सूरह आले इमरान के संक्षिप्त विषय
यह सूरह मदनी है, इस में 200 आयतें है।
- इस सूरह की आयत 33 में आले इमरान (इमरान की संतान) का वर्णन हुआ है जो ईसा (अलैहिस्सलाम) की माँ मर्यम (अलैहिस्सलाम) के पिता का नाम है| इस लिये इस का नाम ((आले इमरान)) रखा गया है।
- इस की आरंभिक आयत 9 तक तौहीद (अद्वैतवाद) को प्रस्तुत करते हुये यह बताया गया है कि कुरआन अल्लाह की वाणी है इस लिये सभी धार्मिक विवाद में यही निर्णयकारी है।
- आयत 10 से 32 तक अहले किताब तथा दूसरों को चेतावनी दी गई है कि यदि उन्हों ने कुरआन के मार्गदर्शन को जिस का नाम इस्लाम है नहीं माना तो यह अल्लाह से कुफ्र होगा जिस का दण्ड सदैव के लिये नरक होगा। और उन्हों ने धर्म का जो वस्त्र धारण कर रखा है प्रलय के दिन उस की वास्तविक्ता खुल जायेगी और वह अपमानित हो कर रह जायेंगे।
- आयत 33 से 63 तक में मर्यम (अलैहस्सलाम) तथा ईसा (अलैहिस्सलाम) से संबन्धित तथ्यों को उजागर किया गया जो उन निर्मुल विचारों का खण्डन करते है जिन्हें ईसाईयों ने धर्म में मिला लिया है और इस संदर्भ में जकरिय्या (अलैहिस्सलाम) तथा यह्या (अलैहिस्सलाम) का भी वर्णन हुआ है।
- आयत 64 से 101 तक अहले किताब ईसाईयों के कुपथ और उन के नैतिक तथा धार्मिक पतन का वर्णन करते हुये मुसलमानों को उन से बचने के निर्देश दिये गये हैं।
- आयत 102 से 120 तक मुसलमानों को इस्लाम पर स्थित रहने तथा कुरआन पाक को दृढ़ता से थामे रहने और अपने भीतर एक ऐसा गिरोह बनाने के निर्देश दिये गये हैं जो धार्मिक सुधार तथा सत्य का प्रचार करे और इसी के साथ अहले किताब के उपद्रव से सावधान रहने पर बल दिया गया है।
- आयत 121 से 189 तक उहुद के युद्ध की स्थितियों की समीक्षा की गई है। तथा उन कमजोरियों की ओर संकेत किया गया है जो उस समय उजागर हुई।
- आयत 190 से अन्त तक इस का वर्णन है कि ईमान कोई अन्ध विश्वास नहीं, यह समझ बूझ तथा स्वभाव की आवाज़ है। और जब मनुष्य इसे दिल से स्वीकार कर लेता है तो उस का संबन्ध अल्लाह से हो जाता और उस की यह प्रार्थना होती है कि उस का अन्त शुभ हो। उस समय उस का पालनहार उसे शुभपरिणाम की शुभसूचना सुनाता है कि उस ने सत्धर्म का पालन करने में जो योगदान दिये हैं वह उसे उन का भरपूर सुफल प्रदान करेगा। फिर अन्त में सत्य की राह में संघर्ष करने और सत्य तथा असत्य के संघर्ष में स्थित रहने के निर्देश दिये गये हैं।
Surah Al Imran in Hindi | सूरह आले इमरान हिंदी में
بِسْمِ اللَّـهِ الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ
बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम
अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।
اللَّـهُ لَا إِلَـٰهَ إِلَّا هُوَ الْحَيُّ الْقَيُّومُ ﴾ 2 ﴿
अल्लाहु ला इला-ह इल्ला हुवल् हय्युल्-क़य्यूम
अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं, वह जीवित, नित्य स्थायी है।
نَزَّلَ عَلَيْكَ الْكِتَابَ بِالْحَقِّ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ وَأَنزَلَ التَّوْرَاةَ وَالْإِنجِيلَ ﴾ 3 ﴿
नज़्ज़-ल अ़लैकल्-किता-ब बिल्हक़्क़ि मुसद्दिक़ल्लिमा बै-न यदैहि व अन्ज़लत्तौरा-त वल्-इन्जील
उसीने आपपर सत्य के साथ पुस्तक (क़ुर्आन) उतारी है, जो इससे पहले की पुस्तकों के लिए प्रमाणकारी है और उसीने तौरात तथा इंजील उतारी है।
مِن قَبْلُ هُدًى لِّلنَّاسِ وَأَنزَلَ الْفُرْقَانَ ۗ إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا بِآيَاتِ اللَّـهِ لَهُمْ عَذَابٌ شَدِيدٌ ۗ وَاللَّـهُ عَزِيزٌ ذُو انتِقَامٍ ﴾ 4 ﴿
मिन् क़ब्लु हुदल्लिन्नासि व अन्ज़-लल् फ़ुर्क़ा-न, इन्नल्लज़ी-न क-फ़रू बिआयातिल्लाहि लहुम् अ़ज़ाबुन् शदीद, वल्लाहु अ़ज़ीज़ुन् ज़ुन्तिक़ाम
इससे पूर्व, लोगों के मार्गदर्शन के लिए और फ़ुर्क़ान उतारा है[1] तथा जिन्होंने अल्लाह की आयतों को अस्वीकार किया, उन्हीं के लिए कड़ी यातना है और अल्लाह प्रभुत्वशाली, बदला लेने वाला है। 1. अर्थात तौरात और इंजील अपने समय में लोगों के लिये मार्गदर्शन थीं, परन्तु फ़ुर्क़ान (क़ुरआन) उतरने के पश्चात् अब वह मार्गदर्शन केवल क़ुर्आन पाक में है।
إِنَّ اللَّـهَ لَا يَخْفَىٰ عَلَيْهِ شَيْءٌ فِي الْأَرْضِ وَلَا فِي السَّمَاءِ ﴾ 5 ﴿
इन्नल्ला-ह ला यख़्फ़ा अ़लैहि शैउन् फ़िल्अर्ज़ि व ला फ़िस्समा-इ
निःसंदेह अल्लाह से आकाशों तथा धरती की कोई चीज़ छुपी नहीं है।
هُوَ الَّذِي يُصَوِّرُكُمْ فِي الْأَرْحَامِ كَيْفَ يَشَاءُ ۚ لَا إِلَـٰهَ إِلَّا هُوَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ ﴾ 6 ﴿
हुवल्लज़ी युसव्विरुकुम् फिल्अर्-हामि कै-फ़ यशा-उ, ला इला-ह इल्ला हुवल् अ़ज़ीज़ुल् हकीम
वही तुम्हारा रूप आकार गर्भाषयों में जैसे चाहता है, बनाता है। कोई पूज्य नहीं, परन्तु वही प्रभुत्वशाली, तत्वज्ञ।
هُوَ الَّذِي أَنزَلَ عَلَيْكَ الْكِتَابَ مِنْهُ آيَاتٌ مُّحْكَمَاتٌ هُنَّ أُمُّ الْكِتَابِ وَأُخَرُ مُتَشَابِهَاتٌ ۖ فَأَمَّا الَّذِينَ فِي قُلُوبِهِمْ زَيْغٌ فَيَتَّبِعُونَ مَا تَشَابَهَ مِنْهُ ابْتِغَاءَ الْفِتْنَةِ وَابْتِغَاءَ تَأْوِيلِهِ ۗ وَمَا يَعْلَمُ تَأْوِيلَهُ إِلَّا اللَّـهُ ۗ وَالرَّاسِخُونَ فِي الْعِلْمِ يَقُولُونَ آمَنَّا بِهِ كُلٌّ مِّنْ عِندِ رَبِّنَا ۗ وَمَا يَذَّكَّرُ إِلَّا أُولُو الْأَلْبَابِ ﴾ 7 ﴿
हुवल्लज़ी अन्ज़-ल अ़लैकल्-किता-ब मिन्हु आयातुम् मुह्कमातुन् हुन्-न उम्मुल्-किताबि व उ-ख़रु मु-तशाबिहातुन्, फ़-अम्मल्लज़ी-न फ़ी क़ुलूबिहिम् ज़ैग़ुन् फ़-यत्तबिअू-न मा तशा-ब-ह मिन्हुब्तिग़ा- अल्-फ़ित्नति वब्तिग़ा-अ तअ्वीलिही, व मा यअ्लमु तअ्वी-लहू इल्लल्लाहु. वर्रासिख़ू-न फिल्-अिल्मि यक़ूलू-न आमन्ना बिही, कुल्लुम् मिन् अिन्दि रब्बिना, व मा यज़्ज़क्करु इल्ला उलुल्अल्बाब
उसीने आप पर[1] ये पुस्तक (क़ुर्आन) उतारी है, जिसमें कुछ आयतें मुह़कम[2] (सुदृढ़) हैं, जो पुस्तक का मूल आधार हैं तथा कुछ दूसरी मुतशाबिह[3] (संदिग्ध) हैं। तो जिनके दिलों में कुटिलता है, वे उपद्रव की खोज तथा मनमाना अर्थ करने के लिए, संदिग्ध के पीछे पड़ जाते हैं। जबकि उनका वास्तविक अर्थ, अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता तथा जो ज्ञान में पक्के हैं, वे कहते हैं कि सब, हमारे पालनहार के पास से है और बुध्दिमान लोग ही शिक्षा ग्रहण करते हैं। 1. आयत का भावार्थ यह है कि अल्लाह ने मानव का रूप आकार बनाने और उस की आर्थिक आवश्यक्ता की व्यवस्था करने के समान, उस की आत्मिक आवश्यक्ता के लिये क़ुर्आन उतारा है, जो अल्लाह की प्रकाशना तथा मार्गदर्शन और फ़ुर्क़ान है। जिस के द्वारा सत्योसत्य में विवेक (अन्तर) कर के सत्य को स्वीकार करे। 2. मुह़कम (सुदृढ़) से अभिप्राय वह आयतें हैं, जिन के अर्थ स्थिर, खुले हुये हैं। जैसे एकेश्वरवाद, रिसालत तथा आदेशों और निषेधों एवं ह़लाल (वैध) और ह़राम (अवैध) से संबन्धित आयतें, यही पुस्तक का मूल आधार हैं। 3. मुतशाबिह (संदिग्ध) से अभिप्राय वह आयतें हैं, जिन में उन तथ्यों की ओर संकेत किया गया है, जो हमारी ज्ञानेंद्रियों में नहीं आ सकते, जैसे मौत के पश्चात् जीवन, तथा प्रलोक की बातें, इन आयतों के विषय में अल्लाह ने हमें जो जानकारी दी है, हम उन पर विश्वास करते हैं, क्यों कि इन का विस्तार विवरण हमारी बुध्दि से बाहर है, परन्तु जिन के दिलों में खोट है वह इन की वास्तविक्ता जानने के पीछे पड़ जाते हैं, जो उन की शक्ति से बाहर है।
رَبَّنَا لَا تُزِغْ قُلُوبَنَا بَعْدَ إِذْ هَدَيْتَنَا وَهَبْ لَنَا مِن لَّدُنكَ رَحْمَةً ۚ إِنَّكَ أَنتَ الْوَهَّابُ ﴾ 8 ﴿
रब्बना ला तुज़िग् क़ुलूबना बअ्-द इज़् ‘हदैतना व हब् लना मिल्लदुन्-क रह् म-तन् इन्न-क अन्तल् वह्हाब
(तथा कहते हैः) हे हमारे पालनहार! हमारे दिलों को, हमें मार्गदर्शन देने के पश्चात् कुटिल न कर, वास्तव में, तू बहुत बड़ा दाता है।
رَبَّنَا إِنَّكَ جَامِعُ النَّاسِ لِيَوْمٍ لَّا رَيْبَ فِيهِ ۚ إِنَّ اللَّـهَ لَا يُخْلِفُ الْمِيعَادَ ﴾ 9 ﴿
रब्बना इन्न-क जामिअुन्नासि लियौमिल्-ला रै-ब फ़ीहि, इन्नल्ला-ह ला युख़्लिफ़ुल मीआ़द
हे मेरे पालनहार! तू उस दिन सबको एकत्र करने वाला है, जिसमें कोई संदेह नहीं। निःसंदेह अल्लाह अपने निर्धारित समय का विरुध्द नहीं करता।
إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا لَن تُغْنِيَ عَنْهُمْ أَمْوَالُهُمْ وَلَا أَوْلَادُهُم مِّنَ اللَّـهِ شَيْئًا ۖ وَأُولَـٰئِكَ هُمْ وَقُودُ النَّارِ ﴾ 10 ﴿
इन्नल्लज़ी-न क-फ़रू लन् तुग़्नि-य अ़न्हुम् अम्वालुहुम् व ला औलादुहुम् मिनल्लाहि शैअन्, व उलाइ-क हुम् वक़ूदुन्नार
निश्चय जो क़ाफ़िर हो गये, उनके धन तथा उनकी संतान अल्लाह (की यातना) से (बचाने में) उनके कुछ काम नहीं आयेगी तथा वही अग्नि के ईंधन बनेंगे।
كَدَأْبِ آلِ فِرْعَوْنَ وَالَّذِينَ مِن قَبْلِهِمْ ۚ كَذَّبُوا بِآيَاتِنَا فَأَخَذَهُمُ اللَّـهُ بِذُنُوبِهِمْ ۗ وَاللَّـهُ شَدِيدُ الْعِقَابِ ﴾ 11 ﴿
क-दअ्बि आलि फ़िर्-औ़-न, वल्लज़ी-न मिन् क़ब्लिहिम्, कज़्ज़बू बिआयातिना, फ़-अ-ख़-ज़हुमुल्लाहु बिज़ुनूबिहिम्, वल्लाहु शदीदुल् अिक़ाब
जैसे फ़िरऔनियों तथा उनके पहले लोगों की दशा हुई, उन्होंने हमारी निशानियों को मिथ्या कहा, तो अल्लाह ने उनके पापों के कारण उनको धर लिया तथा अल्लाह कड़ा दण्ड देने वाला है।
قُل لِّلَّذِينَ كَفَرُوا سَتُغْلَبُونَ وَتُحْشَرُونَ إِلَىٰ جَهَنَّمَ ۚ وَبِئْسَ الْمِهَادُ ﴾ 12 ﴿
क़ुल् लिल्लज़ी-न क-फ़रू सतुग़्लबू-न व तुह्शरू-न इला जहन्न-म, व बिअ्सल् मिहाद
(हे नबी!) काफ़िरों से कह दो कि तुम शीघ्र ही प्रास्त कर दिये जाओगे तथा नरक की ओर एकत्र किये जाओगे और वह बहुत बुरा ठिकाना[1] है। 1. इस में काफ़िरों की मुसलमानों के हाथों पराजय की भविष्यवाणी है।
قَدْ كَانَ لَكُمْ آيَةٌ فِي فِئَتَيْنِ الْتَقَتَا ۖ فِئَةٌ تُقَاتِلُ فِي سَبِيلِ اللَّـهِ وَأُخْرَىٰ كَافِرَةٌ يَرَوْنَهُم مِّثْلَيْهِمْ رَأْيَ الْعَيْنِ ۚ وَاللَّـهُ يُؤَيِّدُ بِنَصْرِهِ مَن يَشَاءُ ۗ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَعِبْرَةً لِّأُولِي الْأَبْصَارِ ﴾ 13 ﴿
क़द् का-न लकुम् आ-यतुन् फ़ी फ़ि-अतैनिल् त क़ता, फ़ि-अतुन् तुक़ातिलु फ़ी सबीलिल्लाहि व उख़्रा काफ़ि-रतुंय्यरौ-नहुम् मिस्लैहिम् रअ्यल्-ऐनि, वल्लाहु युअय्यिदु बिनस्रिही मंय्यशा-उ, इन्-न फ़ी ज़ालि-क ल-अिब्रतल्-लिउलिल् अब्सार
वास्तव में, तुम्हारे लिए उन दो दलों में, जो (बद्र में) सम्मुख हो गये, एक निशानी थी; एक अल्लाह की राह में युध्द कर रहा था तथा दूसरा काफ़िर था, वे (अर्थात काफ़िर गिरोह के लोग) अपनी आँखों से देख रहे थे कि ये (मुसलमान) तो दुगने लग रहे हैं तथा अल्लाह अपनी सहायता द्वारा जिसे चाहे, समर्थन देता है। निःसंदेह इसमें समझ-बूझ वालों के लिए बड़ी शिक्षा[1] है। 1. अर्थात इस बात की कि विजय अल्लाह के समर्थन से प्राप्त होती है, सेना की संख्या से नहीं।
زُيِّنَ لِلنَّاسِ حُبُّ الشَّهَوَاتِ مِنَ النِّسَاءِ وَالْبَنِينَ وَالْقَنَاطِيرِ الْمُقَنطَرَةِ مِنَ الذَّهَبِ وَالْفِضَّةِ وَالْخَيْلِ الْمُسَوَّمَةِ وَالْأَنْعَامِ وَالْحَرْثِ ۗ ذَٰلِكَ مَتَاعُ الْحَيَاةِ الدُّنْيَا ۖ وَاللَّـهُ عِندَهُ حُسْنُ الْمَآبِ ﴾ 14 ﴿
ज़ुय्यि-न लिन्नासि हुब्बुश्श-हवाति मिनन्निसा-इ वल्बनी-न वल्- क़नातीरिल्- मुक़न्त-रति मिनज़्ज़-हबि वल्फ़िज़्ज़ति वल्-ख़ैलिल्-मुसव्व-मति वल्-अन्आ़मि वल्हर्सि, ज़ालि-क मताअुल् हयातिद्दुन्या, वल्लाहु अिन्दहू हुस्नुल् मआब
लोगों के लिए उनके मनको मोहने वाली चीज़ें, जैसे स्त्रियाँ, संतान, सोने चाँदी के ढेर, निशान लगे घोड़े, पशुओं तथा खेती शोभनीय बना दी गई हैं। ये सब सांसारिक जीवन के उपभोग्य हैं और उत्तम आवास अल्लाह के पास है।
قُلْ أَؤُنَبِّئُكُم بِخَيْرٍ مِّن ذَٰلِكُمْ ۚ لِلَّذِينَ اتَّقَوْا عِندَ رَبِّهِمْ جَنَّاتٌ تَجْرِي مِن تَحْتِهَا الْأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا وَأَزْوَاجٌ مُّطَهَّرَةٌ وَرِضْوَانٌ مِّنَ اللَّـهِ ۗ وَاللَّـهُ بَصِيرٌ بِالْعِبَادِ ﴾ 15 ﴿
क़ुल् अ-उनब्बिउकुम् बिख़ैरिम् मिन् ज़ालिकुम्, लिल्लज़ीनत्तक़ौ अिन्-द रब्बिहिम् जन्नातुन् तज्री मिन् तह्तिहल्-अन्हारु ख़ालिदी-न फ़ीहा व अज़्वाजुम्- मुतह्ह-रतुंव्-व रिज़्वानुम् मिनल्लाहि, वल्लाहु बसीरुम् बिल्अिबाद
(हे नबी!) कह दोः क्या मैं तुम्हें इससे उत्तम चीज़ बता दूँ? उनके लिए जो डरें, उनके पालनहार के पास ऐसे स्वर्ग हैं, जिनमें नहरें बह रही हैं। वे उनमें सदावासी होंगे और निर्मल पत्नियाँ होंगी तथा अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त होगी और अल्लाह अपने भक्तों को देख रहा है।
الَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَا إِنَّنَا آمَنَّا فَاغْفِرْ لَنَا ذُنُوبَنَا وَقِنَا عَذَابَ النَّارِ ﴾ 16 ﴿
अल्लज़ी-न यक़ूलू-न रब्बना इन्नना आमन्ना फ़ग़्फ़िर् लना ज़ुनूबना व क़िना अ़ज़ाबन्नार
जो (ये) प्रार्थना करते हैं कि हमारे पालनहार! हम ईमान लाये, अतः हमारे पाप क्षमा कर दे और हमें नरक की यातना से बचा।
الصَّابِرِينَ وَالصَّادِقِينَ وَالْقَانِتِينَ وَالْمُنفِقِينَ وَالْمُسْتَغْفِرِينَ بِالْأَسْحَارِ ﴾ 17 ﴿
अस्साबिरी-न वस्सादिक़ी-न वल्क़ानिती-न वल्मुन्फ़िकी-न वल्मुस्तग़्फ़िरी-न बिल्अस्हार
जो सहनशील हैं, सत्यवादी हैं, आज्ञाकारी हैं, दानशील तथा भोरों में अल्लाह से क्षमा याचना करने वाले हैं।
شَهِدَ اللَّـهُ أَنَّهُ لَا إِلَـٰهَ إِلَّا هُوَ وَالْمَلَائِكَةُ وَأُولُو الْعِلْمِ قَائِمًا بِالْقِسْطِ ۚ لَا إِلَـٰهَ إِلَّا هُوَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ ﴾ 18 ﴿
शहिदल्लाहु अन्नहू ला इला-ह इल्ला हु-व, वल्मलाइ-कतु व उलुल्-अिल्मि क़ा-इमम् बिल्क़िस्ति, ला इला-ह इल्ला हुवल्-अ़ज़ीज़ुल् हकीम
अल्लाह साक्षी है, जो न्याय के साथ क़ायम है कि उसके सिवा कोई पूज्य नहीं है, इसी प्रकार फ़रिश्ते और ज्ञानी लोग भी (साक्षी हैं) कि उसके सिवा कोई पूज्य नहीं। वह प्रभुत्वशाली, तत्वज्ञ है।
إِنَّ الدِّينَ عِندَ اللَّـهِ الْإِسْلَامُ ۗ وَمَا اخْتَلَفَ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ إِلَّا مِن بَعْدِ مَا جَاءَهُمُ الْعِلْمُ بَغْيًا بَيْنَهُمْ ۗ وَمَن يَكْفُرْ بِآيَاتِ اللَّـهِ فَإِنَّ اللَّـهَ سَرِيعُ الْحِسَابِ ﴾ 19 ﴿
इन्नद्दी-न अिन्दल्लाहिल् इस्लामु, व मख़्त-लफ़ल्लज़ी-न ऊतुल्-किता-ब इल्ला मिम्-बअ्दि मा जा-अहुमुल् अिल्मु बग़्यम् बइनहुम, व मंय्यक्फ़ुर् बिआयातिल्लाहि फ़-इन्नल्ला-ह सरीअुल् हिसाब
निःसंदेह (वास्तविक) धर्म अल्लाह के पास इस्लाम ही है और अह्ले किताब ने जो विभेद किया, तो अपने पास ज्ञान आने के पश्चात् आपस में द्वेष के कारण किया तथा जो अल्लाह की आयतों के साथ कुफ़्र (अस्वीकार) करेगा, तो निश्चय अल्लाह शीघ्र ह़िसाब लेने वाला है।
فَإِنْ حَاجُّوكَ فَقُلْ أَسْلَمْتُ وَجْهِيَ لِلَّـهِ وَمَنِ اتَّبَعَنِ ۗ وَقُل لِّلَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ وَالْأُمِّيِّينَ أَأَسْلَمْتُمْ ۚ فَإِنْ أَسْلَمُوا فَقَدِ اهْتَدَوا ۖ وَّإِن تَوَلَّوْا فَإِنَّمَا عَلَيْكَ الْبَلَاغُ ۗ وَاللَّـهُ بَصِيرٌ بِالْعِبَادِ ﴾ 20 ﴿
फ़-इन् हाज्जू-क फ़क़ुल् अस्लम्तु वज़्हि-य लिल्लाहि व मनित्त-ब- अ़नि, व क़ुल लिल्लज़ी-न ऊतुल्-किता-ब वल-उम्मिय्यी-न अ-अस्लम्तुम्, फ़-इन् अस्लमू फ़-क़दिह्तदौ, व इन् तवल्लौ फ़-इन्नमा अ़लैकल्- बलाग़ु, वल्लाहु बसीरुम् बिल्अिबाद
फिर यदि वे आपसे विवाद करें, तो कह दें कि मैं स्वयं तथा जिसने मेरा अनुसरण किया अल्लाह के आज्ञाकारी हो गये तथा अह्ले किताब और उम्मियों (अर्थात जिनके पास कोई किताब नहीं आयी) से कहो कि क्या तुम भी आज्ञाकारी हो गये? यदि वे आज्ञाकारी हो गये, तो मार्गदर्शन पा गये और यदि विमुख हो गये, तो आपका दायित्व (संदेश) पहुँचा[1] देना है तथा अल्लाह भक्तों को देख रहा है। 1. अर्थात उन से वाद विवाद करना व्यर्थ है।
إِنَّ الَّذِينَ يَكْفُرُونَ بِآيَاتِ اللَّـهِ وَيَقْتُلُونَ النَّبِيِّينَ بِغَيْرِ حَقٍّ وَيَقْتُلُونَ الَّذِينَ يَأْمُرُونَ بِالْقِسْطِ مِنَ النَّاسِ فَبَشِّرْهُم بِعَذَابٍ أَلِيمٍ ﴾ 21 ﴿
इन्नल्लज़ी-न यक्फ़ुरु-न बिआया-तिल्लाहि व यक़्तुलूनन्नबिय्यी-न बिग़ैरि हक़्क़िंव्-व यक़्तुलू-नल्लज़ी-न यअ्मुरू-न बिल्क़िस्ति मिनन्नासि फ़-बश्शिर्हुम् बि-अ़ज़ाबिन अलीम
जो लोग अल्लाह की आयतों के साथ कुफ़्र करते हों तथा नबियों को अवैध वध करते हों, तथा उन लोगों का वध करते हों, जो न्याय का आदेश देते हैं, तो उन्हें दुःखदायी यातना[1] की शुभ सूचना सुना दो। 1. इस में यहूद की आस्थिक तथा कर्मिक कुपथा की ओर संकेत है।
أُولَـٰئِكَ الَّذِينَ حَبِطَتْ أَعْمَالُهُمْ فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ وَمَا لَهُم مِّن نَّاصِرِينَ ﴾ 22 ﴿
उलाइ-कल्लज़ी-न हबितत् अअ्मालुहुम् फ़िद्दुन्या वल्-आख़ि-रति, व मा लहुम् मिन्-नासिरीन
यही हैं, जिनके कर्म संसार तथा परलोक में अकारथ गये और उनका कोई सहायक नहीं होगा।
أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ أُوتُوا نَصِيبًا مِّنَ الْكِتَابِ يُدْعَوْنَ إِلَىٰ كِتَابِ اللَّـهِ لِيَحْكُمَ بَيْنَهُمْ ثُمَّ يَتَوَلَّىٰ فَرِيقٌ مِّنْهُمْ وَهُم مُّعْرِضُونَ ﴾ 23 ﴿
अलम् त-र इलल्लज़ी-न ऊतू नसीबम् मिनल्-किताबि युद्औ़-न इला किताबिल्लाहि लि-यह्कु-म बैनहुम् सुम्-म य-तवल्ला फ़रीक़ुम् मिन्हुम् व हुम् मुअ्-रिज़ून
(हे नबी!) क्या आपने उनकी[1] दशा नहीं देखी, जिन्हें पुस्तक का कुछ भाग दिया गया? वे अल्लाह की पुस्तक की ओर बुलाये जा रहे हैं, ताकि उनके बीच निर्णय[2] करे, तो उनका एक गिरोह मुँह फेर रहा है और वे हैं ही मुँह फेरने वाले। 1. इस से अभिप्राय यहूदी विद्वान हैं। 2. अर्थात विभेद का निर्णय कर दे। इस आयत में अल्लाह की पुस्तक से अभिप्राय तौरात और इंजील हैं। और अर्थ यह है कि जब उन्हें उन की पुस्तकों की ओर बुलाया जाता है कि अपनी पुस्तकों ही को निर्णायक मान लो, तथा बताओ कि उन में अन्तिम नबी पर ईमान लाने का आदेश दिया गया है या नहीं? तो वे कतरा जाते हैं, जैसे कि उन्हें कोई ज्ञान ही न हो।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمْ قَالُوا لَن تَمَسَّنَا النَّارُ إِلَّا أَيَّامًا مَّعْدُودَاتٍ ۖ وَغَرَّهُمْ فِي دِينِهِم مَّا كَانُوا يَفْتَرُونَ ﴾ 24 ﴿
ज़ालि-क बि-अन्नहुम् क़ालू लन् तमस्स-नन्नारु इल्ला अय्यामम् मअ्दूदातिंव्-व ग़र्रहुम् फ़ी दीनिहिम् मा कानू यफ़्तरून
उनकी ये दशा इसलिए है कि उन्होंने कहा कि नरक की अग्नि हमें गिनती के कुछ दिन ही छुएगी तथा उन्हें अपने धर्म में उनकी मिथ्या बनायी हुई बातों ने धोखे में डाल रखा है।
فَكَيْفَ إِذَا جَمَعْنَاهُمْ لِيَوْمٍ لَّا رَيْبَ فِيهِ وَوُفِّيَتْ كُلُّ نَفْسٍ مَّا كَسَبَتْ وَهُمْ لَا يُظْلَمُونَ ﴾ 25 ﴿
फ़कइ-फ़ इज़ा जमअ्नाहुम् लियौमिल् ला रै-ब फ़ीहि, व वुफ़्फ़ियत् कुल्लु नफ़्सिम् मा क-सबत् व हुम् ला युज़्लमून
तो उनकी क्या दशा होगी, जब हम उन्हें उस दिन एकत्र करेंगे, जिस (के आने) में कोई संदेह नहीं तथा प्रत्येक प्राणी को उसके किये का भरपूर प्रतिफल दिया जायेगा और किसी के साथ कोई अत्याचार नहीं किया जायेगा?
قُلِ اللَّـهُمَّ مَالِكَ الْمُلْكِ تُؤْتِي الْمُلْكَ مَن تَشَاءُ وَتَنزِعُ الْمُلْكَ مِمَّن تَشَاءُ وَتُعِزُّ مَن تَشَاءُ وَتُذِلُّ مَن تَشَاءُ ۖ بِيَدِكَ الْخَيْرُ ۖ إِنَّكَ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ ﴾ 26 ﴿
क़ुलिल्लाहुम्-म मालिकल्मुल्कि तुअ्तिल्- मुल्-क मन् तशा-उ व तन्ज़िअुल्मुल्-क मिम्मन् तशा-उ, व तुअिज़्ज़ु मन् तशा-उ, व तुज़िल्लू मन् तशा-उ, बि-यदिकल्-ख़ैरु, इन्न-क अ़ला कुल्लि शैइन् क़दीर
(हे नबी!) कहोः हे अल्लाह! राज्य के[1] अधिपति (स्वामी)! तू जिसे चाहे, राज्य दे और जिससे चाहे, राज्य छीन ले तथा जिसे चाहे, सम्मान दे और जिसे चाहे, अपमान दे। तेरे ही हाथ में भलाई है। निःसंदेह तू जो चाहे, कर सकता है। 1. अल्लाह की अपार शक्ति का वर्णन।
تُولِجُ اللَّيْلَ فِي النَّهَارِ وَتُولِجُ النَّهَارَ فِي اللَّيْلِ ۖ وَتُخْرِجُ الْحَيَّ مِنَ الْمَيِّتِ وَتُخْرِجُ الْمَيِّتَ مِنَ الْحَيِّ ۖ وَتَرْزُقُ مَن تَشَاءُ بِغَيْرِ حِسَابٍ ﴾ 27 ﴿
तूलिजुल्लै-ल फ़िन्नहारि व तूलिजुन्नहा-र फ़िल्लैलि व तुख़रिजुल्-हय्-य मिनल्-मय्यिति व तुख़रिजुल् मय्यि-त मिनल्हय्यि, व तर्जुक़ु मन् तशा-उ बिग़ैरि हिसाब
तू रात को दिन में प्रविष्ट कर देता है तथा दिन को रात में प्रविष्ट कर[1] देता है और जीव को निर्जीव से निकालता है तथा निर्जीव को जीव से निकालता है और जिसे चाहे अगणित आजीविका प्रदान करता है। 1. इस में रात्रि-दिवस के परिवर्तन की ओर संकेत है।
لَّا يَتَّخِذِ الْمُؤْمِنُونَ الْكَافِرِينَ أَوْلِيَاءَ مِن دُونِ الْمُؤْمِنِينَ ۖ وَمَن يَفْعَلْ ذَٰلِكَ فَلَيْسَ مِنَ اللَّـهِ فِي شَيْءٍ إِلَّا أَن تَتَّقُوا مِنْهُمْ تُقَاةً ۗ وَيُحَذِّرُكُمُ اللَّـهُ نَفْسَهُ ۗ وَإِلَى اللَّـهِ الْمَصِيرُ ﴾ 28 ﴿
ला यत्तख़िज़िल्-मुअ्मिनूनल् काफ़िरी-न औलिया-अ मिन् दूनिल्- मुअ्मिनी-न, व मंय्यफ़्अ़ल् ज़ालि-क फ़्लै-स मिनल्लाहि फ़ी शैइन् इल्ला अन् तत्तक़ू मिन्हुम् तुक़ातन्, व युहज़्ज़िरुकुमुल्लाहु नफ़्सहू, व इलल्लाहिल्-मसीर
मोमिनों को चाहिए कि वो ईमान वालों के विरुध्द काफ़िरों को अपना सहायक मित्र न बनायें और जो ऐसा करेगा, उसका अल्लाह से कोई संबंध नहीं। परन्तु उनसे बचने के लिए[1] और अल्लाह तुम्हें स्वयं अपने से डरा रहा है और अल्लाह ही की ओर जाना है। 1.अर्थात संधि मित्र बना सकते हो।
قُلْ إِن تُخْفُوا مَا فِي صُدُورِكُمْ أَوْ تُبْدُوهُ يَعْلَمْهُ اللَّـهُ ۗ وَيَعْلَمُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ ۗ وَاللَّـهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ ﴾ 29 ﴿
क़ुल इन् तुख़्फ़ू मा फ़ी सुदूरिकुम् औ तुब्दूहु यअ्लम्हुल्लाहु, व यअ्लमु मा फ़िस्समावाति व मा फ़िल्अर्ज़ि, वल्लाहु अ़ला कुल्लि शैइन् क़दीर
(हे नबी!) कह दो कि जो तुम्हारे मन में है, उसे मन ही में रखो या व्यक्त करो, अल्लाह उसे जानता है तथा जो कुछ आकाशों तथा धरती में है, वह सबको जानता है और अल्लाह जो चाहे, कर सकता है।
يَوْمَ تَجِدُ كُلُّ نَفْسٍ مَّا عَمِلَتْ مِنْ خَيْرٍ مُّحْضَرًا وَمَا عَمِلَتْ مِن سُوءٍ تَوَدُّ لَوْ أَنَّ بَيْنَهَا وَبَيْنَهُ أَمَدًا بَعِيدًا ۗ وَيُحَذِّرُكُمُ اللَّـهُ نَفْسَهُ ۗ وَاللَّـهُ رَءُوفٌ بِالْعِبَادِ ﴾ 30 ﴿
यौ-म तजिदु कुल्लु नफ़्सिम् मा अ़मिलत् मिन् ख़ैरिम् मुह्ज़रंव्-व मा अ़मिलत् मिन् सूइन्, त-वद्दु लौ अन्-न बैनहा व बैनहू अ-मदम् बईदन्, व युहज़्ज़िरुकुमुल्लाहु नफ़्सहू, वल्लाहु रऊफ़ुम् बिल्अिबाद
जिस दिन प्रत्येक प्राणी ने जो सुकर्म किया है, उसे उपस्थित पायेगा तथा जिसने कुकर्म किया है, वह कामना करेगा कि उसके तथा उसके कुकर्मों के बीच बड़ी दूरी होती तथा अल्लाह तुम्हें स्वयं से डराता[1] है और अल्लाह अपने भक्तों के लिए अति करुणामय है। 1. अर्थात अपनी अवैज्ञा से।
قُلْ إِن كُنتُمْ تُحِبُّونَ اللَّـهَ فَاتَّبِعُونِي يُحْبِبْكُمُ اللَّـهُ وَيَغْفِرْ لَكُمْ ذُنُوبَكُمْ ۗ وَاللَّـهُ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 31 ﴿
क़ुल् इन् कुन्तुम् तुहिब्बूनल्ला-ह फ़त्तबिअूनी युह्बिब्कुमुल्लाहु व यग़्फ़िर् लकुम् ज़ुनूबकुम, वल्लाहु ग़फ़ूरुर्रहीम
(हे नबी!) कह दोः यदि तुम अल्लाह से प्रेम करते हो, तो मेरा अनुसरण करो, अल्लाह तुमसे प्रेम[1] करेगा तथा तुम्हारे पाप क्षमा कर देगा और अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है। 1. इस में यह संकेत है कि जो अल्लाह से प्रेम का दावा करता हो, और मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का अनुसरण न करता हो, तो वह अल्लाह का प्रेमी नहीं हो सकता।
قُلْ أَطِيعُوا اللَّـهَ وَالرَّسُولَ ۖ فَإِن تَوَلَّوْا فَإِنَّ اللَّـهَ لَا يُحِبُّ الْكَافِرِينَ ﴾ 32 ﴿
क़ुल् अतीअुल्ला-ह वर्रसू-ल फ़-इन् तवल्लौ फ़-इन्नल्ला-ह ला युहिब्बुल् काफ़िरीन
(हे नबी!) कह दोः अल्लाह और रसूल की आज्ञा का अनुपालन करो। फिर भी यदि वे विमुख हों, तो निःसंदेह अल्लाह काफ़िरों से प्रेम नहीं करता।
إِنَّ اللَّـهَ اصْطَفَىٰ آدَمَ وَنُوحًا وَآلَ إِبْرَاهِيمَ وَآلَ عِمْرَانَ عَلَى الْعَالَمِينَ ﴾ 33 ﴿
इन्नल्लाहस्तफा आद-म व नूहंव्-व आ-ल इब्राही-म व आ-ल अिम्रा-न अ़लल् आ़लमीन
वस्तुतः, अल्लाह ने आदम, नूह़, इब्राहीम की संतान तथा इमरान की संतान को संसार वासियों में चुन लिया था।
ذُرِّيَّةً بَعْضُهَا مِن بَعْضٍ ۗ وَاللَّـهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ﴾ 34 ﴿
ज़ुर्रिय्यतम् बअ्ज़ुहा मिम्-बअ्ज़िन्, वल्लाहु समीअुन् अ़लीम
ये एक-दूसरे की संतान हैं और अल्लाह सब सुनता और जानता है।
إِذْ قَالَتِ امْرَأَتُ عِمْرَانَ رَبِّ إِنِّي نَذَرْتُ لَكَ مَا فِي بَطْنِي مُحَرَّرًا فَتَقَبَّلْ مِنِّي ۖ إِنَّكَ أَنتَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ ﴾ 35 ﴿
इज़् क़ा-लतिम्र-अतु अिम्रा-न रब्बि इन्नी नज़र्तु ल-क मा फ़ी बत्नी मुहर्र-रन् फ़-तक़ब्बल् मिन्नी, इन्न-क अन्तस्- समीअुल् अ़लीम
जब इमरान की पत्नी[1] ने कहाः हे मेरे पालनहार! जो मेरे गर्भ में है, मैंने तेरे[3] लिए उसे मुक्त करने की मनौती मान ली है। तू इसे मुझसे स्वीकार कर ले। वास्तव में, तू ही सब कुछ सुनता और जानता है। 1. अर्थात मर्यम की माँ। 2. अर्थात बैतुल मक़दिस की सेवा के लिये।
فَلَمَّا وَضَعَتْهَا قَالَتْ رَبِّ إِنِّي وَضَعْتُهَا أُنثَىٰ وَاللَّـهُ أَعْلَمُ بِمَا وَضَعَتْ وَلَيْسَ الذَّكَرُ كَالْأُنثَىٰ ۖ وَإِنِّي سَمَّيْتُهَا مَرْيَمَ وَإِنِّي أُعِيذُهَا بِكَ وَذُرِّيَّتَهَا مِنَ الشَّيْطَانِ الرَّجِيمِ ﴾ 36 ﴿
फ़-लम्मा व-ज़अ़त्हा क़ालत् रब्बि इन्नी वज़अ्तुहा उन्सा, वल्लाहु अअ्लमु बिमा व-ज़अ़त्, व लैसज़्ज़-करु कल्उन्सा, व इन्नी सम्मैतुहा मर्य-म व इन्नी उईज़ुहा बि-क व ज़ुर्रिय्य-तहा मिनश्-शैतानिर्- रजीम
फिर जब उसने बालिका जनी, तो (संताप से) कहाः मेरे पालनहार! मुझे तो बालिका हो गयी, हालाँकि जो उसने जना, उसका अल्लाह को भली-भाँति ज्ञान था -और नर नारी के समान नहीं होता- और मैंने उसका नाम मर्यम रखा है और मैं उसे तथा उसकी संतान को धिक्कारे हुए शैतान से तेरी शरण में देती हूँ।[1] 1. हदीस में है कि जब कोई शिशु जन्म लेता है, तो शैतान उसे स्पर्श करता है, जिस के कारण वह चीख कर रोता है, परन्तु मर्यम और उस के पुत्र को स्पर्श नहीं किया था। (सह़ीह़ बुख़ारीः4548)
فَتَقَبَّلَهَا رَبُّهَا بِقَبُولٍ حَسَنٍ وَأَنبَتَهَا نَبَاتًا حَسَنًا وَكَفَّلَهَا زَكَرِيَّا ۖ كُلَّمَا دَخَلَ عَلَيْهَا زَكَرِيَّا الْمِحْرَابَ وَجَدَ عِندَهَا رِزْقًا ۖ قَالَ يَا مَرْيَمُ أَنَّىٰ لَكِ هَـٰذَا ۖ قَالَتْ هُوَ مِنْ عِندِ اللَّـهِ ۖ إِنَّ اللَّـهَ يَرْزُقُ مَن يَشَاءُ بِغَيْرِ حِسَابٍ ﴾ 37 ﴿
फ़-तक़ब्ब-लहा रब्बुहा बि-क़बूलिन् ह-सनिंव्-व अम्ब-तहा नबातन् ह-सनंव्-व कफ़्फ़-लहा ज़-करिय्या, कुल्लमा द-ख़-ल अ़लैहा ज़- करिय्यल्-मिह्-रा-ब, व-ज-द अिन्दहा रिज़्क़न् क़ा-ल या मर्यमु अन्ना लकि हाज़ा, क़ालत् हु-व मिन् अिन्दिल्लाहि, इन्नल्ला-ह यर्ज़ुक़ु मंय्यशा-उ बिग़ैरि हिसाब
तो तेरे पालनहार ने उसे भली-भाँति स्वीकार कर लिया तथा उसका अच्छा प्रतिपालन किया और ज़करिय्या को उसका संरक्षक बनाया। ज़करिय्या जबभी उसके मेह़राब (उपासना कोष्ट) में जाता, तो उसके पास कुछ खाद्य पदार्थ पाता, वह कहता कि हे मर्यम! ये कहाँ से (आया) है? वह कहतीः ये अल्लाह के पास से (आया) है। वास्तव में, अल्लाह जिसे चाहता है, अगणित जीविका प्रदा करता है।
هُنَالِكَ دَعَا زَكَرِيَّا رَبَّهُ ۖ قَالَ رَبِّ هَبْ لِي مِن لَّدُنكَ ذُرِّيَّةً طَيِّبَةً ۖ إِنَّكَ سَمِيعُ الدُّعَاءِ ﴾ 38 ﴿
हुनालि-क दआ़ ज़-करिय्या रब्बहू, क़ा-ल रब्बि हब् ली मिल्लदुन्-क ज़ुर्रिय्यतन् तय्यि-बतन् इन्न-क समीअुद्दुआ़-इ
तब ज़करिय्या ने अपने पालनहार से प्रार्थना कीः हे मेरे पालनहार! मुझे अपनी ओर से सदाचारी संतान प्रदान कर। निःसंदेह तू प्रार्थना सुनने वाला है।
فَنَادَتْهُ الْمَلَائِكَةُ وَهُوَ قَائِمٌ يُصَلِّي فِي الْمِحْرَابِ أَنَّ اللَّـهَ يُبَشِّرُكَ بِيَحْيَىٰ مُصَدِّقًا بِكَلِمَةٍ مِّنَ اللَّـهِ وَسَيِّدًا وَحَصُورًا وَنَبِيًّا مِّنَ الصَّالِحِينَ ﴾ 39 ﴿
फ़नादत्हुल् मलाइ-कतु व हु-व क़ा इमुंय्युसल्ली फ़िल्-मिह्-राबि, अन्नल्ला-ह युबश्शिरु-क बि-यह्या मुसद्दिक़म् बि-कलिमतिम् मिनल्लाहि व सय्यिदंव्-व हसूरंव्-व नबिय्यम् मिनस्सालिहीन
तो फ़रिश्तों ने उसे पुकारा- जब वह मेह़राब में खड़ा नमाज़ पढ़ रहा था- कि अल्लाह तुझे 'यह़्या' की शुभ सूचना दे रहा है, जो अल्लाह के शब्द (ईसा) का पुष्टि करने वाला, प्रमुख तथा संयमी और सदाचारियों में से एक नबी होगा।
قَالَ رَبِّ أَنَّىٰ يَكُونُ لِي غُلَامٌ وَقَدْ بَلَغَنِيَ الْكِبَرُ وَامْرَأَتِي عَاقِرٌ ۖ قَالَ كَذَٰلِكَ اللَّـهُ يَفْعَلُ مَا يَشَاءُ ﴾ 40 ﴿
क़ा-ल रब्बि अन्ना यकूनु ली ग़ुलामुंव्-व क़द् ब-ल-ग़नियल कि-बरु वम्र-अती आ़क़िरुन्, क़ा-ल कज़ालिकल्लाहु यफ़्अ़लु मा यशा-उ
उसने कहाः मेरे पालनहार! मेरे कोई पुत्र कहाँ से होगा, जबकि मैं बूढ़ा हो गया हूँ और मेरी पत्नी बाँझ[1] है? उसने कहाः अल्लाह इसी प्रकार जो चाहता है, कर देता है। 1. यह प्रश्न ज़करिया ने प्रसन्न हो कर आश्चर्य से किया।
قَالَ رَبِّ اجْعَل لِّي آيَةً ۖ قَالَ آيَتُكَ أَلَّا تُكَلِّمَ النَّاسَ ثَلَاثَةَ أَيَّامٍ إِلَّا رَمْزًا ۗ وَاذْكُر رَّبَّكَ كَثِيرًا وَسَبِّحْ بِالْعَشِيِّ وَالْإِبْكَارِ ﴾ 41 ﴿
क़ा-ल रब्बिज्अ़ल्ली आ-यतन्, क़ा-ल आ-यतु-क अल्ला तुकल्लिमन्ना-स सला-स-त अय्यामिन् इल्ला रम्ज़न्, वज़्कुर् रब्ब-क कसीरंव्-व सब्बिह् बिल्-अ़शिय्यि वल्-इब्कार
उसने कहाः मेरे पालनहार! मेरे लिए कोई लक्षण बना दे। उसने कहाः तेरा लक्षण ये होगा कि तीन दिन तक लोगों से बात नहीं कर सकेगा, परन्तु संकेत से तथा अपने पालनहार का बहुत स्मरण करता रह और संध्या-प्राता उसी की पवित्रता का वर्णन कर।
وَإِذْ قَالَتِ الْمَلَائِكَةُ يَا مَرْيَمُ إِنَّ اللَّـهَ اصْطَفَاكِ وَطَهَّرَكِ وَاصْطَفَاكِ عَلَىٰ نِسَاءِ الْعَالَمِينَ ﴾ 42 ﴿
व इज़् क़ालतिल् मलाइ-कतु या मर्यमु इन्नल्लाहस्तफ़ाकि व तह्ह-रकि वस्तफ़ाकि अ़ला निसा-इल् आ़लमीन
और (याद करो) जब फरिश्तों ने मर्यम से कहाः हे मर्यम! तुझे अल्लाह ने चुन लिया तथा पवित्रता प्रदान की और संसार की स्त्रियों पर तुझे चुन लिया।
يَا مَرْيَمُ اقْنُتِي لِرَبِّكِ وَاسْجُدِي وَارْكَعِي مَعَ الرَّاكِعِينَ ﴾ 43 ﴿
या मर्यमुक़्नुती लिरब्बिकि वस्जुदी वर्कई मअ़र्राकिईन
हे मर्यम! अपने पालनहार की आज्ञाकारी रहो, सज्दा करो तथा रुकूअ करने वालों के साथ रुकूअ करती रहो।
ذَٰلِكَ مِنْ أَنبَاءِ الْغَيْبِ نُوحِيهِ إِلَيْكَ ۚ وَمَا كُنتَ لَدَيْهِمْ إِذْ يُلْقُونَ أَقْلَامَهُمْ أَيُّهُمْ يَكْفُلُ مَرْيَمَ وَمَا كُنتَ لَدَيْهِمْ إِذْ يَخْتَصِمُونَ ﴾ 44 ﴿
ज़ालि-क मिन् अम्बा-इल् ग़ैबि नूहीहि इलै-क, व मा कुन्-त लदैहिम इज़् युल्क़ू-न अक़्ला-महुम् अय्युहुम् यक्फ़ुलु मर्य म, व मा कुन्-त लदैहिम् इज़् यख़्तसिमून
ये ग़ैब (परोक्ष) की सूचनायें हैं, जिन्हें हम आपकी ओर प्रकाशना कर रहे हैं और आप उनके पास उपस्थित नहीं थे, जब वे अपनी लेखनियाँ[1] फेंक रहे थे कि कौन मर्यम का अभिरक्षण करेगा और न उनके पास उपस्थित थे, जब वे झगड़ रहे थे। 1. अर्थात यह निर्णय करने के लिये कि मर्यम का संरक्षक कौन हो?
إِذْ قَالَتِ الْمَلَائِكَةُ يَا مَرْيَمُ إِنَّ اللَّـهَ يُبَشِّرُكِ بِكَلِمَةٍ مِّنْهُ اسْمُهُ الْمَسِيحُ عِيسَى ابْنُ مَرْيَمَ وَجِيهًا فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ وَمِنَ الْمُقَرَّبِينَ ﴾ 45 ﴿
इज़् क़ालतिल् मलाइ कतु या मर्यमु इन्नल्ला-ह युबश्शिरुकि बि-कलि-मतिम् मिन्हुस्मुहुल्- मसीहु ईसब्नु मर्य-म वजीहन् फ़िद्दुन्या वल्आख़ि-रति व मिनल् मुक़र्रबीन
जब फ़रिश्तों ने कहाः हे मर्यम! अल्लाह तुझे अपने एक शब्द[1] की शुभ सूचना दे रहा है, जिसका नाम मसीह़ ईसा पुत्र मर्यम होगा। वह लोक-प्रलोक में प्रमुख तथा (मेरे) समीपवर्तियों में होगा। 1. अर्थात वह अल्लाह के शब्द "कुन" से पैदा होगा, जिस का अर्थ है "हो जा"।
وَيُكَلِّمُ النَّاسَ فِي الْمَهْدِ وَكَهْلًا وَمِنَ الصَّالِحِينَ ﴾ 46 ﴿
व युकल्लिमुन्ना-स फ़िल्मह्दि व कह् लंव्-व मिनस्सालिहीन
वह लोगों से गोद में तथा अधेड़ आयु में बातें करेगा और सदाचारियों में होगा।
قَالَتْ رَبِّ أَنَّىٰ يَكُونُ لِي وَلَدٌ وَلَمْ يَمْسَسْنِي بَشَرٌ ۖ قَالَ كَذَٰلِكِ اللَّـهُ يَخْلُقُ مَا يَشَاءُ ۚ إِذَا قَضَىٰ أَمْرًا فَإِنَّمَا يَقُولُ لَهُ كُن فَيَكُونُ ﴾ 47 ﴿
क़ालत् रब्बि अन्ना यकूनु ली व-लदुंव्-व लम् यम्सस्नी ब-शरुन्, क़ा-ल कज़ालिकिल्लाहु यख़्लुक़ु मा यशा-उ, इज़ा कज़ा अम्रन् फ़-इन्नमा यक़ूलु लहू कुन् फ़-यकून
मर्यम ने (आश्चर्य से) कहाः मेरे पालनहार! मुझे पुत्र कहाँ से होगा, मुझे तो किसी पुरुष ने हाथ भी नहीं लगाया है? उसने[1] कहाः इसी प्रकार अल्लाह जो चाहता है, उत्पन्न कर देता है। जब वह किसी काम के करने का निर्णय कर लेता है, तो उसके लिए कहता है किः "हो जा", तो वह हो जाता है। 1. अर्थात फ़रिश्ते ने।
وَيُعَلِّمُهُ الْكِتَابَ وَالْحِكْمَةَ وَالتَّوْرَاةَ وَالْإِنجِيلَ ﴾ 48 ﴿
व युअ़ल्लिमुहुल्-किता-ब वल्-हिक्म-त वत्तौरा-त वल्-इन्जील
और अल्लाह उसे पुस्तक तथा प्रबोध और तौरात तथा इंजील की शिक्षा देगा।
وَرَسُولًا إِلَىٰ بَنِي إِسْرَائِيلَ أَنِّي قَدْ جِئْتُكُم بِآيَةٍ مِّن رَّبِّكُمْ ۖ أَنِّي أَخْلُقُ لَكُم مِّنَ الطِّينِ كَهَيْئَةِ الطَّيْرِ فَأَنفُخُ فِيهِ فَيَكُونُ طَيْرًا بِإِذْنِ اللَّـهِ ۖ وَأُبْرِئُ الْأَكْمَهَ وَالْأَبْرَصَ وَأُحْيِي الْمَوْتَىٰ بِإِذْنِ اللَّـهِ ۖ وَأُنَبِّئُكُم بِمَا تَأْكُلُونَ وَمَا تَدَّخِرُونَ فِي بُيُوتِكُمْ ۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَآيَةً لَّكُمْ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ ﴾ 49 ﴿
व रसूलन् इला बनी इस्राई-ल, अन्नी क़द् जिअ्तुकुम् बिआ-यतिम् मिर्रब्बिकुम् अन्नी अख़्लुक़ु लकुम् मिनत्तीनि कहै-अतित्तैरि फ़-अन्फ़ुख़ु फ़ीहि फ़-यकूनु तैरम् बि-इज़्निल्लाहि, व उब्रिउल्-अक्म-ह वल्-अब्र-स व उह्यिल्मौता बि-इज़्निल्लाहि, व उनब्बिउकुम् बिमा तअ्कुलू-न व मा तद्दख़िरू-न, फ़ी बुयूतिकुम्, इन्-न फ़ी ज़ालि-क लआ-यतल्-लकुम् इन् कुन्तुम् मुअ्मिनीन
और फिर वह बनी इस्राईल का एक रसूल होगा (और कहेगाः) कि मैं तुम्हारे पालनहार की ओर से निशानी लाया हूँ। मैं तुम्हारे लिए मिट्टी से पक्षी के आकार के समान बनाऊँगा, फिर उसमें फूँक दूँगा, तो वह अल्लाह की अनुमति से पक्षी बन जायेगा और अल्लाह की अनुमति से जन्म से अंधे तथा कोढ़ी को स्वस्थ कर दूँगा और मुर्दों को जीवित कर दूँगा तथा जो कुछ तुम खाते तथा अपने घरों में संचित करते हो, उसे तुम्हें बता दूँगा। निःसंदेह, इसमें तुम्हारे लिए बड़ी निशानियाँ हैं, यदि तुम ईमान वाले हो।
وَمُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيَّ مِنَ التَّوْرَاةِ وَلِأُحِلَّ لَكُم بَعْضَ الَّذِي حُرِّمَ عَلَيْكُمْ ۚ وَجِئْتُكُم بِآيَةٍ مِّن رَّبِّكُمْ فَاتَّقُوا اللَّـهَ وَأَطِيعُونِ ﴾ 50 ﴿
व मुसद्दिक़ल्लिमा बै-न यदय्-य मिनत्तौराति व लि-उहिल्-ल लकुम् बअ्ज़ल्लज़ी हुर्रि-म अ़लैकुम् व जिअ्तुकुम् बिआ-यतिम् मिर्रब्बिकुम्, फ़त्तक़ुल्ला-ह व अतीअून
तथा मैं उसकी सिध्दि करने वाला हूँ, जो मुझसे पहले की है 'तौरात'। तुम्हारे लिए कुछ चीज़ों को ह़लाला (वैध) करने वाला हूँ, जो तुमपर ह़राम (अवैध) की गयी हैं तथा मैं तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की निशानी लेकर आया हूँ। अतः तुम अल्लाह से डरो और मेरे आज्ञाकारी हो जाओ।
إِنَّ اللَّـهَ رَبِّي وَرَبُّكُمْ فَاعْبُدُوهُ ۗ هَـٰذَا صِرَاطٌ مُّسْتَقِيمٌ ﴾ 51 ﴿
इन्नल्ला-ह रब्बी व रब्बुकुम् फ़अ्बुदूहु, हाज़ा सिरातुम् मुस्तक़ीम
वास्तव में, अल्लाह मेरा और तुम सबका पालनहार है। अतः उसी की इबादत (वंदना) करो। यही सीधी डगर है।
فَلَمَّا أَحَسَّ عِيسَىٰ مِنْهُمُ الْكُفْرَ قَالَ مَنْ أَنصَارِي إِلَى اللَّـهِ ۖ قَالَ الْحَوَارِيُّونَ نَحْنُ أَنصَارُ اللَّـهِ آمَنَّا بِاللَّـهِ وَاشْهَدْ بِأَنَّا مُسْلِمُونَ ﴾ 52 ﴿
फ़-लम्मा अ-हस्-स ईसा मिन्हुमुल् कुफ़्-र क़ा-ल मन् अन्सारी इलल्लाहि, क़ालल्-हवारिय्यू-न नह्नु अन्सारुल्लाहि आमन्ना बिल्लाहि वश्हद् बि-अन्ना मुस्लिमून
तथा जब ईसा ने उनसे कुफ़्र का संवेदन किया, तो कहाः अल्लाह के धर्म की सहायता में कौन मेरा साथ देगा? तो ह़वारियों (सहचरों) ने कहाः हम अल्लाह के सहायक हैं। हम अल्लाह पर ईमान लाये, तुम इसके साक्षी रहो कि हम मुस्लिम (आज्ञाकारी) हैं।
رَبَّنَا آمَنَّا بِمَا أَنزَلْتَ وَاتَّبَعْنَا الرَّسُولَ فَاكْتُبْنَا مَعَ الشَّاهِدِينَ ﴾ 53 ﴿
रब्बना आमन्ना बिमा अन्ज़ल्-त वत्त-बअ्नर्-रसू-ल फ़क्तुब्ना म- अ़श्शाहिदीन
हे हमारे पालनहार! जो कुछ तूने उतारा है, हम उसपर ईमान लाये तथा तेरे रसूल का अनुसरण किया, अतः हमें भी साक्षियों में अंकित कर ले।
وَمَكَرُوا وَمَكَرَ اللَّـهُ ۖ وَاللَّـهُ خَيْرُ الْمَاكِرِينَ ﴾ 54 ﴿
व म-करू व म-करल्लाहु, वल्लाहु ख़ैरुल् माकिरीन
तथा उन्होंने षड्यंत्र[1] रचा और हमने भी योजना रची तथा अल्लाह योजना रचने वालों में सबसे अच्छा है। 1.अर्थात ईसा (अलैहिस्सलाम) को हत करने का। तो अल्लाह ने उन्हें विफल कर दिया। (देखियेः सूरह निसा, आयतः157)
إِذْ قَالَ اللَّـهُ يَا عِيسَىٰ إِنِّي مُتَوَفِّيكَ وَرَافِعُكَ إِلَيَّ وَمُطَهِّرُكَ مِنَ الَّذِينَ كَفَرُوا وَجَاعِلُ الَّذِينَ اتَّبَعُوكَ فَوْقَ الَّذِينَ كَفَرُوا إِلَىٰ يَوْمِ الْقِيَامَةِ ۖ ثُمَّ إِلَيَّ مَرْجِعُكُمْ فَأَحْكُمُ بَيْنَكُمْ فِيمَا كُنتُمْ فِيهِ تَخْتَلِفُونَ ﴾ 55 ﴿
इज़् क़ालल्लाहु या ईसा इन्नी मु-तवफ़्फ़ी-क व राफ़िअु-क इलय्-य व मुतह्हिरु-क मिनल्लज़ी-न क-फ़रू व जाअिलुल्लज़ीनत्-त-बऊ-क फ़ौक़ल्लज़ी-न क-फ़रू इला यौमिल्- क़ियामति, सुम् -म इलय्-य मर्जिअुकुम् फ़-अह्क़ुमु बैनकुम् फ़ीमा कुन्तुम् फ़ीहि तख़्तलिफ़ून
जब अल्लाह ने कहाः हे ईसा! मैं तुझे पूर्णतः लेने वाला तथा अपनी ओर उठाने वाला हूँ तथा तुझे काफ़िरों से पवित्र (मुक्त) करने वाला हूँ तथा तेरे अनुयायियों को प्रलय के दिन तक काफ़िरों के ऊपर[1] करने वाला हूँ। फिर तुम्हारा लौटना मेरी ही ओर है। तो मैं तुम्हारे बीच उस विषय में निर्णय कर दूँगा, जिसमें तुम विभेद कर रहे हो। 1. अर्थात यहूदियों तथा मुश्रिकों के ऊपर।
فَأَمَّا الَّذِينَ كَفَرُوا فَأُعَذِّبُهُمْ عَذَابًا شَدِيدًا فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ وَمَا لَهُم مِّن نَّاصِرِينَ ﴾ 56 ﴿
फ़-अम्मल्लज़ी-न क-फ़रू फ़-उअ़ज़्ज़िबुहुम् अ़ज़ाबन् शदीदन् फ़िद्दुन्या वल्-आख़ि-रति, व मा लहुम् मिन्-नासिरीन
फिर जो काफ़िर हो गये, उन्हें लोक-प्रलोक में कड़ी यातना दूँगा तथा उनका कोई सहायक न होगा।
وَأَمَّا الَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ فَيُوَفِّيهِمْ أُجُورَهُمْ ۗ وَاللَّـهُ لَا يُحِبُّ الظَّالِمِينَ ﴾ 57 ﴿
व अम्मल्लज़ी-न आमनू व अ़मिलुस्सालिहाति फ़-युवफ़्फ़ीहिम् उजूरहुम्, वल्लाहु ला युहिब्बुज़्ज़ालिमीन
तथा जो ईमान लाये और सदाचार किये, तो उन्हें उनका भरपूर प्रतिफल दूँगा तथा अल्लाह अत्याचारियों से प्रेम नहीं करता।
ذَٰلِكَ نَتْلُوهُ عَلَيْكَ مِنَ الْآيَاتِ وَالذِّكْرِ الْحَكِيمِ ﴾ 58 ﴿
ज़ालि-क नत्लूहु अ़लै-क मिनल्-आयाति वज़्ज़िक्रिल हकीम
(हे नबी!) ये हमारी आयतें और तत्वज्ञता की शिक्षा है, जो हम तुम्हें सुना रहे हैं।
إِنَّ مَثَلَ عِيسَىٰ عِندَ اللَّـهِ كَمَثَلِ آدَمَ ۖ خَلَقَهُ مِن تُرَابٍ ثُمَّ قَالَ لَهُ كُن فَيَكُونُ ﴾ 59 ﴿
इन्-न म-स-ल ईसा अिन्दल्लाहि क-म-सलि आद-म, ख़-ल-क़हू मिन् तुराबिन् सुम्-म क़ा-ल लहू कुन् फ़-यकून
वस्तुतः अल्लाह के पास ईसा की मिसाल ऐसी ही है[1], जैसे आदम की। उसे (अर्थात, आदम को) मिट्टी से उत्पन्न किया, फिर उससे कहाः "हो जा" तो वह हो गया। 1. अर्थात जैसे प्रथम पुरुष आदम (अलैहिस्सलाम) को बिना माता-पिता के उत्पन्न किया, उसी प्रकार ईसा (अलैहिस्सलाम) को बिना पिता के उत्पन्न कर दिया, अतः वह भी मानव पुरुष हैं।
الْحَقُّ مِن رَّبِّكَ فَلَا تَكُن مِّنَ الْمُمْتَرِينَ ﴾ 60 ﴿
अल्-हक़्क़ु मिर्रब्बि-क फ़ला तकुम् मिनल्-मुम्तरीन
ये आपके पालनहार की ओर से सत्य[1] है, अतः आप संदेह करने वालों में न हों। 1. अर्थात ईसा अलैहिस्सलाम का मानव पुरुष होना। अतः आप उन के विषय में किसी संदेह में न पड़ें।
فَمَنْ حَاجَّكَ فِيهِ مِن بَعْدِ مَا جَاءَكَ مِنَ الْعِلْمِ فَقُلْ تَعَالَوْا نَدْعُ أَبْنَاءَنَا وَأَبْنَاءَكُمْ وَنِسَاءَنَا وَنِسَاءَكُمْ وَأَنفُسَنَا وَأَنفُسَكُمْ ثُمَّ نَبْتَهِلْ فَنَجْعَل لَّعْنَتَ اللَّـهِ عَلَى الْكَاذِبِينَ ﴾ 61 ﴿
फ़-मन् हाज्ज-क फ़ीहि मिम्-बअ्दि मा जाअ-क मिनल् अिल्मि फ़क़ुल् तआ़लौ नद्अु अब्ना-अना व अब्ना-अकुम् व निसा-अना व निसा-अकुम् व अन्फ़ु-सना व अन्फ़ु-सक़ुम्, सुम्-म नब्तहिल् फ़-नज्अ़ल्-लअ्-नतल्लाहि अ़लल्काज़िबीन
फिर आपके पास ज्ञान आ जाने के पश्चात् कोई आपसे ईसा के विषय में विवाद करे, तो कहो कि आओ, हम अपने पुत्रों तथा तुम्हारे पुत्रों और अपनी स्त्रियों तथा तुम्हारी स्त्रियों को बुलाते हैं और स्वयं को भी, फिर अल्लाह से सविनय प्रार्थना करें कि अल्लाह की धिक्कार मिथ्यावादियों पर[1] हो। 1. अल्लाह से यह प्रार्थना करें कि वह हम में से मिथ्यावादियों को अपनी दया से दूर कर दे।
إِنَّ هَـٰذَا لَهُوَ الْقَصَصُ الْحَقُّ ۚ وَمَا مِنْ إِلَـٰهٍ إِلَّا اللَّـهُ ۚ وَإِنَّ اللَّـهَ لَهُوَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ ﴾ 62 ﴿
इन्-न हाज़ा लहुवल् क़-ससुल्-हक़्क़ु, व मा मिन् इलाहिन् इल्लल्लाहु, व इन्नल्ला-ह ल-हुवल्-अ़ज़ीज़ुल हकीम
वास्तव में, यही सत्य वर्णन है तथा अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं। निश्चय अल्लाह ही प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ है।
فَإِن تَوَلَّوْا فَإِنَّ اللَّـهَ عَلِيمٌ بِالْمُفْسِدِينَ ﴾ 63 ﴿
फ़-इन् तवल्लौ फ़-इन्नल्ला-ह अ़लीमुम् बिल्मुफ़्सिदीन *
फिर भी यदि वे मुँह[1] फेरें, तो निःसंदेह अल्लाह उपद्रवियों को भली-भाँति जानता है। 1. अर्थात सत्य को जानने की इस विधि को स्वीकार न करें।
قُلْ يَا أَهْلَ الْكِتَابِ تَعَالَوْا إِلَىٰ كَلِمَةٍ سَوَاءٍ بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمْ أَلَّا نَعْبُدَ إِلَّا اللَّـهَ وَلَا نُشْرِكَ بِهِ شَيْئًا وَلَا يَتَّخِذَ بَعْضُنَا بَعْضًا أَرْبَابًا مِّن دُونِ اللَّـهِ ۚ فَإِن تَوَلَّوْا فَقُولُوا اشْهَدُوا بِأَنَّا مُسْلِمُونَ ﴾ 64 ﴿
कुल् या अह्-लल्-किताबि तआ़लौ इला कलि- मतिन् सवा-इम् बैनना व बैनकुम् अल्ला नअ्बु-द इल्लल्ला-ह व ला नुश्रि-क बिही शैअंव्-व ला यत्तख़ि-ज़ बअ्ज़ुना बअ्ज़न् अर्बाबम् मिन् दूनिल्लाहि, फ़-इन् तवल्लौ फ़-क़ूलुश्-हदू बिअन्ना मुस्लिमून
(हे नबी!) कहो कि हे अह्ले किताब! एक ऐसी बात की ओर आ जाओ, जो हमारे तथा तुम्हारे बीच समान रूप से मान्य है कि अल्लाह के सिवा किसी की इबादत (वंदना) न करें और किसी को उसका साझी न बनायें तथा हममें से कोई एक-दूसरे को अल्लाह के सिवा पालनहार न बनाये। फिर यदि वे विमुख हों, तो आप कह दें कि तुम साक्षी रहो कि हम (अल्लाह के)[1] आज्ञाकारी हैं। 1. इस आयत में ईसा अलैहिस्सलाम से संबंधित विवाद के निवारण के लिये एक दूसरी विधि बताई गई है।
يَا أَهْلَ الْكِتَابِ لِمَ تُحَاجُّونَ فِي إِبْرَاهِيمَ وَمَا أُنزِلَتِ التَّوْرَاةُ وَالْإِنجِيلُ إِلَّا مِن بَعْدِهِ ۚ أَفَلَا تَعْقِلُونَ ﴾ 65 ﴿
या अह्-लल्-किताबि लि-म तुहाज्जू-न फ़ी इब्राही-म व मा उन्ज़ि-लतित्तौरातु वल्-इन्जीलु इल्ला मिम्-बअ्दिही, अ-फ़ला तअ्क़िलून
हे अह्ले किताब! तुम इब्राहीम के बारे में विवाद[1] क्यों करते हो, जबकि तौरात तथा इंजील इब्राहीम के पश्चात् उतारी गई हैं? क्या तुम समझ नहीं रखते? 1. अर्थात यह क्यों कहते हो कि इब्राहीम अलैहिस्सलाम हमारे धर्म पर थे। तौरात और इंजील तो उन के सहस्त्रों वर्ष के पश्चात् अवतरित हुईं। तो वह इन धर्मों पर कैसे हो सकते हैं।
هَا أَنتُمْ هَـٰؤُلَاءِ حَاجَجْتُمْ فِيمَا لَكُم بِهِ عِلْمٌ فَلِمَ تُحَاجُّونَ فِيمَا لَيْسَ لَكُم بِهِ عِلْمٌ ۚ وَاللَّـهُ يَعْلَمُ وَأَنتُمْ لَا تَعْلَمُونَ ﴾ 66 ﴿
हा-अन्तुम् हा-उला-इ हाजज्तुम् फ़ीमा लकुम् बिही अिल्मुन् फ़लि-म तुहाज्जू-न फ़ी मा लै-स लकुम् बिही अिल्मुन्, वल्लाहु यअ्लमु व अन्तुम् ला तअ्लमून
और फिर तुम्हीं ने उस विषय में विवाद किया, जिसका तुम्हें कुछ ज्ञान[1] था, तो उस विषय में क्यों विवाद कर रहे हो, जिसका तुम्हें कोई ज्ञान[2] नहीं था? तथा अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते। 1. अर्थात अपने धर्म के विषय में। 2. अर्थात इब्राहीम अलैहिस्सलाम के धर्म के बारे में।
مَا كَانَ إِبْرَاهِيمُ يَهُودِيًّا وَلَا نَصْرَانِيًّا وَلَـٰكِن كَانَ حَنِيفًا مُّسْلِمًا وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِينَ ﴾ 67 ﴿
मा का-न इब्राहीमु यहूदिय्यंव्-व ला नस्रानिय्यंव्-व लाकिन् का-न हनीफ़म् मुस्लिमन्, व मा का-न मिनल् मुश्रिकीन
इब्राहीम न यहूदी था, न नस्रानी (ईसाई)। परन्तु वह एकेश्वरवादी, मुस्लिम 'आज्ञाकारी' था तथा वह मिश्रणवादियों में से नहीं था।
إِنَّ أَوْلَى النَّاسِ بِإِبْرَاهِيمَ لَلَّذِينَ اتَّبَعُوهُ وَهَـٰذَا النَّبِيُّ وَالَّذِينَ آمَنُوا ۗ وَاللَّـهُ وَلِيُّ الْمُؤْمِنِينَ ﴾ 68 ﴿
इन्-न औलन्नासि बि-इब्राही-म लल्लज़ीनत्त-बअूहु व हाज़न्नबिय्यु वल्लज़ी-न आमनू, वल्लाहु वलिय्युल् मुअ्मिनीन
वास्तव में, इब्राहीम से सबसे अधिक समीप तो वह लोग हैं, जिन्होंने उसका अनुसरण किया तथा ये नबी[1] और जो ईमान लाये और अल्लाह ईमान वालों का संरक्षकभमित्र है। 1. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आप के अनुयायी।
وَدَّت طَّائِفَةٌ مِّنْ أَهْلِ الْكِتَابِ لَوْ يُضِلُّونَكُمْ وَمَا يُضِلُّونَ إِلَّا أَنفُسَهُمْ وَمَا يَشْعُرُونَ ﴾ 69 ﴿
वद्दत्ताइ-फ़तुम् मिन् अह्-लिल्-किताबि लौ युज़िल्लू-नकुम, व मा युज़िल्लू-न इल्ला अन्फ़ु-सहुम् व मा यश्अुरून
अहले किताब में से एक गिरोह की कामना है कि तुम्हें कुपथ कर दे। जबकि वे स्वयं को कुपथ कर रहे हैं, परन्तु वे समझते नहीं हैं।
يَا أَهْلَ الْكِتَابِ لِمَ تَكْفُرُونَ بِآيَاتِ اللَّـهِ وَأَنتُمْ تَشْهَدُونَ ﴾ 70 ﴿
या अह्-लल्-किताबि लि-म तक़्फ़ुरू-न बिआयातिल्लाहि व अन्तुम् तश्हदून
हे अहले किताब! तुम अल्लाह की आयतों[1] के साथ कुफ़्र क्यों कर रहे हो, जबकि तुम साक्षी[2] हो? 1. जो तुम्हारी किताब में अन्तिम नबी से संबंधित है। 2. अर्थात उन आयतों के सत्य होने के साक्षी हो।
يَا أَهْلَ الْكِتَابِ لِمَ تَلْبِسُونَ الْحَقَّ بِالْبَاطِلِ وَتَكْتُمُونَ الْحَقَّ وَأَنتُمْ تَعْلَمُونَ ﴾ 71 ﴿
या अह्-लल्-किताबि लि-म तल्बिसूनल् हक़्-क़ बिल्- बातिलि व तक्तुमूनल्-हक़्-क़ व अन्तुम् तअ्लमून
हे अहले किताब! क्यों सत्य को असत्य के साथ मिलाकर संदिग्ध कर देते हो और सत्य को छुपाते हो, जबकि तुम जानते हो?
وَقَالَت طَّائِفَةٌ مِّنْ أَهْلِ الْكِتَابِ آمِنُوا بِالَّذِي أُنزِلَ عَلَى الَّذِينَ آمَنُوا وَجْهَ النَّهَارِ وَاكْفُرُوا آخِرَهُ لَعَلَّهُمْ يَرْجِعُونَ ﴾ 72 ﴿
व क़ालत्ताइ-फ़तुम् मिन् अह्-लिल्-किताबि आमिनू बिल्लज़ी उन्ज़ि-ल अ़लल्लज़ी-न आमनू वज्हन्नहारि वक्फ़ुरू आख़ि-रहू लअ़ल्लहुम् यर्जिअून
अहले किताब के एक समुदाय ने कहा कि दिन के आरंभ में उसपर ईमान ले आओ, जो ईमान वालों पर उतारा गया है और उसके अन्त (अर्थातः संध्या-समय) कुफ़्र कर दो, संभवतः वे फिर[1] जायें। 1. अर्थात मुसलमान इस्लाम से फिर जायें।
وَلَا تُؤْمِنُوا إِلَّا لِمَن تَبِعَ دِينَكُمْ قُلْ إِنَّ الْهُدَىٰ هُدَى اللَّـهِ أَن يُؤْتَىٰ أَحَدٌ مِّثْلَ مَا أُوتِيتُمْ أَوْ يُحَاجُّوكُمْ عِندَ رَبِّكُمْ ۗ قُلْ إِنَّ الْفَضْلَ بِيَدِ اللَّـهِ يُؤْتِيهِ مَن يَشَاءُ ۗ وَاللَّـهُ وَاسِعٌ عَلِيمٌ ﴾ 73 ﴿
व ला तुअ्मिनू इल्ला लिमन् तबि-अ़ दीनकुम, क़ुल् इन्नल्हुदा हुदल्लाहि, अंय्युअ्ता अ-हदुम् मिस्-ल मा ऊतीतुम् औ युहाज्जूकुम् अिन्- द रब्बिकुम्, क़ुल् इन्नल् फ़ज़्-ल बि-यदिल्लाहि, युअ्तीहि मंय्यशा-उ, वल्लाहु वासिअुन् अ़लीम
और केवल उसी की मानो, जो तुम्हारे (धर्म) का अनुसरण करे। (हे नबी!) कह दो कि मार्गदर्शन तो वही है, जो अल्लाह का मार्गदर्शन है। (और ये भी न मानो कि) जो (धर्म) तुम्हें दिया गया है, वैसा किसी और को दिया जायेगा अथवा वे तुमसे तुम्हारे पालनहार के पास विवाद कर सकेंगे। आप कह दें कि प्रदान अल्लाह के हाथ में है, वह जिसे चाहे, देता है और अल्लाह विशाल ज्ञानी है।
يَخْتَصُّ بِرَحْمَتِهِ مَن يَشَاءُ ۗ وَاللَّـهُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيمِ ﴾ 74 ﴿
यख़्तस्सु बिरह्-मतिही मंय्यशा-उ, वल्लाहु ज़ुल्फ़ज़्लिल् अ़ज़ीम
वह जिसे चाहे, अपनी दया के साथ विशेष कर देता है तथा अल्लाह बड़ा दानशील है।
وَمِنْ أَهْلِ الْكِتَابِ مَنْ إِن تَأْمَنْهُ بِقِنطَارٍ يُؤَدِّهِ إِلَيْكَ وَمِنْهُم مَّنْ إِن تَأْمَنْهُ بِدِينَارٍ لَّا يُؤَدِّهِ إِلَيْكَ إِلَّا مَا دُمْتَ عَلَيْهِ قَائِمًا ۗ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمْ قَالُوا لَيْسَ عَلَيْنَا فِي الْأُمِّيِّينَ سَبِيلٌ وَيَقُولُونَ عَلَى اللَّـهِ الْكَذِبَ وَهُمْ يَعْلَمُونَ ﴾ 75 ﴿
व मिन् अह्-लिल्-किताबि मन् इन् तअ्मन्हु बिक़िन्तारिंय्युअद्दिही इलै-क, व मिन्हुम् मन् इन् तअ्मन्हु बिदीनारिल् ला युअद्दिही इलै-क इल्ला मा दुम्-त अ़लैहि क़ा इमन्, ज़ालि-क बि-अन्नहुम् क़ालू लै-स अ़लैना फ़िल्उम्मिय्यी-न सबीलुन्, व यक़ूलू-न अ़लल्लाहिल्-कज़ि-ब व हुम् यअ्लमून
तथा अह्ले किताब में से वो भी है, जिसके पास चाँदी-सोने का ढेर धरोहर रख दो, तो उसे तुम्हें चुका देगा तथा उनमें वो भी है, जिसके पास एक दीनार[1] भी धरोहर रख दो, तो तुम्हें नहीं चुकायेगा, परन्तु जब सदा उसके सिर पर सवार रहो। ये (बात) इसलिए है कि उन्होंने कहा कि उम्मियों के बारे में हमपर कोई दोष[2] नहीं तथा अल्लाह पर जानते हुए झूठ बोलते हैं। 1. दीनार, सोने के सिक्के को कहा जाता है। 2. अर्थात उन के धन का उपभोग करने पर कोई पाप नहीं। क्यों कि यहूदियों ने अपने अतिरिक्त सब का धन ह़लाल समझ रखा था। और दूसरों को वह "उम्मी" कहा करते थे। अर्थात वह लोग जिन के पास कोई आसमानी किताब नहीं है।
بَلَىٰ مَنْ أَوْفَىٰ بِعَهْدِهِ وَاتَّقَىٰ فَإِنَّ اللَّـهَ يُحِبُّ الْمُتَّقِينَ ﴾ 76 ﴿
बला मन् औफ़ा बि-अ़ह्दिही वत्तक़ा फ़-इन्नल्ला-ह युहिब्बुल् मुत्तक़ीन
क्यों नहीं, जिसने अपना वचन पूरा किया और (अल्लाह से) डरा, तो वास्तव में अल्लाह डरने वालों से प्रेम करता है।
إِنَّ الَّذِينَ يَشْتَرُونَ بِعَهْدِ اللَّـهِ وَأَيْمَانِهِمْ ثَمَنًا قَلِيلًا أُولَـٰئِكَ لَا خَلَاقَ لَهُمْ فِي الْآخِرَةِ وَلَا يُكَلِّمُهُمُ اللَّـهُ وَلَا يَنظُرُ إِلَيْهِمْ يَوْمَ الْقِيَامَةِ وَلَا يُزَكِّيهِمْ وَلَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ ﴾ 77 ﴿
इन्नल्लज़ी-न यश्तरू-न बि-अह्दिल्लाहि व ऐमानिहिम् स-मनन् कलीलन् उलाइ-क ला ख़ला-क़ लहुम् फिल्-आख़ि-रति व ला युकल्लिमुहुमुल्लाहु व ला यन्ज़ुरु इलैहिम् यौमल्-क़ियामति व ला युज़क्कीहिम्, व लहुम् अ़ज़ाबुन् अलीम
निःसंदेह जो अल्लाह के[1] वचन तथा अपनी शपथों के बदले तनिक मूल्य खरीदते हैं, उन्हीं का आख़िरत (परलोक) में कोई भाग नहीं, न प्रलय के दिन अल्लाह उनसे बात करेगा और न उनकी ओर देखेगा और न उन्हें पवित्र करेगा तथा उन्हीं के लिए दुःखदायी यातना है। 1. अल्लाह के वचन से अभिप्राय वह वचन है, जो उन से धर्म पुस्तकों द्वारा लिया गया है।
وَإِنَّ مِنْهُمْ لَفَرِيقًا يَلْوُونَ أَلْسِنَتَهُم بِالْكِتَابِ لِتَحْسَبُوهُ مِنَ الْكِتَابِ وَمَا هُوَ مِنَ الْكِتَابِ وَيَقُولُونَ هُوَ مِنْ عِندِ اللَّـهِ وَمَا هُوَ مِنْ عِندِ اللَّـهِ وَيَقُولُونَ عَلَى اللَّـهِ الْكَذِبَ وَهُمْ يَعْلَمُونَ ﴾ 78 ﴿
व इन्-न मिन्हुम् ल-फ़रीकंय्यल्वू-न अल्सि-न-तहुम् बिल्किताबि लि-तह्सबूहु मिनल्-किताबि व मा हु-व मिनल्-किताबि, व यक़ूलू-न हु-व मिन् अिन्दिल्लाहि व मा हु-व मिन् अिन्दिल्लाहि, व यक़ूलू-न अ़लल्लाहिल्- कज़ि-ब व हुम् यअ्लमून
और बेशक उनमें से एक गिरोह[1] ऐसा है, जो अपनी ज़बानों को किताब पढ़ते समय मरोड़ते हैं, ताकि तुम उसे पुस्तक में से समझो, जबकि वह पुस्तक में से नहीं है और कहते हैं कि वह अल्लाह के पास से है, जबकि वह अल्लाह के पास से नहीं है और अल्लाह पर जानते हुए झूठ बोलते हैं। 1. इस से अभिप्राय यहूदी विद्वान हैं। और पुस्तक से अभिप्राय तौरात है।
مَا كَانَ لِبَشَرٍ أَن يُؤْتِيَهُ اللَّـهُ الْكِتَابَ وَالْحُكْمَ وَالنُّبُوَّةَ ثُمَّ يَقُولَ لِلنَّاسِ كُونُوا عِبَادًا لِّي مِن دُونِ اللَّـهِ وَلَـٰكِن كُونُوا رَبَّانِيِّينَ بِمَا كُنتُمْ تُعَلِّمُونَ الْكِتَابَ وَبِمَا كُنتُمْ تَدْرُسُونَ ﴾ 79 ﴿
मा का-न लि-ब-शरिन् अंय्युअ्ति-यहुल्लाहुल् किता-ब वल्हुक्-म वन्नुबुव्व-त सुम्- म यक़ू-ल लिन्नासि कूनू अिबादल्ली मिनू दूनिल्लाहि व लाकिन् कूनू रब्बानिय्यी-न बिमा कुन्तुम् तुअ़ल्लिमूनल्-किता-ब व बिमा कुन्तुम् तद्-रूसून
किसी पुरुष जिसे अल्लाह ने पुस्तक, निर्णय शक्ति और नुबुव्वत दी हो, उसके लिए योग्य नहीं कि लोगों से कहे कि अल्लाह को छोड़कर मेरे दास बन जाओ[1], अपितु (वह तो यही कहेगा कि) तुम अल्लाह वाले बन जाओ। इस कारण कि तुम पुस्तक की शिक्षा देते हो तथा इस कारण कि उसका अध्ययन स्वयं भी करते रहते हो। 1. भावार्थ यह है कि जब नबी के लिये योग्य नहीं कि लोगों से कहे कि मेरी इबादत करो, तो किसी अन्य के लिये कैसे योग्य हो सकता है?
وَلَا يَأْمُرَكُمْ أَن تَتَّخِذُوا الْمَلَائِكَةَ وَالنَّبِيِّينَ أَرْبَابًا ۗ أَيَأْمُرُكُم بِالْكُفْرِ بَعْدَ إِذْ أَنتُم مُّسْلِمُونَ ﴾ 80 ﴿
व ला यअ्मु-रकुम् अन् तत्तख़िज़ुल्-मलाइ-क-त वन्नबिय्यी-न अर्बाबन्, अ-यअ्मुरुकुम् बिल्कुफ़्रि बअ्-द इज़् अन्तुम् मुस्लिमून
तथा वह तुम्हें कभी आदेश नहीं देगा कि फ़रिश्तों तथा नबियों को अपना पालनहार[1] (पूज्य) बना लो। क्या तुम्हें कुफ़्र करने का आदेश देगा, जबकि तुम अल्लाह के आज्ञाकारी हो? 1. जैसे अपने पालनहार के आगे झुकते हो, उसी प्रकार उन के आगे भी झुको।
وَإِذْ أَخَذَ اللَّـهُ مِيثَاقَ النَّبِيِّينَ لَمَا آتَيْتُكُم مِّن كِتَابٍ وَحِكْمَةٍ ثُمَّ جَاءَكُمْ رَسُولٌ مُّصَدِّقٌ لِّمَا مَعَكُمْ لَتُؤْمِنُنَّ بِهِ وَلَتَنصُرُنَّهُ ۚ قَالَ أَأَقْرَرْتُمْ وَأَخَذْتُمْ عَلَىٰ ذَٰلِكُمْ إِصْرِي ۖ قَالُوا أَقْرَرْنَا ۚ قَالَ فَاشْهَدُوا وَأَنَا مَعَكُم مِّنَ الشَّاهِدِينَ ﴾ 81 ﴿
व इज़् अ-ख़ज़ल्लाहु मीसाक़न्-नबिय्यी-न लमा आतैतुकुम् मिन् किताबिंव्-व हिक्मतिन् सुम्- म जा-अकुम् रसूलुम् मुसद्दिक़ुल्लिमा म अ़कुम् लतुअ्मिनुन्-न बिही व ल-तन्सुरुन्नहू, क़ा-ल अ- अक़्रर्तुम् व अ-ख़ज़्तुम् अ़ला ज़ालिकुम् इस्री, क़ालू अक़्रर्ना, क़ा-ल फ़श्हदू व अ-ना म-अ़कुम् मिनश्शाहिदीन
तथा (याद करो) जब अल्लाह ने नबियों से वचन लिया कि जबभी मैं तुम्हें कोई पुस्तक और प्रबोध (तत्वदर्शिता) दूँ, फिर तुम्हारे पास कोई रसूल उसे प्रमाणित करते हुए आये, जो तुम्हारे पास है, तो तुम अवश्य उसपर ईमान लाना और उसका समर्थन करना। (अल्लाह) ने कहाः क्या तुमने स्वीकार किया और इसपर मेरे वचन का भार उठाया? तो सबने कहाः हमने स्वीकार कर लिया। अल्लाह ने कहाः तुम साक्षी रहो और मैं भी तुम्हारे[1] साथ साक्षियों में से हूँ। 1. भावार्थ यह है किः जब आगामी नबीयों को ईमान लाना आवश्यक है, तो उन के अनुयायियों को भी ईमान लाना आवश्यक होगा। अतः अन्तिम नबी मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर ईमान लाना सभी के लिये अनिवार्य है।
فَمَن تَوَلَّىٰ بَعْدَ ذَٰلِكَ فَأُولَـٰئِكَ هُمُ الْفَاسِقُونَ ﴾ 82 ﴿
फ़-मन् तवल्ला बअ्-द ज़ालि-क फ़-उलाइ-क हुमुल् फ़ासिक़ून
फिर जिसने इसके[1] पश्चात् मुँह फेर लिया, तो वही अवज्ञाकारी है। 1. अर्थात इस वचन और प्रण के पश्चात्।
أَفَغَيْرَ دِينِ اللَّـهِ يَبْغُونَ وَلَهُ أَسْلَمَ مَن فِي السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ طَوْعًا وَكَرْهًا وَإِلَيْهِ يُرْجَعُونَ ﴾ 83 ﴿
अ-फ़ग़इ-र दीनिल्लाहि यब़्ग़ू-न व लहू अस्ल-म मन् फ़िस्समावाति वल्अर्ज़ि तौअ़ंव्-व कर्-हंव्-व इलैहि युर्जअून
तो क्या वे अल्लाह के धर्म (इस्लाम) के सिवा (कोई दूसरा धर्म) खोज रहे हैं? जबकि जो आकाशों तथा धरती में है, स्वेच्छा तथा अनिच्छा उसी के आज्ञाकारी[1] हैं तथा सब उसी की ओर फेरे[2] जायेंगे। 1. अर्थात उसी की आज्ञा तथा व्यवस्था के अधीन हैं। फिर तुम्हें इस स्वभाविक धर्म से इंकार क्यों है? 2. अर्थात प्रलय के दिन अपने कर्मों के प्रतिफल के लिये।
قُلْ آمَنَّا بِاللَّـهِ وَمَا أُنزِلَ عَلَيْنَا وَمَا أُنزِلَ عَلَىٰ إِبْرَاهِيمَ وَإِسْمَاعِيلَ وَإِسْحَاقَ وَيَعْقُوبَ وَالْأَسْبَاطِ وَمَا أُوتِيَ مُوسَىٰ وَعِيسَىٰ وَالنَّبِيُّونَ مِن رَّبِّهِمْ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ أَحَدٍ مِّنْهُمْ وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ ﴾ 84 ﴿
क़ुल् आमन्ना बिल्लाहि व मा उन्ज़ि-ल अ़लैना व मा उन्ज़ि-ल अ़ला इब्राही-म व इस्माई-ल व इस्हा-क़ व यअ्क़ू-ब वल्अस्बाति व मा ऊति-य मूसा व ईसा वन्नबिय्यू-न मिर्रब्बिहिम्, ला नुफ़र्रिक़ु बइ-न अ-हदिम् मिन्हुम्, व नह्नु लहू मुस्लिमून
(हे नबी!) आप कहें कि हम अल्लाह पर तथा जो हमपर उतारा गया और जो इब्राहीम, इस्माईल, इस्ह़ाक़, याक़ूब एवं (उनकी) संतानों पर उतारा गया तथा जो मूसा, ईसा तथा अन्य नबियों को उनके पालनहार की ओर से प्रदान किया गया है, (उनपर) ईमान लाये। हम उन (नबियों) में किसी के बीच कोई अंतर नहीं[1] करते और हम उसी (अल्लाह) के आज्ञाकारी हैं। 1. अर्थात मूल धर्म अल्लाह की आज्ञाकारिता है, और अल्लाह की पुस्तकों तथा उस के नबियों के बीच अन्तर करना, किसी को मानना और किसी को न मानना अल्लाह पर ईमान और उस की आज्ञाकारिता के विपरीत है।
وَمَن يَبْتَغِ غَيْرَ الْإِسْلَامِ دِينًا فَلَن يُقْبَلَ مِنْهُ وَهُوَ فِي الْآخِرَةِ مِنَ الْخَاسِرِينَ ﴾ 85 ﴿
व मंय्यब्तग़ि ग़ैरल्-इस्लामि दीनन् फ़-लंय्युक़्ब-ल मिन्हु, व हु-व फ़िल्-आख़ि-रति मिनल् ख़ासिरीन
और जो भी इस्लाम के सिवा (किसी और धर्म) को चाहेगा, तो उसे उससे कदापि स्वीकार नहीं किया जायेगा और वे प्रलोक में क्षतिग्रस्तों में होगा।
كَيْفَ يَهْدِي اللَّـهُ قَوْمًا كَفَرُوا بَعْدَ إِيمَانِهِمْ وَشَهِدُوا أَنَّ الرَّسُولَ حَقٌّ وَجَاءَهُمُ الْبَيِّنَاتُ ۚ وَاللَّـهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الظَّالِمِينَ ﴾ 86 ﴿
कै-फ़ यह्दिल्लाहु क़ौमन् क-फ़रू बअ्-द ईमानिहिम् व शहिदू अन्नर्रसू-ल हक्कुंव्-व जा-अहुमुल्बय्यिनातु, वल्लाहु ला यह्दिल् क़ौमज़्ज़ालिमीन
अल्लाह ऐसी जाति को कैसे मार्गदर्शन देगा, जो अपने ईमान के पश्चात् काफ़िर हो गये और साक्षी रहे कि ये रसूल सत्य हैं तथा उनके पास खुले तर्क आ गये? और अल्लाह अत्याचारियों को मार्गदर्शन नहीं देता।
أُولَـٰئِكَ جَزَاؤُهُمْ أَنَّ عَلَيْهِمْ لَعْنَةَ اللَّـهِ وَالْمَلَائِكَةِ وَالنَّاسِ أَجْمَعِينَ ﴾ 87 ﴿
उलाइ-क जज़ाउहुम् अन्-न अ़लैहिम् लअ्-नतल्लाहि वल्मलाइ-कति वन्नासि अज्मईन
इन्हीं का प्रतिकार (बदला) ये है कि उनपर अल्लाह तथा फ़रिश्तों और सब लोगों की धिक्कार होगी।
خَالِدِينَ فِيهَا لَا يُخَفَّفُ عَنْهُمُ الْعَذَابُ وَلَا هُمْ يُنظَرُونَ ﴾ 88 ﴿
ख़ालिदी-न फ़ीहा ला युख़फ़्फ़फ़ु अ़न्हुमुल्-अ़ज़ाबु व ला हुम् युन्ज़रून
वे उसमें सदावासी होंगे, उनसे यातना कम नहीं की जायेगी और न उन्हें अवकाश दिया जायेगा।
إِلَّا الَّذِينَ تَابُوا مِن بَعْدِ ذَٰلِكَ وَأَصْلَحُوا فَإِنَّ اللَّـهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 89 ﴿
इल्लल्लज़ी-न ताबू मिम्- बअ्दि ज़ालि-क व अस्लहू फ़-इन्नल्ला-ह ग़फ़ूरुर्रहीम
परन्तु जिन्होंने इसके पश्चात् तौबा (क्षमा याचना) कर ली तथा सुधार कर लिया, तो निश्चय अल्लाह अति क्षमाशील दयावान् है।
إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا بَعْدَ إِيمَانِهِمْ ثُمَّ ازْدَادُوا كُفْرًا لَّن تُقْبَلَ تَوْبَتُهُمْ وَأُولَـٰئِكَ هُمُ الضَّالُّونَ ﴾ 90 ﴿
इन्नल्लज़ी-न क-फ़रू बअ्-द ईमानिहिम् सुम्मज़्दादू कुफ़्रल्-लन् तुक़्ब-ल तौबतुहुम् व उलाइ-क हुमुज़्ज़ाल्लून
वास्तव में, जो अपने ईमान लाने के पश्चात् काफ़िर हो गये, फिर कुफ़्र में बढ़ते गये, तो उनकी तौबा (क्षमा याचना) कदापि[1] स्वीकार नहीं की जायेगी तथा वही कुपथ हैं। 1. अर्थात यदि मौत के समय क्षमा याचना करें।
إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا وَمَاتُوا وَهُمْ كُفَّارٌ فَلَن يُقْبَلَ مِنْ أَحَدِهِم مِّلْءُ الْأَرْضِ ذَهَبًا وَلَوِ افْتَدَىٰ بِهِ ۗ أُولَـٰئِكَ لَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ وَمَا لَهُم مِّن نَّاصِرِينَ ﴾ 91 ﴿
इन्नल्लज़ी-न क-फ़रू व मातू व हुम् कुफ़्फ़ारुन् फ-लंय्युक़्ब -ल मिन् अ-हदिहिम् मिल्उल्-अर्ज़ि ज़-हबंव्-व लविफ़्तदा बिही, उलाइ-क लहुम् अ़ज़ाबुन् अलीमुंव्-व मा लहुम् मिन्नासिरीन
निश्चय जो काफ़िर हो गये तथा काफ़िर रहते हुए मर गये, तो उनसे धरती भर सोना भी स्वीकार नहीं किया जायेगा, यद्यपि उसके द्वारा अर्थदणड दे। उन्हीं के लिए दुःखदायी यातना है और उनका कोई सहायक न होगा।
لَن تَنَالُوا الْبِرَّ حَتَّىٰ تُنفِقُوا مِمَّا تُحِبُّونَ ۚ وَمَا تُنفِقُوا مِن شَيْءٍ فَإِنَّ اللَّـهَ بِهِ عَلِيمٌ ﴾ 92 ﴿
लन् तनालुल्बिर्-र हत्ता तुन्फ़िक़ू मिम्मा तुहिब्बू-न, व मा तुन्फ़िक़ू मिन् शैइन् फ़-इन्नल्ला-ह बिही अ़लीम
तुम पुण्य[1] नहीं पा सकोगे, जब तक उसमें से दान न करो, जिससे मोह रखते हो तथा तुम जो भी दान करोगे, वास्तव में, अल्लाह उसे भली-भाँति जानता है। 1. अर्थात पुण्य का फल स्वर्ग।
كُلُّ الطَّعَامِ كَانَ حِلًّا لِّبَنِي إِسْرَائِيلَ إِلَّا مَا حَرَّمَ إِسْرَائِيلُ عَلَىٰ نَفْسِهِ مِن قَبْلِ أَن تُنَزَّلَ التَّوْرَاةُ ۗ قُلْ فَأْتُوا بِالتَّوْرَاةِ فَاتْلُوهَا إِن كُنتُمْ صَادِقِينَ ﴾ 93 ﴿
कुल्लुत्तआ़मि का-न हिल्लल् लि-बनी इस्राई-ल इल्ला मा हर्र-म इस्राईलु अ़ला नफ़्सिही मिन् क़ब्लि अन् तुनज़्ज़लत्तौरातु, क़ुल् फ़अ्तू बित्तौराति फ़त्लूहा इन् कुन्तुम् सादिक़ीन
प्रत्येक खाद्य पदार्थ बनी इस्राईल[1] के लिए ह़लाल (वैध) थे, परन्तु जिसे इस्राईल ने अपने ऊपर ह़राम (अवैध) कर लिया, इससे पहले कि तौरात उतारी जाये। (हे नबी!) कहो कि तौरात लाओ तथा उसे पढ़ो, यदि तुम सत्यवादि हो। 1. जब क़ुर्आन ने यह कहा कि यहूद पर बहुत से स्वच्छ खाद्य पदार्थ उन के अत्याचार के कारण अवैध कर दिये गये। (देखिये सूरह निसा आयतः160, सूरह अन्आम आयतः146)। अन्यथा यह सभी इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) के युग में वैध थे। तो यहूद ने इसे झुठलाया तथा कहने लगे कि यह सब तो इब्राहीम अलैहिस्सलाम के युग ही से अवैथ चले आ रहे हैं। इसी पर यह आयतें उतरीं कि तौरात से इस का प्रमाण प्रस्तुत करो कि यह इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) के युग ही से अवैध हैं। यह और बात है कि इस्राईल ने कुछ चीज़ों जैसे ऊँट का माँस रोग अथवा मनौती के कारण अपने लिये स्वयं अवैध कर लिया था। यहाँ यह याद रखें कि इस्लाम में किसी उचित चीज़ को अनुचित करने की अनुमति किसी को नहीं है। (देखियेःशौकानी)
فَمَنِ افْتَرَىٰ عَلَى اللَّـهِ الْكَذِبَ مِن بَعْدِ ذَٰلِكَ فَأُولَـٰئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ ﴾ 94 ﴿
फ़-मनिफ़्तरा अलल्लाहिल् कज़ि-ब मिम्-बअ्दि ज़ालि-क फ़-उलाइ-क हुमुज़्ज़ालिमून
फिर इसके पश्चात् जो अल्लाह पर मिथ्या आरोप लगायें, तो वही वास्तव, में अत्याचारी हैं।
قُلْ صَدَقَ اللَّـهُ ۗ فَاتَّبِعُوا مِلَّةَ إِبْرَاهِيمَ حَنِيفًا وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِينَ ﴾ 95 ﴿
क़ुल् स-दक़ल्लाहु फ़त्तबिअू मिल्ल-त इब्राही-म हनीफ़न्, व मा का-न मिनल् मुश्रिकीन
उनसे कह दो, अललाह सच्चा है, इसलिए तुम एकेश्वरवादी इब्राहीम के धर्म पर चलो तथा वह मिश्रणवादियों में से नहीं था।
إِنَّ أَوَّلَ بَيْتٍ وُضِعَ لِلنَّاسِ لَلَّذِي بِبَكَّةَ مُبَارَكًا وَهُدًى لِّلْعَالَمِينَ ﴾ 96 ﴿
इन्-न अव्व-ल बैतिंव्वुज़ि-अ़ लिन्नासि लल्लज़ी बि-बक्क-त मुबा-रकव्ं-व हुदल्- लिल्आ़लमीन
निःसंदेह पहला घर, जो मानव के लिए (अल्लाह की वंदना का केंद्र) बनाया गया, वह वही है, जो मक्का में है, जो शुभ तथा संसार वासियों के लिए मार्गदर्शन है।
فِيهِ آيَاتٌ بَيِّنَاتٌ مَّقَامُ إِبْرَاهِيمَ ۖ وَمَن دَخَلَهُ كَانَ آمِنًا ۗ وَلِلَّـهِ عَلَى النَّاسِ حِجُّ الْبَيْتِ مَنِ اسْتَطَاعَ إِلَيْهِ سَبِيلًا ۚ وَمَن كَفَرَ فَإِنَّ اللَّـهَ غَنِيٌّ عَنِ الْعَالَمِينَ ﴾ 97 ﴿
फ़ीहि आयातुम् बय्यिनातुम् मक़ामु इब्राही-म, व मन् द-ख़-लहू का-न आमिनन्, व लिल्लाहि अ़लन्नासि हिज्जुल्बैति मनिस्तता-अ़ इलैहि सबीलन्, व मन् क-फ़-र फ़-इन्नल्ला-ह ग़निय्युन् अ़निल् आ़लमीन
उसमें खुली निशानियाँ हैं, (जिनमें) मक़ामे[1] इब्राहीम है तथा जो कोई उस (की सीमा) में प्रवेश कर गया, तो वह शांत (सुरक्षित) हो गया। तथा अल्लाह के लिए लोगों पर इस घर का ह़ज अनिवार्य है, जो उसतक राह पा सकता हो तथा जो कुफ़्र करेगा, तो अल्लाह संसार वासियों से निस्पृह है। 1. अर्थात वह पत्थर जिस पर खड़े हो कर इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) ने काबा का निर्माण किया जिस पर उन के पैरों के निशान आज तक हैं।
قُلْ يَا أَهْلَ الْكِتَابِ لِمَ تَكْفُرُونَ بِآيَاتِ اللَّـهِ وَاللَّـهُ شَهِيدٌ عَلَىٰ مَا تَعْمَلُونَ ﴾ 98 ﴿
क़ुल् या अह्-लल्-किताबि लि-म तक्फ़ुरू-न बिआयातिल्लाहि वल्लाहु शहीदुन् अ़ला मा तअ्मलून
(हे नबी!) आप कह दें कि हे अह्ले किताब! ये क्या है कि तुम अल्लाह की आयतों के साथ कुफ़्र कर रहे हो, जबकि अल्लाह तुम्हारे कर्मों का साक्षी है?
قُلْ يَا أَهْلَ الْكِتَابِ لِمَ تَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ اللَّـهِ مَنْ آمَنَ تَبْغُونَهَا عِوَجًا وَأَنتُمْ شُهَدَاءُ ۗ وَمَا اللَّـهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُونَ ﴾ 99 ﴿
क़ुल् या अह्-लल्-किताबि लि-म तसुद्दू-न अ़न् सबीलिल्लाहि मन् आम-न तब्ग़ूनहा अि-वजंव्-व अन्तुम् शु-हदा-उ, व मल्लाहु बिग़ाफ़िलिन् अ़म्मा तअ्मलून
हे अह्ले किताब! किस लिए लोगों को, जो ईमान लाना चाहें, अल्लाह की राह से रोक रहे हो, उसे उलझाना चाहते हो, जबकि तुम साक्षी[1] हो और अल्लाह तुम्हारे कर्मों से असूचित नहीं है? 1. अर्थात इस्लाम के सत्धर्म होने को जानते हो।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِن تُطِيعُوا فَرِيقًا مِّنَ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ يَرُدُّوكُم بَعْدَ إِيمَانِكُمْ كَافِرِينَ ﴾ 100 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनू इन् तुतीअू फ़रीक़म् मिनल्लज़ी-न ऊतुल्-किता-ब यरुद् दूकुम् बअ्-द ईमानिकुम् काफ़िरीन
हे ईमान वालो! यदि तुम अह्ले किताब के किसी गिरोह की बात मानोगे, तो वह तुम्हारे ईमान के पश्चात् फिर तुम्हें काफ़िर बना देंगे।