सूरह अल-अनफाल के संक्षिप्त विषय
यह सूरह मदनी है, इस में 75 आयतें हैं।
- यह सूरह सन् 2 हिज्री में बद्र के युद्ध के पश्चात् उतरी। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को जब काफिरों ने मारने की योजना बनाई और आप मदीना हिज़रत कर गये तो उन्होंने अब्दुल्लाह बिन उब्य्य को पत्र लिखा और यह धमकी दी कि आप उन को मदीना से निकाल दें अन्यथा वह मदीना पर अक्रमण कर देंगे। अब मुसलमानों के लिये यही उपाय था कि शाम के व्यापारिक मार्ग से अपने विरोधियों को रोक दिया जाये। सन् 2 हिज्री में मक्के का एक बड़ा काफिला शाम से मक्का वापिस हो रहा था। जब वह मदीना के पास पहुँचा तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अपने साथियों के साथ उस की ताक में निकले। मुसलमानों के भय से काफ़िले का मुख्या अबू सुफयान ने एक व्यक्ति को मक्का भेज दिया कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अपने साथियों के साथ तुम्हारे काफिले की ताक में हैं। यह सुनते ही एक हज़ार की सेना निकल पड़ी। अबू सुफ्यान दूसरी राह से बच निकला। परन्तु मक्का की सेना ने यह सोचा कि मुसलमानों को सदा के लिये कुचल दिया जाये। और इस प्रकार मुसलमानों से बद्र के क्षेत्र में सामना हुआ तथा दोनों के बीच यह प्रथम ऐतिहासिक संघर्ष हुआ जिस में मक्का के काफ़िरों के बड़े बड़े 70 व्यक्ति मारे गये और इतने ही बंदी बना लिये गये।
- यह इस्लाम का प्रथम ऐतिहासिक युद्ध था जिस में सत्य की विजय हुई। इस लिये इस में युद्ध से संबंधित कई नैतिक शिक्षायें दी गई हैं। जैसे यह की जिहाद धर्म की रक्षा के लिये होना चाहिये, धन के लोभ, तथा किसी पर अत्याचार के लिये नहीं। विजय होने पर अल्लाह का आभारी होना चाहिये। क्यों कि विजय उसी की सहायता से होती है। अपनी वीरता पर गर्व नहीं होना चाहिये।
- जो गैर मुस्लिम अत्याचार न करें उन पर आक्रमण नहीं करना चाहिये। और जिन से संधि हो उन पर धोखा दे कर नहीं आक्रमण करना चाहिये और न ही उन के विरुद्ध किसी की सहायता करनी चाहिये। शत्रु से जो सामान (गनीमत) मिले उसे अल्लाह का माल समझना चाहिये और उस के नियमानुसार उस का पाँचवाँ भाग निर्धनों और अनाथों की सहायता के लिये खर्च करना चाहिये जो अनिवार्य है।
- इस में युद्ध के बंदियों को भी शिक्षा प्रद शैली में संबोधित किया गया है।
- इस सूरह से इस्लामी जिहाद की वास्तविक्ता की जानकारी होती है।
- शत्र से जो सामान (गनीमत) मिले उसे अल्लाह का माल समझना चाहिये और उस के नियमानुसार उस का पाँचवाँ भाग निर्धनों और अनाथों की सहायता के लिये खर्च करना चाहिये जो अनिवार्य है।
- इस में युद्ध के बंदियों को भी शिक्षा प्रद शैली में संबोधित किया गया है।
- इस सूरह से इस्लामी जिहाद की वास्तविक्ता की जानकारी होती है।
सूरह अल-अनफाल | Surah Anfal in Hindi
بِسْمِ اللَّـهِ الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ
बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम
अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।
يَسْأَلُونَكَ عَنِ الْأَنفَالِ ۖ قُلِ الْأَنفَالُ لِلَّهِ وَالرَّسُولِ ۖ فَاتَّقُوا اللَّهَ وَأَصْلِحُوا ذَاتَ بَيْنِكُمْ ۖ وَأَطِيعُوا اللَّهَ وَرَسُولَهُ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ ﴾ 1 ﴿
यस् अलून-क अनिल्-अन्फालि, क़ुलिल्-अन्फालु लिल्लाहि वर्रसूलि, फ़त्तक़ुल्ला-ह व अस्लिहू ज़ा-त बैनिकुम्, व अतीअुल्ला-ह व रसूलहू इन् कुन्तुम् मुअ्मिनीन
(हे नबी!) आपसे (आपके साथी) युध्द में प्राप्त धन के विषय में प्रश्न कर रहे हैं। कह दें कि यूध्द में प्राप्त धन अल्लाह और रसूल के हैं। अतः अल्लाह से डरो और आपस में सुधार रखो तथा अल्लाह और उसके रसूल के आज्ञाकारी रहो[1] यदि तुम ईमान वाले हो। 1. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने तेरह वर्ष तक मक्का के मिश्रणवादियों के अत्याचार सहन किये। फिर मदीना हिजरत कर गये। परन्तु वहाँ भी मक्का वासियों ने आप को चैन नहीं लेने दिया। और निरन्तर आक्रमण आरंभ कर दिये। ऐसी दशा में आप भी अपनी रक्षा के लिये वीरता के साथ अपने 313 साथियों को ले कर बद्र के रणक्षेत्र में पहुँचे। जिस में मिश्रणवादियों की प्राजय हुई। और कुछ सामान भी मुसलमानों के हाथ आया। जिसे इस्लामी परिभाषा में “माले-ग़नीमत” कहा जाता है। और उसी के विषय में प्रश्न का उत्तर इस आयत में दिया गया है। यह प्रथम युध्द हिजरत के दूसरे वर्ष हुआ।
إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ الَّذِينَ إِذَا ذُكِرَ اللَّهُ وَجِلَتْ قُلُوبُهُمْ وَإِذَا تُلِيَتْ عَلَيْهِمْ آيَاتُهُ زَادَتْهُمْ إِيمَانًا وَعَلَىٰ رَبِّهِمْ يَتَوَكَّلُونَ ﴾ 2 ﴿
इन्नमल् मुअ्मिनूनल्लज़ी-न इज़ा ज़ुकिरल्लाहु वजिलत् क़ुलूबुहुम् व इज़ा तुलियत् अलैहिम् आयातुहू ज़ादत्हुम् ईमानंव्-व अला रब्बिहिम् य-तवक्कलून
वास्तव में, ईमान वाले वही हैं कि जब अल्लाह का वर्णन किया जाये, तो उनके दिल काँप उठते हैं और जब उनके समक्ष उसकी आयतें पढ़ी जायें, तो उनका ईमान अधिक हो जाता है और वे अपने पालनहार पर ही भरोसा रखते हैं।
الَّذِينَ يُقِيمُونَ الصَّلَاةَ وَمِمَّا رَزَقْنَاهُمْ يُنفِقُونَ ﴾ 3 ﴿
अल्लज़ी-न युक़ीमूनस्सला-त व मिम्मा रज़क़्नाहुम् युन्फ़िक़ून
जो नमाज़ की स्थापना करते हैं तथा हमने उन्हें जो कुछ प्रदान किया है, उसमें से दान करते हैं।
أُولَٰئِكَ هُمُ الْمُؤْمِنُونَ حَقًّا ۚ لَّهُمْ دَرَجَاتٌ عِندَ رَبِّهِمْ وَمَغْفِرَةٌ وَرِزْقٌ كَرِيمٌ ﴾ 4 ﴿
उलाइ-क हुमुल-मुअ्मिनू-न हक़्क़न्, लहुम् द-रजातुन् अिन्-द रब्बिहिम् व मग़्फि-रतुंव् व रिज़्क़ुन् करीम
वही सच्चे ईमान वाले हैं, उन्हीं के लिए उनके पालनहार के पास श्रेणियाँ तथा क्षमा और उत्तम जीविका है।
كَمَا أَخْرَجَكَ رَبُّكَ مِن بَيْتِكَ بِالْحَقِّ وَإِنَّ فَرِيقًا مِّنَ الْمُؤْمِنِينَ لَكَارِهُونَ ﴾ 5 ﴿
कमा अख़्र-ज-क रब्बु-क मिम्-बैति-क बिल्हक़्क़ि, व इन्-न फरीक़म् मिनल्-मुअ्मिनी-न लकारिहून
जिस प्रकार,[1] आपको, आपके पालनहार ने, आपके घर (मदीना) से (मिश्रणवादियों से युध्द के लिए सत्य के साथ) निकाला, जबकि ईमान वालों का एक समुदाय इससे अप्रसन्न था। 1. अर्थात यह युध्द के माल का विषय भी उसी प्रकार है कि अल्लाह ने उसे अपने और अपने रसूल का भाग बना दिया, जिस प्रकार अपने आदेश से आप को यूध्द के लिये निकाला।
يُجَادِلُونَكَ فِي الْحَقِّ بَعْدَ مَا تَبَيَّنَ كَأَنَّمَا يُسَاقُونَ إِلَى الْمَوْتِ وَهُمْ يَنظُرُونَ ﴾ 6 ﴿
युजादिलून क फ़िल्हक़्क़ि बअ्-द मा तबय्य-न कअन्नमा युसाक़ू-न इलल्मौति व हुम् यन्ज़ुरून
वे आपसे सच (युध्द) के बारे में झगड़ रहे थे, जबकि वह उजागर हो गया था, (कि युध्द होना है, उनकी ये ह़ालत थी,) जैसे वे मौत की ओर हाँके जा रहे हों और वे उसे देख रहे हों।
وَإِذْ يَعِدُكُمُ اللَّهُ إِحْدَى الطَّائِفَتَيْنِ أَنَّهَا لَكُمْ وَتَوَدُّونَ أَنَّ غَيْرَ ذَاتِ الشَّوْكَةِ تَكُونُ لَكُمْ وَيُرِيدُ اللَّهُ أَن يُحِقَّ الْحَقَّ بِكَلِمَاتِهِ وَيَقْطَعَ دَابِرَ الْكَافِرِينَ ﴾ 7 ﴿
व इज़् यअिदु कुमुल्लाहु इह़्दत्ताइ-फ़तैनि अन्नहा लकुम् व तवद्दू-न अन्-न ग़ै-र जातिश्शौ-कति तकूनु लकुम् व युरीदुल्लाहु अंय्युह़िक़्क़ल-हक़् क़ बिकलिमातिही व यक़्त अ़ दाबिरल्-काफ़िरीन
तथा (वह समय याद करो) जब अल्लाह तुम्हें वचन दे रहा था कि दो गिरोहों में एक तुम्हारे हाथ आयेगा और तुम चाहते थे कि निर्बल गिरोह तुम्हारे हाथ लगे[1]। परन्तु अल्लाह चाहता था कि अपने वचन द्वारा सत्य को सिध्द कर दे और काफ़िरों की जड़ काट दे। 1. इस में निर्बल गिरोह व्यपारिक क़ाफ़िले को कहा गया है। अर्थात क़ुरैश मक्का का व्यपारिक क़ाफ़िला जो सीरिया की ओर से आ रहा था, या उन की सेना जो मक्का से आ रही थी।
لِيُحِقَّ الْحَقَّ وَيُبْطِلَ الْبَاطِلَ وَلَوْ كَرِهَ الْمُجْرِمُونَ ﴾ 8 ﴿
लियुहिक़्क़ल् हक़् क़ व युब्तिलल्-बाति-ल व लौ करिहल्-मुज्रिमून
इस प्रकार सत्य को सत्य और असत्य को असत्य कर दे। यद्यपि अपराधियों को बुरा लगे।
إِذْ تَسْتَغِيثُونَ رَبَّكُمْ فَاسْتَجَابَ لَكُمْ أَنِّي مُمِدُّكُم بِأَلْفٍ مِّنَ الْمَلَائِكَةِ مُرْدِفِينَ ﴾ 9 ﴿
इज़् तस्तग़ीसू-न रब्बकुम् फ़स्तजा-ब लकुम् अन्नी मुमिद्दुकुम् बिअल्फ़िम् मिनल्-मलाइ कति मुर्दिफ़ीन
जब तुम अपने पालनहार को (बद्र के युध्द के समय) गुहार रहे थे। तो उसने तुम्हारी प्रार्थना सुन ली। (और कहाः) मैं तुम्हारी सहायता के लिए लगातार एक हज़ार फ़रिश्ते भेज रहा[1] हूँ। 1. नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने बद्र के दिन कहाः यह घोड़े की लगाम थामे और हथियार लगाये जिब्रील अलैहिस्सलाम आये हुये हैं। (देखियेः सह़ीह़ बुख़ारीः3995) इसी प्रकार एक मुसलमान एक मुश्रिक का पीछा कर रहा था कि अपने ऊपर से घुड़ सवार की आवाज़ सुनीः हैज़ूम (घोड़े का नाम) आगे बढ़। फिर देखा कि मुश्रिक उस के सामने चित गिरा हुआ है। उस की नाक और चेहरे पर कोड़े की मार का निशान है। फिर उस ने यह बात नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को बतायी। तो आप ने कहाः सच्च है। यह तीसरे आकाश की सहायता है। (देखियेः सह़ीह़ मुस्लिमः 1763)
وَمَا جَعَلَهُ اللَّهُ إِلَّا بُشْرَىٰ وَلِتَطْمَئِنَّ بِهِ قُلُوبُكُمْ ۚ وَمَا النَّصْرُ إِلَّا مِنْ عِندِ اللَّهِ ۚ إِنَّ اللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ﴾ 10 ﴿
व मा ज-अ-लहुल्लाहु इल्ला बुश्रा व लितत्मइन्-न बिही क़ुलूबुकुम्, व मन्नस् रू इल्ला मिन् अिन्दिल्लाहि, इन्नल्ला-ह अज़ीज़ुन हकीम *
और अल्लाह ने ये इसलिए बता दिया, ताकि (तुम्हारे लिए) शुभ सूचना हो और ताकि तुम्हारे दिलों को संतोष हो जाये। अन्यथा सहायता तो अल्लाह ही की ओर से होती है। वास्तव में, अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ है।
إِذْ يُغَشِّيكُمُ النُّعَاسَ أَمَنَةً مِّنْهُ وَيُنَزِّلُ عَلَيْكُم مِّنَ السَّمَاءِ مَاءً لِّيُطَهِّرَكُم بِهِ وَيُذْهِبَ عَنكُمْ رِجْزَ الشَّيْطَانِ وَلِيَرْبِطَ عَلَىٰ قُلُوبِكُمْ وَيُثَبِّتَ بِهِ الْأَقْدَامَ ﴾ 11 ﴿
इज़् युग़श्शीकुमुन्नुआ-स अ-म-नतम् मिन्हु व युनज़्ज़िलु अलैकुम् मिनस्समा-इ माअल्-लियुतह़्हि-रकुम् बिही व युज़्हि ब अन्कुम् रिज्ज़श्शैतानि व लियरबि-त अ़ला क़ुलूबिकुम् व युसब्बि-त बिहिल्अक़्दाम
और वह समय याद करो जब अल्लाह अपनी ओर से शान्ति के लिए तुमपर ऊँघ डाल रहा था और तुमपर आकाश से जल बरसा रहा था, ताकि तुम्हें स्वच्छ कर दे और तुमसे शैतान की मलीनता दूर कर दे और तुम्हारे दिलों को साहस दे और (तुम्हारे) पाँव जमा दे[1]। 1. बद्र के युध्द के समय मुसलमानों की संख्या मात्र 313 थी। और सिवाये एक व्यक्ति के किसी के पास घोड़ा न था। मुसलमान डरे-सहमे थे। जल के स्थान पर शत्रु ने पहले ही अधिकार कर लिया था। भूमि रेतीली थी जिस में पाँव धंस जाते थे। और शत्रु सवार थे। और उन की संख्या भी तीन गुना थी। ऐसी दशा में अल्लाह ने मुसलमानों पर निद्रा उतार कर उन्हें निश्चिन्त कर दिया और वर्षा कर के पानी की व्यवस्था कर दी। जिस से भूमि भी कड़ी हो गई। और अपनी असफलता का भय जो शैतानी संशय था, वह भी दूर हो गया।
إِذْ يُوحِي رَبُّكَ إِلَى الْمَلَائِكَةِ أَنِّي مَعَكُمْ فَثَبِّتُوا الَّذِينَ آمَنُوا ۚ سَأُلْقِي فِي قُلُوبِ الَّذِينَ كَفَرُوا الرُّعْبَ فَاضْرِبُوا فَوْقَ الْأَعْنَاقِ وَاضْرِبُوا مِنْهُمْ كُلَّ بَنَانٍ ﴾ 12 ﴿
इज़् यूही रब्बु-क इलल्मलाइ-कति अन्नी म-अ़कुम् फ़- सब्बितुल्लज़ी-न आमनू, सउल्क़ी फ़ी क़ुलूबिल्लज़ी-न क-फरूर्रूअ्-ब फ़ज़्रिबू फ़ौक़ल् अअ्नाक़ि वज़्रिबू मिन्हुम् कुल-ल बनान
(हे नबी!) ये वो समय था, जब आपका पालनहार फ़रिश्तों को संकेत कर रहा था कि मैं तुम्हारे साथ हूँ। तुम ईमान वालों को स्थिर रखो, मैं कीफ़िरों के दिलों में भय डाल दूँगा। तो (हे मुसलमानों!) तुम उनकी गरदनों पर तथा पोर-पोर पर आघात पहुँचाओ।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمْ شَاقُّوا اللَّهَ وَرَسُولَهُ ۚ وَمَن يُشَاقِقِ اللَّهَ وَرَسُولَهُ فَإِنَّ اللَّهَ شَدِيدُ الْعِقَابِ ﴾ 13 ﴿
ज़ालि-क बिअन्नहुम् शाक़्क़ुल्ला-ह व रसूलहू, व मंय्युशाक़िक़िल्ला-ह व रसूलहू फ़-इन्नल्ला-ह शदीदुल् -अिक़ाब
ये इसलिए कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल का विरोध किया तथा जो अल्लाह और उसके रसूल का विरोध करेगा, तो निश्चय अल्लाह उसे कड़ी यातना देने वाला है।
ذَٰلِكُمْ فَذُوقُوهُ وَأَنَّ لِلْكَافِرِينَ عَذَابَ النَّارِ ﴾ 14 ﴿
ज़ालिकुम फ़ज़ूक़ूहु व अन्-न लिल्काफ़िरी-न अज़ाबन्नार
ये है (तुम्हारी यातना), तो इसका स्वाद चखो और (जान लो कि) काफ़िरों के लिए नरक की यातना (भी) है।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِذَا لَقِيتُمُ الَّذِينَ كَفَرُوا زَحْفًا فَلَا تُوَلُّوهُمُ الْأَدْبَارَ ﴾ 15 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनू इज़ा लक़ीतुमुल्लज़ी-न क-फरू ज़ह्फ़न् फला तुवल्लूहुमुल अद्-बार
हे इमान वालो! जब काफ़िरों की सेना से भिड़ो, तो उन्हें पीठ न दिखाओ।
وَمَن يُوَلِّهِمْ يَوْمَئِذٍ دُبُرَهُ إِلَّا مُتَحَرِّفًا لِّقِتَالٍ أَوْ مُتَحَيِّزًا إِلَىٰ فِئَةٍ فَقَدْ بَاءَ بِغَضَبٍ مِّنَ اللَّهِ وَمَأْوَاهُ جَهَنَّمُ ۖ وَبِئْسَ الْمَصِيرُ ﴾ 16 ﴿
व मंय्युवल्लिहिम् यौमइज़िन् दुबु-रहू इल्ला मु- तहर्रिफ़ल् लिक़ितालिन् औ मु-तहय्यिज़न् इला फ़ि अतिन् फ़-क़द् बा-अ बि-ग़-ज़ बिम् मिनल्लाहि व मअ्वाहु जहन्नमु, व बिअ्सल्मसीर
और जो कोई उस दिन अपनी पीठ दिखायेगा, परन्तु फिरकर आक्रमण करने अथवा (अपने) किसी गिरोह से मिलने के लिए, तो वह अल्लाह के प्रकोप में घिर जायेगा और उसका स्थान नरक है और वह बहुत ही बुरा स्थान है।
فَلَمْ تَقْتُلُوهُمْ وَلَٰكِنَّ اللَّهَ قَتَلَهُمْ ۚ وَمَا رَمَيْتَ إِذْ رَمَيْتَ وَلَٰكِنَّ اللَّهَ رَمَىٰ ۚ وَلِيُبْلِيَ الْمُؤْمِنِينَ مِنْهُ بَلَاءً حَسَنًا ۚ إِنَّ اللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ﴾ 17 ﴿
फ़-लम् तक़्तुलूहुम् व लाकिन्नल्ला-ह क़-त-लहुम्, व मा रमै-त इज़् रमै-त व लाकिन्नल्ला-ह रमा, व लियुब्लियल्-मुअ्मिनी-न मिन्हु बलाअन् ह-सनन्, इन्नल्ला-ह समीअुन् अलीम
अतः (रणक्षेत्र में) उन्हें वध तुमने नहीं किया, परन्तु अल्लाह ने उन्हें वध किया और हे नबी! आपने नहीं फेंका, जब फेंका, परन्तु अल्लाह ने फेंका। और (ये इसलिए हुआ) ताकि अल्लाह इसके द्वारा ईमान वालों की एक उत्तम परीक्षा ले। वास्तव में, अल्लाह सबकुछ सुनने और जानने[1] वाला है। 1. आयत का भावार्थ यह है कि शत्रु पर विजय तुम्हारी शक्ति से नहीं हुई। इसी प्रकार नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने रणक्षेत्र में कंकरियाँ ले कर शत्रु की सेना की ओर फेंकी, जो प्रत्येक शत्रु की आँख में पड़ गई। और वहीं से उन की प्राजय का आरंभ हुआ तो उस धूल को शत्रु की आँखों तक अल्लाह ही ने पहुँचाया था। (इब्ने कसीर)
ذَٰلِكُمْ وَأَنَّ اللَّهَ مُوهِنُ كَيْدِ الْكَافِرِينَ ﴾ 18 ﴿
ज़ालिकुम् व अन्नल्ला-ह मूहिनु कैदिल्-काफ़िरीन
ये सब तुम्हारे लिए हो गया और अल्लाह काफ़िरों की चालों को निर्बल करने वाला है।
إِن تَسْتَفْتِحُوا فَقَدْ جَاءَكُمُ الْفَتْحُ ۖ وَإِن تَنتَهُوا فَهُوَ خَيْرٌ لَّكُمْ ۖ وَإِن تَعُودُوا نَعُدْ وَلَن تُغْنِيَ عَنكُمْ فِئَتُكُمْ شَيْئًا وَلَوْ كَثُرَتْ وَأَنَّ اللَّهَ مَعَ الْمُؤْمِنِينَ ﴾ 19 ﴿
इन् तस्तफ्तिहू फ़-क़द् जा-अकुमुल्-फ़त्हू, व इन् तन्तहू फ़हु-व ख़ैरूल्लकुम्, व इन् तअूदू नअुद्, व लन् तुग़्निय अ़न्कुम् फ़ि अतुकुम् शैअंव्-व लौ कसुरत्, व अन्नल्ला-ह मअल्-मुअ्मिनीन*
यदि तुम[1] निर्णय चाहते हो, तो तुम्हारे सामने निर्णय आ गया है और यदि तुम रुक जाओ, तो तुम्हारे लिए उत्तम है और यदि फिर पहले जैसा करोगे, तो हमभी वैसा ही करेंगे और तुम्हारा जत्था तुम्हारे कुछ काम नहीं आयेगा, यद्यपि अधिक हो और निश्चय अल्लाह ईमान वालों के साथ है। 1. आयत में मक्का के काफ़िरों को सम्बोधित किया गया है, जो कहते थे कि यदि तुम सच्चे हो तो इस का निर्णय कब होगा? (देखियेः सूरह सज्दा, आयतः28)
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا أَطِيعُوا اللَّهَ وَرَسُولَهُ وَلَا تَوَلَّوْا عَنْهُ وَأَنتُمْ تَسْمَعُونَ ﴾ 20 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनू अतीअुल्ला-ह व रसूलहू व ला तवल्लौ अन्हु व अन्तुम् तस्मअून
हे ईमान वालो! अल्लाह के आज्ञाकारी रहो तथा उसके रसूल के और उससे मुँह न फेरो, जबकि सुन रहे हो।
وَلَا تَكُونُوا كَالَّذِينَ قَالُوا سَمِعْنَا وَهُمْ لَا يَسْمَعُونَ ﴾ 21 ﴿
व ला तकूनू कल्लज़ी-न क़ालू समिअ्ना व हुम् ला यस्मअून
तथा उनके समान[1] न हो जाओ, जिन्होंने कहा कि हमने सुन लिया, जबकि वास्तव में वे सुनते नहीं थे। 1. इस में संकेत अह्ले किताब की ओर है।
إِنَّ شَرَّ الدَّوَابِّ عِندَ اللَّهِ الصُّمُّ الْبُكْمُ الَّذِينَ لَا يَعْقِلُونَ ﴾ 22 ﴿
इन्-न शर्रद्दवाब्बि अिन्दल्लाहिस्सुम्मुल-बुक्मुल्लज़ी-न ला यअ्क़िलून
वास्तव में, अल्लाह के हाँ सबसे बुरे पशु वे (मानव) हैं, जो बहरे-गूँगे हों, जो कुछ समझते न हों।
وَلَوْ عَلِمَ اللَّهُ فِيهِمْ خَيْرًا لَّأَسْمَعَهُمْ ۖ وَلَوْ أَسْمَعَهُمْ لَتَوَلَّوا وَّهُم مُّعْرِضُونَ ﴾ 23 ﴿
व लौ अलिमल्लाहु फ़ीहिम् ख़ैरल् ल-अस्म-अहुम्, व लौ अस्म-अहुम् ल-तवल्लौ व हुम् मुअ्-रिज़ून
और यदि अल्लाह उनमें कुछ भी भलाई जानता, तो उन्हें सुना देता और यदि उन्हें सुना भी दे, तो भी वे मुँह फेर लेंगे और वे विमुख हैं ही।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اسْتَجِيبُوا لِلَّهِ وَلِلرَّسُولِ إِذَا دَعَاكُمْ لِمَا يُحْيِيكُمْ ۖ وَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّهَ يَحُولُ بَيْنَ الْمَرْءِ وَقَلْبِهِ وَأَنَّهُ إِلَيْهِ تُحْشَرُونَ ﴾ 24 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनुस्तजीबू लिल्लाहि व लिर्रसूलि इज़ा दआकुम् लिमा युह़्यीकुम्, वअ्लमू अन्नल्ला-ह यहूलु बैनल्-मरइ व क़ल्बिही व अन्नहू इलैहि तुह्शरून
हे ईमान वालो! अल्लाह और उसके रसूल की पुकार सुनो, जब तुम्हें उसकी ओर बुलाये, जो तुम्हारी[1] (आत्मा) को जीवन प्रदान करे और जान लो कि अल्लाह मानव और उसके दिल के बीच आड़े[2] आ जाता है और निःसंदेह तुम उसी के पास (अपने कर्म फल के लिए) एकत्र किये जाओगे। 1. इस से अभिप्राय क़ुर्आन तथा इस्लाम है। (इब्ने कसीर) 2. अर्थात जो अल्लाह और उस के रसूल की बात नहीं मानता, तो अल्लाह उसे मार्गदर्शन भी नहीं देता।
وَاتَّقُوا فِتْنَةً لَّا تُصِيبَنَّ الَّذِينَ ظَلَمُوا مِنكُمْ خَاصَّةً ۖ وَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّهَ شَدِيدُ الْعِقَابِ ﴾ 25 ﴿
वत्तक़ू फित् न-तल्-ला तुसीबन्नल्लज़ी-न ज़-लमू मिन्कुम् खास्स-तन्, वअ्लमू अन्नल्ला-ह शदीदुल अिक़ाब
तथा उस आपदा से डरो, जो तुममें से अत्याचारियों पर ही विशेष रूप से नहीं आयेगी और विश्वास रखो[1] कि अल्लाह कड़ी यातना देने वाला है। 1. इस आयत का भावार्थ यह है कि अपने समाज में बुराईयों को न पनपने दो। अन्यथा जो आपदा आयेगी वह सर्वसाधारण पर आयेगी। (इबने कसीर)
وَاذْكُرُوا إِذْ أَنتُمْ قَلِيلٌ مُّسْتَضْعَفُونَ فِي الْأَرْضِ تَخَافُونَ أَن يَتَخَطَّفَكُمُ النَّاسُ فَآوَاكُمْ وَأَيَّدَكُم بِنَصْرِهِ وَرَزَقَكُم مِّنَ الطَّيِّبَاتِ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُونَ ﴾ 26 ﴿
वज़्कुरू इज़् अन्तुम् क़लीलुम् मुस्तज़्अफू-न फ़िल्अर्ज़ि तख़ाफू न अंय्य तख़त्त फकुमुन्नासु फ़आवाकुम् व अय्य-दकुम् बिनसरिही व र-ज़-क़ कुम् मिनत्तय्यिबाति लअ़ल्लकुम् तश्कुरून
तथा वो समय याद करो, जबतुम (मक्का में) बहुत थोड़े निर्बल समझे जाते थे। तुम डर रहे थे कि लोग तुम्हें उचक न लें। तो अल्लाह ने तुम्हें (मदीना में) शरण दी और अपनी सहायता द्वारा तुम्हें समर्थन दिया और तुम्हें स्वच्छ जीविका प्रदान की, ताकि तुम कृतज्ञ रहो।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَخُونُوا اللَّهَ وَالرَّسُولَ وَتَخُونُوا أَمَانَاتِكُمْ وَأَنتُمْ تَعْلَمُونَ ﴾ 27 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनू ला तख़ूनुल्ला-ह वर्रसू-ल व तख़ूनू अमानातिकुम व अन्तुम् तअ्लमून
हे ईमान वालो! अल्लाह तथा उसके रसूल के साथ विश्वासघात न करो और न अपनी अमानतों (कर्तव्य) के साथ विश्वासघात[1] करो, जानते हुए। 1. अर्थात अल्लाह और उस के रसूल के लिये जो तुम्हारा दायित्व और कर्तव्य है उसे पूरा करो। (इब्ने कसीर)
وَاعْلَمُوا أَنَّمَا أَمْوَالُكُمْ وَأَوْلَادُكُمْ فِتْنَةٌ وَأَنَّ اللَّهَ عِندَهُ أَجْرٌ عَظِيمٌ ﴾ 28 ﴿
वअ्लमू अन्नमा अम्वालुकुम् व औलादुकुम् फ़ित्-नतुंव्-व अन्नल्ला-ह अिन्दहू अज्रुन् अ़ज़ीम *
तथा जान लो कि तुम्हारा धन और तुम्हारी संतान एक परीक्षा हैं तथा ये कि अल्लाह के पास बड़ा प्रतिफल है।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِن تَتَّقُوا اللَّهَ يَجْعَل لَّكُمْ فُرْقَانًا وَيُكَفِّرْ عَنكُمْ سَيِّئَاتِكُمْ وَيَغْفِرْ لَكُمْ ۗ وَاللَّهُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيمِ ﴾ 29 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनू इन् तत्तक़ुल्ला-ह यज् अल्लकुम् फुरक़ानंव्-व युकफ्फिर अ़न्कुम् सय्यिआतिकुम् व यग़्फिर् लकुम्, वल्लाहु ज़ुल्फ़ज़्लिल्-अज़ीम
हे ईमान वालो! यदि तुम अल्लाह से डरोगे, तो तुम्हें विवेक[1] प्रदान करेगा तथा तुमसे तुम्हारी बुराईयाँ दूर कर देगा, तुम्हे क्षमा कर देगा और अल्लाह बड़ा दयाशील है। 1. विवेक का अर्थ है सत्य और असत्य के बीच अन्तर करने की शक्ति। कुछ ने फ़ुर्क़ान का अर्थ निर्णय लिया है। अर्थात अल्लाह तुम्हारे और तुम्हारे विरोधियों के बीच निर्णय कर देगा।
وَإِذْ يَمْكُرُ بِكَ الَّذِينَ كَفَرُوا لِيُثْبِتُوكَ أَوْ يَقْتُلُوكَ أَوْ يُخْرِجُوكَ ۚ وَيَمْكُرُونَ وَيَمْكُرُ اللَّهُ ۖ وَاللَّهُ خَيْرُ الْمَاكِرِينَ ﴾ 30 ﴿
व इज़् यम्कुरू बिकल्लज़ी-न क-फ़रू लियुस्बितू-क औ यक़्तुलू-क औ युख़रिजू-क, व यम्कुरू-न व यम्कुरूल्लाहु, वल्लाहु ख़ैरूल् माकिरीन
तथा (हे नबी! वो समय याद करो) जब (मक्का में) काफ़िर आपके विरुध्द षड्यंत्र रच रहे थे, ताकि आपको क़ैद कर लें, वध कर दें अथवा देश निकाला दे दें तथा वे षड्यंत्र रच रहे थे और अल्लह अपना उपाय कर रहा था और अल्लाह का उपाय[1] सबसे उत्तम है। 1. अर्थात उन की सभी योजनाओं को असफल कर के आप को सुरक्षित मदीना पहुँचा दिया।
وَإِذَا تُتْلَىٰ عَلَيْهِمْ آيَاتُنَا قَالُوا قَدْ سَمِعْنَا لَوْ نَشَاءُ لَقُلْنَا مِثْلَ هَٰذَا ۙ إِنْ هَٰذَا إِلَّا أَسَاطِيرُ الْأَوَّلِينَ ﴾ 31 ﴿
व इज़ा तुत्ला अ़लैहिम् आयातुना क़ालू क़द् समिअ्ना लौ नशा-उ लक़ुल्ना मिस्-ल हाज़ा, इन् हाज़ा इल्ला असातीरूल-अव्वलीन
और जब उनको हमारी आयतें सुनाई जाती हैं, तो कहते हैः हमने (इसे) सुन लिया है। यदि हम चाहें, तो इसी (क़ुर्आन) जैसी बातें कह दें। ये तो वही प्राचीन लोगों की कथायें हैं।
وَإِذْ قَالُوا اللَّهُمَّ إِن كَانَ هَٰذَا هُوَ الْحَقَّ مِنْ عِندِكَ فَأَمْطِرْ عَلَيْنَا حِجَارَةً مِّنَ السَّمَاءِ أَوِ ائْتِنَا بِعَذَابٍ أَلِيمٍ ﴾ 32 ﴿
व इज़् क़ालुल्लाहुम्-म इन् का-न हाज़ा हुवल्-हक़् क़ मिन् अिन्दि-क फ़अम्तिर् अलैना हिजा-रतम् मिनस्समा-इ अविअ्तिना बिअज़ाबिन् अलीम
तथा (याद करो) जब उन्होंने कहाः हे अल्लाह! यदि ये[1] तेरी ओर से सत्य है, तो हमपर आकाश से पत्थरों की वर्षा कर दे अथवा हमपर दुःखदायी यातना ले आ। 1. अर्थात क़ुर्आन। यह बात क़ुरैश के मुख्या अबू जह्ल ने कही थी, जिस पर आगे की आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारीः4648)
وَمَا كَانَ اللَّهُ لِيُعَذِّبَهُمْ وَأَنتَ فِيهِمْ ۚ وَمَا كَانَ اللَّهُ مُعَذِّبَهُمْ وَهُمْ يَسْتَغْفِرُونَ ﴾ 33 ﴿
व मा कानल्लाहु लियुअ़ज़्ज़ि-बहुम् व अन्-त फ़ीहिम्, व मा कानल्लाहु मुअज़्ज़ि-बहुम् व हुम् यस्तग़्फिरून
और अल्लाह उन्हें यातना नहीं दे सकता था, जब तक आप उनके बीच थे और न उन्हें यातना देने वाला है, जब तक वे क्षमा याचना कर रहे हों।
وَمَا لَهُمْ أَلَّا يُعَذِّبَهُمُ اللَّهُ وَهُمْ يَصُدُّونَ عَنِ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ وَمَا كَانُوا أَوْلِيَاءَهُ ۚ إِنْ أَوْلِيَاؤُهُ إِلَّا الْمُتَّقُونَ وَلَٰكِنَّ أَكْثَرَهُمْ لَا يَعْلَمُونَ ﴾ 34 ﴿
व मा लहुम् अल्-ला युअ़ज़्ज़ि-बहुमुल्लाहु व हुम् यसुद्दू-न अनिल् मस्जिदिल्-हरामि व मा कानू औलिया-अहू, इन् औलिया-उहू इल्लल्-मुत्तक़ू-न व लाकिन् न अक्स रहुम् ला यअ्लमून
और अब उनपर क्यों न यातना उतारे, जबकि वे सम्मानित मस्जिद (काबा) से रोक रहे हैं, जबकि वे उसके संरक्षक नहीं हैं। उसके संरक्षक तो केवल अल्लाह के आज्ञाकारी हैं, परन्तु अधिकांश लोग (इसे) नहीं जानते।
وَمَا كَانَ صَلَاتُهُمْ عِندَ الْبَيْتِ إِلَّا مُكَاءً وَتَصْدِيَةً ۚ فَذُوقُوا الْعَذَابَ بِمَا كُنتُمْ تَكْفُرُونَ ﴾ 35 ﴿
व मा का-न सलातुहुम् अिन्दल्-बैति इल्ला मुकाअंव्-व तस्दि-यतन्, फ़ज़ूक़ुल-अ़ज़ा-ब बिमा कुन्तुम् तक्फुरून
और अल्लाह के घर (काबा) के पास इनकी नमाज़ इसके सिवा क्या थी कि सीटियाँ और तालियाँ बजायें? तो अब[1] अपने कुफ़्र (अस्वीकार) के बदले यातना का स्वाद चखो। 1. अर्थात बद्र में पराजय की यातना।
إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا يُنفِقُونَ أَمْوَالَهُمْ لِيَصُدُّوا عَن سَبِيلِ اللَّهِ ۚ فَسَيُنفِقُونَهَا ثُمَّ تَكُونُ عَلَيْهِمْ حَسْرَةً ثُمَّ يُغْلَبُونَ ۗ وَالَّذِينَ كَفَرُوا إِلَىٰ جَهَنَّمَ يُحْشَرُونَ ﴾ 36 ﴿
इन्नल्लज़ी-न क-फरू युन्फ़िक़ू-न अम्वालहुम् लि- यसुद्दू अन् सबीलिल्लाहि, फ़-सयुन्फिक़ूनहा सुम्-म तकूनु अलैहिम् हस्-रतन् सुम्-म युग़्लबू-न, वल्लज़ी-न क-फरू इला जहन्न-म युह्शरून
जो काफ़िर हो गये, वे अपना धन इसलिए ख़र्च करते हैं कि अल्लाह की राह से रोक दें। तो वे अपना धन ख़र्च करते रहेंगे, फिर (वो समय आयेगा कि) वह उनके लिए पछतावे का कारण हो जायेगा। फिर पराजित होंगे तथा जो काफ़िर हो गये, वे नरक की ओर हाँक दिये जायेंगे।
لِيَمِيزَ اللَّهُ الْخَبِيثَ مِنَ الطَّيِّبِ وَيَجْعَلَ الْخَبِيثَ بَعْضَهُ عَلَىٰ بَعْضٍ فَيَرْكُمَهُ جَمِيعًا فَيَجْعَلَهُ فِي جَهَنَّمَ ۚ أُولَٰئِكَ هُمُ الْخَاسِرُونَ ﴾ 37 ﴿
लि-यमीज़ल्लाहुल्-ख़बी-स मिनत्तय्यिबि व यज्अ़लल् ख़बी-स बअ्ज़हू अला बअ्जिन् फ़-यरकु-महू जमीअ़न् फ़-यज्अ-लहू फ़ी जहन्न-म, उलाइ-क हुमुल्- ख़ासिरून *
ताकि अल्लाह मलीन को पवित्र से अलग कर दे तथा मलीनों को एक-दूसरे से मिला दे। फिर सबका ढेर बना दे और उन्हें नरक में फेंक दे, यही क्षतिग्रस्त हैं।
قُل لِّلَّذِينَ كَفَرُوا إِن يَنتَهُوا يُغْفَرْ لَهُم مَّا قَدْ سَلَفَ وَإِن يَعُودُوا فَقَدْ مَضَتْ سُنَّتُ الْأَوَّلِينَ ﴾ 38 ﴿
क़ुल लिल्लज़ी-न क-फरू इंय्यन्तहू युग़्फर् लहुम् मा क़द् स-ल-फ, व इंय्यअूदू फ-क़द् मज़त् सुन्नतुल अव्वलीन
(हे नबी!) इन काफ़िरों से कह दोः यदि वे रुक[1] गये, तो जो कुछ हो गया है, वह उनसे क्षमा कर दिया जायेगा और यदि पहले जैसा ही करेंगे, तो अगली जातियों की दुर्गत हो चुकी है। 1. अर्थात ईमान लाये।
وَقَاتِلُوهُمْ حَتَّىٰ لَا تَكُونَ فِتْنَةٌ وَيَكُونَ الدِّينُ كُلُّهُ لِلَّهِ ۚ فَإِنِ انتَهَوْا فَإِنَّ اللَّهَ بِمَا يَعْمَلُونَ بَصِيرٌ ﴾ 39 ﴿
व क़ातिलूहुम् हत्ता ला तकू-न फित्-नतुंव्-व यकूनद्दीनु कुल्लुहू लिल्लाहि, फ़-इनिन्तहौ फ़-इन्नल्ला-ह बिमा यअ्मलू-न बसीर
हे ईमान वालो! उनसे उस समय तक युध्द करो कि[1] फ़ित्ना (अत्याचार तथा उपद्रव) समाप्त हो जाये और धर्म पूरा अल्लाह के लिए हो जाये। तो यदि वे (अत्याचार से) रुक जायें तो अल्लाह उनके कर्मों को देख रहा है। 1. इब्ने उमर (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) ने कहाः नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मुश्रिकों से उस समय युध्द कर रहे थे जब मुसलमान कम थे। और उन्हें अपने धर्म के कारण सताया, मारा और बंदी बना लिया जाता था। (सह़ीह़ बुख़ारीः4650, 4651)
وَإِن تَوَلَّوْا فَاعْلَمُوا أَنَّ اللَّهَ مَوْلَاكُمْ ۚ نِعْمَ الْمَوْلَىٰ وَنِعْمَ النَّصِيرُ ﴾ 40 ﴿
व इन् तवल्लौ फअ्लमू अन्नल्ला-ह मौलाकुम्, निअ्मल् मौला व निअ्मन्-नसीर
और यदि वे मुँह फेरें, तो जान लो कि अल्लाह रक्षक है और वह क्या ही अच्छा संरक्षक तथा क्या ही अच्छा सहायक है?
وَاعْلَمُوا أَنَّمَا غَنِمْتُم مِّن شَيْءٍ فَأَنَّ لِلَّهِ خُمُسَهُ وَلِلرَّسُولِ وَلِذِي الْقُرْبَىٰ وَالْيَتَامَىٰ وَالْمَسَاكِينِ وَابْنِ السَّبِيلِ إِن كُنتُمْ آمَنتُم بِاللَّهِ وَمَا أَنزَلْنَا عَلَىٰ عَبْدِنَا يَوْمَ الْفُرْقَانِ يَوْمَ الْتَقَى الْجَمْعَانِ ۗ وَاللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ ﴾ 41 ﴿
वअ्लमू अन्नमा ग़निम्तुम् मिन् शैइन् फ-अन् न लिल्लाहि खुमु-सहू व लिर्रसूलि व लिज़िल्क़ुरबा वल्यतामा वल्मसाकीनि वब् निस्-सबीलि, इन् कुन्तुम् आमन्तुम् बिल्लाहि व मा अन्ज़ल्ना अला अब्दिना यौमल्फुरक़ानि यौमल् तक़ल्जम्आनि, वल्लाहु अला कुल्लि शैइन् क़दीर
और जान[1] लो कि तुम्हें जो कुछ ग़नीमत में मिला है, उसका पाँचवाँ भाग अल्लाह तथा रसूल और (आपके) समीपवर्तियों तथा अनाथों, निर्धनों और यात्रियों के लिए है, यदि तुम अल्लाह पर तथा उस (सहायता) पर ईमान रखते हो, जो हमने अपने भक्त पर निर्णय[2] के दिन उतारी, जिस दिन, दो सेनायें भिड़ गईं और अल्लाह जो चाहे, कर सकता है। 1. इस में ग़नीमत (युध्द में मिले सामान) के वितरण का नियम बताया गया है कि उस के पाँच भाग कर के चार भाग मुजाहिदों को दिये जायें। पैदल को एक भाग तथा सवार को तीन भाग। फिर पाँचवाँ भाग अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैही व सल्लम) के लिये था जिसे आप अपने परिवार और समीपवर्तियों तथा अनाथों और निर्धनों की सहायता के लिये ख़र्च करते थे। इस प्रकार इस्लाम ने अनाथों और निर्धनों की सहायता पर सदा ध्यान दिया है। और ग़नीमत में उन्हें भी भाग दिया है, यह इस्लाम की वह विशेषता है जो किसी धर्म में नहीं मिलेगी। 2. अर्थात मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर। निर्णय के दिन से अभिप्राय बद्र के युध्द का दिन है जो सत्य और असत्य के बीच निर्णय का दिन था। जिस में काफ़िरों के बड़े बड़े प्रमुख और वीर मारे गये, जिन के शव बद्र के एक कुवें में फेंक दिये गये। फिर आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कुवें के किनारे खड़े हुये और उन्हें उन के नामों से पुकारने लगे कि क्या तुम प्रसन्न होते कि अल्लाह और उस के रसूल को मानते? हम ने अपने पालनहार का वचन सच्च पाया तो क्या तुमने सच्च पाया? उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहाः क्या आप ऐसे शरीरों से बात कर रहे हैं जिन में प्राण नहीं? आप ने कहाः मेरी बात तुम उन से अधिक नहीं सुन रहे हो। (सह़ीह़ बुख़ारीः3976)
إِذْ أَنتُم بِالْعُدْوَةِ الدُّنْيَا وَهُم بِالْعُدْوَةِ الْقُصْوَىٰ وَالرَّكْبُ أَسْفَلَ مِنكُمْ ۚ وَلَوْ تَوَاعَدتُّمْ لَاخْتَلَفْتُمْ فِي الْمِيعَادِ ۙ وَلَٰكِن لِّيَقْضِيَ اللَّهُ أَمْرًا كَانَ مَفْعُولًا لِّيَهْلِكَ مَنْ هَلَكَ عَن بَيِّنَةٍ وَيَحْيَىٰ مَنْ حَيَّ عَن بَيِّنَةٍ ۗ وَإِنَّ اللَّهَ لَسَمِيعٌ عَلِيمٌ ﴾ 42 ﴿
इज़् अन्तुम् बिल् अुद्-वतिद्दुन्या व हुम् बिल् अुद्-वतिल्-क़ुसवा वर्रक्बु अस्फ-ल मिन्कुम्, व लौ तवा अत्तुम् लख़्त-लफ्तुम् फिल्मी आ़दि, व लाकिल्-लियक़्ज़ियल्लाहु अम्रन का न मफ़अूलल् लियह़्लि-क मन् ह-ल-क अम्बय्यि-नतिंव्-व यह़्या मन् हय्-य अ़म्बय्यि नतिन्, व इन्नल्ला-ह ल समीअुन् अलीम
तथा उस समय को याद करो जब तुम (रणक्षेत्र में) इधर के किनारे तथा वे (शत्रु) उधर के किनारे पर थे और क़ाफ़िला तुमसे नीचे था। यदि तुम आपस में (युध्द का) निश्चय करते, तो निश्चित समय से अवश्य कतरा जाते। परन्तु अल्लाह ने (दोनों को भिड़ा दिया) ताकि जो होना था, उसका निर्णय कर दे, ताकि जो मरे, वह खुले प्रमाण के पश्चात मरे और जो जीवित रहे, वह खुले प्रमाण के साथ जीवित रहे और वस्तुतः अल्लाह सबकुछ सुनने-जानने वाला है।
إِذْ يُرِيكَهُمُ اللَّهُ فِي مَنَامِكَ قَلِيلًا ۖ وَلَوْ أَرَاكَهُمْ كَثِيرًا لَّفَشِلْتُمْ وَلَتَنَازَعْتُمْ فِي الْأَمْرِ وَلَٰكِنَّ اللَّهَ سَلَّمَ ۗ إِنَّهُ عَلِيمٌ بِذَاتِ الصُّدُورِ ﴾ 43 ﴿
इज़् युरीकहुमुल्लाहु फ़ी मनामि-क क़लीलन्, व लौ अराकहुम् कसीरल् ल फ़शिल्तुम् व ल-तनाज़अ्तुम् फ़िल्-अम्रि व लाकिन्नल्ला-ह सल्ल-म, इन्नहू अलीमुम बिज़ातिस्सुदूर
तथा (हे नबी! वो समय याद करें) जब आपको, (अल्लाह) आपके सपने[1] में, उन्हें (शत्रु को) थोड़ा दिखा रहा था और यदि उन्हें आपको अधिक दिखा देता, तो तुम साहस खो देते और इस (युध्द के) विषय में आपस में झगड़ने लगते। परन्तु अल्लाह ने तुम्हें बचा लिया। वास्तव में, वह सीनों (अन्तरात्मा) की बातों से भली-भाँति अवगत है। 1. इस में उस स्वप्न की ओर संकेत है, जो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को युध्द से पहले दिखाया गया था।
وَإِذْ يُرِيكُمُوهُمْ إِذِ الْتَقَيْتُمْ فِي أَعْيُنِكُمْ قَلِيلًا وَيُقَلِّلُكُمْ فِي أَعْيُنِهِمْ لِيَقْضِيَ اللَّهُ أَمْرًا كَانَ مَفْعُولًا ۗ وَإِلَى اللَّهِ تُرْجَعُ الْأُمُورُ ﴾ 44 ﴿
व इज़् युरीकुमूहुम् इज़िल्तक़ैतुम् फ़ी अअ्युनिकुम् क़लीलंव्-व युक़ल्लिलुकुम फ़ी अअ्युनिहिम् लि-यक़्ज़ियल्लाहु अमरन् का-न मफ्अूलन्, व इलल्लाहि तुरजअुल-उमूर *
तथा (याद करो उस समय को) जब अल्लाह उन (शत्रु) को लड़ाई के समय तुम्हारी आँखों में तुम्हारे लिए थोड़ा करके दिखा रहा था और इनकी आँखों में तुम्हें थोड़ा करके दिखा रहा था, ताकि जो होना था, अल्लाह उसका निर्णय कर दे और सभी कर्म अल्लाह ही की ओर फेरे[1] जाते हैं। 1. अर्थात सब का निर्णय वही करता है।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِذَا لَقِيتُمْ فِئَةً فَاثْبُتُوا وَاذْكُرُوا اللَّهَ كَثِيرًا لَّعَلَّكُمْ تُفْلِحُونَ ﴾ 45 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनू इज़ा लक़ीतुम् फ़ि-अतन् फस्बुतू वज़्कुरूल्ला-ह कसीरल्-लअ़ल्लकुम् तुफ्लिहून
हे ईमान वालो! जब (आक्रमणकारियों) के किसी गिरोह से भिड़ो, तो जम जाओ तथा अल्लाह को बहुत याद करो, ताकि तुम सफल रहो।
وَأَطِيعُوا اللَّهَ وَرَسُولَهُ وَلَا تَنَازَعُوا فَتَفْشَلُوا وَتَذْهَبَ رِيحُكُمْ ۖ وَاصْبِرُوا ۚ إِنَّ اللَّهَ مَعَ الصَّابِرِينَ ﴾ 46 ﴿
व अतीअुल्ला-ह व रसूलहू व ला तनाज़अू फ़-तफ्शलू व तज़्ह-ब रीहुकुम वस्बिरू, इन्नल्ला-ह मअ़स्साबिरीन
तथा अल्लाह और उसके रसूल के आज्ञाकारी रहो और आपस में विवाद न करो, अन्यथा तुम कमज़ोर हो जाओगे और तुम्हारी हवा उखड़ जायेगी तथा धैर्य से काम लो, वास्तव में, अल्लाह धैर्यवानों के साथ है।
وَلَا تَكُونُوا كَالَّذِينَ خَرَجُوا مِن دِيَارِهِم بَطَرًا وَرِئَاءَ النَّاسِ وَيَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ اللَّهِ ۚ وَاللَّهُ بِمَا يَعْمَلُونَ مُحِيطٌ ﴾ 47 ﴿
व ला तकूनू कल्लज़ी न ख़- रजू मिन् दियारिहिम् ब-तरंव् व रिआअन्नासि व यसुद्दू-न अन् सबीलिल्लाहि, वल्लाहु बिमा यअ्मलू-न मुहीत
और उन[1] के समान न हो जाओ, जो अपने घरों से इतराते हुए तथा लोगों को दिखाते हुए निकले और वे अल्लाह की राह (इस्लाम) से लोगों को रोकते हैं और अल्लाह उनके कर्मों को (अपने ज्ञान के) घेरे में लिए हुए है। 1. इस से अभिप्राय मक्का की सेना है, जिस को अबू जह्ल लाया था।
وَإِذْ زَيَّنَ لَهُمُ الشَّيْطَانُ أَعْمَالَهُمْ وَقَالَ لَا غَالِبَ لَكُمُ الْيَوْمَ مِنَ النَّاسِ وَإِنِّي جَارٌ لَّكُمْ ۖ فَلَمَّا تَرَاءَتِ الْفِئَتَانِ نَكَصَ عَلَىٰ عَقِبَيْهِ وَقَالَ إِنِّي بَرِيءٌ مِّنكُمْ إِنِّي أَرَىٰ مَا لَا تَرَوْنَ إِنِّي أَخَافُ اللَّهَ ۚ وَاللَّهُ شَدِيدُ الْعِقَابِ ﴾ 48 ﴿
व इज़् ज़य्य-न लहुमुश्शैतानु अअ्मालहुम् व क़ा-ल ला ग़ालि-ब लकुमुल्यौ-म मिनन्नासि व इन्नी जारूल्लकुम्, फ-लम्मा तरा-अतिल्-फ़ि अतानि न-क-स अला अ़क़िबैहि व क़ा-ल इन्नी बरीउम् मिन्कुम् इन्नी अरा माला तरौ-न इन्नी अख़ाफुल्ला-ह, वल्लाहु शदीदुल् – अिक़ाब *
जब शैतान[1] ने उनके लिए उनके कुकर्मों को शोभनीय बना दिया था और उस (शैतान) ने कहाः आज तुमपर कोई प्रभुत्व नहीं पा सकता और मैं तुम्हारा सहायक हूँ। फिर जब दोनों सेनायें सम्मुख हो गईं, तो अपनी एड़ियों के बल फिर गया और कह दिया कि मैं तुमसे अलग हूँ। मैं जो देख रहा हूँ, तुम नहीं देखते। वास्तव में, मैं अल्लाह से डर रहा हूँ और अल्लाह कड़ी यातना देने वाला है। 1. बद्र के युध्द में शैतान भी अपनी सेना के साथ सुराक़ा बिन मालिक के रूप में आया था। परन्तु जब फ़रिश्तों को देखा तो भाग गया। (इब्ने कसीर)
إِذْ يَقُولُ الْمُنَافِقُونَ وَالَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ غَرَّ هَٰؤُلَاءِ دِينُهُمْ ۗ وَمَن يَتَوَكَّلْ عَلَى اللَّهِ فَإِنَّ اللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ﴾ 49 ﴿
इज़् यक़ूलुल्-मुनाफ़िक़ू-न वल्लज़ी-न फ़ी क़ुलूबिहिम् म-रज़ुन् ग़र्-र हा-उला-इ दीनुहुम, व मंय्य तवक्कल् अ़लल्लाहि फ़-इन्नल्ला-ह अ़ज़ीज़ुन् हकीम
तथा (वो समय याद करो) जब मुनाफ़िक़ तथा जिनके दिलों में रोग है, वे कह रहे थे कि इन (मुसलमानों) को इनके धर्म ने धोखा दिया है तथा जो अल्लाह पर निर्भर करे, तो वास्तव में, अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ है।
وَلَوْ تَرَىٰ إِذْ يَتَوَفَّى الَّذِينَ كَفَرُوا ۙ الْمَلَائِكَةُ يَضْرِبُونَ وُجُوهَهُمْ وَأَدْبَارَهُمْ وَذُوقُوا عَذَابَ الْحَرِيقِ ﴾ 50 ﴿
व लौ तरा इज़् य-तवफ्फ़ल्लज़ी-न क-फरूल्मलाइ-कतु यज़्रिबू न वुजू-हहुम् व अदबारहुम्, व ज़ूक़ू अज़ाबल्-हरीक़
और क्या ही अच्छा होता, यदि आप उस दशा को देखते, जब फ़रिश्ते (बधिक) काफ़िरों के प्राण निकाल रहे थे, तो उनके मुखों और उनकी पीठों पर मार रहे थे तथा (कह रहे थे कि) दहन की यातना[1] चखो। 1. बद्र के युध्द में काफ़िरों के कई प्रमुख मारे गये। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने युध्द से पहले बता दिया कि अमुक इस स्थान पर मारा जायेगा तथा अमुक इस स्थान पर। और युध्द समाप्त होने पर उन का शव उन्हीं स्थानों पर मिला। तनिक भी इधर उधर नहीं हुआ। (बुख़ारीः4480) ऐसे ही आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने युध्द के समय कहा कि सारे जत्थे पराजित हो जायेंगे और पीठ दिखा देंगे। और उसी समय शत्रु पराजित होने लगे। (बुख़ारीः4875)
ذَٰلِكَ بِمَا قَدَّمَتْ أَيْدِيكُمْ وَأَنَّ اللَّهَ لَيْسَ بِظَلَّامٍ لِّلْعَبِيدِ ﴾ 51 ﴿
ज़ालि-क बिमा क़द्द-मत् ऐदीकुम् व अन्नल्ला-ह लै-स बिज़ल्लामिल्-लिल् अ़बीद
यही तुम्हारे करतूतों का प्रतिफल है और अल्लाह अपने भक्तों पर अत्याचार करने वाला नहीं है।
كَدَأْبِ آلِ فِرْعَوْنَ ۙ وَالَّذِينَ مِن قَبْلِهِمْ ۚ كَفَرُوا بِآيَاتِ اللَّهِ فَأَخَذَهُمُ اللَّهُ بِذُنُوبِهِمْ ۗ إِنَّ اللَّهَ قَوِيٌّ شَدِيدُ الْعِقَابِ ﴾ 52 ﴿
कदअ्बि आलि फ़िरऔ-न, वल्लज़ी-न मिन् क़ब्लिहिम्, क-फ़ रू बिआयातिल्लाहि फ़-अ-ख़-ज़हुमुल्लाहु बिज़ुनूबिहिम्, इन्नल्ला-ह क़विय्युन् शदीदुल-अिक़ाब
इनकी दशा भी फ़िरऔनियों तथा उनके जैसी हुई, जिन्होंने इससे पहले अल्लाह की आयतों को नकार दिया, तो अल्लाह ने उनके पापों के बदले उन्हें पकड़ लिया। वास्तव में, अल्लाह बड़ा शक्तिशाली, कड़ी यातना देने वाला है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ اللَّهَ لَمْ يَكُ مُغَيِّرًا نِّعْمَةً أَنْعَمَهَا عَلَىٰ قَوْمٍ حَتَّىٰ يُغَيِّرُوا مَا بِأَنفُسِهِمْ ۙ وَأَنَّ اللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ﴾ 53 ﴿
ज़ालि-क बिअन्नल्ला-ह लम् यकु मुग़य्यिरन् निअ्-मतन् अन्अ़-महा अ़ला क़ौमिन् हत्ता युग़य्यिरू मा बिअन्फुसिहिम् व अन्नल्ला-ह समीअुन् अलीम
अल्लाह का ये नियम है कि वह उस पुरस्कार में परिवर्तन करने वाला नहीं है, जो किसी जाति पर किया हो, जब तक वह स्वयं अपनी दशा में परिवर्तन न कर ले और वास्तव में, अल्लाह सबकुछ सुनने-जानने वाला है।
كَدَأْبِ آلِ فِرْعَوْنَ ۙ وَالَّذِينَ مِن قَبْلِهِمْ ۚ كَذَّبُوا بِآيَاتِ رَبِّهِمْ فَأَهْلَكْنَاهُم بِذُنُوبِهِمْ وَأَغْرَقْنَا آلَ فِرْعَوْنَ ۚ وَكُلٌّ كَانُوا ظَالِمِينَ ﴾ 54 ﴿
कदअ्बि आलि फ़िरऔ-न, वल्लज़ी-न मिन् क़ब्लिहिम्, कज़्ज़बू बिआयाति रब्बिहिम् फ़-अह़्लक्नाहुम् बिज़ुनूबिहिम् व अग़्रक़्ना आ-ल फ़िरऔ-न, व कुल्लुन् कानू ज़ालिमीन
इनकी दशा फ़िरऔनियों तथा उन लोगों जैसी हुई, जो इनसे पहले थे, उन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठला दिया, तो हमने उन्हें उनके पापों के कारण ध्वस्त कर दिया तथा फ़िरऔनियों को डुबो दिया और वह सभी अत्याचारी[1] थे। 1. इस आयत में तथा आयत संख्या 52 में व्यक्तियों तथा जातियों के उत्थान और पतन का विधान बताया गया है कि वह स्वयं अपने कर्मों से अपना अपना जीवन बनाती या अपना विनाश करती हैं।
إِنَّ شَرَّ الدَّوَابِّ عِندَ اللَّهِ الَّذِينَ كَفَرُوا فَهُمْ لَا يُؤْمِنُونَ ﴾ 55 ﴿
इन्-न शर्रद्दवाब्बि अिन्दल्लाहिल्लज़ी-न क-फरू फहुम् ला युअ्मिनून
वास्तव में, सबसे बुरे जीव अल्लाह के पास वो हैं, जो काफ़िर हो गये और ईमान नहीं लाये। ये वे[1] लोग हैं, जिनसे आपने संधि की, फिर वे प्रत्येक अवसर पर अपना वचन भंग कर देते हैं और (अल्लाह से) नहीं डरते।
الَّذِينَ عَاهَدتَّ مِنْهُمْ ثُمَّ يَنقُضُونَ عَهْدَهُمْ فِي كُلِّ مَرَّةٍ وَهُمْ لَا يَتَّقُونَ ﴾ 56 ﴿
अल्लज़ी-न आहत्-त मिन्हुम् सुम्-म यन्क़ुज़ू-न अह्-दहुम् फ़ी कुल्लि मर्रतिंव्-व हुम् ला यत्तक़ून
ये वे[1] लोग हैं, जिनसे आपने संधि की। फिर वे प्रत्येक अवसर पर अपना वचन भंग कर देते हैं और (अल्लाह से) नहीं डरते। 1. इस में मदीना के यहूदियों की ओर संकेत है। जिन से नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की संधि थी। फिर भी वे मुसलमानों के विरोध में गतिशील थे और बद्र के तुरन्त बाद ही क़ुरैश को बदले के लिये भड़काने लगे थे।
فَإِمَّا تَثْقَفَنَّهُمْ فِي الْحَرْبِ فَشَرِّدْ بِهِم مَّنْ خَلْفَهُمْ لَعَلَّهُمْ يَذَّكَّرُونَ ﴾ 57 ﴿
फ़-इम्मा तस्क़फ़न्नहुम् फ़िल्हर्बि फ-शर्रिद् बिहिम् मन् ख़ल्फ़हुम् लअल्लहुम यज़्ज़क्करून
तो यदि ऐसे (वचनभंगी) आपको रणक्षेत्र में मिल जायें, तो उन्हें शिक्षाप्रद दण्ड दें, ताकि जो उनके पीछे हैं, वे शिक्षा ग्रहण करें।
وَإِمَّا تَخَافَنَّ مِن قَوْمٍ خِيَانَةً فَانبِذْ إِلَيْهِمْ عَلَىٰ سَوَاءٍ ۚ إِنَّ اللَّهَ لَا يُحِبُّ الْخَائِنِينَ ﴾ 58 ﴿
व इम्मा तख़ाफ़न्-न मिन् क़ौमिन् ख़िया नतन् फ़म्बिज़् इलैहिम् अ़ला सवाइन्, इन्नल्ला-ह ला युहिब्बुल्-ख़ाइनीन*
और यदि आपको किसी जाति से विश्वासघात (संधि भंग करने) का भय हो, तो बराबरी के आधार पर संधि तोड़[1] दें। क्योंकि अल्लाह विश्वासघातियों से प्रेम नहीं करता। 1. अर्थात उन्हें पहले सूचित कर दो कि अब हमारे तुम्हारे बीच संधि नहीं है।
وَلَا يَحْسَبَنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا سَبَقُوا ۚ إِنَّهُمْ لَا يُعْجِزُونَ ﴾ 59 ﴿
व ला यह्स-बन्नल्लज़ी-न क-फ़रू स-बक़ू, इन्नहुम् ला युअ्जिज़ून
जो काफ़िर हो गये, वे कदापि ये न समझें कि हमसे आगे हो जायेंगे। निश्चय वे (हमें) विवश नहीं कर सकेंगे।
وَأَعِدُّوا لَهُم مَّا اسْتَطَعْتُم مِّن قُوَّةٍ وَمِن رِّبَاطِ الْخَيْلِ تُرْهِبُونَ بِهِ عَدُوَّ اللَّهِ وَعَدُوَّكُمْ وَآخَرِينَ مِن دُونِهِمْ لَا تَعْلَمُونَهُمُ اللَّهُ يَعْلَمُهُمْ ۚ وَمَا تُنفِقُوا مِن شَيْءٍ فِي سَبِيلِ اللَّهِ يُوَفَّ إِلَيْكُمْ وَأَنتُمْ لَا تُظْلَمُونَ ﴾ 60 ﴿
व अअिद्दू लहुम् मस्त-तअ्तुम् मिन् क़ुव्वतिंव्-व मिर्रिबातिल्ख़ैलि तुर्हिबू-न बिही अ़दुव्वल्लाहि व अ़दुव्वकुम् व आख़री-न मिन् दूनिहिम्, ला तअ्लमूनहुम्, अल्लाहु यअ्लमुहम्, व मा तुन्फिक़ू मिन् शैइन् फी सबीलिल्लाहि युवफ्-फ इलैकुम् व अन्तुम् ला तुज़्लमून
तथा तुमसे जितनी हो सके, उनके लिए शक्ति तथा सीमा रक्षा के लिए घोड़े तैयार रखो, जिससे अल्लाह के शत्रुओं तथा अपने शत्रुओं को और इनके सिवा दूसरों को डराओ[1], जिन्हें तुम नहीं जानते, उन्हें अल्लाह ही जानता है और अल्लाह की राह में तुम जो भी व्यय (खर्च) करोगे, तुम्हें पूरा मिलेगा और तुमपर अत्याचार नहीं किया जायेगा। 1. ताकि वह तुम पर आक्रमण करने का साहस न करें, और आक्रमण करें तो अपनी रक्षा करो।
وَإِن جَنَحُوا لِلسَّلْمِ فَاجْنَحْ لَهَا وَتَوَكَّلْ عَلَى اللَّهِ ۚ إِنَّهُ هُوَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ ﴾ 61 ﴿
व इन् ज-नहू लिस्सल्मि फ़ज् नह् लहा व तवक्कल् अ़लल्लाहि, इन्नहू हुवस्समीअुल अ़लीम
और यदि वे (शत्रु) संधि की ओर झुकें, तो आपभी उसके लिए झुक जायें और अल्लाह पर भरोसा करें। निश्चय वह सब कुछ सुनने-जानने वाला है।
وَإِن يُرِيدُوا أَن يَخْدَعُوكَ فَإِنَّ حَسْبَكَ اللَّهُ ۚ هُوَ الَّذِي أَيَّدَكَ بِنَصْرِهِ وَبِالْمُؤْمِنِينَ ﴾ 62 ﴿
व इंय्युरीदू अंय्यख़्दअू-क फ़-इन्-न हस्ब-कल्लाहु, हुवल्लज़ी अय्य-द-क बिनस् रिही व बिल्मुअ्मिनीन
और यदि वे (संधि करके) आपको धोखा देना चाहेंगे, तो अल्लाह आपके लिए काफ़ी है। वही है, जिसने अपनी सहायता तथा ईमान वालों के द्वारा आपको समर्थन दिया है।
وَأَلَّفَ بَيْنَ قُلُوبِهِمْ ۚ لَوْ أَنفَقْتَ مَا فِي الْأَرْضِ جَمِيعًا مَّا أَلَّفْتَ بَيْنَ قُلُوبِهِمْ وَلَٰكِنَّ اللَّهَ أَلَّفَ بَيْنَهُمْ ۚ إِنَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ﴾ 63 ﴿
व अल्ल-फ़ बै-न क़ुलूबिहिम्, लौ अन्फक़्-त मा फिल्अर्ज़ि जमीअम्मा अल्लफ्-त बै-न क़ुलूबिहिम् व लाकिन्नल्ला-ह अल्ल-फ़ बैनहुम्, इन्नहू अज़ीज़ुन् हकीम
और उनके दिलों को जाड़ दिया और यदि आप धरती में जोकुछ है, सब व्यय (खर्च) कर देते, तो भी उनके दिलों को नहीं जोड़ सकते थे। वास्तव में, अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ (निपुन) है।
يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ حَسْبُكَ اللَّهُ وَمَنِ اتَّبَعَكَ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ ﴾ 64 ﴿
या अय्युहन्नबिय्यु हस्बुकल्लाहु व मनित्त-ब-अ-क मिनल् मुअ्मिनीन *
हे नबी! आपके लिए तथा आपके ईमान वाले साथियों के लिए अल्लाह काफ़ी है।
يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ حَرِّضِ الْمُؤْمِنِينَ عَلَى الْقِتَالِ ۚ إِن يَكُن مِّنكُمْ عِشْرُونَ صَابِرُونَ يَغْلِبُوا مِائَتَيْنِ ۚ وَإِن يَكُن مِّنكُم مِّائَةٌ يَغْلِبُوا أَلْفًا مِّنَ الَّذِينَ كَفَرُوا بِأَنَّهُمْ قَوْمٌ لَّا يَفْقَهُونَ ﴾ 65 ﴿
या अय्युहन्नबिय्यु हर्रिज़िल्-मुअ्मिनी-न अलल्- क़ितालि, इंय्यकुम्-मिन्कुम् अिश्रू-न साबिरू-न यग़्लिबू मि-अतैनि, व इंय्यकुम्-मिन्कुम् मि-अतुंय्यग़्लिबू अल्फम्-मिनल्लज़ी-न क-फरू बिअन्नहुम् क़ौमुल्-ला यफ़्क़हून
हे नबी! ईमान वालों को युध्द की प्रेरणा दो[1]। यदि तुममें से बीस धैर्यवान होंगे, तो दो सौ पर विजयी प्राप्त कर लेंगे और यदि तुमसे सौ होंगे, तो उनकाफ़िरों के एक हज़ार पर विजयी प्राप्त कर लेंगे। इसलिए कि वे समझ-बूझ नहीं रखते। 1. इस लिये कि काफ़िर मैदान में आ गये हैं और आप से युध्द करना चाहते हैं। ऐसी दशा में जिहाद अनिवार्य हो जाता है, ताकि शत्रु के आक्रमण से बचा जाये।
الْآنَ خَفَّفَ اللَّهُ عَنكُمْ وَعَلِمَ أَنَّ فِيكُمْ ضَعْفًا ۚ فَإِن يَكُن مِّنكُم مِّائَةٌ صَابِرَةٌ يَغْلِبُوا مِائَتَيْنِ ۚ وَإِن يَكُن مِّنكُمْ أَلْفٌ يَغْلِبُوا أَلْفَيْنِ بِإِذْنِ اللَّهِ ۗ وَاللَّهُ مَعَ الصَّابِرِينَ ﴾ 66 ﴿
अल्आ-न ख़फ़्फ़-फ़ल्लाहु अन्कुम् व अलि म अन्-न फ़ीकुम् ज़अफ़न्, फ़-इंय्यकुम्-मिन्कुम् मि-अतुन् साबि -रतुंय्यग़्लिबू मि अतैनि, व इंय्यकुम्-मिन्कुम् अल्फुंय्-यग़्लिबू अल्फैनि बि-इज़्निल्लाहि, वल्लाहु मअस्- साबिरीन
अब अल्लाह ने तुम्हारा बोझ हल्का कर दिया और जान लिया कि तुममें कुछ निर्बलता है, तो यदि तुममें से सौ सहनशील हों, तो दो सौ पर विजय प्राप्त कर लेंगे और यदि तुममें से एक हज़ार हों, तो अल्लाह की अनुमति से दो हजार पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेंगे और अल्लाह सहनशीलों के साथ है[1]। 1. अर्थात उन का सहायक है जो दुःख तथा सुख प्रत्येक दशा में उस के नियमों का पालन करते हैं।
مَا كَانَ لِنَبِيٍّ أَن يَكُونَ لَهُ أَسْرَىٰ حَتَّىٰ يُثْخِنَ فِي الْأَرْضِ ۚ تُرِيدُونَ عَرَضَ الدُّنْيَا وَاللَّهُ يُرِيدُ الْآخِرَةَ ۗ وَاللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ﴾ 67 ﴿
मा का-न लि-नबिय्यिन् अंय्यकू-न लहू अस्रा हत्ता युस्ख़ि-न फ़िल्अर्ज़ि, तुरीदून अ-रज़द्दुन्या, वल्लाहु युरीदुल् आख़ि-र त, वल्लाहु अज़ीज़ुन् हकीम
किसी नबी के लिए ये उचित न था कि उसके पास बंदी हों, जब तक कि धरती (रणक्षेत्र) में अच्छी तरह़ रक्तपात न कर दे। तुम सांसारिक लाभ चाहते हो और अल्लाह (तुम्हारे लिए) आख़िरत (परलोक) चाहता है और अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ है।
لَّوْلَا كِتَابٌ مِّنَ اللَّهِ سَبَقَ لَمَسَّكُمْ فِيمَا أَخَذْتُمْ عَذَابٌ عَظِيمٌ ﴾ 68 ﴿
लौ ला किताबुम्-मिनल्लाहि स-ब-क़ लमस्सकुम् फ़ीमा अख़ज़्तुम् अ़ज़ाबुन् अ़ज़ीम
यदि इसके बारे में, पहले से अल्लाह का लेख (निर्णय) न होता, तो जो (अर्थ दण्ड) तुमने लिया[1] है, उसके लेने में तुम्हें बड़ी यातना दी जाती। 1. यह आयत बद्र के बंदियों के बारे में उतरी। जब अल्लाह के किसी आदेश के बिना आपस के प्रामर्श से उन से अर्थ दण्ड ले लिया गया। (इब्ने कसीर)
فَكُلُوا مِمَّا غَنِمْتُمْ حَلَالًا طَيِّبًا ۚ وَاتَّقُوا اللَّهَ ۚ إِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 69 ﴿
फ़कुलू मिम्मा ग़निम्तुम् हलालन् तय्यिबंव्-वत्तक़ुल्ला-ह, इन्नल्ला-ह ग़फूरुर्रहीम *
तो उस ग़नीमत में से[1] खाओ, वह ह़लाल (उचित) स्वच्छ है तथा अल्लाह के आज्ञाकारी रहो। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमा करने वाला, दयावान है। 1. आप (सल्लल्लाहु अलैही व सल्लम) ने कहाः मेरी एक विशेषता यह भी है कि मेरे लिये ग़नीमत उचित कर दी गई, जो मुझ से पहले किसी नबी के लिये उचित नहीं थी। (बुख़ारीः335, मुस्लिमः521)
يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ قُل لِّمَن فِي أَيْدِيكُم مِّنَ الْأَسْرَىٰ إِن يَعْلَمِ اللَّهُ فِي قُلُوبِكُمْ خَيْرًا يُؤْتِكُمْ خَيْرًا مِّمَّا أُخِذَ مِنكُمْ وَيَغْفِرْ لَكُمْ ۗ وَاللَّهُ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 70 ﴿
या अय्युहन्नबिय्यु क़ुल् लिमन् फ़ी ऐदीकुम् मिनल्-अस्रा, इंय्यअ्-लमिल्लाहु फ़ी क़ुलूबिकुम् खैरंय्युअ्तिकुम् ख़ैरम् मिम्मा उख़ि-ज़ मिन्कुम् व यग़्फिर लकुम, वल्लाहु ग़फूरुर्रहीम
हे नबी! जो तुम्हारे हाथों में बंदी हैं, उनसे कह दो कि यदि अल्लाह ने तुम्हारे दिलों में कोई भलाई देखी, तो तुम्हें उससे उत्तम चीज़ (ईमान) प्रदान करेगा, जो (अर्थ दण्ड) तुमसे लिया गया है और तुम्हें क्षमा कर देगा और अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान है।
وَإِن يُرِيدُوا خِيَانَتَكَ فَقَدْ خَانُوا اللَّهَ مِن قَبْلُ فَأَمْكَنَ مِنْهُمْ ۗ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ﴾ 71 ﴿
व इंय्युरीदू ख़ियान-त क फ़-क़द् ख़ानुल्ला-ह मिन् क़ब्लु फ़-अम्क-न मिन्हुम्, वल्लाहु अ़लीमुन् हकीम
और यदि वे आपके साथ विश्वासघात करना चाहेंगे, तो इससे पूर्व वे अल्लाह के साथ विश्वासघात कर चुके हैं। इसलिए अल्लाह ने उन्हें (आपके) वश में किया है तथा अल्लाह अति ज्ञानी, उपायजानने वाला है।
إِنَّ الَّذِينَ آمَنُوا وَهَاجَرُوا وَجَاهَدُوا بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنفُسِهِمْ فِي سَبِيلِ اللَّهِ وَالَّذِينَ آوَوا وَّنَصَرُوا أُولَٰئِكَ بَعْضُهُمْ أَوْلِيَاءُ بَعْضٍ ۚ وَالَّذِينَ آمَنُوا وَلَمْ يُهَاجِرُوا مَا لَكُم مِّن وَلَايَتِهِم مِّن شَيْءٍ حَتَّىٰ يُهَاجِرُوا ۚ وَإِنِ اسْتَنصَرُوكُمْ فِي الدِّينِ فَعَلَيْكُمُ النَّصْرُ إِلَّا عَلَىٰ قَوْمٍ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَهُم مِّيثَاقٌ ۗ وَاللَّهُ بِمَا تَعْمَلُونَ بَصِيرٌ ﴾ 72 ﴿
इन्नल्लज़ी-न आमनू व हाजरू व जाहदू बिअम्वालिहिम् व अन्फुसिहिम् फ़ी सबीलिल्लाहि वल्लज़ी-न आवव्-व न-सरू उलाइ-क बअ्ज़ुहुम् औलिया-उ बअ्ज़िन्, वल्लज़ी-न आमनू व लम् युहाजिरू मा लकुम् मिंव्वला यतिहिम् मिन् शैइन् हत्ता युहाजिरू, व इनिस्तन्सरूकुम फ़िद्दीनी फ़-अलैकुमुन्नस्रू इल्ला अला कौमिम् बैनकुम् व बैनहुम् मीसाक़ुन्, वल्लाहु बिमा तअ्मलू-न बसीर
निःसंदेह, जो ईमान लाये तथा हिजरत (परस्थान) कर गये और अल्लाह की राह में अपने धनों और प्राणों से जिहाद किये तथा जिन लोगों ने उन्हें शरण दिया तथा सहायता की, वही एक-दूसरे के सहायक हैं और जो ईमान नहीं लाये और न हिजरत (परस्थान) की, उनसे तुम्हारी सहायता का कोई संबंध नहीं, यहाँ तक कि हिजरत करके आ जायें और यदि वे धर्म के बारें में तुमसे सहायता मांगें, तो तुमपर उनकी सहायता करना आवश्यक है। परन्तु किसी ऐसी जाति के विरुध्द नहीं, जिनके और तुम्हारे बीच संधि हो तथा तुम जो कुछ कर रहे हो, उसे अल्लाह देख रहा है।
وَالَّذِينَ كَفَرُوا بَعْضُهُمْ أَوْلِيَاءُ بَعْضٍ ۚ إِلَّا تَفْعَلُوهُ تَكُن فِتْنَةٌ فِي الْأَرْضِ وَفَسَادٌ كَبِيرٌ ﴾ 73 ﴿
वल्लज़ी-न क-फरू बअ्ज़ुहुम् औलिया-उ बअ्ज़िन्, इल्ला तफ्अ़लूहु तकुन् फ़ित् नतुन् फ़िलअर्ज़ि व फ़सादुन् कबीर
और कीफ़िर एक-दूसरे के समर्थक हैं और यदि तुम ऐसा न करोगे, तो धरती में उपद्रव तथा बड़ा बिगाड़ उत्पन्न हो जायेगा।
وَالَّذِينَ آمَنُوا وَهَاجَرُوا وَجَاهَدُوا فِي سَبِيلِ اللَّهِ وَالَّذِينَ آوَوا وَّنَصَرُوا أُولَٰئِكَ هُمُ الْمُؤْمِنُونَ حَقًّا ۚ لَّهُم مَّغْفِرَةٌ وَرِزْقٌ كَرِيمٌ ﴾ 74 ﴿
वल्लज़ी-न आमनू व हाजरू व जाह़्दू फ़ी सबीलिल्लाहि वल्लज़ी-न आवव्-व न-सरू उलाइ-क हुमुल्-मुअ्मिनू-न हक़्क़न, लहुम् मग़्फि रतुंव् व रिज़्कुन् करीम
तथ जो ईमान लाये, हिजरत कर गये, अल्लाह की राह में संघर्ष किया और जिन लोगों ने (उन्हें) शरण दी और (उनकी) सहायता की, वही सच्चे ईमान वाले हैं। उन्हीं के लिए क्षमा तथा उन्हीं के लिए उत्तम जीविका है।
وَالَّذِينَ آمَنُوا مِن بَعْدُ وَهَاجَرُوا وَجَاهَدُوا مَعَكُمْ فَأُولَٰئِكَ مِنكُمْ ۚ وَأُولُو الْأَرْحَامِ بَعْضُهُمْ أَوْلَىٰ بِبَعْضٍ فِي كِتَابِ اللَّهِ ۗ إِنَّ اللَّهَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ ﴾ 75 ﴿
वल्लज़ी-न आमनू मिम्-बअदु व हाजरू व जाहदू म-अकुम् फ़-उलाई-क मिन्कुम्, व उलुल्-अरहामि बअ्ज़ुहुम, औला बिबअ्ज़िन् फी किताबिल्लाहि, इन्नल्ला-ह बिकुल्लि शैइन् अलीम *
तथा जो लोग इनके पश्चात् ईमान लाये और हिजरत कर गये और तुम्हारे साथ मिलकर संघर्ष किया, वही तुम्हारे अपने हैं और वही परिवारिक समीपवर्ती अल्लाह के लेख (आदेश) में अधिक समीप[1] हैं। वास्तव में, अललाह प्रत्येक चीज़ का अति ज्ञानी है। 1. अर्थात मीरास में उन को प्राथमिक्ता प्राप्त है।