَمَثَلًا مِّنَ الَّذِينَ خَلَوْا مِن قَبْلِكُمْ وَمَوْعِظَةً لِّلْمُتَّقِينَ ﴾ 34 ﴿
व ल-कद् अन्ज़ल्ना इलैकुम् आयातिम्-मुबय्यिनातिंव्-व म-सलम्-मिनल्लज़ी-न ख़लौ मिन् क़ब्लिकुम् व मौअि-ज़तल्-लिल्मुत्तक़ीन*
तथा हमने तुम्हारी ओर खुली आयतें उतारी हैं और उनका उदाहरण, जो तुमसे पहले गुज़र गये तथा आज्ञाकारियों के लिए शिक्षा।
اللَّهُ نُورُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۚ مَثَلُ نُورِهِ كَمِشْكَاةٍ فِيهَا مِصْبَاحٌ ۖ الْمِصْبَاحُ فِي زُجَاجَةٍ ۖ الزُّجَاجَةُ كَأَنَّهَا كَوْكَبٌ دُرِّيٌّ يُوقَدُ مِن شَجَرَةٍ مُّبَارَكَةٍ زَيْتُونَةٍ لَّا شَرْقِيَّةٍ وَلَا غَرْبِيَّةٍ يَكَادُ زَيْتُهَا يُضِيءُ وَلَوْ لَمْ تَمْسَسْهُ نَارٌ ۚ نُّورٌ عَلَىٰ نُورٍ ۗ يَهْدِي اللَّهُ لِنُورِهِ مَن يَشَاءُ ۚ وَيَضْرِبُ اللَّهُ الْأَمْثَالَ لِلنَّاسِ ۗ وَاللَّهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ ﴾ 35 ﴿
अल्लाहु नूरूस्समावाति वल्अर्जि , म-सलु नूरिही कमिश्कातिन् फीहा मिस्बाहुन् , अल-मिस्बाहु फ़ी जुजाजतिन् , अज़्जु़जा-जतु क-अन्नहा कौकबुन् दुर्रिय्-युंय्यू-कदु मिन् श-ज-रतिम् मुबार-कतिन् जै़तूनतिल्-ला शर्किय्यतिंव् व ला ग़रबिय्यतिंय्-यकादु जै़तुहा युज़ी-उ व लौ लम् तम्सस्हु नारुन् , नूरुन् अला नूरिन् , यह्दिल्लाहु लिनूरिही मंय्यशा-उ , व यज़्रिबुल्लाहुल्-अम्सा-ल लिन्नासि , वल्लाहु बिकुल्लि शैइन् अ़लीम
अल्लाह आकाशों तथा धरती का प्रकाश है, उसके प्रकाश की उपमा ऐसी है, जैसे एक ताखा हो, जिसमें दीप हो, दीप काँच के झाड़ में हो, झाड़ मोती जैसे चमकते तारे के समान हो, वह ऐसे शुभ ज़ैतून के वृक्ष के तेल से जलाया जाता हो, जो न पूर्वी हो और न पश्चिमी, उसका तेल समीप (संभव) है कि स्वयं प्रकाश देने लगे, यद्यपि उसे आग न लगे। प्रकाश पर प्रकाश है। अल्लाह अपने प्रकाश का मार्ग दिखा देता है, जिसे चाहे और अल्लाह लोगों को उदाहरण दे रहा है और अल्लाह प्रत्येक वस्तु से भली-भाँति अवगत है। 1. अर्थात आकाशों तथा धरती की व्यवस्था करता और उन के वासियों को संमार्ग दर्शाता है। और अल्लाह की पुस्तक और उस का मार्ग दर्शन उस का प्रकाश है। यदि उस का प्रकाश न होता तो यह विश्व अन्धेरा होता। फिर कहा कि उस की ज्योति ईमान वालों के दिलों में ऐसे है जैसे किसी ताखा में अति प्रकाशमान दीप रखा हो, जो आगामी वर्णित गुणों से युक्त हो। पूर्वी तथा पश्चिमी न होने का अर्थ यह है कि उस पर पूरे दिन धूप पड़ती हो जिस के कारण उस का तेल अति शुध्द तथा साफ़ हो।
فِي بُيُوتٍ أَذِنَ اللَّهُ أَن تُرْفَعَ وَيُذْكَرَ فِيهَا اسْمُهُ يُسَبِّحُ لَهُ فِيهَا بِالْغُدُوِّ وَالْآصَالِ ﴾ 36 ﴿
फ़ी बुयूतिन् अज़िनल्लाहु अन् तुर्-फ़-अ़ व युज़्क-र फ़ीहस्मुहू युसब्बिहु लहू फ़ीहा बिल्-गुदुव्वि वल्-आसाल
(ये प्रकाश) उन घरों[1] में है, अल्लाह ने जिन्हें ऊँचा करने और उनमें अपने नाम की चर्चा करने का आदेश दिया है, उसकी महिमा का गान करते हैं, जिनमें प्रातः तथा संध्या। 1. इस से तात्पर्य मस्जिदें हैं।
رِجَالٌ لَّا تُلْهِيهِمْ تِجَارَةٌ وَلَا بَيْعٌ عَن ذِكْرِ اللَّهِ وَإِقَامِ الصَّلَاةِ وَإِيتَاءِ الزَّكَاةِ ۙ يَخَافُونَ يَوْمًا تَتَقَلَّبُ فِيهِ الْقُلُوبُ وَالْأَبْصَارُ ﴾ 37 ﴿
रिजालुल् ला तुल्हीहिम् तिजा-रतुंव्-व ला बैअुन् अ़न् जिक्रिल्लाहि व इकामिस्सलाति व ईताइज़्ज़काति यखा़फू-न यौमन् त-तक़ल्लबु फीहिल्-कुलूबु वल्-अब्सार
ऐसे लोग, जिन्हें अचेत नहीं करता व्यापार तथा सौदा, अल्लाह के स्मरण, नमाज़ की स्थापना करने और ज़कात देने से। वे उस दिन[1] से डरते हैं जिसमें दिल तथा आँखें उलट जायेँगी। 1. अर्थात प्रलय के दिन।
لِيَجْزِيَهُمُ اللَّهُ أَحْسَنَ مَا عَمِلُوا وَيَزِيدَهُم مِّن فَضْلِهِ ۗ وَاللَّهُ يَرْزُقُ مَن يَشَاءُ بِغَيْرِ حِسَابٍ ﴾ 38 ﴿
लियज्ज़ि-यहुमुल्लाहु अह्स-न मा अ़मिलू व यज़ी-दहुम् मिन् फ़ज्लिही, वल्लाहु यर्जुकु मंय्यशा-उ बिगै़रि हिसाब
ताकि अल्लाह उन्हें बदला दे, उनके सत्कर्मों का और उन्हें अधिक प्रदान करे अपने अनुग्रह से और अल्लाह जिसे चाहे, अनगिनत जीविका देता है।
وَالَّذِينَ كَفَرُوا أَعْمَالُهُمْ كَسَرَابٍ بِقِيعَةٍ يَحْسَبُهُ الظَّمْآنُ مَاءً حَتَّىٰ إِذَا جَاءَهُ لَمْ يَجِدْهُ شَيْئًا وَوَجَدَ اللَّهَ عِندَهُ فَوَفَّاهُ حِسَابَهُ ۗ وَاللَّهُ سَرِيعُ الْحِسَابِ ﴾ 39 ﴿
वल्लज़ी-न क-फरू अअ्मालुहुम् क-सराबिम् बिकी-अतिंय् यह्सबुहुज-ज़म्आनु मा-अन्-हत्ता , इजा़ जा-अहू लम् यजिद्हू शैअंव्-व व-जदल्ला-ह अिन्दहू फ़-वफ़्फा़हु हिसा-बहू, वल्लाहु सरीअुल-हिसाब
तथा जो काफ़िर[1] हो गये, उनके कर्म उस चमकते सुराब[2] के समान हैं, जो किसी मैदान में हो, जिसे प्यासा पानी समझता हो। परन्तु, जब उसके पास आये, तो कुछ न पाये और वहाँ अल्लाह को पाये, जो उसका पूरा ह़िसाब चुका दे और अल्लाह शीघ्र ह़िसाब लेने वाला है। 1.आयत का अर्थ यह है कि काफ़िरों के कर्म, अल्लाह पर ईमान न होने के कारण अल्लाह के समक्ष व्यर्थ हो जायेंगे। 2. कड़ी गर्मी के समय रेगिस्तान में जो चमकती हुई रेत पानी जैसी लगती है उसे सुराब कहते हैं।
أَوْ كَظُلُمَاتٍ فِي بَحْرٍ لُّجِّيٍّ يَغْشَاهُ مَوْجٌ مِّن فَوْقِهِ مَوْجٌ مِّن فَوْقِهِ سَحَابٌ ۚ ظُلُمَاتٌ بَعْضُهَا فَوْقَ بَعْضٍ إِذَا أَخْرَجَ يَدَهُ لَمْ يَكَدْ يَرَاهَا ۗ وَمَن لَّمْ يَجْعَلِ اللَّهُ لَهُ نُورًا فَمَا لَهُ مِن نُّورٍ ﴾ 40 ﴿
औ क-जुलुमातिन् फ़ी बहरिल लुज्जिय्यिंय्-यग्शाहु मौजुम्-मिन् फौकिही मौजुम्-मिन् फौकिही सहाबुन , जुलुमातुम्-बअजुहा फ़ौ-क बअ्ज़िन् , इज़ा अख़र-ज य-दहू लम् य-कद् यराहा , व मल्लम् यज्अ़लिल्लाहु लहू नूरन् फ़मा लहू मिन्-नूर*
अथवा उन अंधकारों के समान हैं, जो किसी गहरे सागर में हो और जिसपर तरंग छायी हो, जिसके ऊपर तरंग हो, उसके ऊपर बादल हो, अन्धकार पर अन्धकार हो, जब अपना हाथ निकाले, तो उसे भी न देख सके और अल्लाह जिसे प्रकाश न दे, उसके लिए कोई प्रकाश[1] नहीं। 1. अर्थात काफ़िर, अविश्वास और कुकर्मों के अन्धकार में घिरा रहता है। और यह अन्धकार उसे मार्ग दर्शन की ओर नहीं आने देते।
أَلَمْ تَرَ أَنَّ اللَّهَ يُسَبِّحُ لَهُ مَن فِي السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَالطَّيْرُ صَافَّاتٍ ۖ كُلٌّ قَدْ عَلِمَ صَلَاتَهُ وَتَسْبِيحَهُ ۗ وَاللَّهُ عَلِيمٌ بِمَا يَفْعَلُونَ ﴾ 41 ﴿
अलम् त-र अन्नल्ला-ह युसब्बिहु लहू मन् फ़िस्समावाति वल्अर्ज़ि वत्तैरु साफ्फातिन् , कुल्लुन् क़द् अ़लि-म सला-तहू व तस्बी-हहू , वल्लाहु अ़लीमुम् बिमा यफ्अ़लून
क्या आपने नहीं देखा कि अल्लाह ही की पवित्रता का गान कर रहे हैं, जो आकाशों तथा धरती में हैं तथा पंख फैलाये हुए पक्षी? प्रत्येक ने अपनी बंदगी तथा पवित्रता गान को जान लिया[1] है और अल्लाह भली-भाँति जानने वाला है, जो वे कर रहे हैं। 1. अर्थात तुम भी उस की पवित्रता का गान गाओ। और उस की आज्ञा का पालन करो।
وَلِلَّهِ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۖ وَإِلَى اللَّهِ الْمَصِيرُ ﴾ 42 ﴿
व लिल्लाहि मुल्कुस्समावाति वल्अर्जि व इलल्लाहिल्-मसीर
अल्लाह ही के लिए है, आकाशों तथा धरती का राज्य और अल्लाह ही की ओर फिरकर[1] जाना है। 1. अर्थात प्रलय के दिन अपने कर्मों का फल भोगने के लिये।
أَلَمْ تَرَ أَنَّ اللَّهَ يُزْجِي سَحَابًا ثُمَّ يُؤَلِّفُ بَيْنَهُ ثُمَّ يَجْعَلُهُ رُكَامًا فَتَرَى الْوَدْقَ يَخْرُجُ مِنْ خِلَالِهِ وَيُنَزِّلُ مِنَ السَّمَاءِ مِن جِبَالٍ فِيهَا مِن بَرَدٍ فَيُصِيبُ بِهِ مَن يَشَاءُ وَيَصْرِفُهُ عَن مَّن يَشَاءُ ۖ يَكَادُ سَنَا بَرْقِهِ يَذْهَبُ بِالْأَبْصَارِ ﴾ 43 ﴿
अलम् त-र अन्नल्ला-ह युज्जी सहाबन् सुम्-म युअल्लिफु बैनहू सुम्-म यज्-अ़लुहू रूकामन्-फ़-तरल्-वद्-क़ यख़्रूजु मिन् ख़िलालिही व युनज्जिलु मिनस्समा-इ मिन् जिबालिन् फीहा मिम्-ब रदिन् फयुसीबु बिही मंय्यशा-उ व यसरिफुहू अम्-मंय्यशा-उ, यकादु सना बरकिही यज़्हबु बिल्अब्सार
क्या आपने नहीं देखा कि अल्लाह बादलों को चलाता है, फिर उन्हें परस्पर मिला देता है, फिर उन्हें घंघोर मेघ बना देता है, फिर आप देखते हैं बूँद को, उसके मध्य से निकलती हुई और वही पर्वतों जैसे बादल से ओले बरसाता है, फिर जिसपर चाहे, आपदा उतारता है और जिससे चाहे, फेर देता है। उसकी बिजली की चमक संभव है कि आँखों को उचक ले।
يُقَلِّبُ اللَّهُ اللَّيْلَ وَالنَّهَارَ ۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَعِبْرَةً لِّأُولِي الْأَبْصَارِ ﴾ 44 ﴿
युक़ल्लिबुल्लाहुल्लै-ल वन्नहा-र, इन्-न फी ज़ालि-क लअिब्- रतल्-लिउलिल्-अब्सार
अल्लाह ही रात और दिन को बदलता[1] है। बेशक इसमें बड़ी शिक्षा है, समझ-बूझ वालों के लिए। 1. अर्थात रात के पश्चात दिन और दिन के पश्चात रात होती है। इसी प्रकार कभी दिन बड़ा रात छोटी, और कभी रात बड़ी दिन छोटा हाता है।
وَاللَّهُ خَلَقَ كُلَّ دَابَّةٍ مِّن مَّاءٍ ۖ فَمِنْهُم مَّن يَمْشِي عَلَىٰ بَطْنِهِ وَمِنْهُم مَّن يَمْشِي عَلَىٰ رِجْلَيْنِ وَمِنْهُم مَّن يَمْشِي عَلَىٰ أَرْبَعٍ ۚ يَخْلُقُ اللَّهُ مَا يَشَاءُ ۚ إِنَّ اللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ ﴾ 45 ﴿
वल्लाहु ख़-ल-क कुल्-ल दाब्बतिम् मिम्-माइन् फ़-मिन्हुम् मंय्यम्शी अ़ला बत्निही व मिन्हुम् मंय्यम्शी अ़ला रिज्लैनि व मिन्हुम् मंय्यम्शी अ़ला अर्-बअिन्, यख़्लुकुल्लाहु मा यशा-उ, इन्नल्ला-ह अला कुल्लि शैइन् क़दीर
अल्लाह ही ने प्रत्येक जीव धारी को पानी से पैदा किया है। तो उनमें से कुछ अपने पेट के बल चलते हैं और कुछ दो पैर पर तथा कुछ चार पैर पर चलते हैं। अल्लाह जो चाहे, पैदा करता है, वास्तव में, वह जो चाहे, कर सकता है।
لَّقَدْ أَنزَلْنَا آيَاتٍ مُّبَيِّنَاتٍ ۚ وَاللَّهُ يَهْدِي مَن يَشَاءُ إِلَىٰ صِرَاطٍ مُّسْتَقِيمٍ ﴾ 46 ﴿
ल-क़द् अन्ज़ल्ना आयातिम्-मुबय्यिनातिन्, वल्लाहु यह्दी मंय्यशा-उ इला सिरातिम्-मुस्तकीम
हमने खुली आयतें (क़ुर्आन) अवतरित कर दी हैं और अल्लाह जिसे चाहता है, सुपथ दिखा देता है।
وَيَقُولُونَ آمَنَّا بِاللَّهِ وَبِالرَّسُولِ وَأَطَعْنَا ثُمَّ يَتَوَلَّىٰ فَرِيقٌ مِّنْهُم مِّن بَعْدِ ذَٰلِكَ ۚ وَمَا أُولَٰئِكَ بِالْمُؤْمِنِينَ ﴾ 47 ﴿
व यकूलू-न आमन्ना बिल्लाहि व बिर्रसूलि व अ-तअ्ना सुम्-म य-तवल्ला फ़रीकुम्-मिन्हुम् मिम्-बअ्दि ज़ालि-क, व मा उलाइ-क बिल्-मुअ्मिनीन
और[1] वे कहते हैं कि हम अल्लाह तथा रसूल पर ईमान लाये और हम आज्ञाकारी हो गये, फिर मुँह फेर लेता है उनमें से एक गिरोह इसके पश्चात्। वास्तव में, वे ईमान वाले हैं ही नहीं। 1. यहाँ से मुनाफ़िक़ों (द्विधावादियों) की दशा का वर्णन किया जा रहा है, तथा यह बताया जा रहा है कि ईमान के लिये अल्लाह के सभी आदेशों तथा नियमों का पालन आश्यक है। और क़ुर्आन तथा सुन्नत के निर्णय का पालन करना ही ईमान है।
وَإِذَا دُعُوا إِلَى اللَّهِ وَرَسُولِهِ لِيَحْكُمَ بَيْنَهُمْ إِذَا فَرِيقٌ مِّنْهُم مُّعْرِضُونَ ﴾ 48 ﴿
व इज़ा दुअू इलल्लाहि व रसूलिही लि-यह्कु-म बैनहुम् इज़ा फ़रीकुम्-मिन्हुम् मुअ्रिजून
और जब बुलाये जाते हैं, अल्लाह तथा उसके रसूल की ओर, ताकि (रसूल) निर्णय कर दें उनके बीच (विवाद का), तो अकस्मात उनमें से एक गिरोह मुँह फेर लेता है।
وَإِن يَكُن لَّهُمُ الْحَقُّ يَأْتُوا إِلَيْهِ مُذْعِنِينَ ﴾ 49 ﴿
व इंय्यकुल्-लहुमुल्-हक़्कु यअ्तू इलैहि मुज्अ़िनीन
और यदि उन्हीं को अधिकार पहुँचता हो, तो आपके पास सिर झुकाये चले आते हैं।
أَفِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ أَمِ ارْتَابُوا أَمْ يَخَافُونَ أَن يَحِيفَ اللَّهُ عَلَيْهِمْ وَرَسُولُهُ ۚ بَلْ أُولَٰئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ ﴾ 50 ﴿
अ-फी कुलूबिहिम् म-रजुन अमिरताबू अम् यखा़फू-न अंय्यहीफ़ल्लाहु अ़लैहिम् व रसूलुहू, बल् उलाइ-क हुमुज्ज़ालिमून *
क्या उनके दिलों में रोग है अथवा द्विधा में पड़े हुए हैं अथवा डर रहे हैं कि अल्लाह अत्याचार करेगा, उनपर और उसके रसूल? बल्कि वही अत्याचारी हैं।
إِنَّمَا كَانَ قَوْلَ الْمُؤْمِنِينَ إِذَا دُعُوا إِلَى اللَّهِ وَرَسُولِهِ لِيَحْكُمَ بَيْنَهُمْ أَن يَقُولُوا سَمِعْنَا وَأَطَعْنَا ۚ وَأُولَٰئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ ﴾ 51 ﴿
इन्नमा का-न कौ़लल-मुअ्मिनी-न इज़ा दुअू इलल्लाहि व रसूलिही लि-यह्कु-म बैनहुम् अंय्यकूलू समिअ्ना व अतअ्ना, व उलाइ-क हुमुल्-मुफ्लिहून
ईमान वालों का कथन तो ये है कि जब अल्लाह और उसके रसूल की ओर बुलाये जायें, ताकि आप उनके बीच निर्णँय कर दें, तो कहें कि हमने सुन लिया तथा मान लिया और वही सफल होने वाले हैं।
وَمَن يُطِعِ اللَّهَ وَرَسُولَهُ وَيَخْشَ اللَّهَ وَيَتَّقْهِ فَأُولَٰئِكَ هُمُ الْفَائِزُونَ ﴾ 52 ﴿
व मंय्युतिअिल्ला-ह व रसूलहू व यख़्शल्ला-ह व यत्तक्हि फ़-उलाइ-क हुमुल्-फ़ाइजून
तथा जो अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा का पालन करें, अल्लाह का भय रखें और उसकी (यातना से) डरें, तो वही सफल होने वाले हैं।
وَأَقْسَمُوا بِاللَّهِ جَهْدَ أَيْمَانِهِمْ لَئِنْ أَمَرْتَهُمْ لَيَخْرُجُنَّ ۖ قُل لَّا تُقْسِمُوا ۖ طَاعَةٌ مَّعْرُوفَةٌ ۚ إِنَّ اللَّهَ خَبِيرٌ بِمَا تَعْمَلُونَ ﴾ 53 ﴿
व अक़्समू बिल्लाहि जह्-द ऐमानिहिम् ल-इन् अमर्-तहुम् ल-यख़्रुजुन्-न , कुल्-ल तुक्सिमू ता-अ़तुम् मअ़्रू-फतुन्, इन्नल्ला-ह ख़बीरुम्-बिमा तअ्मलून
और इन (द्विधावादियों) ने बलपूर्वक शपथ ली कि यदि आप उन्हें आदेश दें, तो अवश्य वे (घरों से) निकल पड़ेंगे। उनसे कह दें: शपथ न लो। तुम्हारे आज्ञापालन की दशा जानी-पहचानी है। वास्तव में, अल्लाह तुम्हारे कर्मों से सूचित है।
قُلْ أَطِيعُوا اللَّهَ وَأَطِيعُوا الرَّسُولَ ۖ فَإِن تَوَلَّوْا فَإِنَّمَا عَلَيْهِ مَا حُمِّلَ وَعَلَيْكُم مَّا حُمِّلْتُمْ ۖ وَإِن تُطِيعُوهُ تَهْتَدُوا ۚ وَمَا عَلَى الرَّسُولِ إِلَّا الْبَلَاغُ الْمُبِينُ ﴾ 54 ﴿
कुल अतीअुल्ला-ह व अतीअुसुर्रसू-ल फ-इन् तवल्लौ फ़-इन्नमा अ़लैहि मा हुम्मि-ल व अ़लैकुम् मा हुम्मिल्तुम्, व इन् तुतीअूहु तह्तदू, व मा-अ़लर्रसूलि इल्लल्-बलागुल्-मुबीन
(हे नबी!) आप कह दें कि अल्लाह की आज्ञा का पालन करो तथा रसूल की आज्ञा का पालन करो और यदि वे विमुख हों, तो आपका कर्तव्य केवल वही है, जिसका भार आपपर रखा गया है और तुम्हारा वह है, जिसका भार तुमपर रखा गया है और रसूल का दायित्व केवल खुला आदेश पहुँचा देना है।
وَعَدَ اللَّهُ الَّذِينَ آمَنُوا مِنكُمْ وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ لَيَسْتَخْلِفَنَّهُمْ فِي الْأَرْضِ كَمَا اسْتَخْلَفَ الَّذِينَ مِن قَبْلِهِمْ وَلَيُمَكِّنَنَّ لَهُمْ دِينَهُمُ الَّذِي ارْتَضَىٰ لَهُمْ وَلَيُبَدِّلَنَّهُم مِّن بَعْدِ خَوْفِهِمْ أَمْنًا ۚ يَعْبُدُونَنِي لَا يُشْرِكُونَ بِي شَيْئًا ۚ وَمَن كَفَرَ بَعْدَ ذَٰلِكَ فَأُولَٰئِكَ هُمُ الْفَاسِقُونَ ﴾ 55 ﴿
व-अ़दल्लाहुल्लज़ी-न आमनू मिन्कुम् व अमिलुस्सालिहाति ल-यस्तख़्लिफ़न्नहुम् फ़िल्अर्जि क-मस्तख़्ल-फ़ल्लज़ी-न मिन् क़ब्लिहिम् व ल-युमक्किनन्-न लहुम् दीनहुमुल्लज़िर्-तज़ा लहुम् व लयुबद्दिलन्नहुम् मिम्-बअ्दि ख़ौफ़िहिम् अम्नन् , यअ्बुदू-ननी ला युश्रिकू़-न बी शैअन्, व मन् क-फ-र बअ्-द ज़ालि-क फ-उलाइ-क हुमुल्-फ़ासिकून
अल्लाह ने वचन[1] दिया है उन्हें, जो तुममें से ईमान लायें तथा सुकर्म करें कि उन्हें अवश्य धरती में अधिकार प्रदान करेगा, जैसे उन्हें अधिकार प्रदान किया, जो इनसे पहले थे तथा अवश्य सुदृढ़ कर देगा उनके उस धर्म को, जिसे उनके लिए पसंद किया है तथा उन (की दशा) को उनके भय के पश्चात् शान्ति में बदल देगा, वह मेरी इबादत (वंदना) करते रहें और किसी चीज़ को मेरा साझी न बनायें और जो कुफ़्र करें इसके पश्चात्, तो वही उल्लंघनकारी हैं। 1. इस आयत में अल्लाह ने जो वचन दिया है, वह उस समय पूरा हो गया जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आप के अनुयायियों को जो काफ़िरों से डर रहे थे उन की धरती पर अधिकार दे दिया। और इस्लाम पूरे अरब का धर्म बन गया और यह वचन अब भी है, जो ईमान तथा सत्कर्म के साथ प्रतिबंधित है।
وَأَقِيمُوا الصَّلَاةَ وَآتُوا الزَّكَاةَ وَأَطِيعُوا الرَّسُولَ لَعَلَّكُمْ تُرْحَمُونَ ﴾ 56 ﴿
व अक़ीमुस्सला-त व आतुज़्ज़का-त व अतीअुर्रसू-ल लअ़ल्लकुम् तुर्-हमून
यथा नमाज़ की स्थापना करो, ज़कात दो तथा रसूल की आज्ञा का पालन करो, ताकि तुमपर दया की जाये।
لَا تَحْسَبَنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا مُعْجِزِينَ فِي الْأَرْضِ ۚ وَمَأْوَاهُمُ النَّارُ ۖ وَلَبِئْسَ الْمَصِيرُ ﴾ 57 ﴿
ला तह्स-बन्नल्लज़ी-न क-फरू मुअ्जिज़ी-न फिलअर्जि व मअ् वाहुमुन्नारू, व ल-बिअ्सल्-मसीर*
और (हे नबी!) कदापि आप न समझें कि जो काफ़िर हो गये, वे (अल्लाह को) धरती में विवश कर देने वाले हैं और उनका स्थान नरक है और वह बुरा निवास स्थान है।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لِيَسْتَأْذِنكُمُ الَّذِينَ مَلَكَتْ أَيْمَانُكُمْ وَالَّذِينَ لَمْ يَبْلُغُوا الْحُلُمَ مِنكُمْ ثَلَاثَ مَرَّاتٍ ۚ مِّن قَبْلِ صَلَاةِ الْفَجْرِ وَحِينَ تَضَعُونَ ثِيَابَكُم مِّنَ الظَّهِيرَةِ وَمِن بَعْدِ صَلَاةِ الْعِشَاءِ ۚ ثَلَاثُ عَوْرَاتٍ لَّكُمْ ۚ لَيْسَ عَلَيْكُمْ وَلَا عَلَيْهِمْ جُنَاحٌ بَعْدَهُنَّ ۚ طَوَّافُونَ عَلَيْكُم بَعْضُكُمْ عَلَىٰ بَعْضٍ ۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ اللَّهُ لَكُمُ الْآيَاتِ ۗ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ﴾ 58 ﴿
या अय्यु हल्लज़ी-न आमनू लि-यस्तअ्जिनकुमुल्लज़ी-न म-लकत् ऐमानुकुम् वल्लज़ी-न लम् यब्लुगुल-हुलु-म मिन्कुम् सला-स मर्रातिन् मिन् कब्लि सलातिल्-फ़ज्रि व ही-न त-ज़अ़ू-न सिया-बकुम् मिनज़्ज़ही-रति व मिम्-बअ्दि सलातिल्-अिशा-इ , सलासु औ़रातिल्-लकुम्, लै-स अ़लैकुम् व ला अ़लैहिम् जुनाहुम् बअ्-दहुन्-न , तव्वाफू-न अ़लैकुम् बअ्जुकुम् अ़ला बअ्ज़िन्, कज़ालि-क युबय्यिनुल्लाहु लकुमुल्-आयाति , वल्लाहु अ़लीमुन् हकीम
हे ईमान वालो! तुम[1] से अनुमति लेना आवश्यक है, तुम्हारे स्वामित्व के दास-दासियों को और जो तुममें से (अभी) युवा अवस्था को न पहुँचे हों, तीन समय; फ़ज्र (भोर) की नमाज़ से पहले और जिस समय तुम अपने वस्त्र उतारते हो दोपहर में तथा इशा (रात्रि) की नमाज़ के पश्चात्। ये तीन (एकांत) पर्दे के समय हैं तुम्हारे लिए। (फिर) तुमपर और उनपर कोई दोष नहीं है इनके पश्चात्, तुम अधिक्तर आने-जाने वाले हो एक-दूसरे के पास। अल्लाह तुम्हारे लिए आदेशों का वर्णन कर रहा है और अल्लाह सर्वज्ञ निपुण है। 1. आयतः 27 में आदेश दिया गया है कि जब किसी दूसरे के यहाँ जाओ तो अनुमति ले कर घर में प्रवेश करो। और यहाँ पर आदेश दिया जा रहा है कि स्वयं अपने घर में एक-दूसरे के पास जाने के लिये भी अनुमति लेना तीन समय में आवश्यक है।
وَإِذَا بَلَغَ الْأَطْفَالُ مِنكُمُ الْحُلُمَ فَلْيَسْتَأْذِنُوا كَمَا اسْتَأْذَنَ الَّذِينَ مِن قَبْلِهِمْ ۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ اللَّهُ لَكُمْ آيَاتِهِ ۗ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ﴾ 59 ﴿
व इज़ा ब-लगल्-अत् फालु मिन्कुमुल्-हुलु-म फ़ल्यस्तअ्ज़िनू कमस्तअ्-ज़नल्लज़ी-न मिन् कब्लिहिम्, कज़ालि-क युबय्यिनुल्लाहु लकुम् आयातिही, वल्लाहु अ़लीमुन् हकीम
और जब तुममें से बच्चे युवा अवस्था को पहुँचें, तो वे भी वैसे ही अनुमति लें, जैसे उनसे पूर्व के (बड़े) अनुमति माँगते हैं, इसी प्रकार, अल्लाह उजागर करता है तुम्हारे लिए अपनी आयतों को तथा अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वज्ञ है।
وَالْقَوَاعِدُ مِنَ النِّسَاءِ اللَّاتِي لَا يَرْجُونَ نِكَاحًا فَلَيْسَ عَلَيْهِنَّ جُنَاحٌ أَن يَضَعْنَ ثِيَابَهُنَّ غَيْرَ مُتَبَرِّجَاتٍ بِزِينَةٍ ۖ وَأَن يَسْتَعْفِفْنَ خَيْرٌ لَّهُنَّ ۗ وَاللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ﴾ 60 ﴿
वल्क़वाअिदु मिनन्निसाइल्लाती ला यरजू-न निकाहन् फलै-स अ़लैहिन्-न जुनाहुन् अंय्य-ज़अ्-न सिया-बहुन्-न गै-र मु-तबर्रिजातिम्-बिज़ी-नतिन्, व अंय्यस्तअ्फ़िफ्-न खै़रुल लहुन्-न, वल्लाहु समीअुन् अलीम
तथा जो बूढ़ी स्त्रियाँ विवाह की आशा न रखती हों, तो उनपर कोई दोष नहीं कि अपनी (पर्दे की) चादरें उतारकर रख दें, प्रतिबंध ये है कि अपनी शोभी का प्रदर्शन करने वाली न हों और यदि सुरक्षित रहें,[1] तो उनके लिए अच्छ है। 1. अर्थात पर्दे की चादर न उतारें।
لَّيْسَ عَلَى الْأَعْمَىٰ حَرَجٌ وَلَا عَلَى الْأَعْرَجِ حَرَجٌ وَلَا عَلَى الْمَرِيضِ حَرَجٌ وَلَا عَلَىٰ أَنفُسِكُمْ أَن تَأْكُلُوا مِن بُيُوتِكُمْ أَوْ بُيُوتِ آبَائِكُمْ أَوْ بُيُوتِ أُمَّهَاتِكُمْ أَوْ بُيُوتِ إِخْوَانِكُمْ أَوْ بُيُوتِ أَخَوَاتِكُمْ أَوْ بُيُوتِ أَعْمَامِكُمْ أَوْ بُيُوتِ عَمَّاتِكُمْ أَوْ بُيُوتِ أَخْوَالِكُمْ أَوْ بُيُوتِ خَالَاتِكُمْ أَوْ مَا مَلَكْتُم مَّفَاتِحَهُ أَوْ صَدِيقِكُمْ ۚ لَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ أَن تَأْكُلُوا جَمِيعًا أَوْ أَشْتَاتًا ۚ فَإِذَا دَخَلْتُم بُيُوتًا فَسَلِّمُوا عَلَىٰ أَنفُسِكُمْ تَحِيَّةً مِّنْ عِندِ اللَّهِ مُبَارَكَةً طَيِّبَةً ۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ اللَّهُ لَكُمُ الْآيَاتِ لَعَلَّكُمْ تَعْقِلُونَ ﴾ 61 ﴿
लै-स अ़लल्-अअ्मा ह-रजुंव्-व ला अ़लल्-अअ्रजि ह-रजुंव्-व ला अ़लल्-मरीज़ि ह-रजुंव्-व ला अ़ला अन्फुसिकुम् अन् तअ्कुलू मिम्-बुयूतिकुम् औ बुयूति आबाइकुम् औ बुयूति उम्महातिकुम् औ बुयूति इख़्वानिकुम् औ बुयूति अ-ख़वातिकुम् औ बुयूति अअ्मामिकुम् औ बुयूति अ़म्मातिकुम् औ बुयूति अख़्वालिकुम् औ बुयूति ख़ालातिकुम औ मा मलक्तुम् मफ़ाति-हहू औ सदीक़िकुम्, लै-स अ़लैकुम् जुनाहुन् अन् तअ्कुलू जमीअ़न् औ अश्तातन्, फ़-इज़ा दख़ल्तुम् बुयूतन् फ़-सल्लिमू अला अन्फुसिकुम् तहिय्य-तम् मिन् अिन्दिल्लाहि मुबार-कतन् तय्यि-बतन्, कज़ालि-क युबय्यिनुल्लाहु लकुमुल्आयाति लअ़ल्लकुम तअ्किलून*
अन्धे पर कोई दोष नहीं है, न लंगड़े पर कोई दोष[1] है, न रोगी पर कोई दोष है और न स्वयं तुमपर कि खाओ अपने घरों[2] से, अपने बापों के घरों से, अपनी माँओं के धरों से, अपने भाईयों के घरों से, अपनी बहनों के घरों से, अपने चाचाओं के घरों से, अपनी फूफियों के घरों से, अपने मामाओं के घरों से, अपनी मौसियों के घरों से अथवा जिसकी चाबियों के तुम स्वामी[3] हो अथवा अपने मित्रों के घरों से। तुमपर कोई दोष नहीं, एक साथ खाओ या अलग अलग। फिर जब तुम प्रवेश करो घरों में,[1] तो अपनों को सलाम किया करो, एक आशीर्वाद है अल्लाह की ओर से निर्धारित किया हुआ, जो शुभ पवित्र है। इसी प्रकार, अल्लाह तुम्हारे लिए आयतों का वर्णन करता है, ताकि तुम समझ लो। 1. इस्लाम से पहले विक्लाँगों के साथ खाने पीने को दोष समझा जाता था जिस का निवारण इस आयत में किया गया है। 2. अपने घरों से अभिप्राय अपने पुत्रों के घर हैं जो अपने ही घर होते हैं। 3. अर्थात जो अपनी अनुपस्थिति में तुम्हें रक्षा के लिये अपने घरों की चाबियाँ दे जायें। 4. अर्थात वह साधरण भोजन जो सब के लिये पकाया गया हो। इस में वह भोजन सम्मिलित नहीं जो किसी विशेष व्यक्ति के लिये तैयार किया गया हो।
إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ الَّذِينَ آمَنُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ وَإِذَا كَانُوا مَعَهُ عَلَىٰ أَمْرٍ جَامِعٍ لَّمْ يَذْهَبُوا حَتَّىٰ يَسْتَأْذِنُوهُ ۚ إِنَّ الَّذِينَ يَسْتَأْذِنُونَكَ أُولَٰئِكَ الَّذِينَ يُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ ۚ فَإِذَا اسْتَأْذَنُوكَ لِبَعْضِ شَأْنِهِمْ فَأْذَن لِّمَن شِئْتَ مِنْهُمْ وَاسْتَغْفِرْ لَهُمُ اللَّهَ ۚ إِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 62 ﴿
इन्नमल्-मुअ्मिनूनल्लज़ी-न आमनू बिल्लाहि व रसूलिही व इज़ा कानू म-अ़हू अ़ला अम्रिन् जामिअ़िल् लम् यज़्हबू हत्ता यस्तअ्ज़िनूहु , इन्नल्लज़ी-न यस्तअ्ज़िनू-न-क उलाइ-कल्लज़ी-न युअ्मिनू-न बिल्लाहि व रसूलिही फ़-इज़स्तअ्-ज़नू-क लिबअ्ज़ि शअ्निहिम् फ़अज़ल-लिमन् शिअ्-त मिन्हुम् वस्तग्फिर लहुमुल्ला-ह इन्नल्ला-ह ग़फूरुर्-रहीम
वास्तव में, ईमान वाले वह हैं, जो अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लायें और जब आपके साथ किसी सामूहिक कार्य पर होते हैं, तो जाते नहीं, जब तक आपसे अनुमति न लें, वास्तव में, जो आपसे अनुमति लेते हैं, वही अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान रखते हैं, तो जब वे आपसे अपने किसी कार्य के लिए अनुमति माँगें, तो आप उनमें से जिसे चाहें, अनुमति दें और उनके लिए अल्लाह से क्षमा की प्रार्थना करें। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमी दयावान् है।
لَّا تَجْعَلُوا دُعَاءَ الرَّسُولِ بَيْنَكُمْ كَدُعَاءِ بَعْضِكُم بَعْضًا ۚ قَدْ يَعْلَمُ اللَّهُ الَّذِينَ يَتَسَلَّلُونَ مِنكُمْ لِوَاذًا ۚ فَلْيَحْذَرِ الَّذِينَ يُخَالِفُونَ عَنْ أَمْرِهِ أَن تُصِيبَهُمْ فِتْنَةٌ أَوْ يُصِيبَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ ﴾ 63 ﴿
ला तज्अलू दुआ़अर्रसूलि बैनकुम् क-दुआ़-इ बअ्ज़िकुम् बअ्जन्, कद् यअ्लमुल्लाहुल्लज़ी-न य-तसल्ललू-न मिन्कुम् लिवाज़न् फ़ल्यह्ज़रिल्लज़ी-न युखालिफू-न अन् अम्रिही अन् तुसी-बहुम् फित्-नतुन् औ युसी-बहुम् अ़ज़ाबुन् अलीम
और तुम मत बनाओ, रसूल के पुकारने को, परस्पर एक-दूसरे को पुकारने जैसा[1], अल्लाह तुममें से उन्हें जानता है, जो सरक जाते हैं, एक-दूसरे की आड़ लेकर। तो उन्हें सावधान रहना चाहिए, जो आपके आदेश का विरोध करते हैं कि उनपर कोई आपदा आ पड़े अथवा उनपर कोई दुःखदायी यातना आ जाये। 1. अर्थताः "हे मुह़म्मद!" न कहो। बल्कि आप को हे अल्लाह के नबी! हे अल्लाह के रसूल! कह कर पुकारो। इस का यह अर्थ भी किया गया है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की प्रार्थना को अपनी प्रार्थना के समान न समझो, क्योंकि आप की प्रार्थना स्वीकार कर ली जाती है।
أَلَا إِنَّ لِلَّهِ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۖ قَدْ يَعْلَمُ مَا أَنتُمْ عَلَيْهِ وَيَوْمَ يُرْجَعُونَ إِلَيْهِ فَيُنَبِّئُهُم بِمَا عَمِلُوا ۗ وَاللَّهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ ﴾ 64 ﴿
अला इन्-न लिल्लाहि मा फ़िस्समावाति वल्अर्जि, कद् यअ्लमु मा अन्तुम् अ़लैहि , व यौ-म युर्जअू-न इलैहि फ़युनब्बिउहुम् बिमा अ़मिलू , वल्लाहु बिकुल्लि शैइन् अलीम *
सावधान! अल्लाह ही का है, जो आकाशों तथा धरती में है, वह जानता है, जिस (दशा) पर तुम हो और जिस दिन वे उसकी ओर फेरे जायेंगे, तो उन्हें बता[1] देगा, जो उन्होंने किया है और अल्लाह प्रत्येक चीज़ का अति ज्ञानी है। 1. अर्थात प्रलय के दिन तुम्हें तुम्हारे कर्मों का फल देगा।