सूरह अक़ाफ़ के संक्षिप्त विषय
यह सूरह मक्की है, इस में 35 आयतें हैं।
- इस सूरह की आयत 21 में आद जाति की बस्ती ((अहकाफ)) की चर्चा की गई है जो यमन के समीप एक रेतीला क्षेत्र है। इसी कारण इस का नाम सूरह अहकाफ है।
- इस की आयत 21 से 28 तक में क़ुरआन के अल्लाह की बाणी होने का दावा प्रस्तुत करते हुये शिर्क के अनुचित होने को उजागर किया गया है। और नबूवत से संबंधित संदेहों का निवारण किया गया है। इसी के साथ ईमान वालों को दिलासा तथा शुभसूचनादी गई है। और काफिरों के बूरे परिणाम से सावधान किया गया है।
- इस में ((आद)) जाति के परिणाम से शिक्षा प्राप्त करने को कहा गया है।
- आयत 29 से 32 तक जिन्नों के क़ुरआन पाक सुनने, तथा उस पर ईमान लाने का वर्णन है।
- इस में मरने के पश्चात् जीवन से संबंधित संदेह को दूर किया गया है। और नरक की यातना से सावधान किया गया है।
- अन्त में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को सहन करने का निर्देश दिया गया है। क्योंकि आप से पूर्व जो नबी आये थे उन को भी विभिन्न प्रकार से सताया गया था परन्तु उन्होंने धैर्य धारण किया।
सूरह अल-अहकाफ | Surah Al Ahqaf
بِسْمِ اللَّـهِ الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ
बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम
अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।
تَنزِيلُ الْكِتَابِ مِنَ اللَّهِ الْعَزِيزِ الْحَكِيمِ ﴾ 2 ﴿
तन्ज़ीलुल्-किताबि मिनल्लाहिल्- अ़ज़ीज़िल् -हकीम
इस पुस्तक का उतरना अल्लाह प्रभुत्वशाली, तत्वदर्शी की ओर से है।
مَا خَلَقْنَا السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ وَمَا بَيْنَهُمَا إِلَّا بِالْحَقِّ وَأَجَلٍ مُّسَمًّى ۚ وَالَّذِينَ كَفَرُوا عَمَّا أُنذِرُوا مُعْرِضُونَ ﴾ 3 ﴿
मा ख़लक़्नस्समावाति वल्अर्-ज़ व मा बैनहुमा इल्ला बिल्हक़्क़ि व अ-जलिम् – मुसम्मन्, वल्लज़ी-न क- फ़रू अ़म्मा उन्ज़िरू मुअ्-रिज़ून
हमने नहीं उत्पन्न किया है आकाशों तथा धरती को और जो कुछ उनके बीच है, परन्तु सत्य के साथ, एक निश्चित अवधि तक के लिए तथा जो काफ़िर हैं, उन्हें जिस बात से सावधान किया जाता है, वे उससे मुँह मोड़े हुए हैं।
قُلْ أَرَأَيْتُم مَّا تَدْعُونَ مِن دُونِ اللَّهِ أَرُونِي مَاذَا خَلَقُوا مِنَ الْأَرْضِ أَمْ لَهُمْ شِرْكٌ فِي السَّمَاوَاتِ ۖ ائْتُونِي بِكِتَابٍ مِّن قَبْلِ هَٰذَا أَوْ أَثَارَةٍ مِّنْ عِلْمٍ إِن كُنتُمْ صَادِقِينَ ﴾ 4 ﴿
क़ुल् अ-रऐतुम्- मा तद्अू न मिन् दूनिल्लाहि अरूनी माज़ा ख़-लक़ू मिनल्-अर्ज़ी अम् लहुम् शिर्कुन् फ़िस्समावाति, ईतूनी बिकिताबिम् मिन् क़ब्लि हाज़ा औ असा रतिम्- मिन् अिल्मिन् इन् कुन्तुम् सादिक़ीन
आप कहें कि भला देखो कि जिसे तुम पुकारते हो अल्लाह के सिवा, तनिक मुझे दिखा दो कि उन्होंने क्या उत्पन्न किया है धरती में से? अथवा उनका कोई साझा है आकाशों में? मेरे पास कोई पुस्तक[1] प्रस्तुत करो इससे पूर्व की अथवा बचा हुआ कुछ[2] ज्ञान, यदि तुम सच्चे हो। 1. अर्थात यदि तुम्हें मेरी शिक्षा का सत्य होना स्वीकार नहीं तो किसी धर्म की आकाशीय पुस्तक ही से सिध्द कर के दिखा दो कि सत्य की शिक्षा कुछ और है। और यह भी न हो सके तो किसी ज्ञान पर आधारित कथन और रिवायत ही से सिध्द कर दो कि यह शिक्षा पूर्व के नबियों ने नहीं दी है। अर्थ यह है कि जब आकाशों और धरती की रचना अल्लाह ही ने की है तो उस के साथ दूसरों को पूज्य क्यों बनाते हो? 2. अर्थात इस से पहले वाली आकाशीय पुस्तकों का।
وَمَنْ أَضَلُّ مِمَّن يَدْعُو مِن دُونِ اللَّهِ مَن لَّا يَسْتَجِيبُ لَهُ إِلَىٰ يَوْمِ الْقِيَامَةِ وَهُمْ عَن دُعَائِهِمْ غَافِلُونَ ﴾ 5 ﴿
व मन् अज़ल्लु मिम्मंय्यद्अू मिन् दूनिल्लाहि मल्-ला यस्तजीबु लहू इला यौमिल्- क़ियामति व हुम् अ़न् दुआ़ – इहिम् ग़ाफिलून
तथा उससे अधिक बहका हुआ कौन हो सकता है, जो अल्लाह के सिवा उसे पुकारता हो, जो उसकी प्रार्थना स्वीकार न कर सके, प्रलय तक और वे उसकी प्रार्थना से निश्चेत (अनजान्) हों?
وَإِذَا حُشِرَ النَّاسُ كَانُوا لَهُمْ أَعْدَاءً وَكَانُوا بِعِبَادَتِهِمْ كَافِرِينَ ﴾ 6 ﴿
व इज़ा हुशिरन्नासु कानू लहुम् अअ्दाअंव् व कानू बिअिबा – दति-हिम् काफ़िरीन
तथा जब लोग एकत्र किये जायेंगे, तो वे उनके शत्रु हो जायेंगे और उनकी इबादत का इन्हार कर[1] देंगे। 1. इस विषय की चर्चा क़ुर्आन की अनेक आयतों में आई है। जैसे सूरह यूनुस, आयतः 290, सूरह मर्यम, आयतः 81-82, सूरह अन्कबूत, आयतः 25 आदि।
وَإِذَا تُتْلَىٰ عَلَيْهِمْ آيَاتُنَا بَيِّنَاتٍ قَالَ الَّذِينَ كَفَرُوا لِلْحَقِّ لَمَّا جَاءَهُمْ هَٰذَا سِحْرٌ مُّبِينٌ ﴾ 7 ﴿
व इज़ा तुत्ला अ़लैहिम् आयातुना बय्यिनातिन् क़ालल्लज़ी – न क – फ़रू लिल्हक़्क़ि लम्मा जा-अहुम् हाज़ा सिह्-रूम्-मुबीन
और जब पढ़कर सुनाई गईं उन्हें हमारी खुली आयतें, तो काफ़िरों ने उस सत्य को, जो उनके पास आ चुका है, कह दिया कि ये तो खुला जादू है।
أَمْ يَقُولُونَ افْتَرَاهُ ۖ قُلْ إِنِ افْتَرَيْتُهُ فَلَا تَمْلِكُونَ لِي مِنَ اللَّهِ شَيْئًا ۖ هُوَ أَعْلَمُ بِمَا تُفِيضُونَ فِيهِ ۖ كَفَىٰ بِهِ شَهِيدًا بَيْنِي وَبَيْنَكُمْ ۖ وَهُوَ الْغَفُورُ الرَّحِيمُ ﴾ 8 ﴿
अम् यक़ूलूनफ़्तराहु, क़ुल् इनिफ़्तरैतुहू फ़ला तम्लिकू न ली मिनल्लाहि शैअन् हु-व अअ्लमु बिमा तुफ़ीज़ू-न फ़ीहि, कफ़ा बिही शहीदम्-बैनी व बैनकुम्, व हुवल् ग़फ़ूरुर्- रहीम
क्या वे कहते हैं कि आपने इसे[1] स्वयं बना लिया है? आप कह दें कि यदि मैंने इसे स्वयं बना लिया है, तो तुम मुझे अल्लाह की पकड़ से बचाने का कोई अधिकार नहीं रखते।[2] वही अधिक ज्ञानि है उन बातों का, जो तुम बना रहे हो। वही पर्याप्त है गवाह के लिए मेरे तथा तुम्हारे बीच और वह बड़ा क्षमाशील, दयावान् है। 1. अर्थात क़ुर्आन को। 2. अर्थात अल्लाह की यातना से मेरी कोई रक्षा नहीं कर सकता। (देखियेः सूरह अह़्क़ाफ़, आयतः 44,47)
قُلْ مَا كُنتُ بِدْعًا مِّنَ الرُّسُلِ وَمَا أَدْرِي مَا يُفْعَلُ بِي وَلَا بِكُمْ ۖ إِنْ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَىٰ إِلَيَّ وَمَا أَنَا إِلَّا نَذِيرٌ مُّبِينٌ ﴾ 9 ﴿
क़ुल् मा कुन्तु बिद्अ़म् – मिनर्रुसुलि व मा अद्री मा युफ़्अ़लु बी व ला बिकुम्, इन् अत्तबिअु इल्ला मा यूहा इलय् य व मा अ-न इल्ला नज़ीरुम् – मुीबन
आप कह दें कि मैं कोई नया रसूल नहीं हूँ और न मैं जानता हूँ कि मेरे साथ क्या होगा[1] और न तुम्हारे साथ। मैं तो केवल अनुसरण कर रहा हूँ उसका, जो मेरी ओर वह़्यी (प्रकाशना) की जा रही है। मैं तो केवल खुला सावधान करने वाला हूँ। 1. अर्थात संसार में। अन्यथा यह निश्चित है कि परलोक में ईमान वाले के लिये स्वर्ग तथा काफ़िर के लिये नरक है। किन्तु किसी निश्चित व्यक्ति के परिणाम का ज्ञान किसी को नहीं।
قُلْ أَرَأَيْتُمْ إِن كَانَ مِنْ عِندِ اللَّهِ وَكَفَرْتُم بِهِ وَشَهِدَ شَاهِدٌ مِّن بَنِي إِسْرَائِيلَ عَلَىٰ مِثْلِهِ فَآمَنَ وَاسْتَكْبَرْتُمْ ۖ إِنَّ اللَّهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الظَّالِمِينَ ﴾ 10 ﴿
क़ुल् अ-रऐतुम् इन् का न मिन् अिन्दिल्लाहि व कफ़र्तुम् बिही व शहि-द शाहिदुम् मिम् बनी इस्राई-ल अ़ला मिस्लिही फ़-आम-न वस्तक्बर्तुम्, इन्नल्ला-ह ला यह्दिल्- कौमज़्ज़ालिमीन
आप कह दें: तुम बताओ यदि ये (क़ुर्आन) अल्लाह की ओर से हो और तुम उसे न मानो, जबकि गवाही दे चुका है एक गवाह, इस्राईल की संतान में से इसी बात[1] पर, फिर वह ईमान लाया तथा तुम घमंड कर गये? तो वास्तव में अल्लाह सुपथ नहीं दिखाता अत्याचारी जाति को।[2] 1. जैसे इस्राईली विद्वान अब्दुल्लाह पुत्र सलाम ने इसी क़ुर्आन जैसी बात के तौरात में होने की गवाही दी कि तौरात में मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के नबी होने का वर्णन है। और वे आप पर ईमान भी लाये। (सह़ीह़ बुख़ारीः3813, सह़ीह़ मुस्लिमः 2484) 2. अर्थात अत्याचारियों को उन के अत्याचार के कारण ही कुपथ में रहने देता है ज़बरदस्ती किसी को सीधी राह पर नहीं चलाता।
وَقَالَ الَّذِينَ كَفَرُوا لِلَّذِينَ آمَنُوا لَوْ كَانَ خَيْرًا مَّا سَبَقُونَا إِلَيْهِ ۚ وَإِذْ لَمْ يَهْتَدُوا بِهِ فَسَيَقُولُونَ هَٰذَا إِفْكٌ قَدِيمٌ ﴾ 11 ﴿
व क़ालल्लज़ी-न क- फ़रु लिल्लज़ी-न आमनू लौ का न ख़ैरम्-मा स-बक़ूना इलैहि व इज़् लम् यह्तदू बिही फ़-स-यक़ूलू-न हाज़ा इफ़्कुन् क़दीम
और काफ़िरों ने कहा, उनसे जो ईमान लाये, यदि ये (धर्म) उत्तम होता, तो वह पहले नहीं आते हमसे, उसकी ओर और जब नहीं पाया मार्गदर्शन उन्होंने इस (क़ुर्आन) से, तो अब यही कहेंगे कि ये तो पुराना झूठ है।
وَمِن قَبْلِهِ كِتَابُ مُوسَىٰ إِمَامًا وَرَحْمَةً ۚ وَهَٰذَا كِتَابٌ مُّصَدِّقٌ لِّسَانًا عَرَبِيًّا لِّيُنذِرَ الَّذِينَ ظَلَمُوا وَبُشْرَىٰ لِلْمُحْسِنِينَ ﴾ 12 ﴿
व मिन् क़ब्लिही किताबु मूसा इमामंव्-व रह्म-तन्, व हाज़ा किताबुम् मुसद्दिक़ुल्-लिसानन् अ़-रबिय्यल् लियुन्ज़ि रल्लज़ी न ज़-लमू व बुश्रा लिल् मुह्सिनीन
जबकि इससे पूर्व मूसा की पुस्तक मार्गदर्शक तथा दया बनकर आ चुकी और ये पुस्तक (क़ुर्आन) सच[1] बताने वाली है अरबी भाषा में।[2] ताकि वह सावधान कर दे, अत्याचारियों को और शुभ सूचना हो, सदाचारियों के लिए। 1. अपने पूर्व की आकाशीय पुस्तकों को। 2. अर्थात इस की कोई मूल शिक्षा ऐसी नहीं जो मूसा की पुस्तक में न हो। किन्तु यह अर्बी भाषा में है। इस लिये कि इस से प्रथम संबोधित अरब लोग थे। फिर सारे लोग। इस लिये क़ुर्आन का अनुवाद प्राचीन काल ही से दूसरी भाषाओं में किया जा रहा है। ताकि जो अर्बी नहीं समझते वह भी उस से शिक्षा ग्रहण करें।
إِنَّ الَّذِينَ قَالُوا رَبُّنَا اللَّهُ ثُمَّ اسْتَقَامُوا فَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُونَ ﴾ 13 ﴿
इन्नल्लज़ी-न क़ालू रब्बुनल्लाहु सुम्मस्तक़ामू फ़ला ख़ौफ़ुन् अ़लैहिम् व ला हुम् यह्ज़नून
निश्चय जिन्होंने कहा कि हमारा पालनहार अल्लाह है। फिर उसपर स्थिर रह गये, तो कोई भय नहीं होगा उनपर और न वे[1] उदासीन होंगे। 1. (देखियेः सूरह ह़ा, मीम, सज्दा, आयतः31) ह़दीस में है एक व्यक्ति ने कहाः हे अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम!) मूझे इस्लाम के बारे में ऐसी बात बतायें कि फिर किसी से कुछ पूछना न पड़े। आप ने फ़रमायाः कहो कि मैं अल्लाह पर ईमान लाया फिर उसी पर स्थित हो जाओ। (सह़ीह़ मुस्लिमः38)
أُولَٰئِكَ أَصْحَابُ الْجَنَّةِ خَالِدِينَ فِيهَا جَزَاءً بِمَا كَانُوا يَعْمَلُونَ ﴾ 14 ﴿
उलाइ क अस्हाबुल -जन्नति ख़ालिदी-न फ़ीहा जज़ा अम् बिमा कानू यअ्मलून
यही स्वर्गीय हैं, जो सदावासी होंगे उसमें, उन कर्मों के प्रतिफल (बदले) में, जो वे करते रहे।
وَوَصَّيْنَا الْإِنسَانَ بِوَالِدَيْهِ إِحْسَانًا ۖ حَمَلَتْهُ أُمُّهُ كُرْهًا وَوَضَعَتْهُ كُرْهًا ۖ وَحَمْلُهُ وَفِصَالُهُ ثَلَاثُونَ شَهْرًا ۚ حَتَّىٰ إِذَا بَلَغَ أَشُدَّهُ وَبَلَغَ أَرْبَعِينَ سَنَةً قَالَ رَبِّ أَوْزِعْنِي أَنْ أَشْكُرَ نِعْمَتَكَ الَّتِي أَنْعَمْتَ عَلَيَّ وَعَلَىٰ وَالِدَيَّ وَأَنْ أَعْمَلَ صَالِحًا تَرْضَاهُ وَأَصْلِحْ لِي فِي ذُرِّيَّتِي ۖ إِنِّي تُبْتُ إِلَيْكَ وَإِنِّي مِنَ الْمُسْلِمِينَ ﴾ 15 ﴿
व वस्सैनल्-इन्सा-न बिवालिदैहि इह्सानन्, ह-मलत्हु उम्मुहू कुर्हव्- व व-ज़अ़त्हु कुर्हन्, व हम्लुहू व फ़िसालुहू सलासू-न शह्-रन्, हत्ता इज़ा ब-ल-ग़ अशुद्-दहू व ब-ल-ग़ अर्बई-न स-नतन् क़ा-ल रब्बि ‘औज़िअ्नी अन् अश्कु-र निअ्-म-त-कल्लती अन्अ़म्-त अ़लय्-य व अ़ला वालिदय्य व अन् अअ्म-ल सालिहन् तर्ज़ाहु व अस्लिह् ली फ़ी ज़ुर्रिय्यती, इन्नी तुब्तु इलै-क व इन्नी मिनल्- मुस्लिमीन
और हमने निर्देश दिया है मनुष्य को, अपने माता-पिता के साथ उपकार करने का। उसे गर्भ में रखा है उसकी माँ ने दुःख झेलकर तथा जन्म दिया उसे दुःख झेलकर तथा उसके गर्भ में रखने तथा दूध छुड़ाने की अवधि तीस महीने रही।[1] यहाँ तक कि जब वह अपनी पूरी शक्ति को पहुँचा और चालीस वर्ष का हुआ, तो कहने लागाः हे मेरे पालनहार! मुझे क्षमता दे कि कृतज्ञ रहूँ तेरे उस पुरस्कार का, जो तूने प्रदान किया है मुझे तथा मेरे माता-पिता को। तथा ऐसा सत्कर्म करूँ, जिससे तू प्रसन्न हो जाये तथा सुधार दे मेरे लिए मेरी संतान को, मैं ध्यानमग्न हो गया तेरी ओर तथा मैं निश्चय मुस्लिमों में से हूँ। 1. इस आयत तथा क़ुर्आन की अन्य आयतों में भी माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करने पर विशेष बल दिया गया है। तथा उन के लिये प्रार्थना करने का आदेश दिया गया है। देखियेः सूरह बनी इस्राईल, आयतः170। ह़दीसों में भी इस विषय पर अति बल दिया गया है। आदर्णीय अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि एक व्यक्ति ने आप से पूछा कि मेरे सदव्यवहार का अधिक योग्य कौन है? आप ने फ़रमायाः तेरी माँ। उस ने कहाः फिर कौन? आप ने कहाः तेरी माँ। उस ने कहाः फिर कौन? आप ने कहाः तेरी माँ। चौथी बार आप ने कहाः तेरे पिता। (सह़ीह़ बुख़ारीः 5971, सह़ीह़ मुस्लिमः2548)
أُولَٰئِكَ الَّذِينَ نَتَقَبَّلُ عَنْهُمْ أَحْسَنَ مَا عَمِلُوا وَنَتَجَاوَزُ عَن سَيِّئَاتِهِمْ فِي أَصْحَابِ الْجَنَّةِ ۖ وَعْدَ الصِّدْقِ الَّذِي كَانُوا يُوعَدُونَ ﴾ 16 ﴿
उलाइ-कल्लज़ी-न न तक़ब्बलु अ़न्हुम् अह्स-न मा अ़मिलू व न-तजा-वज़ु अ़न् सय्यिअतिहिम् फ़ी अस्हाबिल-जन्नति, वअ्दस्- सिद्दिल्लज़ी कानू यू अ़दून
वही हैं, स्वीकार कर लेंगे हम जिनसे, उनके सर्वोत्तम कर्मों को तथा क्षमा कर देंगे, उनके दुष्कर्मों को। (वे) स्वर्ग वासियों में से हैं, उस सत्य वचन के अनुसार, जो उनसे किया जाता था।
وَالَّذِي قَالَ لِوَالِدَيْهِ أُفٍّ لَّكُمَا أَتَعِدَانِنِي أَنْ أُخْرَجَ وَقَدْ خَلَتِ الْقُرُونُ مِن قَبْلِي وَهُمَا يَسْتَغِيثَانِ اللَّهَ وَيْلَكَ آمِنْ إِنَّ وَعْدَ اللَّهِ حَقٌّ فَيَقُولُ مَا هَٰذَا إِلَّا أَسَاطِيرُ الْأَوَّلِينَ ﴾ 17 ﴿
वल्लज़ी क़ा-ल लिवालिदैहि उफ़्फ़िल्-लकुमा अ-तअिदानिनी अन् उख़र-ज व क़द् ख़-लतिल-क़ुरूनु मिन् क़ब्ली व हुमा यस्तग़ीसानिल्ला-ह वैल-क आमिन् इन्-न वअ्दल्लाहि हक़्क़ुन् फ़-यक़ूलु मा हाज़ा इल्ला असातीरुल्-अव्वलीन
तथा जिसने कहा अपने माता पिता सेः धिक है तुम दोनों पर! क्या मुझे डरा रहे हो कि मैं धरती से निकाला[1] जाऊँगा, जबकि बहुत-से युग बीत गये[2] इससे पूर्व? और वो दोनों दुहाई दे रहे थे अल्लाह कीः तेरा विनाश हो! तू ईमान ला! निश्चय अल्लाह का वचन सच है। तो वह कह रहा था कि ये अगलों की कहानियाँ हैं।[3] 1. अर्थात मौत के पश्चात् प्रलय के दिन पुनः जीवित कर के समाधि से निकाला जाऊँगा। इस आयत में बुरी संतान का व्यवहार बताया गया है। 2. और कोई फिर जीवित हो कर नहीं आया। 3. इस आयत में मुसलमान माता-पिता का विवाद एक काफ़िर पुत्र के साथ हो रहा है जिस का वर्णन उदाहरण के लिये इस आयत में किया गया है। और इस प्रकार का वाद-विवाद किसी भी मुसलमान तथा काफ़िर में हो सकता है। जैसा कि आज अनेक पश्चिमी आदि देशों में हो रहा है।
أُولَٰئِكَ الَّذِينَ حَقَّ عَلَيْهِمُ الْقَوْلُ فِي أُمَمٍ قَدْ خَلَتْ مِن قَبْلِهِم مِّنَ الْجِنِّ وَالْإِنسِ ۖ إِنَّهُمْ كَانُوا خَاسِرِينَ ﴾ 18 ﴿
उलाइ – कल्लज़ी न हक़् क़ अ़लैहिमुल्-क़ौलु फ़ी उ-ममिन् क़द् ख़-लत् मिन् क़ब्लिहिम्- मिनल्-जिन्नि वल्-इन्सि, इन्नहुम् कानू ख़ासिरीन
यही वो लोग हैं, जिनपर अल्लाह की यातना का वचन सिध्द हो गया, उन समुदायों में, जो गुज़र चुके इनसे पूर्व, जिन्न तथा मनुष्यों में से। वास्तव में, वही क्षति में हैं।
وَلِكُلٍّ دَرَجَاتٌ مِّمَّا عَمِلُوا ۖ وَلِيُوَفِّيَهُمْ أَعْمَالَهُمْ وَهُمْ لَا يُظْلَمُونَ ﴾ 19 ﴿
व लि-कुल्लिन् द-रजातुम्-मिम्मा अ़मिलू व लियुवफ़्फ़ि-यहुम् अअ्मालहुम् व हुम् ला युज़्लमून
तथा प्रत्येक के लिए श्रेणियाँ हैं, उनके कर्मानुसार और उन्हें भरपूर बदला दिया जायेगा उनके कर्मों का तथा उनपर अत्याचार नहीं किया जायेगा।
وَيَوْمَ يُعْرَضُ الَّذِينَ كَفَرُوا عَلَى النَّارِ أَذْهَبْتُمْ طَيِّبَاتِكُمْ فِي حَيَاتِكُمُ الدُّنْيَا وَاسْتَمْتَعْتُم بِهَا فَالْيَوْمَ تُجْزَوْنَ عَذَابَ الْهُونِ بِمَا كُنتُمْ تَسْتَكْبِرُونَ فِي الْأَرْضِ بِغَيْرِ الْحَقِّ وَبِمَا كُنتُمْ تَفْسُقُونَ ﴾ 20 ﴿
व यौ म युअ़रज़ुल्लज़ी-न क-फ़रु अ़लन्-नारि, अज़्हब्तुम् तय्यिबातिकुम् फ़ी हयातिक़ुमुद्-दुन्या वस्तम्तअ्तुम् बिहा फ़ल्यौ म तुज्ज़ौ -न अ़ज़ाबल्-हूनि बिमा कुन्तुम् तस्तक्बिरू-न फ़िल्अर्ज़ि बिग़ैरिल्- हक़्क़ि व बिमा कुन्तुम् तफ़्सुक़ून
और जिस दिन सामने लाये जायेंगे, जो काफ़िर हो गये, अग्नि के। (उनसे कहा जायेगाः) तुम ले चुके अपना आन्नद अपने सांसारिक जीवन में और लाभान्वित हो चुके उनसे। तो आज तुम्हें अपमान की यातना दी जायेगी उसके बदले, जो तुम घमंड करते रहे धरती में अनुचित तथा उसके बदले, जो उल्लंघन करते रहे।
وَاذْكُرْ أَخَا عَادٍ إِذْ أَنذَرَ قَوْمَهُ بِالْأَحْقَافِ وَقَدْ خَلَتِ النُّذُرُ مِن بَيْنِ يَدَيْهِ وَمِنْ خَلْفِهِ أَلَّا تَعْبُدُوا إِلَّا اللَّهَ إِنِّي أَخَافُ عَلَيْكُمْ عَذَابَ يَوْمٍ عَظِيمٍ ﴾ 21 ﴿
वज़्कुर् अख़ा आ़दिन्, इज़् अन्ज़-र इन्नी क़ौमहू बिलू- अह्क़ाफ़ि व क़द् ख़-लतिन्- नुज़ुरु मिम्बैनि यदैहि व मिन् ख़ल्फ़िही अल्ला तअ्बुदू इल्लल्ला-ह, अख़ाफ़ु अ़लैकुम् अ़ज़ा-ब यौमिन् अ़ज़ीम
तथा याद करो आद के भाई (हूद[1]) को। जब उसने अपनी जाति को सावधान किया, अह़्क़ाफ़[2] में, जबकि गुज़र चुके सावधान करने वाले (रसूल) उसके पहले और उसके पश्चात् कि इबादत (वंदना) न करो अल्लाह के अतिरिक्त की। मैं डरता हूँ तुमपर, एक बड़े दिन की यातना से। 1. इस में मक्का के प्रमुखों को जिन्हें अपने धन तथा बल पर बड़ा गर्व था अरब क्षेत्र की एक प्राचीन जाति की कथा सुनाने को कहा जा रहा है जो बड़ी सम्पन्न तथा शक्तिशाली थी। अह़्क़ाफ़, अर्थात ऊँचा रेत का टीला है। यह जाति उसी क्षेत्र में निवास करती थी जिसे
قَالُوا أَجِئْتَنَا لِتَأْفِكَنَا عَنْ آلِهَتِنَا فَأْتِنَا بِمَا تَعِدُنَا إِن كُنتَ مِنَ الصَّادِقِينَ ﴾ 22 ﴿
क़ालू अजिअ्-तना लितअ्फ़ि-कना अ़न् आलि हतिना फ़अ्तिना बिमा तअिदुना इन् कुन् त मिनस्- सादिक़ीन
तो उन्होंने कहा कि क्या तुम हमें फेरने आये हो हमारे पूज्यों से? तो ले आओ हमारे पास, जिसकी हमें धमकी दे रहे हो, यदि तुम सच्चे हो।
قَالَ إِنَّمَا الْعِلْمُ عِندَ اللَّهِ وَأُبَلِّغُكُم مَّا أُرْسِلْتُ بِهِ وَلَٰكِنِّي أَرَاكُمْ قَوْمًا تَجْهَلُونَ ﴾ 23 ﴿
क़ा-ल इन्नमल्- अिल्मु जिन्दल्लाहि व उबल्लिग़ुकुम् मा उर्सिल्तु बिही व लाकिन्नी अराकुम् क़ौमन् तज्हलून
हूद ने कहाः उसका ज्ञान तो अल्लाह ही को है और मैं तुम्हें वही उपदेश पहुँचा रहा हूँ, जिसके साथ मैं भेजा गया हूँ। परन्तु, मैं देख रहा हूँ तुम्हें कि तुम अज्ञानता की बातें कर रहे हो।
فَلَمَّا رَأَوْهُ عَارِضًا مُّسْتَقْبِلَ أَوْدِيَتِهِمْ قَالُوا هَٰذَا عَارِضٌ مُّمْطِرُنَا ۚ بَلْ هُوَ مَا اسْتَعْجَلْتُم بِهِ ۖ رِيحٌ فِيهَا عَذَابٌ أَلِيمٌ ﴾ 24 ﴿
फ़-लम्मा रऔहु आ़रिज़म्- मुस्तक़्बि-ल औदि यतिहिम् क़ालू हाज़ा आ़रिज़ुम् मुम्-तिरुना, बल् हु-व मस्तअ्जल्तुम् बिही, रीहुन् फ़ीहा अ़ज़ाबुन् अलीम
फिर जब उन्होंने देखा एक बादल आते हुए अपनी वादियों की ओर, तो कहाः ये एक बादल है हमपर बरसने वाला। बल्कि ये वही है, जिसकी तुमने जल्दी मचायी है। ये आँधी है, जिसमें दुःखदायी यातना है।[1] 1. ह़दीस मे है कि जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) बादल या आँधी देखते तो व्याकूल हो जाते। आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने कहाः अल्लाह के रसूल! लोग बादल देख कर वर्षा की आशा में प्रसन्न होते हैं और आप क्यों व्याकूल हो जाते हैं? आप ने कहाः आइशा! मैझे भय रहता है कि इस में कोई यातना न हो? एक जाति को आँधी से यातना दी गई। और एक जाति ने यातना देखी तो कहाः यह बादल हम पर वर्षा करेगा। (सह़ीह़ बुख़ारीः 4829, तथा सह़ीह़ सुस्लिमः 899)
تُدَمِّرُ كُلَّ شَيْءٍ بِأَمْرِ رَبِّهَا فَأَصْبَحُوا لَا يُرَىٰ إِلَّا مَسَاكِنُهُمْ ۚ كَذَٰلِكَ نَجْزِي الْقَوْمَ الْمُجْرِمِينَ ﴾ 25 ﴿
तुदम्मिरु कुल्-ल शैइम्- बि-अम्रि रब्बिहा फ़-अस्बहू ला युरा इल्ला मसाकिनुहुम्, कज़ालि-क नज्-ज़िल- क़ौमल्-मुज्रिमीन
वह विनाश कर देगी प्रत्येक वस्तु को अपने पालनहार के आदेश से, तो वे हो गये ऐसे कि नहीं दिखाई देता था कुछ, उनके घरों के अतिरिक्त। इसी प्रकार, हम बदला दिया करते हैं अपराधी लोगों को।
وَلَقَدْ مَكَّنَّاهُمْ فِيمَا إِن مَّكَّنَّاكُمْ فِيهِ وَجَعَلْنَا لَهُمْ سَمْعًا وَأَبْصَارًا وَأَفْئِدَةً فَمَا أَغْنَىٰ عَنْهُمْ سَمْعُهُمْ وَلَا أَبْصَارُهُمْ وَلَا أَفْئِدَتُهُم مِّن شَيْءٍ إِذْ كَانُوا يَجْحَدُونَ بِآيَاتِ اللَّهِ وَحَاقَ بِهِم مَّا كَانُوا بِهِ يَسْتَهْزِئُونَ ﴾ 26 ﴿
व ल-क़द् मक्कन्नाहुम् फ़ीमा इम्-मक्कन्नाकुम् फ़ीहि व जअ़ल्ना लहुम् सम्- अ़ंव्-व अब्सारंव् व अफ़्इ-दतन् फ़मा अग़्ना अ़न्हुम् सम्अुहुम् व ला अब्सारुहुम् व ला अफ़्इ-दतुहुम् मिन् शैइन् इज़् कानू यज्हदू-न बिआयातिल्लाहि व हा-क़ बिहिम् मा कानू बिही यस्तह्ज़िऊन
तथा हमने उन्हें वह शक्ति दी थी, जो इन्हें[1] नहीं दी है। हमने बनाये थे उनके कान, आँखें और दिल, तो नहीं काम आये उनके कान, उनकी आँखें तथा न उनके दिल कुछ भी। क्योंकि वे इन्कार करते थे अल्लाह की आयतों का तथा घेर लिया उन्हें उसने, जिसका वे उपहास कर रहे थे। 1. अर्थात मक्का के काफ़िरों को।
وَلَقَدْ أَهْلَكْنَا مَا حَوْلَكُم مِّنَ الْقُرَىٰ وَصَرَّفْنَا الْآيَاتِ لَعَلَّهُمْ يَرْجِعُونَ ﴾ 27 ﴿
ल-क़द् अह्लक्ना मा हौलकुम् मिनल-क़ुरा व सर्रफ़्नल् – आयाति लअ़ल्लहुम् यर्जिअून
तथा हम ध्वस्त कर चुके हैं तुम्हारे आस-पास की बस्तियों को तथा हमने उन्हें अनेक प्रकार से आयतें सुना दीं, ताकि वे वापस आ जायें।
فَلَوْلَا نَصَرَهُمُ الَّذِينَ اتَّخَذُوا مِن دُونِ اللَّهِ قُرْبَانًا آلِهَةً ۖ بَلْ ضَلُّوا عَنْهُمْ ۚ وَذَٰلِكَ إِفْكُهُمْ وَمَا كَانُوا يَفْتَرُونَ ﴾ 28 ﴿
फ़-लौ ला न-स-रहुमुल्लज़ीनत्- त-ख़ज़ू मिन् दूनिल्लाहि क़ुर्बानन् आलि-हतन्, बल् ज़ल्लू अ़न्हुम् व ज़ालि-क इफ़्कुहम् व मा कानू यफ़्तरून
तो क्यों नहीं सहायता की उनकी, उन्होंने जिन्हें बनाया था अल्लाह के अतिरिक्त (अल्लाह के) सामीप्य के लिए पूज्य (उपास्य)? बल्कि वे खो गये उनस और ये[1] उनका झूठ था तथा जिसे स्वयं वे घड़ रहे थे। 1. अर्थात अल्लाह के अतिरिक्त को पूज्य बनाना।
وَإِذْ صَرَفْنَا إِلَيْكَ نَفَرًا مِّنَ الْجِنِّ يَسْتَمِعُونَ الْقُرْآنَ فَلَمَّا حَضَرُوهُ قَالُوا أَنصِتُوا ۖ فَلَمَّا قُضِيَ وَلَّوْا إِلَىٰ قَوْمِهِم مُّنذِرِينَ ﴾ 29 ﴿
व इज़् सरफ़्ना इलै-क न-फ़रम् मिनल-जिन्नि यस्तमिअूनल-क़ुर्आ-न फ़-लम्मा ह-ज़रूहु क़ालू अन्सितू फ़-लम्मा क़ुज़ि-य वल्लौ इला क़ौमिहिम् मुन्ज़िरीन
तथा याद करें, जब हमने फेर दिया आपकी ओर जिन्नों के एक[1] गिरोह को, ताकि वे क़ुर्आन सुनें। तो जब वे उपस्थित हुए आपके पास, तो उन्होंने कहा कि चुप रहो और जब पढ़ लिया गया, तो वे फिर गये अपनी जाति की ओर सावधान करने वाले होकर। 1. आदरणीय इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) कहते हैं कि एक बार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अपने कुछ अनुयायियों (सह़ाबा) के साथ उकाज़ के बाज़ार की ओर जा रहे थे। इन दिनों शैतानों को आकाश की सूचनायें मिलनी बंद हो गई थीं। तथा उन पर आकाश से अंगारे फेंके जा रहे थे। तो वे इस खोज में पूर्व तथा पशिचम की दिशाओं में निकले कि इस का क्या कारण है? कुछ शैतान तिहामा (ह़जाज़) की ओर भी आये और आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तक पहुँच गये। उस समय आप "नखला" में फ़ज्र की नमाज़ पढ़ा रहे थे। जब जिन्नों ने क़ुर्आन सुना तो उस की ओर कान लगा दिये। फिर कहा कि यही वह चीज़ है जिस के कारण हम को आकाश की सूचनायें मिलनी बंद हो गई हैं। और अपनी जाति से जा कर यह बात कही। तथा अल्लाह ने यह आयत अपने नबी पर उतारी। (सह़ीह़ बुख़ारीः 4921) इन आयतों में संकेत है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) जैसे मनुष्यों के नबी थे वैसे ही जिन्नों के भी नबी थे। और सभी नबी मनुष्यों में आये। (देखियेः सूरह नह़्ल, आयतः 43, सूरह फ़ुर्क़ान, आयतः20)
قَالُوا يَا قَوْمَنَا إِنَّا سَمِعْنَا كِتَابًا أُنزِلَ مِن بَعْدِ مُوسَىٰ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ يَهْدِي إِلَى الْحَقِّ وَإِلَىٰ طَرِيقٍ مُّسْتَقِيمٍ ﴾ 30 ﴿
क़ालू या क़ौमना इन्ना समिअ्ना किताबन् उन्ज़ि-ल मिम्बअ्दि मूसा मुसद्दि-क़ल्लिमा बै-न यदैहि यह्दी इलल्- हक़्क़ि व इला तरीक़िम्-मुस्तक़ीम
उन्होंने कहाः हे हमारी जाति! हमने सूनी है एक पुस्तक, जो उतारी गयी है मुसा के पश्चात्। वह अपने से पूर्व की किताबों की पुष्टि करती है और सत्य तथा सीधी राह दिखाती है।
يَا قَوْمَنَا أَجِيبُوا دَاعِيَ اللَّهِ وَآمِنُوا بِهِ يَغْفِرْ لَكُم مِّن ذُنُوبِكُمْ وَيُجِرْكُم مِّنْ عَذَابٍ أَلِيمٍ ﴾ 31 ﴿
या क़ौमना अजीबू दाअि-यल्लाहि व आमिनू बिही यग़्फ़िर् लकुम् मिन् ज़ुनूबिक़ुम् व युजिर्कुम् मिन् अ़ज़ाबिन् अलीम
हे हमारी जाति! मान लो अल्लाह की ओर बुलाने वाले की बात तथा ईमान लाओ उसपर, वह क्षमा कर देगा तुम्हारे लिए तुम्हारे पापों को तथा बचा लेगा तुम्हें दुःखदायी यातना से।
وَمَن لَّا يُجِبْ دَاعِيَ اللَّهِ فَلَيْسَ بِمُعْجِزٍ فِي الْأَرْضِ وَلَيْسَ لَهُ مِن دُونِهِ أَوْلِيَاءُ ۚ أُولَٰئِكَ فِي ضَلَالٍ مُّبِينٍ ﴾ 32 ﴿
व मल्-ला युजिब् दाअि यल्लाहि फ़लै-स बिमुअ्जिज़िन् फ़िल्अर्ज़ि व लै-स लहू मिन् दूनिही औलिया-उ, उलाइ क फ़ी ज़लालिम्-मुबीन
तथा जो मानेगा नहीं अल्लाह की ओर बुलाने वाले की बात, तो नहीं है वह विवश करने वाला धरती में और नहीं है उसके लिए अल्लाह के अतिरिक्त कोई सहायक। यही लोग खुले कुपथ में हैं।
أَوَلَمْ يَرَوْا أَنَّ اللَّهَ الَّذِي خَلَقَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ وَلَمْ يَعْيَ بِخَلْقِهِنَّ بِقَادِرٍ عَلَىٰ أَن يُحْيِيَ الْمَوْتَىٰ ۚ بَلَىٰ إِنَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ ﴾ 33 ﴿
अ-व लम् यरौ अन्नल्लाहल्लज़ी ख़-लक़स्समावाति वल्अर्ज व लम् यअ्-य बिख़ल्कि हिन्-न बिक़ादिरिन् अ़ला अंय्युह्यि –यल्मौता, बला इन्नहू अ़ला क़ुल्लि शैइन् क़दीर
और क्या उन लोगों ने नहीं समझा कि अल्लाह, जिसने उत्पन्न किया है आकाशों तथा धरती को और नहीं थका उनको बनाने से, वह सामर्थ्वान है कि जीवीत कर दे मुर्दों को? क्यों नहीं? वास्तव में, वह जो चाहे, कर सकता है।
وَيَوْمَ يُعْرَضُ الَّذِينَ كَفَرُوا عَلَى النَّارِ أَلَيْسَ هَٰذَا بِالْحَقِّ ۖ قَالُوا بَلَىٰ وَرَبِّنَا ۚ قَالَ فَذُوقُوا الْعَذَابَ بِمَا كُنتُمْ تَكْفُرُونَ ﴾ 34 ﴿
व यौ-म युअ्-रज़ुल्लज़ी -न क-फ़रू अ़लन्नारि, अलै-स हाज़ा बिल्हक़्क़ि, क़ालू बला व रब्बिना, क़ा-ल फ़ज़ूकुल्- अ़ज़ा-ब बिमा कुन्तुम् तक्फ़ुरून
और जिस दिन सामने लाये जायेंगे, जो काफ़िर हो गये, नरक के, (और उनसे कहा जायेगाः) क्या ये सच नहीं है? वे कहेंगे: क्यों नहीं? हमारे पालनहार की शपथ! वह कहेगाः तब चखो यातना, उस कुफ़्र के बदले, जो तुम कर रहे थे।
فَاصْبِرْ كَمَا صَبَرَ أُولُو الْعَزْمِ مِنَ الرُّسُلِ وَلَا تَسْتَعْجِل لَّهُمْ ۚ كَأَنَّهُمْ يَوْمَ يَرَوْنَ مَا يُوعَدُونَ لَمْ يَلْبَثُوا إِلَّا سَاعَةً مِّن نَّهَارٍ ۚ بَلَاغٌ ۚ فَهَلْ يُهْلَكُ إِلَّا الْقَوْمُ الْفَاسِقُونَ ﴾ 35 ﴿
फ़स्बिर कमा स-ब-र उलुलु अ़ज़्मि मिनर् रुसुलि व ला तस्तअ् जिल्-लहुम्, क-अन्नहुम् यौ-म यरौ-न मा यू- अ़दू-न लम् यल्बसू इल्ला सा-अ़तम् मिन्-नहारिन्, बलाग़ुन् फ़-हल् युह्लकु इल्लल्-क़ौमुल्-फ़ासिक़ून
तो (हे नबी!) आप सहन करें, जैसे साहसी रसूलों ने सहन किया तथा जल्दी न करें उन (की यातना) के लिए। जिस दिन वे देख लेंगे, जिसका उन्हें वचन दिया जा रहा है, तो समझेंगे कि जैसे वे नहीं रहे हैं, परन्तु दिन के कुछ[1] क्षण। बात पूहुँचा दी गयी है, तो अब उन्हीं का विनाश होगा, जो अवज्ञाकारी हैं। 1. अर्थात प्रलय की भीषणता के आगे संसारिक सुख क्षण भर प्रतीत होगा। ह़दीस में है कि नारकियों में से प्रलय के दिन संसार के सब से सुखी व्यक्ति को ला कर नरक में एक बार डाल कर कहा जायेगाः क्या कभी तुमने सुख देखा है? वह कहेगाः मेरे पालनहार! (कभी) नहीं (देखा)। (सह़ीह़ मुस्लिम शरीफ़ः2807)