﴾ 1 ﴿ अलिफ़, लाम, मीम।
﴾ 2 ﴿ क्या लोगों ने समझ रखा है कि वे छोड़ दिये जायेंगे कि वे कहते हैं: हम ईमान लाये! और उनकी परीक्षा नहीं ली जायेगी?
﴾ 3 ﴿ और हमने परीक्षा ली है उनसे पूर्व के लोगों की, तो अल्लाह अवश्य जानेगा[1] उन्हें, जो सच्चे हैं तथा अवश्य जानेगा झूठों को।
1. अर्थात आपदाओं द्वारा परीक्षा ले कर जैसा कि उस का नियम है उन में विवेक कर देगा। (इब्ने कसीर)
﴾ 4 ﴿ क्या समझ रखा है उन लोगों ने, जो कुकर्म कर रहे हैं कि हम से अग्रसर[1] हो जायेंगे? क्या ही बुरा निर्णय कर रहे हैं!
1. अर्थात हमें विवश कर देंगे और हमारे नियंत्रण में नहीं आयेंगे।
﴾ 5 ﴿ जो आशा रखता हो अल्लाह से मिलने[1] की, तो अल्लाह की ओर से निर्धारित किया हुआ समय[2] अवश्य आने वाला है। और वह सब कुछ सुनने जानने[3] वाला है।
1. अर्थात प्रलय के दिन। 2. अर्थात प्रलय के दिन। 3. अर्थात प्रत्येक के कथन और कर्म को उस का प्रतिकार देने के लिये।
﴾ 6 ﴿ और जो प्रयास करता है, तो वह प्रयास करता है अपने ही भले के लिए, निश्चय अल्लाह निस्पृह है संसार वासियों से।
﴾ 7 ﴿ तथा जो लोग ईमान लाये और सदाचार किये, हम अवश्य दूर कर देंगे उनसे उनकी बुराईयाँ तथा उन्हें प्रतिफल देंगे उनके उत्तम कर्मों का।
﴾ 8 ﴿ और हमने निर्देश दिया मनुष्य को अपने माता-पिता के साथ उपकार करने[1] का और यदि दोनों दबाव डालें तुमपर कि तुम साझी बनाओ मेरे साथ उस चीज़ को, जिसका तुमको ज्ञान नहीं, तो उन दोनों की बात न मानो।[2] मेरी ओर ही तुम्हें फिरकर आना है, फिर मैं तुम्हें सूचित कर दूँगा उस कर्म से, जो तुम करते रहे हो।
1. ह़दीस में है कि जब साद बिन अबी वक़्क़ास इस्लाम लाये तो उन की माँ ने दबाल डाला और शपथ ली कि जब तक इस्लाम न छोड़ दें वह न उन से बात करेगी और न खायेगी न पियेगी, इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ मुस्लिमः 1748) 2.इस्लाम का यह नियम है जैसा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का कथन है कि “किसी के आदेश का पालन अल्लाह की अवैज्ञा में नहीं है।” (मुस्नद अह़्मादः 1/66, सिलसिला सह़ीह़ा-अल्बानीः 179)
﴾ 9 ﴿ और जो ईमान लाये तथा सदाचार किये, हम उन्हें अवश्य सम्मिलित कर देंगे सदाचारियों में।
﴾ 10 ﴿ और लोगों में वे (भी) हैं, जो कहते हैं कि हम ईमान लाये अल्लाह पर। फिर जब सताये गये अल्लाह के बारे में, तो समझ लिया लोगों की परीक्षा को अल्लाह की यातना के समान। और यदि आ जाये कोई सहायता आपके पालनहार की ओर से, तो अवश्य कहेंगे कि हम तुम्हारे साथ थे। तो क्या अल्लाह भली-भाँति अवगत नहीं है उससे, जो संसार वासियों के दिलों में हैं?
﴾ 11 ﴿ और अल्लाह अवश्य जान लेगा उन्हें जो ईमान लाये हैं तथा अवश्य जान लेगा द्विधावादियों[1] को।
1. अर्थात जो लोगों के भय के कारण दिल से ईमान नहीं लाते।
﴾ 12 ﴿ और कहा काफ़िरों ने उनसे जो ईमान लाये हैं: अनुसरण करो हमारे पथ का और हम भार ले लेंगे तुम्हारे पापों का, जबकि वे भार लेने वाले नहीं हैं उनके पापों का कुछ भी, वास्तव में, वे झूठे हैं।
﴾ 13 ﴿ और वे अवश्य प्रभारी होंगे अपने बोझों के और कुछ[1] (अन्य) बोझों के अपने बोझों के साथ और उनसे अवश्य प्रश्न किया जायेगा, प्रलय के दिन, उस झूठ के बारे में, जो वे घड़ते रहे।
1. अर्थात दूसरों को कुपथ करने के पापों का।
﴾ 14 ﴿ तथा हम[1] ने भेजा नूह़ को उसकी जाति की ओर, तो वह रहा उनमें हज़ार वर्ष किन्तु पचास[2] कर्ष, फिर उन्हें पकड़ लिया तूफ़ान ने तथा वे अत्याचारी थे।
1. यहाँ से कुछ नबियों की चर्चा की जा रही है जिन्हों ने धैर्य से काम लिया। 2. अर्थात नूह़ (अलैहिस्सलाम) (950) वर्ष तक अपनी जाति में धर्म का प्रचार करते रहे।
﴾ 15 ﴿ तो हमने बचा लिया उसे और नाव वालों को और बना दिया उसे एक निशानी (शिक्षा), विश्व वासियों के लिए।
﴾ 16 ﴿ तथा इब्राहीम को जब उसने अपनी जाति से कहाः इबादत (वंदना) करो अल्लाह की तथा उससे डरो, ये तुम्हारे लिए उत्तम है, यदि तुम जोनो।
﴾ 17 ﴿ तुम तो अल्लाह के सिवा बस उनकी वंदना कर रहे हो, जो मूर्तियाँ हैं तथा तुम झूठ घड़ रहे हो, वास्तव में, जिन्हें तुम पूज रहे हो अल्लाह के सिवा, वे नहीं अधिकार रखते हैं तुम्हारे लिए जीविका देने का। अतः, खोज करो अल्लाह के पास जीविका की तथा इबादत (वंदना) करो उसकी और कृतज्ञ बनो उसके, उसी की ओर तुम फेरे जाओगे।
﴾ 18 ﴿ और यदि तुम झुठलाओ, तो झुठलाया है बहुत-से समुदायों ने तुमसे पहले और नहीं है रसूल[1] का दायित्व, परन्तु खुला उपदेश पहुँचा देना।
1. अथवा अल्लाह का उपदेश मनवा देना रसूल का कर्तव्य नहीं है।
﴾ 19 ﴿ क्या उन्होंने नहीं दखा कि अल्लाह ही उत्पत्ति का आरंभ करता है, फिर उसे दुहरायेगा?[1] निश्चय ये अल्लाह पर अति सरल है।
1. इस आयत में आख़िरत के विषय का वर्णन किया जा रहा है।
﴾ 20 ﴿ (हे नबी!) कह दें कि चलो-फिरो धरती में, फिर देखो कि उसने कैसे उतपत्ति का आरंभ किया है? फिर अल्लाह दूसरी बार भी उत्पन्न[1] करेगा, वास्तव में, अल्लाह जो चाहे, कर सकता है।
1. अर्थात प्रलय के दिन कर्मों का प्रतिफल देने के लिये।
﴾ 21 ﴿ वह यातना देगा, जिसे चाहेगा तथा दया करेगा, जिसपर चाहेगा और उसी की ओर तुम फेरे जाओगे।
﴾ 22 ﴿ तुम उसे विवश करने वाले नहीं हो, न धरती में, न आकाश में तथा नहीं है तुमहारा उसके सिवा कोई संरक्षक और न सहायक।
﴾ 23 ﴿ तथा जिन लोगों ने इन्कार किया अल्लाह की आयतों और उससे मिलने का, वही निराश हो गये हैं मेरी दया से और उन्हीं के लिए दुःखदायी यातना है।
﴾ 24 ﴿ तो उस (इब्राहीम) की जाति का उत्तर बस यही था कि उन्होंने कहाः इसे वध कर दो या इसे जला दो, तो अल्लाह ने उसे बचा लिया अग्नि से। वास्तव में, इसमें बड़ी निशानियाँ हैं उनके लिए, जो ईमान रखते हैं।
﴾ 25 ﴿ और कहाः तुमने तो अल्लाह को छोड़कर मूर्तियों को प्रेम का साधन बना लिया है अपने बीच, सांसारिक जीवन में, फिर प्रलय के दिन तुम एक-दूसरे का इन्कार करोगे तथा धिक्करोगे एक-दूसरे को और तुम्हारा आवास नरक होगा और नहीं होगा तुम्हारा कोई सहायक।
﴾ 26 ﴿ तो मान लिया उसे (इब्राहीम को) लूत[1] ने और इब्राहीम ने कहाः मैं हिजरत कर रहा हूँ अपने पालनहार[2] की ओर। निश्य वही प्रबल तथा गुणी है।
1. लूत अलैहिस्सलाम इब्राहीम अलैहिस्सलाम के भतीजे थे। जो उन पर ईमान लाये। 2. अर्थात अल्लाह के आदेशानुसार शाम जा रहा हूँ।
﴾ 27 ﴿ और हमने प्रदान किया उसे इस्ह़ाक़ तथा याक़ूब तथा हमने रख दी उसकी संतान में नबूवत तथा पुस्तक और हमने प्रदान किया उसे उसका प्रतिफल संसार में और निश्य वह परलोक में सदाचारियों में होगा।
﴾ 28 ﴿ तथा लूत को (भेजा)। जब उसने अपनी जाति से कहाः तुम तो वह निर्लज्जा कर रहे हो, जो तुमसे पहले नहीं किया है किसी ने संसार वासियों में से।
﴾ 29 ﴿ क्या तुम पुरुषों के पास जाते हो और डकैती करते हो तथा अपनी सभाओं में निर्लज्जा के कार्य करते हो? तो नहीं था उसकी जाति का उत्तर इसके अतिरिक्त कि उन्होंने कहाः तू ले आ हमारे पास अल्लाह की यातना, यदि तू सचों में से है।
﴾ 30 ﴿ लूत ने कहाः मेरे पालनहार! मेरी सहायता कर, उपद्रवी जाति पर।
﴾ 31 ﴿ और जब आये हमारे भेजे हुए (फ़रिश्ते) इब्राहीम के पास शुभ सूचना लेकर, तो उन्होंने कहाः हम विनाश करने वाले हैं इस बस्ती के वासियों का। वस्तुतः, इसके वासी अत्याचारी हैं।
﴾ 32 ﴿ इब्राहीम ने कहाः उसमें तो लूत है। उन्होंने कहाः हम भली-भाँति जानने वाले हैं, जो उसमें है। हम अवश्य बचा लेंगे उसे और उसके परिवार को, उसकी पत्नि के सिवा, वह पीछे रह जाने वालों में थी।
﴾ 33 ﴿ और जब आ गये हमारे भेजे हुए लूत के पास, तो उसे बुरा लगा और वह उदासीन हो गया[1] उनके आने पर और उन्होंने कहाः भय न कर और न उदासीन हो, हम तुझे बचा लेने वाले हैं तथा तेरे परिवार को, परन्तु तेरी पत्नी को, वह पीछो रह जाने वालों में है।
1. क्योंकि लूत (अलैहिस्सलाम) को अपनी जाति की निर्लज्जा का ज्ञान था।
﴾ 34 ﴿ वास्तव में, हम उतारने वाले हैं इस बस्ती के वासियों पर आकाश से यातना, इस कारण कि वे उल्लंघन कर रहे हैं।
﴾ 35 ﴿ तथा हमने छोड़ दी है उसमें एक खुली निशानी उन लोगों के लिए, जो समझ-बूझ रखते हैं।
﴾ 36 ﴿ तथा मद्यन की ओर उनके भाई शुऐब को (भेजा), तो उसने कहाः हे मेरी जाति के लोगो! इबादत (वंदना) करो अल्लाह की तथा आश रखो प्रयल के दिन[1] की और मत फिरो धरती में उपद्रव करते हूए।
1. अर्थात संसारिक जीवन की को सब कुछ न समझो, परलोक के अच्छे परिणाम की भी आशा रखो और सदाचार करो।
﴾ 37 ﴿ किन्तु उन्होंने उन्हें झुठला दिया, तो पकड़ लिया उन्हें भूकम्प ने और वह अपने घरों में औंधे पड़े रह गये।
﴾ 38 ﴿ तथा आद और समूद का (विनाश किया) और उजागर हैं तुम्हारे लिए उनके घरों के कुछ अवशेष और शोभनीय बना दिया शैतान ने उनके कर्मों को और रोक दिया उन्हें सुपथ से, जबकि वह समझ-बूझ रखते थे।
﴾ 39 ﴿ और क़ारून, फ़िरऔन और हामान का और लाये उनके पास मूसा खुली निशानियाँ, तो उन्होंने अभिमान किया और वे हमसे आगे[1] होने वाले न थे।
1. अर्थात हमारी पकड़ से नहीं बच सकते थे।
﴾ 40 ﴿ तो प्रत्येक को हमने पकड़ लिया उसके पाप के कारण, तो इनमें से कुछ पर पत्थर बरसाये[1] और उनमें से कुछ को पकड़ा[2] कड़ी ध्वनि ने तथा कुछ को धंसा दिया धरती में[3] और कुछ को डुबो[4] दिया तथा नहीं था अल्लाह कि उनपर अत्याचार करता, परन्तु वे स्वयं अपने ऊपर अत्याचार कर रहे थे।
1. अर्थात लूत की जाति पर। 2. अर्थात सालेह़ और शुऐब (अलैहिमस्सलाम) की जाति को। 3. जैसे क़ारून को। 4. अर्थात नूह़ तथा मूसा (अलैहिमस्सलाम) की जातियों को।
﴾ 41 ﴿ उनका उदाहरण जिन्होंने बना लिए अल्लाह को छोड़कर संरक्षक, मकड़ी जैसा है, जिसने एक घर बनाया और वास्तव में, घरों में सबसे अधिक निर्बल घर[1] मकड़ी का है, यदि वे जानते।
1. जिस प्रकार मकड़ी का घर उस की रक्षा नहीं करता वैसे ही अल्लाह की यातना के समय इन जातियों के पूज्य उन की रक्षा नहीं कर सके।
﴾ 42 ﴿ वास्तव में, अल्लाह जानता है[1] कि वे जिसे पुकारते हैं, अल्लाह को छोड़कर वे कुछ नहीं हैं और वही प्रबल, गुणी (प्रवीण) है।
1. अर्थात इस विश्व की उत्पत्ति तथा व्यवस्था ही इस का प्रमाण है कि अल्लाह के सिवा कोई सत्य पूज्य नहीं है।
﴾ 43 ﴿ और ये उदाहरण हम लोगों के लिए दे रहे हैं और इसे नहीं समझेंगे, परन्तु ज्ञानी लोग (ही)।
﴾ 44 ﴿ उत्पत्ति की है अल्लाह ने आकाशों तथा धरती की सत्य के साथ। वास्तव में, इसमें एक बड़ी निशानी (लक्षण) है, ईमान लाने वालों के[1] लिए।
1. अर्थात इस विश्व की उत्पत्ति तथा व्यवस्था ही इस का प्रमाण है कि अल्लाह के सिवा कोई सत्य पूज्य नहीं है।
﴾ 45 ﴿ आप उस पुस्तक को पढ़ें, जो वह़्यी (प्रकाशना) की गयी है आपकी ओर तथा स्थापना करें नमाज़ की। वास्तव में, नमाज़ रोकती है निर्लज्जा तथा दुराचार से और अल्लाह का स्मरण ही सर्व महान है और अल्लाह जानता है, जो कुछ तुम करते[1] हो।
1. अर्थात जो भला-बुरा करते हो उस का प्रतिफल तुम्हें देगा।
﴾ 46 ﴿ और तुम वाद-विवाद न करो अह्ले किताब[1] से, परन्तु ऐसी विधि से, जो सर्वोत्तम हो, उनके सिवा, जिन्होंने अत्याचार किया है उनमें से तथा तुम कहो कि हम ईमान लाये उसपर, जो हमारी ओर उतारा गया और उतारा गया तुम्हारी ओर तथा हमारा पूज्य और तुम्हारा पूज्य एक ही[2] है और हम उसी के आज्ञाकारी हैं।[3]
1. अह्ले किताब से अभिप्रेत यहूदी तथा ईसाई हैं। 2. अर्थात उस का कोई साझी नहीं। 3. अतः तुम भी उस की आज्ञा के आधीन हो जाओ और सभी आकाशीय पुस्तकों को क़ुर्आन सहित स्वीकार करो।
﴾ 47 ﴿ और इसी प्रकार, हमने उतारी है आपकी ओर ये पुस्तक, तो जिन्हें हमने ये पुस्तक प्रदान की है, वे इस (क़ुर्आन) पर ईमान लाते[1] हैं और इनमें से (भी) कुछ[2] इस (क़ुर्आन) पर ईमान ला रहे हैं और हमारी आयतों को काफ़िर ही नहीं मानते हैं।
1. अर्थात मक्का वासियों में से। 2. अर्थात अह्ले किताब में से जो अपनी पुस्तकों के सत्य अनुयायी हैं।
﴾ 48 ﴿ और आप इससे पूर्व न कोई पुस्तक पढ़ सकते थे और न अपने हाथ से लिख सकते थे। यदि ऐसा होता, तो झूठे लोग संदेह[1] में पड़ सकते थे।
1. अर्थात यह संदेह करते कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने यह बातें आदि ग्रन्थों से सीख लीं या लिख ली हैं। आप तो निरक्षर थे लिखना पढ़ना जानते ही नहीं थे तो फिर आप के नबी होने और क़ुर्आन के अल्लाह की ओर से अवतरित किये जाने में क्या संदेह हो सकता है।
﴾ 49 ﴿ बल्कि ये खुली आयतें हैं, जो उनके दिलों में सुरक्षित हैं, जिन्हें ज्ञान दिया गया है तथा हमारी आयतों (क़ुर्आन) का इन्कार[1] अत्याचारी ही करते हैं।
1. अर्थात जो सत्य से अज्ञान हैं।
﴾ 50 ﴿ तथा (अत्याचारियों) ने कहाः क्यों नहीं उतारी गयीं आपपर निशानियाँ आपके पालनहार की ओर से? आप कह दें कि निशानियाँ तो अल्लाह के पास[1] हैं और मैं तो खुला सावधान करने वाला हूँ।
1. अर्थात उसे उतारना न उतारना मेरे अधिकार में नहीं, मैं तो अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ।
﴾ 51 ﴿ क्या उन्हें पर्याप्त नहीं कि हमने उतारी है आपपर ये पुस्तक (क़ुर्आन) जो पढ़ी जा रही है उनपर। वास्तव में, इसमें दया और शिक्षा है, उन लोगों के लिए जो ईमान लाते हैं।
﴾ 52 ﴿ आप कह दें: पर्याप्त है अल्लाह मेरे तथा तुम्हारे बीच साक्षी।[1] वह जानता है जो आकाशों तथा धरती में है और जिन लोगों ने मान लिया है असत्य को और अल्लाह से कुफ़्र किया है वही विनाश होने वाले हैं।
1. अर्थात मेरे नबी होने पर।
﴾ 53 ﴿ और वे[1] आपसे शीघ्र माँग कर रहे हैं यातना की और यदि एक निर्धारित समय न होता, तो आ जाती उनके पास यातना और अवश्य आयेगी उनके पास अचानक और उन्हें ज्ञान (भी) न होगा।
1. अर्रथात मक्का के काफ़िर।
﴾ 54 ﴿ वे शीघ्र माँग[1] कर रहै हैं आपसे यातना की और निश्चय नरक घेरने वाली है काफ़िरों[2] को।
1. अर्थात संसार ही में उपहास स्वरूप यातना की माँग कर रहे हैं। 2. अर्थात परलोक में।
﴾ 55 ﴿ जिस दिन छा जायेगी उनपर यातना, उनके ऊपर से तथा उनके पैरों के नीचे से और अल्लाह कहेगाः चखो, जो कुछ तुम कर रहे थे।
﴾ 56 ﴿ हे मेरे भक्तो जो ईमान लाये हो! वास्तव में, मेरी धरती विशाल है, अतः, तुम मेरी ही इबादत (वंदना)[1] करो।
1. अर्थात किसी धरती में अल्लाह की इबादत न कर सको तो वहाँ से निकल जाओ जैसा कि आरंभिक युग में मक्का के काफ़िरों ने अल्लाह की इबादत से रोक दिया तो मुसलमान ह़ब्शा और फिर मदीना चले गये।
﴾ 57 ﴿ प्रत्येक प्राणी मौत का स्वाद चखने वाला है, फिर तुम हमारी ही ओर फेरे[1] जाओगे।
1. अर्थात अपने कर्मों का फल भोगन के लिये।
﴾ 58 ﴿ तथा जो ईमान लाये और सदाचार किये, तो हम अवश्य उन्हें स्थान देंगे स्वर्ग के उच्च भवनों में, प्रवाहित होंगी जिनमें नहरें, वे सदावासी होंगे उनमें, तो क्या ही उत्तम है कर्म करने वालों का प्रतिफल!
﴾ 59 ﴿ जिन लोगों ने सहन किया तथा वे अपने पालनहार ही पर भरोसा करते हैं।
﴾ 60 ﴿ कितने ही जीव हैं, जो नहीं लादे फिरते[1] अपनी जीविका, अल्लाह ही उन्हें जीविका प्रदान करता है तथा तुम्हें! और वह सब कुछ सुनने-जनने वाला है।
1. ह़दीस में है कि यदि तुम अल्लाह पर पूरा भरोसा करो तो तुम्हें पक्षी के समान जीविका देगा जो सवेरे भूखा जाते हैं और शाम को अघा कर आते हैं। (तिर्मिज़ीः2344, यह ह़दीस ह़सन सह़ीह़ है।)
﴾ 61 ﴿ और यदि आप उनसे प्रश्न करें कि किसने उत्पत्ति की है आकाशों तथा धरती की और (किसने) वश में कर रखा है सूर्य तथा चाँद को? तो वे अवश्य कहेंगे कि अल्लाह ने। तो फिर वे कहाँ बहके जा रहे हैं?
﴾ 62 ﴿ अल्लाह ही फैलाता है जीविका को जिसके लिए चाहता है अपने भक्तों में से और नापकर देता है उसके लिए। वास्तव में, अल्लाह प्रत्येक वस्तु का अति ज्ञानी है।
﴾ 63 ﴿ और यदि आप उनसे प्रश्न करें कि किसने उतारा है आकाश से जल, फिर उसके द्वारा जीवित किया है धरती को, उसके मरण के पश्चात्? तो वे अवश्य कहेंगे कि अल्लाह ने। आप कह दें कि सब प्रशंसा अल्लाह के लिए है। किन्तु उनमें से अधिक्तर लोग समझते नहीं।[1]
अर्थात उन्हें जब यह स्वीकार है कि रचयिता अल्लाह है और जीवन के साधन की व्यवस्था भी वही करता है तो फिर इबादत (पूजा) भी उसी की करनी चाहिये और उसी की वंदना तथा उस के शुभगुणों में किसी को उस का साझी नहीं बनाना चाहिये। यह तो मूर्खता की बात है कि रचयिता तथा जीवन के साधनों की व्यवस्था तो अल्लाह करे और उस की वंदना में अन्य को साझी बनाया जाये।
﴾ 64 ﴿ और नहीं है ये सांसारिक[1] जीवन, किन्तु मनोरंजन और खेल और परलोक का घर ही वास्तविक जीवन है। क्या ही अच्छा होता, यदि वे जानते!
1. अर्थात जिस संसारिक जीवन का संबन्ध अल्लाह से न हो तो उस का सुख साम्यिक है। वास्तविक तथा स्थायी जीवन तो परलोक का है। अतः उस के लिये प्रयास करना चाहिये।
﴾ 65 ﴿ और जब वे नाव पर सवार होते हैं, तो अल्लाह के लिए धर्म को शुध्द करके उसे पुकारते हैं। फिर जब वह बचा लाता है उन्हें थल तक, तो फिर शिर्क करने लगते हैं।
﴾ 66 ﴿ ताकि वे कुफ़्र करें उसके साथ, जो हमने उन्हें प्रदान किया है और ताकि आनन्द लेते रहें, तो शीघ्र ही इन्हें ज्ञान हो जायेगा।
﴾ 67 ﴿ क्या उन्होंने नहीं देखा कि हमने बना दिया है ह़रम (मक्का) को शान्ति स्थल, जबकि उचक लिए जाते हैं लोग उनके आस-पास से? तो क्या वे असत्य ही को मानते हैं और अल्लाह के पुरस्कार को नहीं मानते?
﴾ 68 ﴿ तथा कौन अधिक अत्याचारी होगा उससे, जो अल्लाह पर झूठ घड़े या झूठ कहे सच को, जब उसके पास आ जाये, तो क्या नहीं होगा नरक में आवास काफ़िरों को?
﴾ 69 ﴿ तथा जिन्होंने हमारी राह में प्रयास किया, तो हम अवश्य दिखा[1] देंगे उन्हें अपनी राह और निश्चय अल्लाह सदाचारियों के साथ है।
1. अर्थात अपनी राह पर चलने की अधिक क्षमता प्रदान करेंगे।