﴾ 1 ﴿ (नबी ने) त्योरी चढ़ाई तथा मुँह फेर लिया।
﴾ 2 ﴿ इस कारण कि उसके पास एक अँधा आया।
﴾ 3 ﴿ और तुम क्या जानो शायद वह पवित्रता प्राप्त करे।
﴾ 4 ﴿ या नसीह़त ग्रहण करे, जो उसे लाभ देती।
﴾ 5 ﴿ परन्तु, जो विमुख (निश्चिन्त) है।
﴾ 6 ﴿ तुम उनकी ओर ध्यान दे रहे हो।
﴾ 7 ﴿ जबकि तुमपर कोई दोष नहीं, यदि वह पवित्रता ग्रहण न करे।
﴾ 8 ﴿ तथा जो तुम्हारे पास दौड़ता आया।
﴾ 9 ﴿ और वह डर भी रहा है।
﴾ 10 ﴿ तुम उसकी ओर ध्यान नहीं देते।[1]
1. (1-10) भावार्थ यह है कि सत्य के प्रचारक का यह कर्तव्य है कि जो सत्य की खोज में हो भले ही वह दरिद्र हो उसी के सुधार पर ध्यान दे। और जो अभिमान के कारण सत्य की परवाह नहीं करते उन के पीछे समय न गवायें। आप का यह दायित्व भी नहीं है कि उन्हें अपनी बात मनवा दें।
﴾ 11 ﴿ कदापि ये न करो, ये (अर्थात क़ुर्आन) एक स्मृति (याद दहानी) है।
﴾ 12 ﴿ अतः, जो चाहे स्मरण (याद) करे।
﴾ 13 ﴿ माननीय शास्त्रों में है।
﴾ 14 ﴿ जो ऊँचे तथा पवित्र हैं।
﴾ 15 ﴿ ऐसे लेखकों (फ़रिश्तों) के हाथों में है।
﴾ 16 ﴿ जो सम्मानित और आदरणीय हैं।[1]
1. (11-16) इन में क़ुर्आन की महानता को बताया गया है कि यह एक स्मृति (याद दहानी) है। किसी पर थोपने के लिये नहीं आया है। बल्कि वह तो फ़रिश्तों के हाथों में स्वर्ग में एक पवित्र शास्त्र के अन्दर सूरक्षित है। और वहीं से वह (क़ुर्आन) इस संसार में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर उतारा जा रहा है।
﴾ 17 ﴿ इन्सान मारा जाये, वह कितना कृतघ्न (नाशुक्रा) है।
﴾ 18 ﴿ उसे किस वस्तु से (अल्लाह) ने पैदा किया?
﴾ 19 ﴿ उसे वीर्य से पैदा किया, फिर उसका भाग्य बनाया।
﴾ 20 ﴿ फिर उसके लिए मार्ग सरल किया।
﴾ 21 ﴿ फिर मौत दी, फिर समाधि में डाल दिया।
﴾ 22 ﴿ फिर जब चाहेगा, उसे जीवित कर लेगा।
﴾ 23 ﴿ वस्तुतः, उसने उसकी आज्ञा का पालन नहीं किया।[1]
1. (17-23) तक विश्वासहीनों पर धिक्कार है कि यदि वह अपने अस्तित्व पर विचार करें कि हम ने कितनी तुच्छ वीर्य की बूँद से उस की रचना की तथा अपनी दया से उसे चेतना और समझ दी। परन्तु इन सब उपकारों को भूल कर कृतघ्न बना हुआ है, और पूजा उपासना अन्य की करता है।
﴾ 24 ﴿ इन्सान अपने भोजन की ओर ध्यान दे।
﴾ 25 ﴿ हमने मूसलाधार वर्षा की।
﴾ 26 ﴿ फिर धरती को चीरा फाड़ा।
﴾ 27 ﴿ फिर उससे अन्न उगाया।
﴾ 28 ﴿ तथा अंगूर और तरकारियाँ।
﴾ 29 ﴿ तथा ज़ैतून एवं खजूर।
﴾ 30 ﴿ तथा घने बाग़।
﴾ 31 ﴿ एवं फल तथा वनस्पतियाँ।
﴾ 32 ﴿ तुम्हारे तथा तुम्हारे पशुओं के लिए।[1]
1. (24-32) इन आयतों में इन्सान के जीवन साधनों को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो अल्लाह की अपार दया की परिचायक हैं। अतः जब सारी व्यवस्था वही करता है तो फिर उस के इन उपकारों पर इन्सान के लिये उचित था कि उसी की बात माने और उसी के आदेशों का पालन करे जो क़ुर्आन के माध्यम से अन्तिम नबी मूह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्म) द्वारा परस्तुत किया जा रहा है। (दावतुल क़ुर्आन)
﴾ 33 ﴿ तो जब कान फाड़ देने वाली (प्रलय) आ जायेगी।
﴾ 34 ﴿ उस दिन इन्सान अपने भाई से भागेगा।
﴾ 35 ﴿ तथा अपने माता और पिता से।
﴾ 36 ﴿ एवं अपनी पत्नी तथा अपने पुत्रों से।
﴾ 37 ﴿ प्रत्येक व्यक्ति को उस दिन अपनी पड़ी होगी।
﴾ 38 ﴿ उस दिन बहुत से चेहरे उज्ज्वल होंगे।
﴾ 39 ﴿ हंसते एवं प्रसन्न होंगे।
﴾ 40 ﴿ तथा बहुत-से चेहरों पर धूल पड़ी होगी।
﴾ 41 ﴿ उनपर कालिमा छाई होगी।
﴾ 42 ﴿ वही काफ़िर और कुकर्मी लोग हैं।[1]
1. (33-42) इन आयतों का भावार्थ यह है कि संसार में किसी पर कोई आपदा आती है तो उस के अपने लोग उस की सहायता और रक्षा करते हैं। परन्तु प्रलय के दिन सब को अपनी अपनी पड़ी होगी और उस के कर्म ही उस की रक्षा करेंगे।