सूरह बलद के संक्षिप्त विषय
यह सूरह मक्की है. इस में 20 आयतें हैं।
- इस की प्रथम आयत में ((अल-बलद)) (अर्थातः नगर) की शपथ ली गई है। जिस से अभिप्राय मक्का है। और इसी से इस सूरह का यह नाम लिया गया है।
- इस की आयत 1 से 4 तक में जो गवाहियों प्रस्तुत की गई है उन से अभिप्राय यह है कि यह संसार सुख विलास के लिये नहीं बनाया गया है। बल्कि इस के बनाने का एक विशेष उद्देश्य है। इसी लिये मनुष्य को दुश्ख की स्थिति में पैदा किया गया है।
- आयत 5 से 7 तक में यह चेतावनी दी गई है कि मनुष्य यह न समझे कि उस के ऊपर उस के कर्मों की निगरानी के लिये कोई शक्ति नहीं है।
- आयत 8 से 17 तक में बताया गया है कि मनुष्य के आचरण और कर्म की ऊँचाई तथा नीचाई की राह भी खोल दी गई है। और इस ऊंचाई पर चढ़ कर जो दुर्गम है, वह आचरण और कर्म की ऊँचाई को प्राप्त कर लेता है।
- आयत 18 से 20 तक में बताया गया है कि मनुष्य ईमान के साथ आचरण की ऊँचाई द्वारा भाग्यशाली बन जाता है और कुफ्र के कारण नरक की खाई में जा गिरता है जिस से निकलने का फिर कोई उपाय नहीं होगा।
1 इस सूरह का विषय मानव जाति (इन्सान) को यह समझाना है कि अल्लाह ने सौभाग्य तथा दुर्भाग्य की दोनों राहें खोल दी हैं। और उन्हें देखने और उन पर चलने के साधन भी सुलभ कर दिये हैं। अब इन्सान के अपने प्रयास पर निर्भर है कि वह कौन सा मार्ग अपनाता है।
सूरह अल-बलद | Surah Balad in Hindi
بِسْمِ اللَّـهِ الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ
बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम
अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।
لَا أُقْسِمُ بِهَٰذَا الْبَلَدِ ﴾ 1 ﴿
ला उक्सिमु बिहाज़ल बलद
मैं इस नगर मक्का की शपथ लेता हूँ!
وَأَنتَ حِلٌّ بِهَٰذَا الْبَلَدِ ﴾ 2 ﴿
व अंत हिल्लुम बिहाज़ल बलद
तथा तुम इस नगर में प्रवेश करने वाले हो।
وَوَالِدٍ وَمَا وَلَدَ ﴾ 3 ﴿
व वालिदिव वमा वलद
तथा सौगन्ध है पिता एवं उसकी संतान की!
لَقَدْ خَلَقْنَا الْإِنسَانَ فِي كَبَدٍ ﴾ 4 ﴿
लक़द खलक्नल इन्सान फ़ी कबद
हमने इन्सान को कष्ट में घिरा हुआ पैदा किया है।
أَيَحْسَبُ أَن لَّن يَقْدِرَ عَلَيْهِ أَحَدٌ ﴾ 5 ﴿
अयह सबु अल लैय यक्दिरा अलैहि अहद
क्या वह समझता है कि उसपर किसी का वश नहीं चलेगा?[1] 1. (1-5) इन आयतों में सर्व प्रथम मक्का नगर में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर जो घटनायें घट रही थीं, और आप तथा आप के अनुयायियों को सताया जा रहा था, उस को साक्षी के रूप में परस्तुत किया गया है कि इन्सान की पैदाइश (रचना) संसार का स्वाद लेने के लिये नहीं हुई है। संसार परिश्रम तथा पीड़ायें झेलने का स्थान है। कोई इन्सान इस स्थिति से गुज़रे बिना नहीं रह सकता। "पिता" से अभिप्राय आदम अलैहिस्सलमा और "संतान" से अभिप्राय समस्त मानव जाति (इन्सान) हैं। फिर इन्सान के इस भ्रम को दूर किया है कि उस के ऊपर कोई शक्ति नहीं है जो उस के कर्मों को देख रही है, और समय आने पर उस की पकड़ करेगी।
يَقُولُ أَهْلَكْتُ مَالًا لُّبَدًا ﴾ 6 ﴿
यक़ूलु अहलकतु मालल लु बदा
वह कहता है कि मैंने बहुत धन ख़र्च कर दिया।
أَيَحْسَبُ أَن لَّمْ يَرَهُ أَحَدٌ ﴾ 7 ﴿
अयह्सबू अल लम य रहू अहद
क्या वह समझता है कि उसे किसी ने देखा नहीं?[1] 1. (1-5) इन में यह बताया गया है कि संसार में बड़ाई तथा प्रधानता के ग़लत पैमाने बना लिये गये हैं, और जो दिखावे के लिये धन व्यय (ख़र्च) करता है उस की प्रशंसा की जाती है जब कि उस के ऊपर एक शक्ति है जो यह देख रही है कि उस ने किन राहों में और किस लिये धन ख़र्च किया है।
أَلَمْ نَجْعَل لَّهُ عَيْنَيْنِ ﴾ 8 ﴿
अलम नज अल लहू ऐनैन
क्या हमने उसे दो आँखें नहीं दीं?
وَلِسَانًا وَشَفَتَيْنِ ﴾ 9 ﴿
व लिसानव व शफतैन
और एक ज़बान तथा दो होंट नहीं दिये?
وَهَدَيْنَاهُ النَّجْدَيْنِ ﴾ 10 ﴿
व हदैनाहून नज्दैन
और उसे दोनों मार्ग दिखा दिये।
فَلَا اقْتَحَمَ الْعَقَبَةَ ﴾ 11 ﴿
फलक तहमल अ क़बह
तो वह घाटी में घुसा ही नहीं।
وَمَا أَدْرَاكَ مَا الْعَقَبَةُ ﴾ 12 ﴿
वमा अद राका मल अ क़बह
और तुम क्या जानो कि घाटी क्या है?
أَوْ إِطْعَامٌ فِي يَوْمٍ ذِي مَسْغَبَةٍ ﴾ 14 ﴿
अव इत आमून फ़ी यौमिन ज़ी मस्गबह
अथवा भूक के दिन (अकाल) में खाना खिलाना।
يَتِيمًا ذَا مَقْرَبَةٍ ﴾ 15 ﴿
यतीमन ज़ा मक़ रबह
किसी अनाथ संबंधी को।
أَوْ مِسْكِينًا ذَا مَتْرَبَةٍ ﴾ 16 ﴿
अव मिस्कीनन ज़ा मतरबह
अथवा मिट्टी में पड़े निर्धन को।[1] 1. (8-16) इन आयतों में फ़रमाया गया है कि इन्सान को ज्ञान और चिन्तन के साधन और योग्तायें दे कर हम ने उस के सामने भलाई तथा बुराई के दोनों मार्ग खोल दिये हैं, एक नैतिक पतन की ओर ले जाता है और उस में मन को अति स्वाद मिलता है। दूसरा नैतिक ऊँचाईयों की राह जिस में कठिनाईयाँ हैं। और उसी को घाटी कहा गया है। जिस में प्रवेश करने वालों के कर्तव्य में है कि दासों को मुक्त करें, निर्धनों को भोजन करायें इत्यादि वही लोग स्वर्ग वासी हैं। और वे जिन्होंने अल्लाह की आयतों का इन्कार किया वे नरक वासी हैं। आयत संख्या 17 का अर्थ यह है कि सत्य विश्वास (ईमान) के बिना कोई शुभ कर्म मान्य नहीं है। इस में सूखी समाज की विशेषता भी बताई गई है कि दूसरे को सहनशीलता तथा दया का उपदेश दिया जाये और अल्लाह पर सत्य विश्वास रखा जाये।
ثُمَّ كَانَ مِنَ الَّذِينَ آمَنُوا وَتَوَاصَوْا بِالصَّبْرِ وَتَوَاصَوْا بِالْمَرْحَمَةِ ﴾ 17 ﴿
सुम्मा कान मिनल लज़ीना आमनू व वतवा सौ बिस सबरि व तवा सौ बिल मर हमह
फिर वह उन लोगों में होता है जो ईमान लाये और जिन्होंने धैर्य (सहनशीलता) एवं उपकार के उपदेश दिये।
أُولَٰئِكَ أَصْحَابُ الْمَيْمَنَةِ ﴾ 18 ﴿
उलाइका अस हाबुल मैमनह
यही लोग सौभाग्यशाली (दायें हाथ वाले) हैं।
وَالَّذِينَ كَفَرُوا بِآيَاتِنَا هُمْ أَصْحَابُ الْمَشْأَمَةِ ﴾ 19 ﴿
वल लज़ीना कफरू बि आयातिना हुम असहाबुल मश अमह
और जिन लोगों ने हमारी आयतों को नहीं माना, यही लोग दुर्भाग्य (बायें हाथ वाले) हैं।