सूरह हुजुरात के संक्षिप्त विषय
यह सूरह मनी है, इस में 18 आयतें हैं।
- इस की आयत 4 में हुजरों के बाहर से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को पुकारने पर पकड़ की गई है इस लिये इस का नाम सूरह हुजुरात है।
- इस की आयत 1 से 5 तक में इस बात पर बल दिया गया है कि अपनी बात प्रस्तुत करने में अल्लाह के रसूल से आगे न बढ़ो।और आप के मान-मर्यादा का ध्यान रखो। तथा ऐसी बात न बोलो जो इस्लामी भाई चारे के लिये हानिकारक हो, और न्याय की नीति अपनाओ।
- इस की आयत 11 से 12 में उन नैतिक बुराईयों से बचने का निर्देश दिया गया है जो आपस में घृणा उत्पन्न करती तथा उपद्रव का कारण बनती है।
- इस की आयत 13 में वर्ग-वर्ण और जातिवाद के गर्व का खण्डन करते हुये यह बताया गया है कि सभी जातियाँ और कबीले एक ही नर-नारी की संतान हैं। इसलिये वर्ण-वर्ग और जाति पर गर्व का कोई आधार नहीं। किसी की प्रधानता का कारण केवल अल्लाह की आज्ञा का पालन है।
- इस की अन्तिम आयतों में उन की पकड़ की गई है जो मुख से तो इस्लाम को मानते हैं किन्तु ईमान उन के दिलों में नहीं उतरा है। और उन्हें बताया गया है कि सच्चा ईमान वह है जिस में निफाक न हो तथा सच्चा ईमान उस का है जो अल्लाह की राह में धन और प्राण के साथ जिहाद (संघर्ष) करता हो।
सूरह अल-हुजरात | Surah Hujurat in Hindi
بِسْمِ اللَّـهِ الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ
बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम
अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تُقَدِّمُوا بَيْنَ يَدَيِ اللَّهِ وَرَسُولِهِ ۖ وَاتَّقُوا اللَّهَ ۚ إِنَّ اللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ﴾ 1 ﴿
या अय्युहल्लज़ी – न आमनू ला तुक़द्दमू बै-न य-दयिल्लाहि व रसूलिही वत्तक़ुल्ला-ह, इन्नल्ला-ह समीअुन् अ़लीम
हे लोगो जो ईमान लाये हो! आगे न बढ़ो अल्लाह और उसके रसूल[1] से और डरो अल्लाह से। वास्तव में, अल्लाह सब कुछ सुनने-जानने वाला है। 1. अर्थात दीन धर्म तथा अन्य दूसरे मामलात के बारे में प्रमुख न बनो। अनुयायी बन कर रहो। और स्वयं किसी बात का निर्णय न करो।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَرْفَعُوا أَصْوَاتَكُمْ فَوْقَ صَوْتِ النَّبِيِّ وَلَا تَجْهَرُوا لَهُ بِالْقَوْلِ كَجَهْرِ بَعْضِكُمْ لِبَعْضٍ أَن تَحْبَطَ أَعْمَالُكُمْ وَأَنتُمْ لَا تَشْعُرُونَ ﴾ 2 ﴿
या अय्युहल्लज़ी – न आमनू ला तर्फअू अस्वातकुम् फ़ौ-क़ सौतिन्-नबिय्यि व ला तज्हरू लहू बिल्क़ौलि क – ज िह्र बअ्ज़िकुम् लि- बअ्ज़िन् अन् तह्ब-त अअ्मालुकुम् व अन्तुम् ला तश्अुरून
हे लोगो जो ईमान लाये हो! अपनी आवाज़, नबी की आवाज़ से ऊँची न करो और न आपसे ऊँची आवाज़ में बात करो, जैसे एक-दूसरे से ऊँची आवाज़ में बात करते हो। ऐसा न हो कि तुम्हारे कर्म व्यर्थ हो जायें और तुम्हें पता (भी) न हो।
إِنَّ الَّذِينَ يَغُضُّونَ أَصْوَاتَهُمْ عِندَ رَسُولِ اللَّهِ أُولَٰئِكَ الَّذِينَ امْتَحَنَ اللَّهُ قُلُوبَهُمْ لِلتَّقْوَىٰ ۚ لَهُم مَّغْفِرَةٌ وَأَجْرٌ عَظِيمٌ ﴾ 3 ﴿
इन्नल्लज़ी – न यग़ुज़्ज़ू-न अस्वातहुम् अिन्-द रसूलिल्लाहि उलाइ-कल्लज़ीनम् -त-हनल्लाहु क़ुलू- बहुम् लित्तक्वा, लहुम्-मग्फ़ि-रतुंव्-व अज्रुन् अ़ज़ीम
निःसंदेह, जो धीमी रखते हैं अपनी आवाज़, अल्लाह के रसूल के सामने, वही लोग हैं, जाँच लिया है अल्लाह ने जिनके दिलों को, सदाचार के लिए। उन्हीं के लिए क्षमा तथा बड़ा प्रतिफल है।
إِنَّ الَّذِينَ يُنَادُونَكَ مِن وَرَاءِ الْحُجُرَاتِ أَكْثَرُهُمْ لَا يَعْقِلُونَ ﴾ 4 ﴿
इन्नल्लज़ी-न युनादून-क मिंव्वरा-इल्-हुजुराति अक्सरुहुम् ला यअ्क़िलून
वास्तव में जो आपको पुकारते[1] हैं कमरों के पीछे से, उनमें से अधिक्तर निर्बोध हैं। 1. ह़दीस में है कि बनी तमीम के कुछ सवार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास आये तो आदरणीय अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा कि क़ाक़ाअ बिन उमर को इन का प्रमुख बनाया जाये। और आदरणीय उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहाः बल्कि अक़रअ बिन ह़ाबिस को बनाया जाये। तो अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहाः तुम केवल मेरा विरोध करना चाहते हो। उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहाः यह बात नहीं है। और दोनों में विवाद होने लगा और उन के स्वर ऊँचे हो गये। इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारीः4847) इन आयतों में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के मान-मर्यादा तथा आप का आदर-सम्मान करने की शिक्षा और आदेश दिय गया है। एक ह़दीस में है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने साबित बिन क़ैस (रज़ियल्लाहु अन्हु) को नहीं पाया तो एक व्यक्ति से पता लगाने को कहा। वह उन के घर गये तो वह सिर झुकाये बैठे थे। पूछने पर कहाः बुरा हो गया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास ऊँची आवाज़ से बोलता था, जिस के कारण मेरे सारे कर्म व्यर्थ हो गये। आप ने यह सुन कर कहाः उसे बता दो कि वह नारकी नहीं वह स्वर्ग में जायेगा। (सह़ीह़ बुख़ारी शरीफ़ः 4846)
وَلَوْ أَنَّهُمْ صَبَرُوا حَتَّىٰ تَخْرُجَ إِلَيْهِمْ لَكَانَ خَيْرًا لَّهُمْ ۚ وَاللَّهُ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 5 ﴿
व लौ अन्नहुम् स-बरू हत्ता तख़्रु-ज इलैहिम् लका-न ख़ैरल्-लहुम्, वल्लाहु ग़फ़ूरुर्रहीम
और यदि वे सहन[1] करते, यहाँ तक कि आप निकलकर आते उनकी ओर, तो ये उत्तम होता उनके लिए तथा अल्लाह बड़ा क्षमा करने वाला, दयावान् है। 1. ह़दीस में है कि अक़रअ बिन ह़ाबिस (रज़ियल्लाहु अन्हु) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास आये और कहाः हे मुह़म्मद! बाहर निकलिये। उसी पर यह आयत उतरी। (मुस्नद अह़मदः 3/588, 6/394)
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِن جَاءَكُمْ فَاسِقٌ بِنَبَإٍ فَتَبَيَّنُوا أَن تُصِيبُوا قَوْمًا بِجَهَالَةٍ فَتُصْبِحُوا عَلَىٰ مَا فَعَلْتُمْ نَادِمِينَ ﴾ 6 ﴿
या, अय्युहल्लज़ी-न आमनू इन् जा- अकुम् फ़ासिक़ुम् बि-न-बइन् फ़-तबय्यनू अन् तुसीबू क़ौमम्-बि-जहालतिन् फ़तुस्बिहू अ़ला मा फ़-अ़ल्तुम् नादिमीन
हे ईमान वालो! यदि तुम्हारे पास कोई दुराचारी[1] कोई सूचना लाये, तो भली-भाँति उसका अनुसंधान (छान-बीन) कर लिया करो। ऐसा न हो कि तुम हानि पहुँचा दो किसी समुदाय को, अज्ञानता के कारण, फिर अपने किये पर पछताओ। 1. इस में इस्लाम का यह नियम बताया गया है कि बिना छान बीन के किसी की ऐसी बात न मानी जाये जिस का संबन्ध दीन अथवा बहुत गंभीर समस्या से हो। अथवा उस के कारण कोई बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न हो सकती हो। और जैसा कि आप जानते हैं कि अब यह नियम संसार के कोने कोने में फैल गया है। सारे न्यायालयों में इसी के अनुसार न्याय किया जाता है। और जो इस के विरुध्द निर्णय करता है उस की कड़ी आलोचना की जाती है। तथा अब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मृत्यु के पश्चात् यह नियम आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ह़दीस पाक के लिये भी है। कि यह छान बीन किये बग़ैर कि वह सह़ीह़ है या नहीं उस पर अमल नहीं किया जाना चाहिये। और इस चीज़ को इस्लाम के विद्वानों ने पूरा कर किया है कि अल्लाह के रसूल की वे हदीसें कौन सी हैं जो सह़ीह़ हैं तथा वह कौन सी ह़दीसें हैं जो सह़ीह़ नहीं हैं। और यह विशेषता केवल इस्लाम की है। संसार का कोई धर्म यह विशेषता नहीं रखता।
وَاعْلَمُوا أَنَّ فِيكُمْ رَسُولَ اللَّهِ ۚ لَوْ يُطِيعُكُمْ فِي كَثِيرٍ مِّنَ الْأَمْرِ لَعَنِتُّمْ وَلَٰكِنَّ اللَّهَ حَبَّبَ إِلَيْكُمُ الْإِيمَانَ وَزَيَّنَهُ فِي قُلُوبِكُمْ وَكَرَّهَ إِلَيْكُمُ الْكُفْرَ وَالْفُسُوقَ وَالْعِصْيَانَ ۚ أُولَٰئِكَ هُمُ الرَّاشِدُونَ ﴾ 7 ﴿
वअ्लमू अन् न फ़ीकुम् रसूलल्लाहि, लौ युतीअुकुम् फ़ी कसीरिम् मिनल् – अम्रि ल-अ़नित्तुम् व लाकिन्नल्ला-ह हब्ब-ब इलैकुमुल् – ईमा-न व ज़य्य-नहू फ़ी क़ुलूबिकुम् व कर्र-ह इलैकुमुल्-कुफ़्-र वल्फ़ुसू-क़- वल् – अिस्या-न, उलाइ-क हुमुर्-राशिदून
तथा जान लो कि तुम में अल्लाह के रसूल मौजूद हैं। यदि, वह तुम्हारी बात मानते रहे बहुत-से विषय में, तो तुम आपदा में पड़ जाओगे। परन्तु, अल्लाह ने प्रिय बना दिया है तुम्हारे लिए ईमान को तथा सुशोभित कर दिया है उसे तुम्हारे दिलों में और अप्रिय बना दिया है तुम्हारे लिए कुफ़्र तथा उल्लंघन और अवज्ञा को और यही लोग संमार्ग पर हैं।
فَضْلًا مِّنَ اللَّهِ وَنِعْمَةً ۚ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ﴾ 8 ﴿
फ़ज़्लम्-मिनल्लाहि व निअ्-मतन्, वल्लाहु अ़लीमुन् हकीम
अल्लाह की दया तथा उपकार से और अल्लाह सब कुछ तथा सब गुणों को जानने वाला है।
وَإِن طَائِفَتَانِ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ اقْتَتَلُوا فَأَصْلِحُوا بَيْنَهُمَا ۖ فَإِن بَغَتْ إِحْدَاهُمَا عَلَى الْأُخْرَىٰ فَقَاتِلُوا الَّتِي تَبْغِي حَتَّىٰ تَفِيءَ إِلَىٰ أَمْرِ اللَّهِ ۚ فَإِن فَاءَتْ فَأَصْلِحُوا بَيْنَهُمَا بِالْعَدْلِ وَأَقْسِطُوا ۖ إِنَّ اللَّهَ يُحِبُّ الْمُقْسِطِينَ ﴾ 9 ﴿
व इन् ताइ-फ़तानि मिनल् – मुअ्मिनीनक़्त-तलू फ़-अस्लिहू बैनहुमा फ़-इम् ब-ग़त् इह्दाहुमा अ़लल्-उख़्रा फ़क़ातिलुल्लती तब्ग़ी हत्ता तफ़ी-अ इला अम्रिल्लाहि फ़-इन् फ़ाअत् फ़-अस्लिहू बैनहुमा बिल्अ़द्लि व अक़्सितू, इन्नल्ला-ह युहिब्बुल्-मुक़्सितीन
और यदि ईमान वालों के दो गिरोह लड़[1] पड़ें, तो संधि करा दो उनके बीच। फिर दोनों में से एक, दूसरे पर अत्याचार करे, तो उससे लड़ो जो अत्याचार कर रहा है, यहाँ तक कि फिर जाये अल्लाह के आदेश की ओर। फिर, यदि वह फिर[1] आये, तो उनके बीच संधि करा दो न्याय के साथ तथा न्याय करो, वास्तव में अल्लाह प्रेम करता है, न्याय करने वालों से। 1. अर्थात किताब और सुन्नत के अनुसार अपना झगड़ा चुकाने के लिये तैयार हो जाये।
إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ إِخْوَةٌ فَأَصْلِحُوا بَيْنَ أَخَوَيْكُمْ ۚ وَاتَّقُوا اللَّهَ لَعَلَّكُمْ تُرْحَمُونَ ﴾ 10 ﴿
इन्नमल्- मुअ्मिनू-न इख़्वतुन् फ़-अस्लिहू बै-न अ-ख़वैकुम् वत्तक़ुल्ला-ह लअ़ल्लकुम् तुर्हमून
वास्तव में, सब ईमान वाले भाई-भाई हैं। अतः संधि (मेल) करा दो अपने दो भाईयों के बीच तथा अल्लाह से डरो, ताकि तुम पर दया की जाये।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا يَسْخَرْ قَوْمٌ مِّن قَوْمٍ عَسَىٰ أَن يَكُونُوا خَيْرًا مِّنْهُمْ وَلَا نِسَاءٌ مِّن نِّسَاءٍ عَسَىٰ أَن يَكُنَّ خَيْرًا مِّنْهُنَّ ۖ وَلَا تَلْمِزُوا أَنفُسَكُمْ وَلَا تَنَابَزُوا بِالْأَلْقَابِ ۖ بِئْسَ الِاسْمُ الْفُسُوقُ بَعْدَ الْإِيمَانِ ۚ وَمَن لَّمْ يَتُبْ فَأُولَٰئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ ﴾ 11 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनू ला यस्ख़र् कौमुम् – मिन् क़ौमिन् अ़सा अंय्यकूनू ख़ैरम्-मिन्हुम् व ला निसा-उम् मिन्-निसाइन् अ़सा अंय्यकुन्-न ख़ैरम् – मिन्हुन्-न व ला तल्मिज़ू अन्फ़ु-सकुम् व ला तनाबज़ू बिल्-अल्क़ाबि, बिअ् – स लिस्मुल् – फ़ुसूक़ु बअ्दल् – ईमानि व मल्-लम् यतुब् फ़-उलाइ-क हुमुज़्- ज़ालिमन्
हे लोगो जो ईमान लाये हो![1] हँसी न उड़ाये कोई जाति किसी अन्य जाति की। हो सकता है कि वह उनसे अच्छी हो और न नारी अन्य नारियों की। हो सकता है कि वो उनसे अच्छी हों तथा आक्षेप न लगाओ एक-दूसरे को और न किसी को बुरी उपाधि दो। बुरा नाम है अपशब्द ईमान के पश्चात् और जो क्षमा न माँगें, तो वही लोग अत्याचारी हैं। 1. आयत 11 तथा 12 में उन सामाजिक बुराईयों से रोका गया है जो भाईचारे को खंडित करती हैं। जैसे किसी मुसलमान पर व्यंग करना, उस की हँसी उड़ाना, उसे बुरे नाम से पुकारना, उस के बारे में बुरा गुमान रखना, किसी के भेद की खोज करना आदि। इसी प्रकार ग़ीबत करना। जिस का अर्थ यह है कि किसी की अनुपस्थिति में उस की निन्दा की जाये। यह वह सामाजिक बुराईयाँ हैं जिन से क़ुर्आन तथा ह़दीसों में रोका गया है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने ह़ज्जतुल वदाअ के भाषण में फ़रमायाः मुसलमानो! तुम्हारे प्राण, तुम्हारे धन तथा तुम्हारी मर्यादा एक दूसरे के लिये उसी प्रकार आदरणीय हैं जिस प्रकार यह महीना तथा यह दिन आदरणीय है। (सह़ीह़ बुख़ारीः 1741, सह़ीह़ मुस्लिमः 1679) दूसरी ह़दीस में है कि एक मुसलमान दूसरे मुसलमान का भाई है। वह न उस पर अत्याचार करे और न किसी को अत्याचार करने दे। और न उसे नीच समझे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने सीने की ओर संकेत कर के कहाः अल्लाह का डर यहाँ होता है। (सह़ीह़ मुस्लिमः 2564)
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اجْتَنِبُوا كَثِيرًا مِّنَ الظَّنِّ إِنَّ بَعْضَ الظَّنِّ إِثْمٌ ۖ وَلَا تَجَسَّسُوا وَلَا يَغْتَب بَّعْضُكُم بَعْضًا ۚ أَيُحِبُّ أَحَدُكُمْ أَن يَأْكُلَ لَحْمَ أَخِيهِ مَيْتًا فَكَرِهْتُمُوهُ ۚ وَاتَّقُوا اللَّهَ ۚ إِنَّ اللَّهَ تَوَّابٌ رَّحِيمٌ ﴾ 12 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनुज्तनिबू क़सीरम् मिनज़्ज़न्नि इन्-न बअ्ज़ज़्ज़न्नि इस्मुंव्-व ला तजस्स-सू व ला यग़्तब् बअ्ज़ुकुम् बअ्ज़न्, अ-युहिब्बु अ-हदुकुम् अंय्यअ्कु-ल लहू-म अख़ीहि मैतन् “फ़-करिह्तुमूहु, वत्तक़ुल्ला-ह, इन्नल्ला-ह तव्वाबुर्रहीम
हे लोगो जो ईमान लाये हो! बचो अधिकांश गुमानों से। वास्व में, कुछ गुमान पाप हैं और किसी का भेद न लो और न एक-दूसरे की ग़ीबत[1] करो। क्या चाहेगा तुममें से कोई अपने मरे भाई का मांश खाना? अतः, तुम्हें इससे घृणा होगी तथा अल्लाह से डरते रहो। वास्तव में, अल्लाह अति दयावान्, क्षमावान् है। 1. ह़दीस में है कि तुम्हारा अपने भाई की चर्चा ऐसी बात से करना जो उसे बुरी लगे वह ग़ीबत कहलाती है। पूछा गया कि यदि उस में वह बुराई हो तो फिर? आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमायाः यही तो ग़ीबत है। यदि न हो तो फिर वह आरोप है। (सह़ीह़ मुस्लिमः2589)
يَا أَيُّهَا النَّاسُ إِنَّا خَلَقْنَاكُم مِّن ذَكَرٍ وَأُنثَىٰ وَجَعَلْنَاكُمْ شُعُوبًا وَقَبَائِلَ لِتَعَارَفُوا ۚ إِنَّ أَكْرَمَكُمْ عِندَ اللَّهِ أَتْقَاكُمْ ۚ إِنَّ اللَّهَ عَلِيمٌ خَبِيرٌ ﴾ 13 ﴿
या अय्युहन्नासु इन्ना ख़लक्नाकुम् मिन् ज़-करिंव् व उन्सा व ज- अ़ल्नाकुम् शुअूबंव् व क़बाइ-ल लि-तआ़-रफ़ू, इन्-न अक्र-मकुम् अिन्दल्लाहि अत्क़ाकुम्, इन्नल्ला-ह अ़लीमुन् ख़बीर
हे मनुष्यो![1] हमने तुम्हें पैदा किया एक नर तथा नारी से तथा बना दी हैं तुम्हारी जातियाँ तथा प्रजातियाँ, ताकि एक-दूसरे को पहचानो। वास्तव में, तुममें अल्लाह के समीप सबसे अधिक आदरणीय वही है, जो तुममें अल्लाह से सबसे अधिक डरता हो। वास्तव में अल्लाह सब जानने वाला है, सबसे सूचित है। 1. इस आयत में सभी मनुष्यों को संबोधित कर के यह बताया गया है कि सब जातियों और क़बीलों के मूल माँ-बाप एक ही हैं। इस लिये वर्ग वर्ण तथा जाति और देश पर गर्व और भेद भाव करना उचित नहीं। जिस से आपस में घिरना पैदा होती है। इस्लाम की सामाजिक व्यवस्था में कोई भेग भाव नहीं है और न ऊँच नीच का कोई विचार है और न जात पात का तथा न कोई छुआ छूत है। नमाज़ में सब एक साथ खड़े होते हैं। विवाह में भी कोई वर्ग वर्ण और जाति का भेद भाव नहीं। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने क़ुरैशी जाति की स्त्री ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) का विवाह अपने मुक्त किये हुये दास ज़ैद (रज़ियल्लाहु अन्हु) से किया था। और जब उन्होंने उसे तलाक दे दी तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ज़ैनब से विवाह कर लिया। इस लिये कोई अपने को सय्यद कहते हुये अपनी पुत्री का विवाहि किसी व्यक्ति से इस लिये न करे कि वह सय्यद नहीं है तो यह जाहिली युग का विचार समझा जायेगा। जिस से इस्लाम का कोई संबन्ध नहीं है। बल्कि इस्लाम ने इस का खण्डन किया है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के युग में अफरीका के एक आदमी बिलाल (रज़ियल्लाहु अन्हु) तथा रोम के एक आदमी सुहैब (रज़ियल्लाहु अन्हु) बिना रंग और देश के भेद भाव के एक साथ रहते थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहाः अल्लाह ने मुझे उपदेश भेजा है कि आपस में झुक कर रहो। और कोई किसी पर गर्व ने करे। और न कोई किसी पर अत्याचार करे। (सह़ीह़ मुस्लिमः 2865) आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहाः लोग अपने मरे हुए बापों पर गर्व ने करे। अन्यथा वे उस कीड़े से हीन हो जायेंगे जो अपनी नाक से गंदगी ढकेलता है। अल्लाह ने जाहिलिय्यत का पक्षपात और बापों पर गर्व को दूर कर दिया। अब या तो सदाचारी ईमान वाला है या कुकर्मी अभागा है। सभी आदम की संतान हैं। (सुनन अबू दाऊदः 5116 इस ह़दीस की सनद ह़सन है।) यदि आज भी इस्लाम की इस व्यवस्था और विचार को मान लिया जाये तो पूरे विश्व में शान्ति तथा मानवता का राज्य हो जायेगा।
قَالَتِ الْأَعْرَابُ آمَنَّا ۖ قُل لَّمْ تُؤْمِنُوا وَلَٰكِن قُولُوا أَسْلَمْنَا وَلَمَّا يَدْخُلِ الْإِيمَانُ فِي قُلُوبِكُمْ ۖ وَإِن تُطِيعُوا اللَّهَ وَرَسُولَهُ لَا يَلِتْكُم مِّنْ أَعْمَالِكُمْ شَيْئًا ۚ إِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 14 ﴿
क़ालतिल्- अअ्-राबु आमन्ना, क़ुल्-लम् तुअ्मिनू व लाकिन् क़ूलू अस्लम्ना व लम्मा यद्ख़ुलिल्-ईमानु फ़ी क़ुलूबिकुम्, व इन् तुतीअुल्ला-ह व रसूलहू ला यलित्कुम् मिन् अअ्मालिकुम् शैअन् इन्नल्ला – ह ग़फ़ूरुर्रहीम
कहा कुछ बद्दुओं (देहातियों) ने कि हम ईमान लाये। आप कह दें कि तुम ईमान नहीं लाये। परन्तु कहो कि हम इस्लाम लाये और ईमान अभी तक तुम्हारे दिलों में प्रवेश नहीं किया है तथा यदि तुम आज्ञा का पालन करते रहे अल्लाह तथा उसके रसूल की, तो नहीं कम करेगा वह (अल्लाह) तुम्हारे कर्मों में से कुछ। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान्[1] है। 1. आयत का भावार्थ यह है कि मुख से इस्लाम को स्वीकार कर लेने से मुसलमान तो हो जाता है किन्तु जब तक ईमान दिल में न उतरे वह अल्लाह के समीप ईमान वाला नहीं होता। और ईमान ही आज्ञापालन की प्रेरणा देता है जिस का प्रतिफल मिलेगा।
إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ الَّذِينَ آمَنُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ ثُمَّ لَمْ يَرْتَابُوا وَجَاهَدُوا بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنفُسِهِمْ فِي سَبِيلِ اللَّهِ ۚ أُولَٰئِكَ هُمُ الصَّادِقُونَ ﴾ 15 ﴿
इन्नमल्-मुअ्मिनूनल्लज़ी – न आमनू बिल्लाहि व रसूलिही सुम्- म लम् यर्ताबू व जा-हदू बिअम्वालिहिम् व अन्फ़ुसिहिम् फ़ी सबीलिल्लाहि, उलाइ – क हुमुस्सादिक़ून
वास्तव में, ईमान वाले वही हैं, जो ईमान लाये अल्लाह तथा उसके रसूल पर, फिर संदेह नहीं किया और जिहाद किया अपने प्राणों तथा धनों से, अल्लाह की राह में, यही सच्चे हैं।
قُلْ أَتُعَلِّمُونَ اللَّهَ بِدِينِكُمْ وَاللَّهُ يَعْلَمُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ ۚ وَاللَّهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ ﴾ 16 ﴿
क़ुल् अ-तुअ़ल्लिमूनल्ला-ह बिदीनिकुम्, वल्लाहु यअ्लमु मा फ़िस्समावाति व मा फ़िल्अर्ज़ि, वल्लाहु बिकुल्लि शैइन् अ़लीम
आप कह दें कि क्या तुम अवगत करा रहे हो अल्लाह को अपने धर्म से? जबकि अल्लाह जानता है जो कुछ (भी) आकाशों तथा धरती में है तथा वह प्रत्येक वस्तु का अति ज्ञानी है।
يَمُنُّونَ عَلَيْكَ أَنْ أَسْلَمُوا ۖ قُل لَّا تَمُنُّوا عَلَيَّ إِسْلَامَكُم ۖ بَلِ اللَّهُ يَمُنُّ عَلَيْكُمْ أَنْ هَدَاكُمْ لِلْإِيمَانِ إِن كُنتُمْ صَادِقِينَ ﴾ 17 ﴿
यमुन्नू न अ़लैक अन् अस्लमू, क़ुल् ला तमुन्नू अ़लय्-य इस्लामकुम् बलिल्लाहु यमुन्नु अ़लैकुम् अन् हदाकुम् लिल्ईमानि इन् कुन्तुम् सादिक़ीन
वे उपकार जता रहे हैं आपके ऊपर कि वे इस्वलाम लाये हैं। आप कह दें के उपकार न जताओ मुझपर अपने इस्लाम का। बल्कि अल्लाह का उपकार है तुमपर कि उसने राह दिखायी है तुम्हें ईमान की, यदि तुम सच्चे हो।
إِنَّ اللَّهَ يَعْلَمُ غَيْبَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۚ وَاللَّهُ بَصِيرٌ بِمَا تَعْمَلُونَ ﴾ 18 ﴿
इन्नल्ला-ह यअ्लमु ग़ैबस्समावाति वल्अर्ज़ि, वल्लाहु बसीरुम् – बिमा तअ्मलून*
निःसंदेह, अल्लाह ही जानता है आकाशों तथा धरती के ग़ैब (छुपी बात) को तथा अल्लाह देख रहा है जो कुछ तुम कर रहे हो।