بِسْمِ اللَّـهِ الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ
बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम
अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ ٱتَّقُوا۟ رَبَّكُمُ ٱلَّذِى خَلَقَكُم مِّن نَّفْسٍ وَٰحِدَةٍ وَخَلَقَ مِنْهَا زَوْجَهَا وَبَثَّ مِنْهُمَا رِجَالًا كَثِيرًا وَنِسَآءً وَٱتَّقُوا۟ ٱللَّهَ ٱلَّذِى تَسَآءَلُونَ بِهِۦ وَٱلْأَرْحَامَ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلَيْكُمْ رَقِيبًا ﴾ 1 ﴿
या अय्युहन्नासुत्तक़ू रब्बकुमुल्लज़ी ख़-ल-क़कुम् मिन् नफ्सिंव्वाहि-दतिंव व ख़-ल-क़ मिन्हा ज़ौजहा व बस्-स मिन्हुमा रिजालन् कसीरंव-व निसाअन्, वत्तक़ुल्लाहल्लज़ी तसाअलू-न बिही वल्अरहा-म, इन्नल्ला-ह का-न अलैकुम् रक़ीबा
हे मनुष्यों! अपने[1] उस पालनहार से डरो, जिसने तुम्हें एक जीव (आदम) से उत्पन्न किया तथा उसीसे उसकी पत्नी (हव्वा) को उत्पन्न किया और उन दोनों से बहुत-से नर-नारी फैला दिये। उस अल्लाह से डरो, जिसके द्वारा तुम एक-दूसरे से (अधिकार) मांगते हो तथा रक्त संबंधों को तोड़ने से डरो। निःसंदेह अल्लाह तुम्हारा निरीक्षक है। 1. यहाँ से सामाजिक व्यवस्था का नियम बताया गया है कि विश्व के सभी नर-नारी एक ही माता पिता से उत्पन्न किये गये हैं। इस लिये सब समान हैं। और सब के साथ अच्छा व्यवहार तथा भाई-चारे की भावना रखनी चाहिये। यह उस अल्लाह का आदेश है जो तुम्हारे मूल का उत्पत्तिकार है। और जिस के नाम से तुम एक दूसरे से अपना अधिकार माँगते हो कि अल्लाह के लिये मेरी सहायता करो। फिर इस साधारण संबंध के सिवा गर्भाशयिक अर्थात समीपवर्ती परिवारिक संबंध भी हैं, जिन्हें जोड़ने पर अधिक बल दिया गया है। एक ह़दीस में है कि संबंध-भंगी स्वर्ग में नहीं जायेगा। (सह़ीह़ बुख़ारीः5984, मुस्लिमः2555) इस आयत के पश्चात् कई आयतों में इन्हीं अल्लाह के निर्धारित किये मानव अधिकारों का वर्णन किया जा रहा है।
وَءَاتُوا۟ ٱلْيَتَٰمَىٰٓ أَمْوَٰلَهُمْ وَلَا تَتَبَدَّلُوا۟ ٱلْخَبِيثَ بِٱلطَّيِّبِ وَلَا تَأْكُلُوٓا۟ أَمْوَٰلَهُمْ إِلَىٰٓ أَمْوَٰلِكُمْ إِنَّهُۥ كَانَ حُوبًا كَبِيرًا ﴾ 2 ﴿
व आतुल्-यतामा अम्वालहुम् व ला त-तबद्दलुल्ख़बी-स बित्तय्यिबि, व ला तअ्कुलू अम्वालहुम् इला अम्वालिकुम्, इन्नहू का-न हूबन् कबीरा
तथा (हे संरक्षको!) अनाथों को उनके धन चुका दो और (उनकी) अच्छी चीज़ से (अपनी) बुरी चीज़ न बदलो और उनके धन, अपने धनों में मिलाकर न खाओ। निःसंदेह ये बहुत बड़ा पाप है।
وَإِنْ خِفْتُمْ أَلَّا تُقْسِطُوا۟ فِى ٱلْيَتَٰمَىٰ فَٱنكِحُوا۟ مَا طَابَ لَكُم مِّنَ ٱلنِّسَآءِ مَثْنَىٰ وَثُلَٰثَ وَرُبَٰعَ فَإِنْ خِفْتُمْ أَلَّا تَعْدِلُوا۟ فَوَٰحِدَةً أَوْ مَا مَلَكَتْ أَيْمَٰنُكُمْ ذَٰلِكَ أَدْنَىٰٓ أَلَّا تَعُولُوا۟ ﴾ 3 ﴿
व इन् खिफ्तुम् अल्ला तुक़्सितू फ़िल्यतामा फ़न्किहू मा ता-ब लकुम् मिनन्निसा-इ मसना व सुला-स व रूबा अ, फ़-इन् ख़िफ्तुम् अल्ला तअ्दिलू फ़वाहि-दतन् औ मा म-लकत् ऐमानुकुम्, ज़ालि-क अद्ना अल्ला तअूलू
और यदि तुम डरो कि अनाथ (बालिकाओं) के विषय[1] में न्याय नहीं कर सकोगे, तो नारियों में से जो भी तुम्हें भायें, दो से, तीन से, चार तक से विवाह कर लो और यदि डरो कि (उनके बीच) न्याय नहीं कर सकोगे, तो एक ही से करो अथवा जो तुम्हारे स्वामित्व[2] में हो, उसीपर बस करो। ये अधिक समीप है कि अन्याय न करो। 1. अरब में इस्लाम से पूर्व अनाथ बालिका का संरक्षक यदि उस के खजूर का बाग़ हो, तो उस पर अधिकार रखने के लिये उस से विवाह कर लेता था। जब उस में उसे कोई रूचि नहीं होती थी। इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारी, ह़दीस संख्याः4573) 2. अर्थात युध्द में बंदी बनाई गई दासी।
وَءَاتُوا۟ ٱلنِّسَآءَ صَدُقَٰتِهِنَّ نِحْلَةً فَإِن طِبْنَ لَكُمْ عَن شَىْءٍ مِّنْهُ نَفْسًا فَكُلُوهُ هَنِيٓـًٔا مَّرِيٓـًٔا ﴾ 4 ﴿
व आतुन्निसा-अ सदुक़ातिहिन्-न निह़्ल-तन्, फ़-इन् तिब्-न लकुम् अन् शैइम् मिन्हु नफ्सन् फ़कुलूहु हनीअम्-मरीआ
तथा स्त्रियों को उनके महर (विवाह उपहार) प्रसन्नता से चुका दो। फिर यदि वे उसमें से कुछ तुम्हें अपनी इच्छा से दे दें, तो प्रसन्न होकर खाओ।
وَلَا تُؤْتُوا۟ ٱلسُّفَهَآءَ أَمْوَٰلَكُمُ ٱلَّتِى جَعَلَ ٱللَّهُ لَكُمْ قِيَٰمًا وَٱرْزُقُوهُمْ فِيهَا وَٱكْسُوهُمْ وَقُولُوا۟ لَهُمْ قَوْلًا مَّعْرُوفًا ﴾ 5 ﴿
व ला तुअतुस्सु-फ़ हा-अ अम्वालकुमुल्लती ज-अलल्लाहु लकुम् क़ियामंव-वरज़ुक़ूहुम् फ़ीहा वक्सूहुम् व क़ूलू लहुम् कौलम् मअरूफ़ा
तथा अपने धन, जिसे अल्लाह ने तुम्हारे लिए जीवन स्थापन का साधन बनाया है, अज्ञानों को न[1] दो। हाँ, उसमें से उन्हें खाना-कपड़ा दो और उनसे भली बात बोलो। 1. अर्थात धन, जीवन स्थापन का साधन है। इस लिये जब तक अनाथ चतुर तथा व्यस्क न हो जायें और अपने लाभ की रक्षा न कर सकें उस समय तक उन का धन, उन के नियंत्रण में न दो।
وَٱبْتَلُوا۟ ٱلْيَتَٰمَىٰ حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغُوا۟ ٱلنِّكَاحَ فَإِنْ ءَانَسْتُم مِّنْهُمْ رُشْدًا فَٱدْفَعُوٓا۟ إِلَيْهِمْ أَمْوَٰلَهُمْ وَلَا تَأْكُلُوهَآ إِسْرَافًا وَبِدَارًا أَن يَكْبَرُوا۟ وَمَن كَانَ غَنِيًّا فَلْيَسْتَعْفِفْ وَمَن كَانَ فَقِيرًا فَلْيَأْكُلْ بِٱلْمَعْرُوفِ فَإِذَا دَفَعْتُمْ إِلَيْهِمْ أَمْوَٰلَهُمْ فَأَشْهِدُوا۟ عَلَيْهِمْ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ حَسِيبًا ﴾ 6 ﴿
वब्तलु ल्-यतामा हत्ता इज़ा ब-लगुन्निका-ह, फ़-इन् आनस्तुम् मिन्हुम् रूश्दन् फद्फ़अू इलैहिम् अम्वालहुम्, व ला तअ्कुलूहा इसराफंव्-व बिदारन् अंय्यक्बरू, व मन् का-न ग़निय्यन् फ़ल्यस्तअ्फिफ, व मन् का-न फ़क़ीरन् फ़ल्यअ्कुल बिल्मअ्-रूफि, फ़- इज़ा द-फ़अ्तुम इलैहिम् अम्वालहुम् फ़-अश्हिदू अलैहिम्, व कफ़ा बिल्लाहि हसीबा
तथा अनाथों की परीक्षा लेते रहो, यहाँ तक कि वे विवाह की आयु को पहुँच जायें, तो यदि तुम उनमें सुधार देखो, तो उनका धन उन्हें समर्पित कर दो और उसे अपव्यय तथा शीघ्रता से इसलिए न खाओ कि वे बड़े हो जायेंगे और जो धनी हो, तो वह बचे तथा जो निर्धन हो, वह नियमानुसार खा ले तथा जब तुम उनका धन उनके ह़वाले करो, तो उनपर साक्षी बना लो और अल्लाह ह़िसाब लेने के लिए काफ़ी है।
لِّلرِّجَالِ نَصِيبٌ مِّمَّا تَرَكَ ٱلْوَٰلِدَانِ وَٱلْأَقْرَبُونَ وَلِلنِّسَآءِ نَصِيبٌ مِّمَّا تَرَكَ ٱلْوَٰلِدَانِ وَٱلْأَقْرَبُونَ مِمَّا قَلَّ مِنْهُ أَوْ كَثُرَ نَصِيبًا مَّفْرُوضًا ﴾ 7 ﴿
लिर्रिजालि नसीबुम्-मिम्मा त-रकल्-वालिदानि वल-अक़रबू-न, व लिन्निसा-इ नसीबुम्-मिम्मा त रकल्-वालिदानि वल्-अक़्रबू-न मिम्मा क़ल्-ल मिन्हु औ कसु-र, नसीबम् मफ़्रूज़ा
और पुरुषों के लिए उसमें से भाग है, जो माता-पिता तथा समीपवर्तियों ने छोड़ा है तथा स्त्रियों के लिए उसमें से भाग है, जो माता-पिता तथा समीपवर्तियों ने छोड़ा हो, वह थोड़ा हो अथवा अधिक, सबके भाग[1] निर्धारित हैं। 1. इस्लाम से पहले साधारणतः यह विचार था कि पुत्रियों का धन और संपत्ति की विरासत (उत्तराधिकार) में कोई भाग नहीं। इस में इस कुरीति का निवारण किया गया और नियम बना दिय गया कि अधिकार में पुत्र और पुत्री दोनों समान हैं। यह इस्लाम ही की विशेषता है जो संसार के किसी धर्म अथवा विधान में नहीं पाई जाती। इस्लाम ही ने सर्वप्रथम नारी के साथ न्याय किया, और उसे पुरुषों के बराबर अधिकार दिया है।
وَإِذَا حَضَرَ ٱلْقِسْمَةَ أُو۟لُوا۟ ٱلْقُرْبَىٰ وَٱلْيَتَٰمَىٰ وَٱلْمَسَٰكِينُ فَٱرْزُقُوهُم مِّنْهُ وَقُولُوا۟ لَهُمْ قَوْلًا مَّعْرُوفًا ﴾ 8 ﴿
व इज़ा ह-ज़रल क़िस्म-त उलुल्क़ुरबा वल्-यतामा वल्मसाकीनु फर्ज़ुक़ूहुम् मिन्हु व क़ूलू लहुम क़ौलम् मअ्-रूफ़ा
और जब मीरास विभाजन के समय समीपवर्ती[1], अनाथ और निर्धन उपस्थित हों, तो उन्हें भी थोड़ा बहुत दे दो तथा उनसे भली बात बोलो। 1. इन से अभिप्राय वह समीपवर्ती हैं जिन का मीरास में निर्धारित भाग न हो। जैसे अनाथ पौत्र तथा पौत्री आदि। (सह़ीह़ बुख़ारीः4576)
وَلْيَخْشَ ٱلَّذِينَ لَوْ تَرَكُوا۟ مِنْ خَلْفِهِمْ ذُرِّيَّةً ضِعَٰفًا خَافُوا۟ عَلَيْهِمْ فَلْيَتَّقُوا۟ ٱللَّهَ وَلْيَقُولُوا۟ قَوْلًا سَدِيدًا ﴾ 9 ﴿
वल्यख़्शल्लज़ी-न लौ त-रकू मिन् ख़ल्फिहिम् ज़ुर्रिय्यतन ज़िआ़फन् ख़ाफू अलैहिम्, फ़ल्यत्तक़ुल्ला-ह वल्-यक़ूलू क़ौलन् सदीदा
और उन लोगों को डरना चाहिए, जो अपने पीछे निर्बल संतान छोड़ जायें और उनके नाश होने का भय हो, अतः उन्हें चाहिए कि अल्लाह से डरें और सीधी बात बोलें।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَأْكُلُونَ أَمْوَٰلَ ٱلْيَتَٰمَىٰ ظُلْمًا إِنَّمَا يَأْكُلُونَ فِى بُطُونِهِمْ نَارًا وَسَيَصْلَوْنَ سَعِيرًا ﴾ 10 ﴿
इन्नल्लज़ी-न यअ्कुलू-न अम्वालल् यतामा ज़ुल्मन् इन्नमा यअ्कुलू-न फ़ी बुतूनिहिम् नारन्, व स-यस्लौ-न सईरा *
जो लोग अनाथों का धन अत्याचार से खाते हैं, वे अपने पेटों में आग भरते हैं और शीघ्र ही नरक की अग्नि में प्रवेश करेंगे।
يُوصِيكُمُ ٱللَّهُ فِىٓ أَوْلَٰدِكُمْ لِلذَّكَرِ مِثْلُ حَظِّ ٱلْأُنثَيَيْنِ فَإِن كُنَّ نِسَآءً فَوْقَ ٱثْنَتَيْنِ فَلَهُنَّ ثُلُثَا مَا تَرَكَ وَإِن كَانَتْ وَٰحِدَةً فَلَهَا ٱلنِّصْفُ وَلِأَبَوَيْهِ لِكُلِّ وَٰحِدٍ مِّنْهُمَا ٱلسُّدُسُ مِمَّا تَرَكَ إِن كَانَ لَهُۥ وَلَدٌ فَإِن لَّمْ يَكُن لَّهُۥ وَلَدٌ وَوَرِثَهُۥٓ أَبَوَاهُ فَلِأُمِّهِ ٱلثُّلُثُ فَإِن كَانَ لَهُۥٓ إِخْوَةٌ فَلِأُمِّهِ ٱلسُّدُسُ مِنۢ بَعْدِ وَصِيَّةٍ يُوصِى بِهَآ أَوْ دَيْنٍ ءَابَآؤُكُمْ وَأَبْنَآؤُكُمْ لَا تَدْرُونَ أَيُّهُمْ أَقْرَبُ لَكُمْ نَفْعًا فَرِيضَةً مِّنَ ٱللَّهِ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمًا ﴾ 11 ﴿
यूसीकुमुल्लाहु फ़ी औलादिकुम्, लिज़्ज़-करि मिस्लु हज़्ज़िल उन्सयैनि फ़-इन् कुन्-न निसाअन् फ़ौक़स्- नतैनि फ़-लहुन्-न सुलुसा मा त-र-क, व इन् कानत् वाहि-दतन् फ-लहन्निस्फु, व लि-अ-बवैहि लिकुल्लि वाहिदिम्-मिन्हुमस्सुदुसु मिम्मा त-र-क इन् का-न लहू व लदुन् फ़-इल्लम् यकुल्लहू व-लदुंव्-व वरि-सहू अ-बवाहू फ़-लिउम्मिहिस्सुलुसु, फ़-इन् का-न लहू इख़्वतुन् फ़-लिउम्मिहिस्सुदुसु मिम्-बअ्दि वसिय्यतिंय् यूसी बिहा औ दैनिन्, आबाउकुम् व अब्नाउकुम् ला तदरू-न अय्युहुम् अक़्रबु लकुम् नफ्अन्, फ़री-ज़तम् मिनल्लाहि , इन्नल्ला-ह का-न अलीमन् हकीमा
अल्लाह तुम्हारी संतान के संबंध में तुम्हें आदेश देता है कि पुत्र का भाग, दो पुत्रियों के बराबर है। यदि पुत्रियाँ दो[1] से अधिक हों, तो उनके लिए छोड़े हुए धन का दो तिहाई (भाग) है। यदि एक ही हो, तो उसके लिए आधा है और उसके माता-पिता, दोनों में से प्रत्येक के लिए उसमें से छठा भाग है, जो छोड़ा हो, यदि उसके कोई संतान[2] हों। और यदि उसके कोई संतान (पुत्र या पुत्री) न हों और उसका वारिस उसका पिता हो, तो उसकी माता का तिहाई (भाग)[3] है, (और शेष पिता का)। फिर यदि (माता पिता के सिवा) उसके एक से अधिक भाई अथवा बहनें हों, तो उसकी माता के लिए छठा भाग है, जो वसिय्यत[4] तथा क़र्ज़ चुकाने के पश्चात् होगा। तुम नहीं जानते कि तुम्हारे पिताओं और पुत्रों में से कौन तुम्हारे लिए अधिक लाभदायक हैं। वास्तव में, अल्लाह अति बड़ा तथा गुणी, ज्ञानी, तत्वज्ञ है। 1. अर्थात केवल पुत्रियाँ हों, तो दो हों अथवा दो से अधिक हों। 2. अर्थात न पुत्र हो और न पुत्री। 3. और शेष पिता का होगा। भाई-बहनों को कुछ नहीं मिलेगा। 4. वसिय्यत का अर्थ उत्तरदान है, जो एक तिहाई या उस से कम होना चाहिये परन्तु वारिस के लिये उत्तरदान नहीं है। (देखियेः तिर्मिज़ीः975) पहले ऋण चुकाया जायेगा, फिर वसिय्यत पूरी की जायेगी, फिर माँ का छठा भाग दिया जायेगा।
وَلَكُمْ نِصْفُ مَا تَرَكَ أَزْوَٰجُكُمْ إِن لَّمْ يَكُن لَّهُنَّ وَلَدٌ فَإِن كَانَ لَهُنَّ وَلَدٌ فَلَكُمُ ٱلرُّبُعُ مِمَّا تَرَكْنَ مِنۢ بَعْدِ وَصِيَّةٍ يُوصِينَ بِهَآ أَوْ دَيْنٍ وَلَهُنَّ ٱلرُّبُعُ مِمَّا تَرَكْتُمْ إِن لَّمْ يَكُن لَّكُمْ وَلَدٌ فَإِن كَانَ لَكُمْ وَلَدٌ فَلَهُنَّ ٱلثُّمُنُ مِمَّا تَرَكْتُم مِّنۢ بَعْدِ وَصِيَّةٍ تُوصُونَ بِهَآ أَوْ دَيْنٍ وَإِن كَانَ رَجُلٌ يُورَثُ كَلَٰلَةً أَوِ ٱمْرَأَةٌ وَلَهُۥٓ أَخٌ أَوْ أُخْتٌ فَلِكُلِّ وَٰحِدٍ مِّنْهُمَا ٱلسُّدُسُ فَإِن كَانُوٓا۟ أَكْثَرَ مِن ذَٰلِكَ فَهُمْ شُرَكَآءُ فِى ٱلثُّلُثِ مِنۢ بَعْدِ وَصِيَّةٍ يُوصَىٰ بِهَآ أَوْ دَيْنٍ غَيْرَ مُضَآرٍّ وَصِيَّةً مِّنَ ٱللَّهِ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَلِيمٌ ﴾ 12 ﴿
व लकुम् निस्फु मा त-र-क अज़्वाजुकुम् इल्लम् युकुल्लहुन्-न व लदुन्, फ़-इन का न लहुन्-न व-लदुन् फ़-लकुमुर्रूबुअु मिम्मा तरक्-न मिम्-बअ्दि वसिय्यतिंय्यूसी-न बिहा औ दैनिन्, व लहुन्नर्रूबुअु मिम्मा तरक्तुम् इल्लम् यकुल्लकुम् व-लदुन्, फ़-इन् का-न लकुम व-लदुन् फ़-लहुन्नस्सुमुनु मिम्मा तरक्तुम् मिम् -बअ्दि वसिय्यतिन् तूसू-न बिहा औ दैनिन्, व इन् का-न रजुलुंय्यू-रसु कलाल-तन् अविम-र-अतुंव-व् लहू अखुन् औ उख़्तुन् फ़ लिकुल्लि वाहिदिम् मिन्हुमस्सुदुसु, फ़-इन् कानू अक्स-र मिन् ज़ालि-क फ़हुम् शु-रका-उ फिस्सुलुसि मिम्-बअ्दि वसिय्यतिंय्यूसा बिहा औ दैनिन् ग़ै-र मुज़ाररिन् वसिय्यतम् मिनल्लाहि, वल्लाहु अलीमुन् हलीम
और तुम्हारे लिए उसका आधा है, जो तुम्हारी पत्नियाँ छोड़ जायें, यदि उनके कोई संतान (पुत्र या पुत्री) न हों। फिर यदि उनके कोई संतान हों, तो तुम्हारे लिए उसका चौथाई है, जो वे छोड़ गयी हों, वसिय्यत (उत्तरदान) या ऋण चुकाने के पश्चात्। जबकि (पत्नयों) के लिए उसका चौथाई है, जो (माल आदि) तुमने छोड़ा हो, यदि तुम्हारे कोई संतान (पुत्र या पुत्री) न हों। फिर यदि तुम्हारे कोई संतान हों, तो उनके लिए उसका आठवाँ[1] (भाग) है, जो तुमने छोड़ा है, वसिय्यत (उत्तरदान) जो तुमने की हो, पूरी करने अथवा ऋण चुकाने के पश्चात्। फिर यदि किसी ऐसे पुरुष या स्त्री का वारिस होने की बात हो, जो 'कलाला'[2] हो तथा (दूसरी माता से) उसका भाई अथवा बहन हो, तो उनमें से प्रत्येक के लिए छठा (भाग) है। फिर यदि (माँ जाये) (भाई या बहनें) इससे अधिक हों, तो वे सब तिहाई (भाग) में (बराबर के) साझी होंगे। ये वसिय्यत (उत्तरदान) तथा ऋण चुकाने के पश्चात होगा। किसी को हानि नहीं पहुँचायी जायेगी। ये अल्लाह की ओर से वसिय्यत है और अल्लाह ज्ञानी तथा ह़िक्मत वाला है। 1. यहाँ यह बात विचारणीय है कि जब इस्लाम में पुत्र पुत्री तथा नर नारी बराबर हैं, तो फिर पुत्री को पुत्र के आधा, तथा पत्नी को पति का आधा भाग क्यों दिया गया है? इस का कारण यह है कि पुत्री जब युवती और विवाहित हो जाती है, तो उसे अपने पति से महर (विवाह उपहार) मिलता है, और उस के तथा उस की संतान के यदि हों, तो भरण पोषण का भार उस के पति पर होता है। इस के विपरीत पुत्र युवक होता है तो विवाह करने पर अपनी पत्नी को महर (विवाह उपहार) देने के साथ ही उस का तथा अपनी संतान के भरण पोषण का भार भी उसी पर होता है। इसी लिये पुत्र को पुत्री के भाग का दुगना दिया जाता है, जो न्यायोचित है। 2. कलालः वह पुरुष अथवा स्त्री है, जिस के न पिता हो और न पुत्र-पुत्री। अब इस के वारिस तीन प्रकार के हो सकते हैः 1. सगे भाई-बहन। 2. पिता एक तथा मातायें अलग हों। 3. माता एक तथा पिता अलग हों। यहाँ इसी प्रकार का आदेश वर्णित किया गया हा। ऋण चुकाने के पश्चात् बिना कोई हानि पहुँचाये, यह अल्लाह का आदेश है, तथा अल्लाह अति ज्ञानी सानशील है।
تِلْكَ حُدُودُ ٱللَّهِ وَمَن يُطِعِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ يُدْخِلْهُ جَنَّٰتٍ تَجْرِى مِن تَحْتِهَا ٱلْأَنْهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَا وَذَٰلِكَ ٱلْفَوْزُ ٱلْعَظِيمُ ﴾ 13 ﴿
तिल-क हुदूदुल्लाहि व मंय्युतिअिल्ला-ह व रसूलहू युद्ख़िल्हु जन्नातिन् तज्री मिन् तह़्तिहल-अन्हारू ख़ालिदी-न फ़ीहा, व ज़ालिकल फौजुल अज़ीम
ये अल्लाह की (निर्धारित) सीमायें हैं और जो अल्लाह तथा उसके रसूल का आज्ञाकारी रहेगा, तो वह उसे ऐसे स्वर्गों में प्रवेश देगा, जिनमें नहरें प्रवाहित होंगी। उनमें वे सदावासी होंगे तथा यही बड़ी सफलता है।
وَمَن يَعْصِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَيَتَعَدَّ حُدُودَهُۥ يُدْخِلْهُ نَارًا خَٰلِدًا فِيهَا وَلَهُۥ عَذَابٌ مُّهِينٌ ﴾ 14 ﴿
व मंय्यअ्सिल्ला-ह व रसूलहू व य-तअद्-द हुदू-दहू युदख़िल्हु नारन् ख़ालिदन् फ़ीहा, व लहू अज़ाबुम् मुहीन *
और जो अल्लाह तथा उसके रसूल की अवज्ञा तथा उसकी सीमाओं का उल्लंघन करेगा, उसे नरक में प्रवेश देगा। जिसमें वह सदावासी होगा और उसी के लिए अपमानकारी यातना है।
وَٱلَّٰتِى يَأْتِينَ ٱلْفَٰحِشَةَ مِن نِّسَآئِكُمْ فَٱسْتَشْهِدُوا۟ عَلَيْهِنَّ أَرْبَعَةً مِّنكُمْ فَإِن شَهِدُوا۟ فَأَمْسِكُوهُنَّ فِى ٱلْبُيُوتِ حَتَّىٰ يَتَوَفَّىٰهُنَّ ٱلْمَوْتُ أَوْ يَجْعَلَ ٱللَّهُ لَهُنَّ سَبِيلًا ﴾ 15 ﴿
वल्लाती यअ्तीनल्-फ़ाहि-श-त मिन्निसा-इकुम् फस् तशहिदू अलैहिन्-न अर-ब अतम् मिन्कुम्, फ-इन् शहिदू फ़-अम्सिकूहुन्-न फ़िल्बुयूति हत्ता य-तवफ्फाहुन्नल्मौतु औ-यज्अलल्लाहु लहुन्-न सबीला
तथा तुम्हारी स्त्रियों में से, जो व्यभिचार कर जायेँ, तो उनपर अपनों में से चार साक्षी लाओ। फिर यदि वे साक्ष्य (गवाही) दें, तो उन्हें घरों में बंद कर दो, यहाँ तक कि उन्हें मौत आ जाये अथवा अल्लाह उनके लिए कोई अन्य[1] राह बना दे। 1. यह इस्लाम के आरंभिक युग में व्याभिचार का साम्यिक दण्ड था। इस का स्थायी दण्ड सूरह नूर आयत 2 में आ रहा है। जिस के उतरने पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः अल्लाह ने जो वचन दिया था उसे पूरा कर दिया। उसे मुझ से सीख लो।
وَٱلَّذَانِ يَأْتِيَٰنِهَا مِنكُمْ فَـَٔاذُوهُمَا فَإِن تَابَا وَأَصْلَحَا فَأَعْرِضُوا۟ عَنْهُمَآ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ تَوَّابًا رَّحِيمًا ﴾ 16 ﴿
वल्लज़ानि यअ्तियानिहा मिन्कुम् फ-आज़ूहुमा, फ इन् ताबा व अस्लहा फ-अअ्-रिज़ू अन्हुमा, इन्नल्ला-ह का-न तव्वाबर्रहीमा
और तुममें से जो दो व्यक्ति ऐसा करें, तो दोनों को दुःख पहुँचाओ, यहाँ तक कि (जब) वे तौबा (क्षमा याचना) कर लें और अपना सुधार कर लें, तो उन्हें छोड़ दो। निश्चय अल्लाह बड़ा क्षमाशील, दयावान् है।
إِنَّمَا ٱلتَّوْبَةُ عَلَى ٱللَّهِ لِلَّذِينَ يَعْمَلُونَ ٱلسُّوٓءَ بِجَهَٰلَةٍ ثُمَّ يَتُوبُونَ مِن قَرِيبٍ فَأُو۟لَٰٓئِكَ يَتُوبُ ٱللَّهُ عَلَيْهِمْ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمًا ﴾ 17 ﴿
इन्नमत्तौबतु अलल्लाहि लिल्लज़ी-न यअ् मलूनस्सू-अ बि-जहालतिन् सुम्-म यतूबू-न मिन् क़रीबिन् फ़-उलाइ-क यतूबुल्लाहु अलैहिम्, व कानल्लाहु अलीमन् हकीमा
अल्लाह के पास उन्हीं की तौबा (क्षमा याचना) स्वीकार्य है, जो अनजाने में बुराई कर जाते हैं, फिर शीघ्र ही क्षमा याचना कर लेते हैं, तो अल्लाह उनकी तौबा (क्षमा याचना) स्वीकार कर लेता है तथा अल्लाह बड़ा ज्ञानी गुणी है।
وَلَيْسَتِ ٱلتَّوْبَةُ لِلَّذِينَ يَعْمَلُونَ ٱلسَّيِّـَٔاتِ حَتَّىٰٓ إِذَا حَضَرَ أَحَدَهُمُ ٱلْمَوْتُ قَالَ إِنِّى تُبْتُ ٱلْـَٰٔنَ وَلَا ٱلَّذِينَ يَمُوتُونَ وَهُمْ كُفَّارٌ أُو۟لَٰٓئِكَ أَعْتَدْنَا لَهُمْ عَذَابًا أَلِيمًا ﴾ 18 ﴿
व लै सतित्तौबतु लिल्लज़ी-न यअ्मलूनस्सय्यिआति हत्ता इज़ा ह-ज़-र अ-ह-दहुमुल्मौतु क़ा-ल इन्नी तुब्तुल-आ-न व लल्लज़ी-न यमूतू-न व हुम् कुफ्फारून्, उलाइ-क अअ्तद्ना लहुम् अज़ाबन् अलीमा
और उनकी तौबा (क्षमा याचना) स्वीकार्य नहीं, जो बुराईयाँ करते रहते हैं, यहाँ तक कि जब उनमें से किसी की मौत का समय आ जाता है, तो कहता हैः अब मैंने तौबा कर ली। न ही उनकी (तौबा स्वीकार की जायेगी) जो काफ़िर रहते हुए मर जाते हैं, इन्हीं के लिए हमने दुःखदायी यातना तैयार कर रखी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوا۟ لَا يَحِلُّ لَكُمْ أَن تَرِثُوا۟ ٱلنِّسَآءَ كَرْهًا وَلَا تَعْضُلُوهُنَّ لِتَذْهَبُوا۟ بِبَعْضِ مَآ ءَاتَيْتُمُوهُنَّ إِلَّآ أَن يَأْتِينَ بِفَٰحِشَةٍ مُّبَيِّنَةٍ وَعَاشِرُوهُنَّ بِٱلْمَعْرُوفِ فَإِن كَرِهْتُمُوهُنَّ فَعَسَىٰٓ أَن تَكْرَهُوا۟ شَيْـًٔا وَيَجْعَلَ ٱللَّهُ فِيهِ خَيْرًا كَثِيرًا ﴾ 19 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनू ला यहिल्लु लकुम् अन् तरिसुन्निसा-अ करहन्, व ला तअ्ज़ुलूहुन्-न लि- तज़्हबू बि-बअ्ज़ि मा आतैतुमूहुन्-न इल्ला अंय्यअ्ती-न बिफ़ाहि-शतिम् मुबय्यिनतिन्, व आशिरूहुन्-न बिल्-मअ्-रूफि, फ़-इन् करिह़्तुमूहुन्-न फ़-असा अन् तक् रहू शैअंव्-व यज् अ़लल्लाहु फ़ीहि ख़ैरन् कसीरा
हे ईमान वालो! तुम्हारे लिए ह़लाल (वैध) नहीं कि बलपूर्वक स्त्रियों के वारिस बन जाओ[1] तथा उन्हें इसलिए न रोको कि उन्हें जो दिया हो, उसमें से कुछ मार लो। परन्तु ये कि खुली बुराई कर जायेँ तथा उनके साथ उचित[2] व्यवहार से रहो। फिर यदि वे तुम्हें अप्रिय लगें, तो संभव है कि तुम किसी चीज़ को अप्रिय समझो और अल्लाह ने उसमें बड़ी भलाई[3] रख दी हो। 1. ह़दीस में है कि जब कोई मर जाता तो उस के वारिस उस की पत्नी पर भी अधिकार कर लेते थे। इसी को रोकने के लिये यह आयत उतरी। (सह़ीह़ वुख़ारीः4579) 2. ह़दीस में है कि पूरा ईमान उस में है जो सुशील हो। और भला वह है जो अपनी पत्नियों के लिये भला हो। (तिर्मिज़ीः1162) 3. अर्थात पत्नि किसी कारण न भाये तो तुरन्त तलाक़ न दे दो, बल्कि धैर्य से काम लो।
وَإِنْ أَرَدتُّمُ ٱسْتِبْدَالَ زَوْجٍ مَّكَانَ زَوْجٍ وَءَاتَيْتُمْ إِحْدَىٰهُنَّ قِنطَارًا فَلَا تَأْخُذُوا۟ مِنْهُ شَيْـًٔا أَتَأْخُذُونَهُۥ بُهْتَٰنًا وَإِثْمًا مُّبِينًا ﴾ 20 ﴿
व इन् अरत्तुमुस्तिब्दा-ल ज़ौजिम् मका-न जौजिंव व आतैतुम् इह़्दाहुन्-न क़िन्तारन् फला तअ्ख़ुज़ु मिन्हु शैअन्, अ-तअ्ख़ुज़ूनहू बुह्तानंव् व इस्मम् मुबीना
और यदि तुम किसी पत्नी के स्थान पर किसी दूसरी पत्नी से विवाह करना चाहो और तुमने उनमें से एक को (सोने चाँदी) का ढेर भी (महर में) दिया हो, तो उसमें से कुछ न लो। क्या तुम चाहते हो कि उसे आरोप लगाकर तथा खुले पाप द्वारा ले लो?
وَكَيْفَ تَأْخُذُونَهُۥ وَقَدْ أَفْضَىٰ بَعْضُكُمْ إِلَىٰ بَعْضٍ وَأَخَذْنَ مِنكُم مِّيثَٰقًا غَلِيظًا ﴾ 21 ﴿
व कै-फ़ तअ्ख़ुज़ूनहू व क़द् अफ्ज़ा बअ्ज़ुकुम् इला बअ्जिंव-व अख़ज़्-न मिन्कुम् मीसाकन् ग़लीज़ा
तथा तुम उसे ले भी कैसे सकते हो, जबकि तुम एक-दूसरे से मिलन कर चुके हो तथा उन्होंने तुमसे (विवाह के समय) दृढ़ वचन लिया है।
وَلَا تَنكِحُوا۟ مَا نَكَحَ ءَابَآؤُكُم مِّنَ ٱلنِّسَآءِ إِلَّا مَا قَدْ سَلَفَ إِنَّهُۥ كَانَ فَٰحِشَةً وَمَقْتًا وَسَآءَ سَبِيلًا ﴾ 22 ﴿
व ला तन्किहू मा न-क-ह आबाउकुम् मिनन्निसा-इ इल्ला मा क़द् स-ल-फ, इन्नहू का-न फ़ाहि-शतंव् व मक़्तन्, व सा-अ सबीला*
और उन स्त्रियों से विवाह[1] न करो, जिनसे तुम्हारे पिताओं ने विवाह किया हो, परन्तु जो पहले हो चुका[2]। वास्तव में, ये निर्लज्जा की तथा अप्रिय बात और बुरी रीति थी। 1. जैसा कि इस्लाम से पहले लोग किया करते थे। और हो सकता है कि आज भी संसार के किसी कोने में ऐसा होता हो। परन्तु यदि भोग करने से पहले बाप ने तलाक़ दे दी हो तो उस स्त्री से विवाह किया जा सकता है। 2. अर्थात इस आदेश के आने से पहले जो कुछ हो गया अल्लाह उसे क्षमा करने वाला है।
حُرِّمَتْ عَلَيْكُمْ أُمَّهَٰتُكُمْ وَبَنَاتُكُمْ وَأَخَوَٰتُكُمْ وَعَمَّٰتُكُمْ وَخَٰلَٰتُكُمْ وَبَنَاتُ ٱلْأَخِ وَبَنَاتُ ٱلْأُخْتِ وَأُمَّهَٰتُكُمُ ٱلَّٰتِىٓ أَرْضَعْنَكُمْ وَأَخَوَٰتُكُم مِّنَ ٱلرَّضَٰعَةِ وَأُمَّهَٰتُ نِسَآئِكُمْ وَرَبَٰٓئِبُكُمُ ٱلَّٰتِى فِى حُجُورِكُم مِّن نِّسَآئِكُمُ ٱلَّٰتِى دَخَلْتُم بِهِنَّ فَإِن لَّمْ تَكُونُوا۟ دَخَلْتُم بِهِنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ وَحَلَٰٓئِلُ أَبْنَآئِكُمُ ٱلَّذِينَ مِنْ أَصْلَٰبِكُمْ وَأَن تَجْمَعُوا۟ بَيْنَ ٱلْأُخْتَيْنِ إِلَّا مَا قَدْ سَلَفَ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ غَفُورًا رَّحِيمًا ﴾ 23 ﴿
हुर्रिमत् अलैकुम् उम्महातुकुम् व बनातुकुम् व अ- ख़वातुकुम् व अम्मातुकुम् व ख़ालातुकुम् व बनातुल- अखि व बनातुल्-उख़्ति व उम्महातु-कुमुल्लाती अर्ज़अ्नकुम् व अ-ख़वातुकुम् मिनर्रज़ा-अति व उम्महातु निसा-इकु म् व रबा-इबुकुमुल्लाती फ़ी हुजूरिकुम् मिन्निसा इकुमुल्लाती दख़ल्तुम् बिहिन्-न, फ़-इल्लम् तकूनू दख़ल्तुम बिहिन्-न फ़ला जुना-ह अलैकुम्, व हला-इलु अब्ना-इकुमुल्लज़ी-न मिन् अस्लाबिकुम्, व अन् तज्मअू बइनल-उख़्तैनि इल्ला मा क़द् स-ल-फ़, इन्नल्ला-ह का-न ग़फूरर्रहीमा
तुमपर[1] ह़राम (अवैध) कर दी गयी हैं; तुम्हारी मातायें, तुम्हारी पुत्रियाँ, तुम्हारी बहनें, तुम्हारी फूफियाँ, तुम्हारी मोसियाँ और भतीजियाँ, भाँजियाँ, तुम्हारी वे मातायें जिन्होंने तुम्हें दूध पिलाया हो तथा दूध पीने से संबंधित बहनें, तुम्हारी पत्नियों की मातायें, तुम्हारी पत्नियों की पुत्रियाँ जिनका पालन पोषण तुम्हारी गोद में हुआ हो और उन पत्नियों से तुमने संभोग किया हो, यदि उनसे संभोग न किया हो, तो तुमपर कोई दोष नहीं, तुम्हारे सगे पुत्रों की पत्नियाँ और ये[2] कि तुम दो बहनों को एकत्र करो, परन्तु जो हो चुका। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमाशील दयावान् है। 1. दादियाँ तथा नानियाँ भी इसी में आती हैं। इसी प्रकार पुत्रियों में अपनी संतान की नीचे तक की पुत्रियाँ, और बहनों में सगी हों या पिता अथवा माता से हों, फूफियों में पिता तथा दादा की बहनें, और मोसियों में माताओं और नानियों की बहनें, तथा भतीजी और भाँजी में उन की संतान भी आती हैं। ह़दीस में है कि दूध से वह सभी रिश्ते ह़राम हो जाते हैं, जो गोत्र से ह़राम होते हैं। (सह़ीह़ बुख़ारीः5099, मुस्लिमः1444) पत्नी की पुत्री जो दूसरे पति से हो उसी समय ह़राम (वर्जित) होगी जब उस की माता से संभोग किया हो, केवल विवाह कर लेने से ह़राम नहीं होगी। जैसे दो बहनों को निकाह़ में एकत्र करना वर्जित है उसी प्रकार किसी स्त्री के साथ उस की फूफी अथवा मोसी को भी एकत्र करना ह़दीस से वर्जित है। (देखियेः सह़ीह़ बुखारीः5105, सह़ीह़ मुस्लिमः1408) 2. अर्थात जाहिलिय्यत के युग में।
وَٱلْمُحْصَنَٰتُ مِنَ ٱلنِّسَآءِ إِلَّا مَا مَلَكَتْ أَيْمَٰنُكُمْ كِتَٰبَ ٱللَّهِ عَلَيْكُمْ وَأُحِلَّ لَكُم مَّا وَرَآءَ ذَٰلِكُمْ أَن تَبْتَغُوا۟ بِأَمْوَٰلِكُم مُّحْصِنِينَ غَيْرَ مُسَٰفِحِينَ فَمَا ٱسْتَمْتَعْتُم بِهِۦ مِنْهُنَّ فَـَٔاتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ فَرِيضَةً وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيمَا تَرَٰضَيْتُم بِهِۦ مِنۢ بَعْدِ ٱلْفَرِيضَةِ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمًا ﴾ 24 ﴿
वल-मुह़्सनातु मिनन्निसा-इ इल्ला मा म-लकत् ऐमानुकुम्, किताबल्लाहि अलैकुम्, व उहिल्-ल लकुम् मा वरा-अ ज़ालिकुम् अन् तब्तग़ू बिअम्वालिकुम् मुह़्सिनी-न ग़ै-र मुसाफ़िही-न, फ़मस् तम्त अ्तुम् बिही मिन्हुन्-न फ़आतूहुन्-न उजूरहुन्-न फ़री ज़तन्, व ला जुना-ह अलैकुम् फ़ीमा-तराज़ैतुम् बिही मिम्- बअ्दिल फ़री-ज़ति, इन्नल्ला-ह का-न अलीमन् हकीमा
तथा उन स्त्रियों से (विवाह वर्जित है), जो दूसरों के निकाह़ में हों। परन्तु तुम्हारी दासियाँ[1] जो (युध्द में) तुम्हारे हाथ आयी हों। (ये) तुमपर अल्लाह ने लिख दिया[2] है। और इनके सिवा (दूसरी स्त्रियाँ) तुम्हारे लिए ह़लाल (उचित) कर दी गयी हैं। (प्रतिबंध ये है कि) अपने धनों द्वारा व्यभिचार से सुरक्षित रहने के लिए विवाह करो। फिर उनमें से जिससे लाभ उठाओ, उन्हें उनका महर (विवाह उपहार) अवश्य चुका दो तथा महर (विवाह उपहार) निर्धारित करने के पश्चात् (यदि) आपस की सहमति से (कोई कमी या अधिक्ता कर लो), तो तुमपर कोई दोष नहीं। निःसंदेह, अल्लाह अति ज्ञानी, तत्वज्ञ है। 1. दासी वह स्त्री जो युध्द में बन्दी बनायी गयी हो। उस से एक बार मासिक धर्म आने के पश्चात् सम्भोग करना उचित है, और उसे मुक्त करके उस से विवाह कर लेने का बड़ा पुण्य है। (इब्ने कसीर) 2. अर्थात तुम्हारे लिये नियम बना दिया गया है।
وَمَن لَّمْ يَسْتَطِعْ مِنكُمْ طَوْلًا أَن يَنكِحَ ٱلْمُحْصَنَٰتِ ٱلْمُؤْمِنَٰتِ فَمِن مَّا مَلَكَتْ أَيْمَٰنُكُم مِّن فَتَيَٰتِكُمُ ٱلْمُؤْمِنَٰتِ وَٱللَّهُ أَعْلَمُ بِإِيمَٰنِكُم بَعْضُكُم مِّنۢ بَعْضٍ فَٱنكِحُوهُنَّ بِإِذْنِ أَهْلِهِنَّ وَءَاتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ بِٱلْمَعْرُوفِ مُحْصَنَٰتٍ غَيْرَ مُسَٰفِحَٰتٍ وَلَا مُتَّخِذَٰتِ أَخْدَانٍ فَإِذَآ أُحْصِنَّ فَإِنْ أَتَيْنَ بِفَٰحِشَةٍ فَعَلَيْهِنَّ نِصْفُ مَا عَلَى ٱلْمُحْصَنَٰتِ مِنَ ٱلْعَذَابِ ذَٰلِكَ لِمَنْ خَشِىَ ٱلْعَنَتَ مِنكُمْ وَأَن تَصْبِرُوا۟ خَيْرٌ لَّكُمْ وَٱللَّهُ غَفُورٌ رَّحِيمٌ ﴾ 25 ﴿
व मल्लम् यस्ततिअ् मिन्कुम तौलन् अय्यन् किहल् मुह़्सनातिल्-मुअ्मिनाति फ-मिम्मा म-लकत् ऐमानुकुम् मिन् फ़-तयातिकुमुल् मुअ्मिनाति, वल्लाहु अअ्लमु बिईमानिकुम, बअ् ज़ुकुम् मिम्-बअ्ज़िन, फ़न्किहू हुन्-न बि-इज़्नि अह़्लिहिन्-न व आतूहुन्-न उजूरहुन्-न बिल्मअ्-रूफ़ि मुह्सनातिन् ग़ै-र मुसाफ़िहातिंव्वला मुत्तख़िज़ाति अख़्दानिन्, फ़-इज़ा उह़्सिन्-न फ़-इन् अतै-न बिफाहि-शतिन् फ़- अलैहिन्-न निस्फु मा अलल् मुह्सनाति मिनल-अज़ाबि, ज़ालि-क लिमन् ख़शियल अ-न-त मिन्कुम्, व अन् तस्बिरू ख़ैरुल्लकुम्, वल्लाहु ग़फूरुर्रहीम *
और जो व्यक्ति तुममें से स्वतंत्र ईमान वालियों से विवाह करने की सकत न रखे, तो वह अपने हाथों में आई हुई अपनी ईमान वाली दासियों से (विवाह कर ले)। दरअसल, अल्लाह तुम्हारे ईमान को अधिक जानता है। तुम आपस में एक ही हो[1]। अतः तुम उनके स्वामियों की अनुमति से उन (दासियों) से विवाह कर लो और उन्हें नियमानुसार उनके महर (विवाह उपहार) चुका दो, वे सती हों, व्यभिचारिणी न हों, न गुप्त प्रेमी बना रखी हों। फिर जब वे विवाहित हो जायें, तो यदि व्यभिचार कर जायें, तो उनपर उसका आधा[2] दण्ड है, जो स्वतंत्र स्त्रियों पर है। ये (दासी से विवाह) उसके लिए है, जो तुममें से व्यभिचार से डरता हो और सहन करो, तो ये तुम्हारे लिए अधिक अच्छा है और अल्लाह अति क्षमाशील दयावान् है। 1. तुम आपस में एक ही हो, अर्थात मानवता में बराबर हो। ज्ञातव्य है कि इस्लाम से पहले दासिता की परम्परा पूरे विश्व में फैली हुई थी। बलवान जातियाँ निर्बलों को दास बना कर उन के साथ हिंसक व्यवहार करती थीं। क़ुर्आन ने दासिता को केवल युध्द के बन्दियों में सीमित कर दिया। और उन्हें भी अर्थदण्ड ले कर अथवा उपकार कर के मुक्त करने की प्रेरणा दी। फिर उन के साथ अच्छे व्यवहार पर बल दिया। तथा ऐसे आदेश और नियम बना दिये कि दासिता, दासिता नहीं रह गई। यहाँ इसी बात पर बल दिया गया है कि दासियों से विवाह कर लेने में कोई दोष नहीं। इस लिये मानवता में सब बराबर हैं, और प्रधानता का मापदण्ड ईमान तथा सत्कर्म है। 2. अर्थात पचास कोड़े।
يُرِيدُ ٱللَّهُ لِيُبَيِّنَ لَكُمْ وَيَهْدِيَكُمْ سُنَنَ ٱلَّذِينَ مِن قَبْلِكُمْ وَيَتُوبَ عَلَيْكُمْ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ﴾ 26 ﴿
युरीदुल्लाहु लि-युबय्यि-न लकुम् व यह्दि-यकुम् सु-ननल्लज़ी-न मिन् क़ब्लिकुम् व यतू-ब अलैकुम्, वल्लाहु अलीमुन् हकीम
अल्लाह चाहता है कि तुम्हारे लिए उजागर कर दे तथा तुम्हें भी उनकी नीतियों की राह दर्शा दे, जो तुमसे पहले थे और तुम्हारी क्षमा याचना स्वीकार करे। अल्लाह अति ज्ञानी तत्वज्ञ है।
وَٱللَّهُ يُرِيدُ أَن يَتُوبَ عَلَيْكُمْ وَيُرِيدُ ٱلَّذِينَ يَتَّبِعُونَ ٱلشَّهَوَٰتِ أَن تَمِيلُوا۟ مَيْلًا عَظِيمًا ﴾ 27 ﴿
वल्लाहु युरीदु अंय्यतू-ब अलैकुम्, वयुरीदुल्लज़ी-न यत्तबिअूनश्श हवाति अन् तमीलू मैलन् अज़ीमा
और अल्लाह चाहता है कि तुमपर दया करे तथा जो लोग आकांक्षाओं के पीछे पड़े हुए हैं, वे चाहते हैं कि तुम बहुत अधिक झुक[1] जाओ। 1. अर्थात सत्धर्म से कतरा जाओ।
يُرِيدُ ٱللَّهُ أَن يُخَفِّفَ عَنكُمْ وَخُلِقَ ٱلْإِنسَٰنُ ضَعِيفًا ﴾ 28 ﴿
युरीदुल्लाहु अंय्युख़फ्फि-फ अन्कुम्, व ख़ुलिक़ल् – इन्सानु ज़ईफा
अल्लाह तुम्हारा (बोझ) हल्का करना[1] चाहता है तथा मानव निर्बल पैदा किया गया है। 1. अर्थात अपने धर्म विधान द्वारा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوا۟ لَا تَأْكُلُوٓا۟ أَمْوَٰلَكُم بَيْنَكُم بِٱلْبَٰطِلِ إِلَّآ أَن تَكُونَ تِجَٰرَةً عَن تَرَاضٍ مِّنكُمْ وَلَا تَقْتُلُوٓا۟ أَنفُسَكُمْ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِكُمْ رَحِيمًا ﴾ 29 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनू ला तअ्कुलू अम्वालकुम् बैनकुम् बिल्बातिलि इल्ला अन् तकू-न तिजा-रतन् अन् तराज़िम् मिन्कुम्, व ला तक़्तुलू अन्फु-सकुम्, इन्नल्ला-ह का-न बिकुम रहीमा
हे ईमान वालो! आपस में एक-दूसरे का धन अवैध रूप से न खाओ, परन्तु ये कि लेन-देन तुम्हारी आपस की स्वीकृति से (धर्म विधानुसार) हो और आत्म हत्या[1] न करो, वास्तव में, अल्लाह तुम्हारे लिए अति दयावान् है। 1. इस का अर्थ यह भी किया गया है कि अवैध कर्मों द्वारा अपना विनाश न करो, तथा यह भी कि आपस में रक्तपात न करो, और यह तीनों ही अर्थ सह़ीह़ हैं। (तफ़्सीरे क़ुर्तुबी)
وَمَن يَفْعَلْ ذَٰلِكَ عُدْوَٰنًا وَظُلْمًا فَسَوْفَ نُصْلِيهِ نَارًا وَكَانَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرًا ﴾ 30 ﴿
व मंय्यफ्अल ज़ालि-क अुद्-वानंव-व ज़ुल्मन् फ़सौ-फ़ नुस्लीहि नारन्, व का-न ज़ालि-क अलल्लाहि यसीरा
और जो अतिक्रमण तथा अत्याचार से ऐसा करेगा, समीप है कि हम उसे अग्नि में झोंक देंगे और ये अल्लाह के लिए सरल है।
إِن تَجْتَنِبُوا۟ كَبَآئِرَ مَا تُنْهَوْنَ عَنْهُ نُكَفِّرْ عَنكُمْ سَيِّـَٔاتِكُمْ وَنُدْخِلْكُم مُّدْخَلًا كَرِيمًا ﴾ 31 ﴿
इन् तज्तनिबू कबा-इ-र मा तुन्हौ-न अन्हु नुकफ्फिर अन्कुम् सय्यि आतिकुम् व नुद्खिल्कुम् मुद्-ख़लन् करीमा
तथा यदि तुम, उन महा पापों से बचते रहे, जिनसे तुम्हें रोका जा रहा है, तो हम तुम्हारे लिए तुम्हारे दोषों को क्षमा कर देंगे और तुम्हें सम्मानित स्थान में प्रवेश देंगे।
وَلَا تَتَمَنَّوْا۟ مَا فَضَّلَ ٱللَّهُ بِهِۦ بَعْضَكُمْ عَلَىٰ بَعْضٍ لِّلرِّجَالِ نَصِيبٌ مِّمَّا ٱكْتَسَبُوا۟ وَلِلنِّسَآءِ نَصِيبٌ مِّمَّا ٱكْتَسَبْنَ وَسْـَٔلُوا۟ ٱللَّهَ مِن فَضْلِهِۦٓ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِكُلِّ شَىْءٍ عَلِيمًا ﴾ 32 ﴿
व ला त-तमन्नौ मा फज़्जलल्लाहु बिही बअ्ज़कुम् अला बअ्ज़िन्, लिर्रिजालि नसीबुम् मिम्-मक्त-सबू, व लिन्निसा-इ नसीबुम् मिम्-मक्त-सब्-न, वस्अलुल्ला- ह मिन् फ़ज्लिही, इन्नल्ला- ह का-न बिकुल्लि शैइन् अलीमा
तथा उसकी कामना न करो, जिसके द्वारा अल्लाह ने तुम्हें एक-दूसरे पर श्रेष्ठता दी है। पुरुषों के लिए उसका भाग है, जो उन्होंने कमाया[1] और स्त्रियों के लिए उसका भाग है, जो उन्होंने कमाया है। तथा अल्लह से उससे अधिक की प्रार्थना करते रहो। निःसंदेह अल्लाह सब कुछ जानता है। 1. क़ुर्आन उतरने से पहले संसार का यह साधारण विश्वव्यापी विचार था कि नारी का कोई स्थाई अस्तित्व नहीं है। उसे केवल पुरुषों की सेवा और काम वासना के लिये बनाया गया है। क़ुर्आन इस विचार के विरुध्द यह कहता है कि अल्लाह ने मानव को नर तथा नारी दो लिंगों में विभाजित कर दिया है। और दोनों ही समान रूप से अपना अपना अस्तित्व, अपने अपने कर्तव्य तथा कर्म रखते हैं। और जैसे आर्थिक कार्यालय के लिये एक लिंग की आवश्यक्ता है, वैसे ही दूसरे की भी है। मानव के सामाजिक जीवन के लिये यह दोनों एक दूसरे के सहायक हैं।
وَلِكُلٍّ جَعَلْنَا مَوَٰلِىَ مِمَّا تَرَكَ ٱلْوَٰلِدَانِ وَٱلْأَقْرَبُونَ وَٱلَّذِينَ عَقَدَتْ أَيْمَٰنُكُمْ فَـَٔاتُوهُمْ نَصِيبَهُمْ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلَىٰ كُلِّ شَىْءٍ شَهِيدًا ﴾ 33 ﴿
व लिकुल्लिन् जअल्ना मवालि-य मिम्मा त-रकल्- वालिदानि वल-अक़्रबू-न, वल्लज़ी-न अ-क़दत् ऐमानुकुम् फ़-आतूहुम् नसीबहुम्, इन्नल्ला-ह का-न अला कुल्लि शैइन् शहीदा *
और हमने प्रत्येक के लिए वारिस (उत्तराधिकारी) बना दिये हैं, उसमें से जो माता-पिता तथा समीपवर्तियों ने छोड़ा हो तथा जिनसे तुमने समझौता[1] किया हो, उन्हें उनका भाग दो। वास्तव में, अल्लाह प्रत्येक चीज़ से सूचित है। 1. यह संधिभ मीरास इस्लाम के आरंभिक युग में थी, जिसे (मवारीस की आयत से) निरस्त कर दिया गया। (इब्ने कसीर)
ٱلرِّجَالُ قَوَّٰمُونَ عَلَى ٱلنِّسَآءِ بِمَا فَضَّلَ ٱللَّهُ بَعْضَهُمْ عَلَىٰ بَعْضٍ وَبِمَآ أَنفَقُوا۟ مِنْ أَمْوَٰلِهِمْ فَٱلصَّٰلِحَٰتُ قَٰنِتَٰتٌ حَٰفِظَٰتٌ لِّلْغَيْبِ بِمَا حَفِظَ ٱللَّهُ وَٱلَّٰتِى تَخَافُونَ نُشُوزَهُنَّ فَعِظُوهُنَّ وَٱهْجُرُوهُنَّ فِى ٱلْمَضَاجِعِ وَٱضْرِبُوهُنَّ فَإِنْ أَطَعْنَكُمْ فَلَا تَبْغُوا۟ عَلَيْهِنَّ سَبِيلًا إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيًّا كَبِيرًا ﴾ 34 ﴿
अर्रिजालु क़व्वामू-न अलन्निसा-इ बिमा फज़्ज़लल्लाहु बअ्ज़हुम् अला बअ्जिंव् व बिमा अन्फक़ू मिन् अम्वालिहिम्, फ़स्सालिहातु क़ानितातुन् हाफ़िज़ातुल्-लिल् ग़ैबि बिमा हफ़िज़ल्लाहु, वल्लाती तख़ाफू-न नुशूज़हुन्-न फ-अिज़ूहुन-न वह़्जुरुहुन्न फिल्मज़ाजिअि वज़्रिब्रूहुन्-न, फ इन् अ-तअ्नकुम् फला तब्ग़ू अलैहिन्-न सबीलन्, इन्नल्ला-ह का-न अलिय्यन् कबीरा
पुरुष स्त्रियों के व्यवस्थापक[1] हैं, इस कारण कि अल्लाह ने उनमें से एक को दूसरे पर प्रधानता दी है तथा इस कारण कि उन्होंने अपने धनों में से (उनपर) ख़र्च किया है। अतः, सदाचारी स्त्रियाँ वो हैं, जो आज्ञाकारी तथा उनकी (अर्थात, पतियों की) अनुपस्थिति में अल्लाह की रक्षा में उनके अधिकारों की रक्षा करती हों। फिर तुम्हें जिनकी अवज्ञा का डर हो, तो उन्हें समझाओ और शयनागारों (सोने के स्थानों) में उनसे अलग हो जाओ तथा उन्हें मारो। फिर यदि वे तुम्हारी बात मानें, तो उनपर अत्याचार का बहाना न खोजो और अल्लाह सबसे ऊपर, सबसे बड़ा है। 1. आयत का भावार्थ यह है कि परिवारिक जीवन के प्रबंध के लिये एक प्रबंधक होना आवश्यक है। और इस प्रबंध तथा व्यवस्था का भार पुरुष पर रखा गया है। जो कोई विशेषता नहीं, बल्कि एक भार है। इस का यह अर्थ नहीं कि जन्म से पुरुष की स्त्री पर कोई विशेषता है। प्रथम आयत में यह आदेश दिया गया है कि यदि पत्नी पति की अनुगामी न हो, तो वह उसे समझाये। परन्तु यदि दोष पुरुष का हो तो दोनों के बीच मध्यस्ता द्वारा संधि कराने की प्रेरणा दी गयी है।
وَإِنْ خِفْتُمْ شِقَاقَ بَيْنِهِمَا فَٱبْعَثُوا۟ حَكَمًا مِّنْ أَهْلِهِۦ وَحَكَمًا مِّنْ أَهْلِهَآ إِن يُرِيدَآ إِصْلَٰحًا يُوَفِّقِ ٱللَّهُ بَيْنَهُمَآ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا ﴾ 35 ﴿
व इन् ख़िफ्तुम् शिक़ा-क़ बैनिहिमा फ़ब्-असू ह-कमम् मिन् अह़्लिही व ह-कमम् मिन् अह़्लिहा, इंय्युरीदा इस्लाहंय्युवफ्फ़िक़िल्लाहु बैनहुमा, इन्नल्ला-ह का-न अलीमन् ख़बीरा
और यदि तुम्हें[1] दोनों के बीच वियोग का डर हो, तो एक मध्यस्त उस (पति) के घराने से तथा एक मध्यस्त उस (पत्नी) के घराने से नियुक्त करो, यदि वे दोनों संधि कराना चाहेंगे, तो अल्लाह उन दोनों[2] के बीच संधि करा देगा। वास्तव में, अल्लाह अति ज्ञानी सर्वसूचित है। 1. इस में पति-पत्नी के संरक्षकों को संबोधित किया गया है। 2. अर्थात पति पत्नी में।
وَٱعْبُدُوا۟ ٱللَّهَ وَلَا تُشْرِكُوا۟ بِهِۦ شَيْـًٔا وَبِٱلْوَٰلِدَيْنِ إِحْسَٰنًا وَبِذِى ٱلْقُرْبَىٰ وَٱلْيَتَٰمَىٰ وَٱلْمَسَٰكِينِ وَٱلْجَارِ ذِى ٱلْقُرْبَىٰ وَٱلْجَارِ ٱلْجُنُبِ وَٱلصَّاحِبِ بِٱلْجَنۢبِ وَٱبْنِ ٱلسَّبِيلِ وَمَا مَلَكَتْ أَيْمَٰنُكُمْ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ مَن كَانَ مُخْتَالًا فَخُورًا ﴾ 36 ﴿
वअ्बुदुल्ला-ह व ला तुश्रिकू बिही शैअंव्-व बिल्-वालिदैनि इह़्सानंव्-व बि-ज़िल्कुरबा वल्यतामा वल्मसाकीनि वल्जारि ज़िल्क़ुरबा वल्जारिल-जुनुबि वस्साहिबि बिल ज़म्बि वब्निस्सबीलि, व मा म-लकत् ऐमानुकुम्, इन्नल्ला-ह ला युहिब्बु मन् का-न मुख़्तालन् फ़खूरा
तथा अल्लाह की इबादत (वंदना) करो, किसी चीज़ को उसका साझी न बनाओ तथा माता-पिता, समीपवर्तियों, अनाथों, निर्धनों, समीप और दूर के पड़ोसी, यात्रा के साथी, यात्रि और अपने दास दासियों के साथ उपकार करो। निःसंदेह अल्लाह उससे प्रेम नहीं करता, जो अभिमानी अहंकारी[1] हो। 1. अर्थात डींगें मारता तथा इतराता हो।
ٱلَّذِينَ يَبْخَلُونَ وَيَأْمُرُونَ ٱلنَّاسَ بِٱلْبُخْلِ وَيَكْتُمُونَ مَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضْلِهِۦ وَأَعْتَدْنَا لِلْكَٰفِرِينَ عَذَابًا مُّهِينًا ﴾ 37 ﴿
अल्लज़ी-न यब्ख़लू-न व यअ्मुरूनन्-ना-स बिल् -बुख़्लि व यक्तुमू-न मा आताहुमुल्लाहु मिन् फज़्लिही, व अअ्तद्ना लिल्काफ़िरी-न अज़ाबम्-मुहीना
और जो स्वयं कृपण (कंजूसी) करते हैं तथा दूसरों को भी कृपण (कंजूसी) का आदेश देते हैं और उसे छुपाते हैं, जो अल्लाह ने उन्हें अपनी दया से प्रदान किया है। हमने कृतघ्नों के लिए अपमानकारी यातना तैयार कर रखी है।
وَٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمْوَٰلَهُمْ رِئَآءَ ٱلنَّاسِ وَلَا يُؤْمِنُونَ بِٱللَّهِ وَلَا بِٱلْيَوْمِ ٱلْءَاخِرِ وَمَن يَكُنِ ٱلشَّيْطَٰنُ لَهُۥ قَرِينًا فَسَآءَ قَرِينًا ﴾ 38 ﴿
वल्लज़ी-न युन्फ़िक़ू-न अम्वालहुम् रिआअन्नासि वला युअ्मिनू-न बिल्लाहि वला बिल् यौमिल्-आख़िरि, व मंय्यकुनिश्शैतानु लहू क़रीनन् फ़सा-अ क़रीना
तथा जो लोग अपना धन, लोगों को दिखाने के लिए दान करते हैं और अल्लह तथा अंतिम दिन (प्रलय) पर ईमान नहीं रखते तथा शैतान जिसका साथी हो, तो वह बहुत बुरा साथी[1] है। 1. आयत 36 से 38 तक साधारण सहानुभूति और उपकार का आदेश दिया गया है कि अल्लाह ने जो धन-धान्य तुम को दिया, उस से मानव की सहायता और सेवा करो। जो व्यक्ति अल्लाह पर ईमान रखता हो उस का हाथ अल्लाह की राह में दान करने से कभी नहीं रुक सकता। फिर भी दान करो तो अल्लाह के लिये करो, दिखावे और नाम के लिये न करो। जो नाम के लिये दान करता है, वह अल्लाह तथा आख़िरत पर सच्चा ईमान (विश्वास) नहीं रखता।
وَمَاذَا عَلَيْهِمْ لَوْ ءَامَنُوا۟ بِٱللَّهِ وَٱلْيَوْمِ ٱلْءَاخِرِ وَأَنفَقُوا۟ مِمَّا رَزَقَهُمُ ٱللَّهُ وَكَانَ ٱللَّهُ بِهِمْ عَلِيمًا ﴾ 39 ﴿
व माज़ा अलैहिम् लौ आमनू बिल्लाहि वल्यौमिल्- आख़िरि व अन्फक़ू मिम्मा र-ज़-क-हुमुल्लाहु, व कानल्लाहु बिहिम् अलीमा
और उनका क्या बिगड़ जाता, यदि वे अल्लाह तथा अन्तिम दिन (परलोक) पर ईमान (विश्वास) रखते और अल्लाह ने जो उन्हें दिया है, उसमें से दान करते? और अल्लाह उन्हें भली-भाँति जानता है।
إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَظْلِمُ مِثْقَالَ ذَرَّةٍ وَإِن تَكُ حَسَنَةً يُضَٰعِفْهَا وَيُؤْتِ مِن لَّدُنْهُ أَجْرًا عَظِيمًا ﴾ 40 ﴿
इन्नल्ला-ह ला यज़्लिमु मिस्क़ा-ल ज़र्रतिन्, व इन् तकु ह-स-नतंय्युज़ाअिफ्हा व युअ्ति मिल्लदुन्हु अज्रन् अ़ज़ीमा
अल्लाह कण भर भी किसी पर अत्याचार नहीं करता, यदि कुछ भलाई (किसी ने) की हो, तो (अल्लाह) उसे अधिक कर देता है तथा अपने पास से बड़ा प्रतिफल प्रदान करता है।
فَكَيْفَ إِذَا جِئْنَا مِن كُلِّ أُمَّةٍۭ بِشَهِيدٍ وَجِئْنَا بِكَ عَلَىٰ هَٰٓؤُلَآءِ شَهِيدًا ﴾ 41 ﴿
फ़कै-फ़ इज़ा जिअ्ना मिन् कुल्लि उम्मतिम् बि-शहीदिंव्-व जिअ्ना बि-क अला हा-उला-इ शहीदा
तो क्या दशा होगी, जब हम प्रत्येक उम्मत (समुदाय) से एक साक्षी लायेंगे और (हे नबी!) आपको उनपर (बनाकर) साक्षी लायेंगे[1]। 1. आयत का भावार्थ यह है कि प्रलय के दिन अल्लाह प्रत्येक समुदाय के रसूल को उन के कर्म का साक्षी बनायेगा। इस प्रकार मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भी अपने समुदाय पर साक्षी बनायेगा। तथा सब रसूलों पर कि उन्हों ने अपने पालनहार का संदेश पहुँचाया है। (इब्ने कसीर)
يَوْمَئِذٍ يَوَدُّ ٱلَّذِينَ كَفَرُوا۟ وَعَصَوُا۟ ٱلرَّسُولَ لَوْ تُسَوَّىٰ بِهِمُ ٱلْأَرْضُ وَلَا يَكْتُمُونَ ٱللَّهَ حَدِيثًا ﴾ 42 ﴿
यौमइजिंय्-यवद्दुल्लज़ी-न क-फरू व अ-सवुर्-रसू-ल लौ तुसव्वा बिहिमुल्-अर्ज़ु, व ला यक्तुमूनल्ला-ह हदीसा *
उस दिन, जो काफ़िर तथा रसूल के अवज्ञाकारी हो गये, ये कामना करेंगे कि उनके सहित भूमि बराबर[1] कर दी जाये और वे अल्लाह से कोई बात छुपा नहीं सकेंगे। 1. अर्थात भूमि में धंस जायें, और उन के ऊपर से भूमि बराबर हो जाये, या वह मिट्टी हो जायें।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوا۟ لَا تَقْرَبُوا۟ ٱلصَّلَوٰةَ وَأَنتُمْ سُكَٰرَىٰ حَتَّىٰ تَعْلَمُوا۟ مَا تَقُولُونَ وَلَا جُنُبًا إِلَّا عَابِرِى سَبِيلٍ حَتَّىٰ تَغْتَسِلُوا۟ وَإِن كُنتُم مَّرْضَىٰٓ أَوْ عَلَىٰ سَفَرٍ أَوْ جَآءَ أَحَدٌ مِّنكُم مِّنَ ٱلْغَآئِطِ أَوْ لَٰمَسْتُمُ ٱلنِّسَآءَ فَلَمْ تَجِدُوا۟ مَآءً فَتَيَمَّمُوا۟ صَعِيدًا طَيِّبًا فَٱمْسَحُوا۟ بِوُجُوهِكُمْ وَأَيْدِيكُمْ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَفُوًّا غَفُورًا ﴾ 43 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनू ला तक़्रबुस्सला-त व अन्तुम् सुकारा हत्ता तअ्लमू मा तक़ूलू-न व ला जुनुबन् इल्ला आबिरी सबीलिन् हत्ता तग़्तसिलू, व इन् कुन्तुम् मर्ज़ा औ अला स-फ़रिन् औ जा-अ अ-हदुम् मिन्कुम् मिनल्ग़ा-इति औ लामस्तुमुन्निसा-अ फ़-लम् तजिदू माअन् फ़-तयम्ममू सईदन् तय्यिबन् फम्सहू बिवुजूहिकुम् व ऐदीकुम्, इन्नल्ला-ह का-न अफुव्वन् ग़फूरा
हे ईमान वालो! तुम जब नशे[1] में रहो, तो नमाज़ के समीप न जाओ, जब तक जो कुछ बोलो, उसे न समझो और न जनाबत[2] की स्थिति में (मस्जिदों के समीप जाओ), परन्तु रास्ता पार करते हुए। यदि तुम रोगी हो अथवा यात्रा में रहो या स्त्रियों से सहवास कर लो, फिर जल न पाओ, तो पवित्र मिट्टी से तयम्मुम[3] कर लो; उसे अपने मुखों तथा हाथों पर फेर लो। वास्तव में, अल्लाह अति क्षांत (सहिष्णु) क्षमाशील है। 1. यह आदेश इस्लाम के आरंभिक युग का है, जब मदिरा को वर्जित नहीं किया गया था। (इब्ने कसीर) 2. जनाबत का अर्थ वीर्यपात के कारण मलिन तथा अपवित्र होना है। 3. अर्थात यदि जल का अभाव हो, अथवा रोग के कारण जल प्रयोग हानिकारक हो, तो वुजू तथा स्नान के स्थान पर तयम्मुम कर लो।
أَلَمْ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ أُوتُوا۟ نَصِيبًا مِّنَ ٱلْكِتَٰبِ يَشْتَرُونَ ٱلضَّلَٰلَةَ وَيُرِيدُونَ أَن تَضِلُّوا۟ ٱلسَّبِيلَ ﴾ 44 ﴿
अलम् त-र इलल्लज़ी-न ऊतू नसीबम् मिनल किताबि यश्तरूनज़्ज़ला-ल-त व युरीदू-न अन् तज़िल्लुस्सबील
क्या आपने उनकी दशा नहीं देखी, जिन्हें पुस्तक[1] का कुछ भाग दिया गया? वे कुपथ ख़रीद रहे हैं तथा चाहते हैं कि तुमभी सुपथ से विचलित हो जाओ। 1. अर्थात अहले किताब, जिन को तौरात का ज्ञान दिया गया। भावार्थ यह है कि उन की दशा से शिक्षा ग्रहण करो। उन्हीं के समान सत्य से विचलित न हो जाओ।
وَٱللَّهُ أَعْلَمُ بِأَعْدَآئِكُمْ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَلِيًّا وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ نَصِيرًا ﴾ 45 ﴿
वल्लाहु अअ्लमु बि-अअ्दा-इकुम्, व कफ़ा बिल्लाहि वलिय्यंव्-व कफ़ा बिल्लाहि नसीरा
तथा अल्लाह तुम्हारे शत्रुओं से भली-भाँति अवगत है और (तुम्हारे लिए) अल्लाह की रक्षा काफ़ी है तथा अल्लाह की सहायता काफ़ी है।
مِّنَ ٱلَّذِينَ هَادُوا۟ يُحَرِّفُونَ ٱلْكَلِمَ عَن مَّوَاضِعِهِۦ وَيَقُولُونَ سَمِعْنَا وَعَصَيْنَا وَٱسْمَعْ غَيْرَ مُسْمَعٍ وَرَٰعِنَا لَيًّۢا بِأَلْسِنَتِهِمْ وَطَعْنًا فِى ٱلدِّينِ وَلَوْ أَنَّهُمْ قَالُوا۟ سَمِعْنَا وَأَطَعْنَا وَٱسْمَعْ وَٱنظُرْنَا لَكَانَ خَيْرًا لَّهُمْ وَأَقْوَمَ وَلَٰكِن لَّعَنَهُمُ ٱللَّهُ بِكُفْرِهِمْ فَلَا يُؤْمِنُونَ إِلَّا قَلِيلًا ﴾ 46 ﴿
मिनल्लज़ी-न हादू युहर्रिफूनल कलि-म अम्मवाज़िअिही व यक़ूलू-न समिअ्ना व असैना वस्मअ् ग़ै-र मुस्मअिव्-व राअिना लय्यम् बि अल्सिनतिहिम् व तअ्नन् फ़िद्दीनि, व लौ अन्नहुम क़ालू समिअ्ना व अतअ्-न वस्मअ् वन्ज़ुर्ना लका-न ख़ैरल्लहुम् व अक्-व म, वला किल्-ल-अ-नहुमुल्लाहु बिकुफ्रिहिम् फला युअ्मिनू-न इल्ला क़लीला
(हे नबी!) यहूदियों में से कुछ लोग ऐसे हैं, जो शब्दों को उनके (वास्तविक) स्थानों से फेरते हैं और (आपसे) कहते हैं कि हमने सुन लिया तथा (आपकी) अवज्ञा की और आप सुनिए, आप सुनाये न जायें! तथा अपनी ज़ुबानें मोड़कर "राइना" कहते और सत्धर्म में व्यंग करते हैं और यदि वे "हमने सुन लिया और आज्ञाकारी हो गये" और "हमें देखिए" कहते, तो उनके लिए अधिक अच्छी तथा सही बात होती। परन्तु अल्लाह ने उनके कुफ़्र के कारण उन्हें धिक्कार दिया है। अतः, उनमें से थोड़े ही ईमान लायेंगे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ أُوتُوا۟ ٱلْكِتَٰبَ ءَامِنُوا۟ بِمَا نَزَّلْنَا مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَكُم مِّن قَبْلِ أَن نَّطْمِسَ وُجُوهًا فَنَرُدَّهَا عَلَىٰٓ أَدْبَارِهَآ أَوْ نَلْعَنَهُمْ كَمَا لَعَنَّآ أَصْحَٰبَ ٱلسَّبْتِ وَكَانَ أَمْرُ ٱللَّهِ مَفْعُولًا ﴾ 47 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न ऊतुल्-किता-ब आमिनू बिमा नज़्ज़ल्ना मुसद्दिक़ल्लिमा म-अकुम् मिन् क़ब्लि अन्नत्मि-स वुजूहन् फ़-नरूद्दहा अला अदबारिहा औ नल्अ नहुम् कमा ल-अन्ना अस्हाबस्सब्ति, व का-न अमरूल्लाहि मफ्अूला
हे अहले किताब! उस (क़ुर्आन) पर ईमान लाओ, जिसे हमने उन (पुस्तकों) का प्रमाणकारी बनाकर उतारा है, जो तुम्हारे साथ हैं, इससे पहले कि हम चेहरे बिगाड़ कर पीछे कर दें अथवा उन्हें ऐसे ही धिक्कार[1] दें, जैसे शनिवार वालों को धिक्कार दिया। अल्लाह का आदेश पूरा हो कर रहा। 1. मदीने के यहूदियों का यह दुर्भाग्य था कि जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मिलते, तो द्विअर्थक तथा संदिग्ध शब्द बोल कर दिल की भड़ास निकालते, उसी पर उन्हें यह चेतावनी दी जा रही है। शनिवार वाले, अर्थात जिन को शनिवार के दिन शिकार से रोका गया था। और जब वे नहीं माने तो उन्हें बन्दर बना दिया गया।
إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَغْفِرُ أَن يُشْرَكَ بِهِۦ وَيَغْفِرُ مَا دُونَ ذَٰلِكَ لِمَن يَشَآءُ وَمَن يُشْرِكْ بِٱللَّهِ فَقَدِ ٱفْتَرَىٰٓ إِثْمًا عَظِيمًا ﴾ 48 ﴿
इन्नल्ला-ह ला यग़्फ़िरू अंय्युश्र क बिही व यग़्फ़िरू मा दू-न ज़ालि-क लिमंय्यशा-उ व मंय्युश्रिक् बिल्लाहि फ-क़दिफ्तरा इस्मन् अज़ीमा
निःसंदेह अल्लाह ये नहीं क्षमा करेगा कि उसका साझी बनाया जाये[1] और उसके सिवा जिसे चाहे, क्षमा कर देगा। जो अल्लाह का साझी बनाता है, तो उसने महा पाप गढ़ लिया। 1. अर्थात पूजा, अराधना तथा अल्लाह के विशेष गुण कर्मों में किसी वस्तु या व्यक्ति को साझी बनाना घोर अक्षम्य पाप है, जो सत्धर्म के मूलाधार एकेश्वरवाद के विरुध्द, और अल्लाह पर मिथ्या आरोप है। यहूदियों ने अपने धर्माचार्यों तथा पादरियों के विषय में यह अंधविश्वास बना लिया है कि उन की बात को धर्म समझ कर उन्हीं का अनुपालन कर रहे थे। और मूल पुस्तकों को त्याग दिया था, क़ुर्आन इसी को शिर्क कहता है, वह कहता है कि सभी पाप क्षमा किये जा सकते हैं, परन्तु शिर्क के लिये क्षमा नहीं, क्यों कि इस से मूल धर्म की नींव ही हिल जाती है। और मार्गदर्शन का केंद्र ही बदल जाता है।
أَلَمْ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ يُزَكُّونَ أَنفُسَهُم بَلِ ٱللَّهُ يُزَكِّى مَن يَشَآءُ وَلَا يُظْلَمُونَ فَتِيلًا ﴾ 49 ﴿
अलम् त-र इलल्लज़ी-न युज़क्कू-न अन्फुसहुम, बलिल्लाहु युज़क्की मंय्यशा-उ वला युज़्लमू-न फतीला
क्या आपने उन्हें नहीं देखा, जो अपने आप पवित्र बन रहे हैं? बल्कि अल्लाह जिसे चाहे, पवित्र करता है और (लोगों पर) कण बराबर अत्याचार नहीं किया जायेगा।
ٱنظُرْ كَيْفَ يَفْتَرُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلْكَذِبَ وَكَفَىٰ بِهِۦٓ إِثْمًا مُّبِينًا ﴾ 50 ﴿
उन्ज़ुर कै-फ यफ्तरू-न अलल्लाहिल-कज़ि-ब, व कफा बिही इस्मम् मुबीना *
देखो, ये लोग कैसे अल्लाह पर मिथ्या आरोप लगा रहे[1] हैं! उनके खुले पाप के लिए यही बहुत है। 1. अर्थात अल्लाह का नियम तो यह है कि पवित्रता, ईमान तथा सत्कर्म पर निर्भर है, और यह कहते हैं कि यहूदियत पर है।
أَلَمْ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ أُوتُوا۟ نَصِيبًا مِّنَ ٱلْكِتَٰبِ يُؤْمِنُونَ بِٱلْجِبْتِ وَٱلطَّٰغُوتِ وَيَقُولُونَ لِلَّذِينَ كَفَرُوا۟ هَٰٓؤُلَآءِ أَهْدَىٰ مِنَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوا۟ سَبِيلًا ﴾ 51 ﴿
अलम् त-र इलल्लज़ी-न ऊतू नसीबम् मिनल्-किताबि युअ्मिनू-न बिल-जिब्ति वत्ताग़ूति व यक़ूलू-न लिल्लज़ी-न क-फरू हा-उला-इ अह्दा मिनल्लज़ी-न आमनू सबीला
(हे नबी!) क्या आपने उनकी दशा नहीं देखी, जिन्हें पुस्तक का कुछ भाग दिया गया? वे मूर्तियों तथा शैतानों पर ईमान (विश्वास) रखते हैं और काफ़िरों[1] के बारे में कहते हैं कि ये ईमान वालों से अधिक सीधी डगर पर हैं। 1. अर्थात मक्का के मूर्ति के पुजारियों के बारे में। मदीना के यहूदियों की यह दशा थी कि वह सदैव मूर्ति पूजा के विरोध रहे। और उस का अपमान करते रहे। परन्तु अब मुसलमानों के विरोध में उन की प्रशंसा करते और कहते कि मूर्ति पूजकों का आचरण स्वभाव अधिक अच्छा है।
أُو۟لَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ لَعَنَهُمُ ٱللَّهُ وَمَن يَلْعَنِ ٱللَّهُ فَلَن تَجِدَ لَهُۥ نَصِيرًا ﴾ 52 ﴿
उला-इकल्लज़ी-न ल-अ नहुमुल्लाहु, व मंय्यल अनिल्लाहु फ़-लन् तजि-द लहू नसीरा
और जिसे अल्लाह धिक्कार दे, आप उसका कदापि कोई सहायक नहीं पाएंगे।
أَمْ لَهُمْ نَصِيبٌ مِّنَ ٱلْمُلْكِ فَإِذًا لَّا يُؤْتُونَ ٱلنَّاسَ نَقِيرًا ﴾ 53 ﴿
अम् लहुम् नसीबुम् मिनल-मुल्कि फ-इज़ल्ला युअ्तूनन्ना-स नक़ीरा
क्या उनके पास राज्य का कोई भाग है, इसलिए लोगों को (उसमें से) तनिक भी नहीं देंगे?
أَمْ يَحْسُدُونَ ٱلنَّاسَ عَلَىٰ مَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضْلِهِۦ فَقَدْ ءَاتَيْنَآ ءَالَ إِبْرَٰهِيمَ ٱلْكِتَٰبَ وَٱلْحِكْمَةَ وَءَاتَيْنَٰهُم مُّلْكًا عَظِيمًا ﴾ 54 ﴿
अम् यह़्सुदूनन्ना-स अला मा आताहुमुल्लाहु मिन् फ़ज़्लिही, फ़-क़द् आतैना आ-ल इब्राहीमल्-किता-ब वल्हिक्म-त व आतैनाहुम् मुल्कन् अज़ीमा
बल्कि वे लोगों[1] से उस अनुग्रह पर विद्वेष कर रहे हैं, जो अल्लाह ने उन्हें प्रदान किया है। तो हमने (पहले भी) इब्राहीम के घराने को पुस्तक तथा ह़िक्मत (तत्वदर्शिता) दी है और उन्हें विशाल राज्य प्रदान किया है। 1. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और मुसलमानों पर कि अल्लाह ने आप को नबी बना दिया तथा मुसलमानों को ईमान दे दिया।
فَمِنْهُم مَّنْ ءَامَنَ بِهِۦ وَمِنْهُم مَّن صَدَّ عَنْهُ وَكَفَىٰ بِجَهَنَّمَ سَعِيرًا ﴾ 55 ﴿
फ-मिन्हुम मन् आम-न बिही व मिन्हुम् मन् सद् -द अन्हु, व कफ़ा बि-जहन्न-म सईरा
फिर उनमें से कोई ईमान लाया और कोई उससे विमुख हो गया। (तो विमुख होने वाले के लिए) नरक की भड़कती अग्नि बहुत है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُوا۟ بِـَٔايَٰتِنَا سَوْفَ نُصْلِيهِمْ نَارًا كُلَّمَا نَضِجَتْ جُلُودُهُم بَدَّلْنَٰهُمْ جُلُودًا غَيْرَهَا لِيَذُوقُوا۟ ٱلْعَذَابَ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَزِيزًا حَكِيمًا ﴾ 56 ﴿
इन्नल्लज़ी-न क-फरू बिआयातिना सौ-फ़ नुस्लीहिम् नारन्, कुल्लमा नज़िजत् जुलूदुहुम् बद्दल्नाहुम् जुलूदन ग़ै रहा लि-यज़ूक़ुल-अज़ा-ब, इन्नल्ला-ह का-न अज़ीज़न हकीमा
वास्तव में, जिन लोगों ने हमारी आयतों के साथ कुफ़्र (अविश्वास) किया, हम उन्हें नरक में झोंक देंगे। जब-जब उनकी खालें पकेंगी, हम उनकी खालें बदल देंगे, ताकि वे यातना चखें, निःसंदेह अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ है।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُوا۟ وَعَمِلُوا۟ ٱلصَّٰلِحَٰتِ سَنُدْخِلُهُمْ جَنَّٰتٍ تَجْرِى مِن تَحْتِهَا ٱلْأَنْهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدًا لَّهُمْ فِيهَآ أَزْوَٰجٌ مُّطَهَّرَةٌ وَنُدْخِلُهُمْ ظِلًّا ظَلِيلًا ﴾ 57 ﴿
वल्लज़ी-न आमनू व अमिलुस्सालिहाति सनुद्ख़िलुहुम् जन्नातिन् तज्री मिन् तह़्तिहल-अन्हारू ख़ालिदी-न फ़ीहा अ-बदन्, लहुम् फ़ीहा अज़्वाजुम् मुतह़्ह-रतुंव्-व नुद्ख़िलुहुम् ज़िल्लन् ज़लीला
और जो लोग ईमान लाये तथा सदाचार किये, हम उन्हें ऐसे स्वर्गों में प्रवेश देंगे, जिनमें नहरें प्रवाहित हैं। जिनमें वे सदावासी होंगे, उनके लिए उनमें निर्मल पत्नियाँ होंगी और हम उन्हें घनी छाँवों में रखेंगे।
إِنَّ ٱللَّهَ يَأْمُرُكُمْ أَن تُؤَدُّوا۟ ٱلْأَمَٰنَٰتِ إِلَىٰٓ أَهْلِهَا وَإِذَا حَكَمْتُم بَيْنَ ٱلنَّاسِ أَن تَحْكُمُوا۟ بِٱلْعَدْلِ إِنَّ ٱللَّهَ نِعِمَّا يَعِظُكُم بِهِۦٓ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ سَمِيعًۢا بَصِيرًا ﴾ 58 ﴿
इन्नल्ला-ह यअ्मुरूकुम् अन् तु-अद्दुल अमानाति इला अह़्लिहा, व इज़ा हकम्तुम् बैनन्नासि अन् तह़्कुमू बिल-अद्लि, इन्नल्ला-ह निअिम्मा यअिज़ुकुम बिही, इन्नल्ला-ह का-न समीअ़म् बसीरा
अल्लाह[1] तुम्हें आदेश देता है कि धरोहर उनके स्वामियों को चुका दो और जब लोगों के बीच निर्णय करो, तो न्याय के साथ निर्णय करो। अल्लाह तुम्हें अच्छी बात का निर्देश दे रहा है। निःसंदेह अल्लाह सब कुछ सुनने-देखने वाला है। 1. यहाँ से ईमान वालों को संबोधित किया जा रहा है कि सामाजिक जीवन की व्यवस्था के लिये मूल नियम यह है कि जिस का जो भी अधिकार हो, उसे स्वीकार किया जाये और दिया जाये। इसी प्रकार कोई भी निर्णय बिना पक्षपात के न्याय के साथ किया जाये, किसी प्रकार कोई अन्याय नहीं होना चाहिये।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓا۟ أَطِيعُوا۟ ٱللَّهَ وَأَطِيعُوا۟ ٱلرَّسُولَ وَأُو۟لِى ٱلْأَمْرِ مِنكُمْ فَإِن تَنَٰزَعْتُمْ فِى شَىْءٍ فَرُدُّوهُ إِلَى ٱللَّهِ وَٱلرَّسُولِ إِن كُنتُمْ تُؤْمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلْيَوْمِ ٱلْءَاخِرِ ذَٰلِكَ خَيْرٌ وَأَحْسَنُ تَأْوِيلًا ﴾ 59 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनू अतीअुल्ला-ह व अतीउर्रसू-ल व उलिल्-अम्रि मिन्कुम्, फ़-इन् तनाज़अ्तुम् फी शैइन् फरूद्दूहु इलल्लाहि वर्रसूलि इन् कुन्तुम् तुअ्मिनू-न बिल्लाहि वल्यौमिल-आख़िरि, ज़ालि-क खैरूंव्-व अह्सनु तअ्वीला *
हे ईमान वालो! अल्लाह की आज्ञा का अनुपालन करो और रसूल की आज्ञा का अनुपालन करो तथा अपने शासकों की आज्ञापालन करो। फिर यदि किसी बात में तुम आपस में विवाद (विभेद) कर लो, तो उसे अल्लाह और रसूल की ओर फेर दो, यदि तुम अल्लाह तथा अन्तिम दिन (प्रलय) पर ईमान रखते हो। ये तुम्हारे लिए अच्छा[1] और इसका परिणाम अच्छा है। 1. अर्थात किसी के विचार और राय को मानने से। क्यों कि क़ुर्आन और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत ही धर्मादेशों की शिलाधार हैं।
أَلَمْ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ يَزْعُمُونَ أَنَّهُمْ ءَامَنُوا۟ بِمَآ أُنزِلَ إِلَيْكَ وَمَآ أُنزِلَ مِن قَبْلِكَ يُرِيدُونَ أَن يَتَحَاكَمُوٓا۟ إِلَى ٱلطَّٰغُوتِ وَقَدْ أُمِرُوٓا۟ أَن يَكْفُرُوا۟ بِهِۦ وَيُرِيدُ ٱلشَّيْطَٰنُ أَن يُضِلَّهُمْ ضَلَٰلًۢا بَعِيدًا ﴾ 60 ﴿
अलम् त-र इलल्लज़ी-न यज़्अुमू-न अन्नहुम् आमनू बिमा उन्ज़ि-ल इलै-क व मा उन्ज़ि-ल मिन् क़ब्लि-क युरीदू-न अंय्य तहाकमू इलत्ताग़ूति व क़द् उमिरू अंय्यक्फुरु बिही, व युरीदुश्शैतानु अंय्युज़िल्लहुम् ज़लालम् बईदा
(हे नबी!) क्या आपने उन द्विधावादियों (मुनाफ़िक़ों) को नहीं जाना, जिनका ये दावा है कि जो कुछ आपपर अवतरित हुआ है तथा जो कुछ आपसे पूर्व अवतरित हुआ है, उनपर ईमान रखते हैं, किन्तु चाहते हैं कि अपने विवाद का निर्णय विद्रोही के पास ले जायें, जबकि उन्हें आदेश दिया गया है कि उसे अस्वीकार कर दें? और शैतान चाहता है कि उन्हें सत्धर्म से बहुत दूर[1] कर दे। 1. आयत का भावार्थ यह है कि जो धर्म विधान क़ुर्आन तथा सुन्नत के सिवा किसी अन्य विधान से अपना निर्णय चाहते हों, उन का ईमान का दावा मिथ्या है।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمْ تَعَالَوْا۟ إِلَىٰ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ وَإِلَى ٱلرَّسُولِ رَأَيْتَ ٱلْمُنَٰفِقِينَ يَصُدُّونَ عَنكَ صُدُودًا ﴾ 61 ﴿
व इज़ा क़ी-ल लहुम् तआलौ इला मा अन्ज़लल्लाहु व इलर्रसूलि रअय्तल्-मुनाफ़िक़ी-न यसुद्दू-न अन्-क सुदूदा
तथा जब उनसे कहा जाता है कि उस (क़ुर्आन) की ओर आओ, जो अल्लाह ने उतारा है तथा रसूल की (सुन्नत की) ओर, तो आप मुनाफ़िक़ों (द्विधावादियों) को देखते हैं कि वे आपसे मुँह फेर रहे हैं।
فَكَيْفَ إِذَآ أَصَٰبَتْهُم مُّصِيبَةٌۢ بِمَا قَدَّمَتْ أَيْدِيهِمْ ثُمَّ جَآءُوكَ يَحْلِفُونَ بِٱللَّهِ إِنْ أَرَدْنَآ إِلَّآ إِحْسَٰنًا وَتَوْفِيقًا ﴾ 62 ﴿
फ़कै-फ़ इज़ा असाबत्हुम् मुसीबतुम् बिमा क़द्दमत् ऐदीहिम् सुम्-म जाऊ-क यहलिफू-न, बिल्लाहि इन् अरद्ना इल्ला इहसानंव्-व तौफीक़ा
फिर यदि उनके अपने ही करतूतों के कारण उनपर कोई आपदा आ पड़े, तो फिर आपके पास आ कर शपथ लेते हैं कि हमने[1] तो केवल भलाई तथा (दोनों पक्षों में) मेल कराना चाहा था। 1. आयत का भावार्थ यह है कि मुनाफ़िक़ ईमान का दावा तो करते थे, परन्तु अपने विवाद चुकाने के लिये इस्लाम के विरोधियों के पास जाते, फिर जब कभी उन की दो रंगी पकड़ी जाती तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आ कर मिथ्या शपथ लेते। और यह कहते कि हम केवल विवाद सुलझाने के लिये उन के पास चले गये थे। (इब्ने कसीर)
أُو۟لَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ يَعْلَمُ ٱللَّهُ مَا فِى قُلُوبِهِمْ فَأَعْرِضْ عَنْهُمْ وَعِظْهُمْ وَقُل لَّهُمْ فِىٓ أَنفُسِهِمْ قَوْلًۢا بَلِيغًا ﴾ 63 ﴿
उलाइ-कल्लज़ी-न यअ् लमुल्लाहु मा फ़ी क़ुलूबिहिम्, फ़-अअ्-रिज़् अन्हुम् व अिज़्हुम् व क़ुल्-लहुम् फ़ी अन्फुसिहिम् क़ौलम् बलीग़ा
यही वो लोग हैं, जिनके दिलों के भीतर की बातें अल्लाह जानता है। अतः, आप उन्हें क्षमा कर दें और उनसे ऐसी प्रभावी बात बोलें, जो उनके दिलों में उतर जाये।
وَمَآ أَرْسَلْنَا مِن رَّسُولٍ إِلَّا لِيُطَاعَ بِإِذْنِ ٱللَّهِ وَلَوْ أَنَّهُمْ إِذ ظَّلَمُوٓا۟ أَنفُسَهُمْ جَآءُوكَ فَٱسْتَغْفَرُوا۟ ٱللَّهَ وَٱسْتَغْفَرَ لَهُمُ ٱلرَّسُولُ لَوَجَدُوا۟ ٱللَّهَ تَوَّابًا رَّحِيمًا ﴾ 64 ﴿
व मा अरसल्ना मिर्रसूलिन् इल्ला लियुता-अ बि- इज़्निल्लाहि, व लौ अन्नहुम् इज़्-ज़-लमू अन्फु-सहुम् जाऊ-क फ़स्तग़्फरूल्ला-ह वस्तग़्फ-र लहुमुर्रसूलु ल-व-जदुल्ला-ह तव्वाबर्रहीमा
और हमने जो भी रसूल भेजा, वो इसलिए, ताकि अल्लाह की अनुमति से, उसकी आज्ञा का पालन किया जाये और जब उन लोगों ने अपने ऊपर अत्याचार किया, तो यदि वे आपके पास आते, फिर अल्लाह से क्षमा याचना करते तथा उनके लिए रसूल क्षमा की प्रार्थना करते, तो अल्लाह को अति क्षमाशील दयावान् पाते।
فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤْمِنُونَ حَتَّىٰ يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيْنَهُمْ ثُمَّ لَا يَجِدُوا۟ فِىٓ أَنفُسِهِمْ حَرَجًا مِّمَّا قَضَيْتَ وَيُسَلِّمُوا۟ تَسْلِيمًا ﴾ 65 ﴿
फ़ला व रब्बि-क ला युअ्मिनू-न हत्ता युहक्किमू-क फ़ीमा श-ज-र बैनहुम् सुम्-म ला यजिदू फ़ी अन्फुसिहिम् ह-रजम्-मिम्मा क़ज़ै-त व युसल्लिमू तस्लीमा
तो आपके पालनहार की शपथ! वे कभी ईमान वाले नहीं हो सकते, जब तक अपने आपस के विवाद में आपको निर्णायक न बनाएँ[1], फिर आप जो निर्णय कर दें, उससे अपने दिलों में तनिक भी संकीर्णता (तंगी) का अनुभव न करें और पूर्णता स्वीकार कर लें। 1. यह आदेश आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जीवन में था। तथा आप के निधन के पश्चात् अब आप की सुन्नत से निर्णय लेना है।
وَلَوْ أَنَّا كَتَبْنَا عَلَيْهِمْ أَنِ ٱقْتُلُوٓا۟ أَنفُسَكُمْ أَوِ ٱخْرُجُوا۟ مِن دِيَٰرِكُم مَّا فَعَلُوهُ إِلَّا قَلِيلٌ مِّنْهُمْ وَلَوْ أَنَّهُمْ فَعَلُوا۟ مَا يُوعَظُونَ بِهِۦ لَكَانَ خَيْرًا لَّهُمْ وَأَشَدَّ تَثْبِيتًا ﴾ 66 ﴿
व लौ अन्ना कतब् ना अलैहिम् अनिक़्तुलू अन्फु-सकुम् अविख़्रूजू मिन् दियारिकुम् मा फ़-अलूहु इल्ला क़लीलुम्-मिन्हुम, व लौ अन्नहुम् फ़-अलू मा यू-अज़ू-न बिही लका-न ख़ैरल्लहुम् व अशद् -द तस्बीता
और यदि हम उन्हें[1] आदेश देते कि स्वयं को वध करो तथा अपने घरों से निकल जाओ, तो इनमें से थोड़े के सिवा कोई ऐसा नहीं करता। जबकि उन्हें जो निर्देश दिया जाता है, यदि वे उसका पालन करते, तो उनके लिए अच्छा और अधिक स्थिरता का कारण होता। 1. अर्थात जो दुसरों से निर्णय कराते हैं।
وَإِذًا لَّءَاتَيْنَٰهُم مِّن لَّدُنَّآ أَجْرًا عَظِيمًا ﴾ 67 ﴿
व इज़ल-लआतैनाहुम् मिल्लदुन्ना अज्रन् अज़ीमा
और हम उन्हें अपने पास से बहुत बड़ा प्रतिफल देते।
وَلَهَدَيْنَٰهُمْ صِرَٰطًا مُّسْتَقِيمًا ﴾ 68 ﴿
वल-हदैनाहुम् सिरातम् मुस्तक़ीमा
तथा हम उन्हें सीधी डगर दर्शा देते।
وَمَن يُطِعِ ٱللَّهَ وَٱلرَّسُولَ فَأُو۟لَٰٓئِكَ مَعَ ٱلَّذِينَ أَنْعَمَ ٱللَّهُ عَلَيْهِم مِّنَ ٱلنَّبِيِّۦنَ وَٱلصِّدِّيقِينَ وَٱلشُّهَدَآءِ وَٱلصَّٰلِحِينَ وَحَسُنَ أُو۟لَٰٓئِكَ رَفِيقًا ﴾ 69 ﴿
व मंय्युतिअिल्ला-ह वर्रसू-ल फ-उलाइ-क मअ़ल्लज़ी-न अन् अ-मल्लाहु अलैहिम् मिनन्-नबिय्यी-न वसिद्दीक़ी-न वश्शु-हदा-इ वस्सालिही-न, व हसु-न उलाइ-क रफ़ीक़ा
तथा जो अल्लाह और रसूल की आज्ञा का अनुपालन करेंगे, वही (स्वर्ग में), उनके साथ होंगे, जिनपर अल्लाह ने पुरस्कार किया है, अर्थात नबियों, सत्यवादियों, शहीदों और सदाचारियों के साथ और वे क्या ही अच्छे साथी हैं?
ذَٰلِكَ ٱلْفَضْلُ مِنَ ٱللَّهِ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ عَلِيمًا ﴾ 70 ﴿
ज़ालिकल्-फज़्लु मिनल्लाहि, व कफ़ा बिल्लाहि अलीमा *
ये प्रदान अल्लाह की ओर से है और अल्लाह का ज्ञान बहुत[1] है। 1. अर्थात अपनी दया तथा प्रदान के याग्य को जानने के लिये।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوا۟ خُذُوا۟ حِذْرَكُمْ فَٱنفِرُوا۟ ثُبَاتٍ أَوِ ٱنفِرُوا۟ جَمِيعًا ﴾ 71 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनू ख़ुज़ू हिज़्रकुम फ़न्फिरू सुबातिन् अविन्फ़िरू जमीआ
हे ईमान वालो! अपने (शत्रु से) बचाव के साधन तैयार रखो, फिर गिरोहों में अथवा एक साथ निकल पड़ो।
وَإِنَّ مِنكُمْ لَمَن لَّيُبَطِّئَنَّ فَإِنْ أَصَٰبَتْكُم مُّصِيبَةٌ قَالَ قَدْ أَنْعَمَ ٱللَّهُ عَلَىَّ إِذْ لَمْ أَكُن مَّعَهُمْ شَهِيدًا ﴾ 72 ﴿
व इन्-न मिन्कुम् ल-मल्लयुबत्तिअन्-न फ़-इन् असाबत्कुम् मुसीबतुन् क़ा-ल क़द् अन्अ-मल्लाहु अलय्-य इज़् लम् अकुम् म-अहुम् शहीदा
और तुममें कोई ऐसा व्यक्ति[1] भी है, जो तुमसे अवश्य पीछे रह जोएगा और यदि तुमपर (युध्द में) कोई आपदा आ पड़े, तो कहेगाः अल्लाह ने मुझपर उपकार किया कि मैं उनके साथ उपस्थित न था। 1. यहाँ युध्द से संबंधित अब्दुल्लाह बिन उबय्य जैसे मुनाफ़िक़ों (द्विधावादियों) की दशा का वर्णन किया जा रहा है। (इब्ने कसीर)
وَلَئِنْ أَصَٰبَكُمْ فَضْلٌ مِّنَ ٱللَّهِ لَيَقُولَنَّ كَأَن لَّمْ تَكُنۢ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَهُۥ مَوَدَّةٌ يَٰلَيْتَنِى كُنتُ مَعَهُمْ فَأَفُوزَ فَوْزًا عَظِيمًا ﴾ 73 ﴿
व ल-इन असाबकुम् फज़्लुम मिनल्लाहि ल-यक़ूलन्-न क-अल्लम् तकुम् बैनकुम् व बैनहू मवद्दतुंय-यालैतनी कुन्तु म-अहुम् फ़-अफू-ज़ फौज़न् अज़ीमा
और यदि तुमपर अल्लाह की दया हो जाये, तो वे अवश्य ये कामना करेगा कि काश! मैं भी उनके साथ होता, तो बड़ी सफलता प्राप्त कर लेता। मानो उसके और तुम्हारे मध्य कोई मित्रता ही न थी।
فَلْيُقَٰتِلْ فِى سَبِيلِ ٱللَّهِ ٱلَّذِينَ يَشْرُونَ ٱلْحَيَوٰةَ ٱلدُّنْيَا بِٱلْءَاخِرَةِ وَمَن يُقَٰتِلْ فِى سَبِيلِ ٱللَّهِ فَيُقْتَلْ أَوْ يَغْلِبْ فَسَوْفَ نُؤْتِيهِ أَجْرًا عَظِيمًا ﴾ 74 ﴿
फल्युक़ातिल् फी सबीलिल्लाहिल्लज़ी-न यश्रूनल् -हयातद्दुन्या बिल्आख़ि-रति, व मंय्युक़ातिल फी सबीलिल्लाहि फ-युक़्तल् औ यग़्लिब् फ़सौ-फ नुअ्तीहि अज्रन् अज़ीमा
तो चाहिए कि अल्लाह की राह[1] में वे लोग युध्द करें, जो आख़िरत (परलोक) के बदले सांसारिक जीवन बेच चुके हैं और जो अल्लाह की राह में युध्द करेगा, वो मारा जाये अथवा विजयी हो जाये, हम उसे बड़ा प्रतिफल प्रदान करेंगे। 1. अल्लाह के धर्म को ऊँचा करने, और उस की रक्षा के लिये। किसी स्वार्थ अथवा किसी देश और संसारिक धन धान्य की प्राप्ति के लिये नहीं।
وَمَا لَكُمْ لَا تُقَٰتِلُونَ فِى سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱلْمُسْتَضْعَفِينَ مِنَ ٱلرِّجَالِ وَٱلنِّسَآءِ وَٱلْوِلْدَٰنِ ٱلَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَآ أَخْرِجْنَا مِنْ هَٰذِهِ ٱلْقَرْيَةِ ٱلظَّالِمِ أَهْلُهَا وَٱجْعَل لَّنَا مِن لَّدُنكَ وَلِيًّا وَٱجْعَل لَّنَا مِن لَّدُنكَ نَصِيرًا ﴾ 75 ﴿
व मा लकुम् ला तुक़ातिलू-न फी सबीलिल्लाहि वल्-मुस्तज़्अफ़ी न मिनर्रिजालि वन्निसा-इ वल्-विल्दानिल्लज़ी-न यक़ूलू-न रब्बना अख़्रिज्ना मिन् हाज़िहिल् क़रयतिज़्ज़ालिमि अह़्लुहा, वज्अल्लना मिल्लदुन्-क वलिय्यंव-वज्अल्लना मिल्लदुन्-क नसीरा
और तुम्हें क्या हो गया है कि अल्लाह की राह में युध्द नहीं करते, जबकि कितने ही निर्बल पुरुष, स्त्रियाँ और बच्चे हैं, जो गुहार रहे हैं कि हे हमारे पालनहार! हमें इस नगर[1] से निकाल दे, जिसके निवासी अत्याचारी हैं और हमारे लिए अपनी ओर से कोई रक्षक बना दे और हमारे लिए अपनी ओर से कोई सहायक बना दे। 1. अर्थात मक्का नगर से। यहाँ इस तथ्य को उजागर कर दिया गया है कि क़ुर्आन ने युध्द का आदेश इस लिये नहीं दिया है कि दूसरों पर अत्याचार किया जाये। बल्कि नृशंसितों तथा निर्बलों की सहायता के लिये दिया है। इसी लिये वह बार बार कहता है कि "अल्लाह की राह में युध्द करो", अपने स्वार्थ और मनोकांक्षाओं के लिये नहीं। न्याय तथा सत्य की स्थापना और सुरक्षा के लिये युध्द करो।
ٱلَّذِينَ ءَامَنُوا۟ يُقَٰتِلُونَ فِى سَبِيلِ ٱللَّهِ وَٱلَّذِينَ كَفَرُوا۟ يُقَٰتِلُونَ فِى سَبِيلِ ٱلطَّٰغُوتِ فَقَٰتِلُوٓا۟ أَوْلِيَآءَ ٱلشَّيْطَٰنِ إِنَّ كَيْدَ ٱلشَّيْطَٰنِ كَانَ ضَعِيفًا ﴾ 76 ﴿
अल्लज़ी-न आमनू युक़ातिलू-न फ़ी सबीलिल्लाहि, वल्लज़ी-न क-फरू युक़ातिलू-न फी सबीलित्ताग़ूति फ़क़ातिलू औलिया-अश्शैतानि, इन्-न कैद्श्शैतानि का-न ज़ईफ़ा*
जो लोग ईमान लाये, वे अल्लाह की राह में युध्द करते हैं और जो काफ़िर हैं, वे उपद्रव के लिए युध्द करते हैं। तो शैतान के साथियों से युध्द करो। निःसंदेह शैतान की चाल निर्बल होती है।
أَلَمْ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ قِيلَ لَهُمْ كُفُّوٓا۟ أَيْدِيَكُمْ وَأَقِيمُوا۟ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُوا۟ ٱلزَّكَوٰةَ فَلَمَّا كُتِبَ عَلَيْهِمُ ٱلْقِتَالُ إِذَا فَرِيقٌ مِّنْهُمْ يَخْشَوْنَ ٱلنَّاسَ كَخَشْيَةِ ٱللَّهِ أَوْ أَشَدَّ خَشْيَةً وَقَالُوا۟ رَبَّنَا لِمَ كَتَبْتَ عَلَيْنَا ٱلْقِتَالَ لَوْلَآ أَخَّرْتَنَآ إِلَىٰٓ أَجَلٍ قَرِيبٍ قُلْ مَتَٰعُ ٱلدُّنْيَا قَلِيلٌ وَٱلْءَاخِرَةُ خَيْرٌ لِّمَنِ ٱتَّقَىٰ وَلَا تُظْلَمُونَ فَتِيلًا ﴾ 77 ﴿
अलम् त-र इलल्लज़ी-न क़ी-ल लहुम् कुफ्फू ऐदी-यकुम् व अक़ीमुस्सला-त व आतुज़्ज़का-त, फ़-लम्मा कुति-ब अलैहिमुल्-क़ितालु इज़ा फरीक़ुम् मिन्हुम् यख़्शौनन्ना-स क-ख़श् यतिल्लाहि औ अशद्-द ख़श्य -तन्, व क़ालू रब्बना लि-म कतब्-त अलैनल-क़िता-ल, लौ ला अख़्ख़र्तना इला अ-जलिन् क़रीबिन्, क़ुल मताअुद्दुन्या क़लीलुन्, वल आख़ि-रतु ख़ैरूल्-लि मनित्तक़ा, व ला तुज़्लमू-न फ़तीला
(हे नबी!) क्या आपने उनकी दशा नहीं देखी, जिनसे कहा गया था कि अपने हाथों को (युध्द से) रोके रखो, नमाज़ की स्थापना करो और ज़कात दो? परन्तु जब उनपर युध्द करना लिख दिया गया, तो उनमें से एक गिरोह लोगों से ऐसे डर रहा है, जैसे अल्लाह से डर रहा हो या उससे भी अधिक तथा वे कहते हैं कि हे हमारे पालनहार! हमें युध्द करने का आदेश क्यों दे दिया, क्यों न हमें थोड़े दिनों का और अवसर दिया? आप कह दें कि सांसारिक सुख बहुत थोड़ा है तथा परलोक उसके लिए अधिक अच्छा है, जो अल्लाह[1] से डरा और उनपर कण भर भी अत्याचार नहीं किया जायेगा। 1. अर्थात परलोक का सुख उस के लिये है, जिस ने अल्लाह के आदेशों का पालन किया।
أَيْنَمَا تَكُونُوا۟ يُدْرِككُّمُ ٱلْمَوْتُ وَلَوْ كُنتُمْ فِى بُرُوجٍ مُّشَيَّدَةٍ وَإِن تُصِبْهُمْ حَسَنَةٌ يَقُولُوا۟ هَٰذِهِۦ مِنْ عِندِ ٱللَّهِ وَإِن تُصِبْهُمْ سَيِّئَةٌ يَقُولُوا۟ هَٰذِهِۦ مِنْ عِندِكَ قُلْ كُلٌّ مِّنْ عِندِ ٱللَّهِ فَمَالِ هَٰٓؤُلَآءِ ٱلْقَوْمِ لَا يَكَادُونَ يَفْقَهُونَ حَدِيثًا ﴾ 78 ﴿
ऐ-न मा तकूनू युद्रिक्कुमुल्-मौतु व लौ कुन्तुम् फ़ी बुरूजिम् मुशय्य- दतिन्, व इन् तुसिब्हुम् ह-स-नतुंय्यक़ूलू हाज़िही मिन् अिन्दिल्लाहि व इन् तुसिब्हुम् सय्यि-अतुंय्यक़ूलू हाज़िही मिन् अिन्दि-क, क़ुल कुल्लुम् मिन् अिन्दिल्लाहि, फ़मालि हा-उला इल्क़ौमि ला यकादू-न यफ़्क़हू-न हदीसा
तुम जहाँ भी रहो, तुम्हें मौत आ पकड़ेगी, यद्यपि दृढ़ दुर्गों में क्यों न रहो। तथा उन्हें यदि कोई सुख पहुँचता है, तो कहते हैं कि ये अल्लाह की ओर से है और यदि कोई आपदा आ पड़े, तो कहते हैं कि ये आपके कारण है। (हे नबी!) उनसे कह दो कि सब अल्लाह की ओर से है। इन लोगों को क्या हो गया कि कोई बात समझने के समीप भी नहीं[1] होते? 1. भावार्थ यह है कि जब मुसलमानों को कोई हानि हो जाती, तो मुनाफ़िक़ (द्विधावादी) तथा यहूदी कहतेः यह सब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कारण हुआ। क़ुर्आन कहता है कि सब कुछ अल्लाह की ओर से होता है। अर्थात उस ने प्रत्येक दशा तथा परिणाम के लिये कुछ नियम बना दिये हैं। और जो कुछ भी होता है, वह उन्हीं दशाओं का परिणाम होता है। अतः तुम्हारी यह बातें जो कह रहे हो, बड़ी अज्ञानता की बातें हैं।
مَّآ أَصَابَكَ مِنْ حَسَنَةٍ فَمِنَ ٱللَّهِ وَمَآ أَصَابَكَ مِن سَيِّئَةٍ فَمِن نَّفْسِكَ وَأَرْسَلْنَٰكَ لِلنَّاسِ رَسُولًا وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدًا ﴾ 79 ﴿
मा असाब-क मिन् ह-स-नतिन् फ़मिनल्लाहि, व मा असाब-क मिन सय्यि-अतिन् फ़-मिन्नफ्सि-क, व अरसल्ना-क लिन्नासि रसूलन, व कफ़ा बिल्लाहि शहीदा
(वास्तविक्ता तो ये है कि) तुम्हें जो सुख पहुँचता है, वह अल्लाह की ओर से होता है तथा जो हानि पहुँचती है, वह स्वयं (तुम्हारे कुकर्मों के) कारण होती है और हमने आपको सब मानव का रसूल (संदेशवाहक) बनाकर भेजा[1] है और (आपके रसूल होने के लिए) अल्लाह का साक्ष्य बहुत है। 1. इस का भावार्थ यह है कि तुम्हें जो कुछ हानि होती है, वह तुम्हारे कुकर्मों का दुष्परिणाम होता है। इस का आरोप दूसरे पर न धरो। इस्लाम के नबी तो अल्लाह के रसूल हैं और रसूल का काम यही है कि संदेश पहुँचा दें, और तुम्हारा कर्तव्य है कि उन के सभी आदेशों का अनुपालन करो। फिर यदि तुम अवज्ञा करो, और उस का दुष्परिणाम सामने आये, तो दोष तुम्हारा है, न कि इस्लाम के नबी का।
مَّن يُطِعِ ٱلرَّسُولَ فَقَدْ أَطَاعَ ٱللَّهَ وَمَن تَوَلَّىٰ فَمَآ أَرْسَلْنَٰكَ عَلَيْهِمْ حَفِيظًا ﴾ 80 ﴿
मंय्युतिअिर रसू-ल फ़-क़द् अताअल्ला-ह, व मन् तवल्ला फ़मा अरसल्ना-क अलैहिम् हफ़ीज़ा
जिसने रसूल की आज्ञा का अनुपालन किया, (वास्तव में) उसने अल्लाह की आज्ञा का पालन किया तथा जिसने मुँह फेर लिया, तो (हे नबी!) हमने आपको उनका प्रहरी (रक्षक) बनाकर नहीं भेजा[1] है। 1. अर्थात आप का कर्तव्य अल्लाह का संदेश पहुँचाना है, उन के कर्मों तथा उन्हें सीधी डगर पर लगा देने का दायित्व आप पर नहीं है।
وَيَقُولُونَ طَاعَةٌ فَإِذَا بَرَزُوا۟ مِنْ عِندِكَ بَيَّتَ طَآئِفَةٌ مِّنْهُمْ غَيْرَ ٱلَّذِى تَقُولُ وَٱللَّهُ يَكْتُبُ مَا يُبَيِّتُونَ فَأَعْرِضْ عَنْهُمْ وَتَوَكَّلْ عَلَى ٱللَّهِ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِيلً ﴾ 81 ﴿
व यक़ूलू-न ताअतुन, फ़-इज़ा ब-रज़ू मिन् अिन्दि-क बय्य-त ता-इ-फतुम् मिन्हुम् ग़ैरल्लज़ी तक़ूलु, वल्लाहु यक्तुबु मा युबय्यितू-न, फ़-अअ्-रिज़ अन्हुम् व तवक्कल अलल्लाहि, व कफ़ा बिल्लाहि वकीला
तथा वे (आपके सामने) कहते हैं कि हम आज्ञाकारी हैं और जब आपके पास से जाते हैं, तो उनमें से कुछ लोग, रात में, आपकी बात के विरुध्द परामर्श करते हैं और वे जो परामर्श कर रहे हैं, उसे अल्लाह लिख रहा है। अतः आप उनपर ध्यान न दें और अल्लाह पर भरोसा करें तथा अल्लाह पर भरोसा काफ़ी है।
أَفَلَا يَتَدَبَّرُونَ ٱلْقُرْءَانَ وَلَوْ كَانَ مِنْ عِندِ غَيْرِ ٱللَّهِ لَوَجَدُوا۟ فِيهِ ٱخْتِلَٰفًا كَثِيرًا ﴾ 82 ﴿
अ-फला य-तदब्बरूनल् क़ुरआ-न, व लौ का-न मिन् अिन्दि ग़ैरिल्लाहि ल-व जदू फीहिख़्तिलाफ़न् कसीरा
तो क्या वे क़ुर्आन के अर्थों पर सोच-विचार नहीं करते? यदि वे अल्लाह के सिवा दूसरे की ओर से होता, तो उसमें बहुत सी प्रतिकूल (बेमेल) बातें पाते[1]। 1. अर्थात जो व्यक्ति क़ुर्आन में विचार करेगा, उस पर यह तथ्य खुल जायेगा कि क़ुर्आन अल्लाह की वाणी है।
وَإِذَا جَآءَهُمْ أَمْرٌ مِّنَ ٱلْأَمْنِ أَوِ ٱلْخَوْفِ أَذَاعُوا۟ بِهِۦ وَلَوْ رَدُّوهُ إِلَى ٱلرَّسُولِ وَإِلَىٰٓ أُو۟لِى ٱلْأَمْرِ مِنْهُمْ لَعَلِمَهُ ٱلَّذِينَ يَسْتَنۢبِطُونَهُۥ مِنْهُمْ وَلَوْلَا فَضْلُ ٱللَّهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهُۥ لَٱتَّبَعْتُمُ ٱلشَّيْطَٰنَ إِلَّا قَلِيلًا ﴾ 83 ﴿
व इज़ा जा-अहुम् अम्रूम् मिनल्-अम्नि अविल्ख़ौफि अज़ाअू बिही, व लौ रद्दूहु इलर्रसूलि व इला उलिल्-अमरि मिन्हुम् ल-अलि-महुल्लज़ी-न यस्तम्बितूनहू मिन्हुम्, व लौ ला फज़्लुल्लाहि अलैकुम्व रह़्मतुहू लत्त-बअ्तुमुश्शैता-न इल्ला क़लीला
और जब उनके पास शांति या भय की कोई सूचना आती है, तो उसे फैला देते हैं। जबकि यदि वे उसे अल्लाह के रसूल तथा अपने अधिकारियों की ओर फेर देते, तो जो बात की तह तक पहुँचने वाले हैं, वे उसकी वास्तविक्ता जान लेते। यदि तुमपर अल्लाह की अनुकम्पा तथा दया न होती, तो तुममें थोड़े के सिवा सब शैतान के पीछे भाग[1] जाते। 1. इस आयत द्वारा यह निर्देश दिया जा रहा है कि जब भी साधारण शांति या भय की कोई सूचना मिले तो उसे अधिकारियों तथा शासकों तक पहुँचा दिया जाये।
فَقَٰتِلْ فِى سَبِيلِ ٱللَّهِ لَا تُكَلَّفُ إِلَّا نَفْسَكَ وَحَرِّضِ ٱلْمُؤْمِنِينَ عَسَى ٱللَّهُ أَن يَكُفَّ بَأْسَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوا۟ وَٱللَّهُ أَشَدُّ بَأْسًا وَأَشَدُّ تَنكِيلًا ﴾ 84 ﴿
फक़ातिल् फ़ी सबीलिल्लाहि, ला तुकल्लफु इल्ला नफ्स-क व हर्रिज़िल-मुअ्मिनी-न, असल्लाहु अंय्यकुफ्-फ़ बअ्सल्लज़ी-न क-फरू, वल्लाहु अशद्दु बअ्संव् व अशद्दु तन्कीला
तो (हे नबी!) आप अल्लाह की राह में युध्द करें। केवल आपपर ये भार डाला जा रहा है तथा ईमान वालों को (इसकी) प्रेरणा दें। संभव है कि अल्लाह काफ़िरों का बल (तोड़ दे)। अल्लाह का बल और उसका दण्ड सबसे कड़ा है।
مَّن يَشْفَعْ شَفَٰعَةً حَسَنَةً يَكُن لَّهُۥ نَصِيبٌ مِّنْهَا وَمَن يَشْفَعْ شَفَٰعَةً سَيِّئَةً يَكُن لَّهُۥ كِفْلٌ مِّنْهَا وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَىْءٍ مُّقِيتًا ﴾ 85 ﴿
मंय्यश्फअ् शफ़ा-अतन् हस नतंय्यकुल्लहू नसीबुम् मिन्हा, व मंय्यश्फअ् शफा-अतन् सय्यि-अतंय्यकुल्लहू किफ्लुम् मिन्हा, व कानल्लाहु अला कुल्लि शैइम्-मुक़ीता
जो अच्छी अनुशंसा (सिफ़ारिश) करेगा, उसे उसका भाग (प्रतिफल) मिलेगा तथा जो बुरी अनुशंसा (सिफ़ारिश) करेगा, तो उसे भी उसका भाग (कुफल)[1] मिलेगा और अल्लाह प्रत्येक चीज़ का निरीक्षक है। 1. आयत का भावार्थ यह है कि अच्छाई तथा बुराई में किसी की सहायता करने का भी पुण्य और पाप मिलता है।
وَإِذَا حُيِّيتُم بِتَحِيَّةٍ فَحَيُّوا۟ بِأَحْسَنَ مِنْهَآ أَوْ رُدُّوهَآ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلَىٰ كُلِّ شَىْءٍ حَسِيبًا ﴾ 86 ﴿
व इज़ा हुय्यीतुम बि-तहिय्यतिन् फहय्यू बि-अह्स-न मिन्हा औ रूद्दूहा, इन्नल्ला-ह का-न अला कुल्लि शैइन् हसीबा •
और जब तुमसे सलाम किया जाये, तो उससे अच्छा उत्तर दो अथवा उसी को दोहरा दो। निःसंदेह अल्लाह प्रत्येक विषय का ह़िसाब लेने वाला है।
ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ لَيَجْمَعَنَّكُمْ إِلَىٰ يَوْمِ ٱلْقِيَٰمَةِ لَا رَيْبَ فِيهِ وَمَنْ أَصْدَقُ مِنَ ٱللَّهِ حَدِيثًا ﴾ 87 ﴿
अल्लाहु ला इला-ह इल्ला हु-व, ल-यज्म अन्नकुम् इला यौमिल् क़ियामति ला रै-ब फ़ीहि, व मन् अस्दक़ु मिनल्लाहि हदीसा *
अल्लाह के सिवा कोई वंदनीय (पूज्य) नहीं, वह अवश्य तुम्हें प्रलय के दिन एकत्र करेगा, इसमें कोई संदेह नहीं तथा बात कहने में अल्लाह से अधिक सच्चा कौन हो सकता है?
فَمَا لَكُمْ فِى ٱلْمُنَٰفِقِينَ فِئَتَيْنِ وَٱللَّهُ أَرْكَسَهُم بِمَا كَسَبُوٓا۟ أَتُرِيدُونَ أَن تَهْدُوا۟ مَنْ أَضَلَّ ٱللَّهُ وَمَن يُضْلِلِ ٱللَّهُ فَلَن تَجِدَ لَهُۥ سَبِيلًا ﴾ 88 ﴿
फमा लकुम् फिल्मुनाफिक़ी-न फि-अतैनि वल्लाहु अर्क-सहुम् बिमा क-सबू, अतुरीदू-न अन् तह़्दू मन् अज़ल्लल्लाहु, व मंय्युज़्लिलिल्लाहु फ-लन् तजि-द लहू सबीला
तुम्हें क्या हुआ है कि मुनाफ़िक़ों (द्विधावादियों) के बारे में दो पक्ष[1] बन गये हो, जबकि अल्लाह ने उनके कुकर्मों के कारण उन्हें ओंधा कर दिया है। क्या तुम उसे सुपथ दर्शा देना चाहते हो, जिसे अल्लाह ने कुपथ कर दिया हो? और जिसे अल्लाह कुपथ कर दे, तो तुम उसके लिए कोई राह नहीं पा सकते। 1. मक्का वासियों में कुछ अपने स्वार्थ के लिये मौखिक मुसलमान हो गये थे, और जब युध्द आरंभ हुआ तो उन के बारे में मुसलमानों के दो विचार हो गये। कुछ उन्हें अपना मित्र और कुछ उन्हें अपना शत्रु समझ रहे थे। अल्लाह ने यहाँ बता दिया कि वह लोग मुनाफ़िक़ (द्विधावादी) हैं। जब तक मक्का से हिजरत कर के मदीना में न आ जायें, और शत्रु ही के साथ रह जायें, उन्हें भी शत्रु समझा जायेगा। यह वह मुनाफ़िक़ नहीं हैं जिन की चर्चा पहले की गयी है, ये मक्का के विशेष मुनाफ़िक़ हैं, जिन से युध्द की स्थिति में कोई मित्रता की जा सकती थी, और न ही उन से कोई संबंध रखा जा सकता था।
وَدُّوا۟ لَوْ تَكْفُرُونَ كَمَا كَفَرُوا۟ فَتَكُونُونَ سَوَآءً فَلَا تَتَّخِذُوا۟ مِنْهُمْ أَوْلِيَآءَ حَتَّىٰ يُهَاجِرُوا۟ فِى سَبِيلِ ٱللَّهِ فَإِن تَوَلَّوْا۟ فَخُذُوهُمْ وَٱقْتُلُوهُمْ حَيْثُ وَجَدتُّمُوهُمْ وَلَا تَتَّخِذُوا۟ مِنْهُمْ وَلِيًّا وَلَا نَصِيرًا ﴾ 89 ﴿
वद्-दू लौ तक्फुरू-न कमा क-फरू फ़-तकूनू-न सवा-अन् फला तत्तख़िज़ू मिन्हुम् औलिया-अ हत्ता युहाजिरू फी सबीलिल्लाहि, फ़-इन् तवल्लौ फख़ुज़ू-हुम् वक़्तुलू-हुम् हैसु वजत्तुमू-हुम्, व ला तत्तख़िज़ू मिन्हुम् वलिय्यंव्-व ला नसीरा
(हे ईमान वालो!) वे तो ये कामना करते हैं कि उन्हीं के समान तुमभी काफ़िर हो जाओ तथा उनके बराबर हो जाओ। अतः उनमें से किसी को मित्र न बनाओ, जब तक वे अल्लाह की राह में हिजरत न करें। यदि वे इससे विमुख हों, तो उन्हें जहाँ पाओ, वध करो और उनमें से किसी को मित्र न बनाओ और न सहायक।
إِلَّا ٱلَّذِينَ يَصِلُونَ إِلَىٰ قَوْمٍۭ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَهُم مِّيثَٰقٌ أَوْ جَآءُوكُمْ حَصِرَتْ صُدُورُهُمْ أَن يُقَٰتِلُوكُمْ أَوْ يُقَٰتِلُوا۟ قَوْمَهُمْ وَلَوْ شَآءَ ٱللَّهُ لَسَلَّطَهُمْ عَلَيْكُمْ فَلَقَٰتَلُوكُمْ فَإِنِ ٱعْتَزَلُوكُمْ فَلَمْ يُقَٰتِلُوكُمْ وَأَلْقَوْا۟ إِلَيْكُمُ ٱلسَّلَمَ فَمَا جَعَلَ ٱللَّهُ لَكُمْ عَلَيْهِمْ سَبِيلًا ﴾ 90 ﴿
इल्लल्लज़ी-न यसिलू-न इला क़ौमिम् बैनकुम् व बैनहुम् मीसाक़ुन् औ जाऊकुम् हसिरत् सुदूरूहुम् अंय्युक़ातिलूकुम् औ युक़ातिलू क़ौमहुम्, व लौ शा-अल्लाहु ल-सल्ल-तहुम् अलैकुम् फ़-लक़ातलूकुम, फ़- इनिअ्-त ज़लूकुम् फ-लम् युक़ातिलूकुम् व अल्क़ौ इलैकुमुस्स-ल-म, फमा ज-अलल्लाहु लकुम् अलैहिम् सबीला
परन्तु उनमें से जो किसी ऐसी क़ौम से जा मिलें, जिनके और तुम्हारे बीच संधि हो अथवा ऐसे लोग हों, जो तुम्हारे पास इस स्थिति में आयें कि उनके दिल इससे संकुचित हो रहे हों कि तुमसे युध्द करें अथवा (तुम्हारे साथ) अपनी जाति से युध्द करें। यदि अल्लाह चाहता, तो उनहें तुमपर सामर्थ्य दे देता, फिर वे तुमसे युध्द करते। यदि वे तुमसे विलग रह गये, तुमसे युध्द नहीं किया और तुमसे संधि कर ली, तो उनके विरुध्द अल्लाह ने तुम्हारे लिए कोई (युध्द करने की) राह नहीं बनाई[1] है। 1. अर्थात इस्लाम में युध्द का आदेश उन के विरुध्द दिया गया है, जो इस्लाम के विरुध्द युध्द कर रहे हों। अन्यथा उन से युध्द करने का कोई कारण नहीं रह जाता क्यों कि मूल चीज़ शांति तथा संधि है, युध्द और हत्या नहीं।
سَتَجِدُونَ ءَاخَرِينَ يُرِيدُونَ أَن يَأْمَنُوكُمْ وَيَأْمَنُوا۟ قَوْمَهُمْ كُلَّ مَا رُدُّوٓا۟ إِلَى ٱلْفِتْنَةِ أُرْكِسُوا۟ فِيهَا فَإِن لَّمْ يَعْتَزِلُوكُمْ وَيُلْقُوٓا۟ إِلَيْكُمُ ٱلسَّلَمَ وَيَكُفُّوٓا۟ أَيْدِيَهُمْ فَخُذُوهُمْ وَٱقْتُلُوهُمْ حَيْثُ ثَقِفْتُمُوهُمْ وَأُو۟لَٰٓئِكُمْ جَعَلْنَا لَكُمْ عَلَيْهِمْ سُلْطَٰنًا مُّبِينًا ﴾ 91 ﴿
स-तजिदू-न आ-ख़री-न युरीदू-न अंय्य अ्मनूकुम व यअ्मनू क़ौमहुम, कुल्लमा रूद्दू इलल-फित्नति उर्किसू फ़ीहा, फ-इल्लम् यअ्-तज़िलूकुम् व युल्क़ू इलैकुमुस्स-ल-म व यकुफ्फू ऐदि-यहुम् फख़ुज़ूहुम् वक़्तुलूहुम् हैसु सक़िफ़्तुमूहुम, व उला-इकुम् जअल्ना लकुम् अलैहिम् सुल्तानम् मुबीना *
तथा तुम्हें कुछ ऐसे दूसरे लोग भी मिलेंगे, जो तुम्हारी ओर से भी शान्त रहना चाहते हैं और अपनी जाति की ओर से शांत रहना (चाहते हैं)। फिर जब भी उपद्रव की ओर फेर दिये जायेँ, तो उसमें ओंधे होकर गिर जाते हैं। तो यदि वे तुमसे विलग न रहें और तुमसे संधि न करें तथा अपना हाथ न रोकें, तो उन्हें पकड़ो और जहाँ पाओ, वध करो। हमने उनके विरुध्द तुम्हारे लिए खुला तर्क बना दिया है।
وَمَا كَانَ لِمُؤْمِنٍ أَن يَقْتُلَ مُؤْمِنًا إِلَّا خَطَـًٔا وَمَن قَتَلَ مُؤْمِنًا خَطَـًٔا فَتَحْرِيرُ رَقَبَةٍ مُّؤْمِنَةٍ وَدِيَةٌ مُّسَلَّمَةٌ إِلَىٰٓ أَهْلِهِۦٓ إِلَّآ أَن يَصَّدَّقُوا۟ فَإِن كَانَ مِن قَوْمٍ عَدُوٍّ لَّكُمْ وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَتَحْرِيرُ رَقَبَةٍ مُّؤْمِنَةٍ وَإِن كَانَ مِن قَوْمٍۭ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَهُم مِّيثَٰقٌ فَدِيَةٌ مُّسَلَّمَةٌ إِلَىٰٓ أَهْلِهِۦ وَتَحْرِيرُ رَقَبَةٍ مُّؤْمِنَةٍ فَمَن لَّمْ يَجِدْ فَصِيَامُ شَهْرَيْنِ مُتَتَابِعَيْنِ تَوْبَةً مِّنَ ٱللَّهِ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَكِيمًا ﴾ 92 ﴿
व मा का-न लिमुअ्मिनिन् अंय्यक़्तु-ल मुअ्मिनन् इल्ला ख़-तअन्, व मन् क़-त-ल मुअ्मिनन् ख़-तअन् फ़-तह़रीरू र-क़-बतिम् मुअ्मिनतिंव्-व दि-यतुम् मुसल्ल-मतुन् इला अह्-लिही इल्ला अंय्यस्सदक़ू, फ़ इन् का-न मिन् क़ौमिन् अदुविल्लकुम् व हु-व मुअ्मिनुन् फ़-तहरीरू र-क़-बतिम् मुअ्मि-नतिन्, व इन् का-न मिन् क़ौमिम् बैनकुम् व बैनहुम् मिसाक़ुन् फ-दि-यतुम् मुसल्ल-मतुन् इला अह़्लिही व तहरीरू र-क़-बतिम् मुअ्मि-नतिन्, फ़-मल्लम् यजिद् फ़सियामु शह्-रैनि मु-तताबिऐनि, तौब-तम् मिनल्लाहि, व कानल्लाहु अलीमन् हकीमा
किसी ईमान वाले के लिए वैध नहीं कि वो किसी ईमान वाले की हत्या कर दे, परन्तु चूक[1] से। फिर जो किसी ईमान वाले की चूक से हत्या कर दे, तो उसे एक ईमान वाला दास मुक्त करना है और उसके घर वालों को दियत (अर्थदण्ड)[2] देना है, परन्तु ये कि वे दान (क्षमा) कर दें। फिर यदि वह (निहत) उस जाति में से हो, जो तुम्हारी शत्रु है और वह (निहत) ईमान वाला है, तो एक ईमान वाला दास मुक्त करना है और यदि ऐसी क़ौम से हो, जिसके और तुम्हारे बीच संधि है, तो उसके घर वालों को अर्थदण्ड देना तथा एक ईमान वाला दास (भी) मुक्त करना है और जो दास न पाये, उसे निरन्तर दो महीने रोज़ा रखना है। अल्लाह की ओर से (उसके पाप की) यही क्षमा है और अल्लाह अति ज्ञानी तत्वज्ञ है। 1. अर्थात निशाना चूक कर लगे। 2. यह अर्थदण्ड सौ ऊँट अथवा उन का मूल्य है। आयत का भावार्थ यह है कि जिन की हत्या करने का आदेश दिया गया है, वह केवल इस लिये दिया गया है कि उन्हों ने इस्लाम तथा मुसलमानों के विरुध्द युध्द आरंभ कर दिया है। अन्यथा यदि युध्द की स्थिति न हो तो हत्या एक महापाप है। और किसी मुसलमान के लिये कदापि यह वैध नहीं कि किसी मुसलमान की, या जिस से समझोता हो, उस की जान बूझ कर हत्या कर दे। संधि मित्र से अभिप्राय वे सभी ग़ैर मुस्लिम हैं, जिन से मुसलमानों का युध्द न हो, संधि तथा संविदा हो। फिर यदि चूक से किसी ने किसी की हत्या कर दी तो उस का यह आदेश है, जो इस आयत में बताया गया है। यह ज्ञातव्य है कि क़ुर्आन ने केवल दो ही स्थिति में हत्या को उचित किया हैः युध्द की स्थिति में, अथवा नियमानुसार किसी अपराधी की हत्या की जाये। जैसे हत्यारे को हत्या के बदले हत किया जाये।
وَمَن يَقْتُلْ مُؤْمِنًا مُّتَعَمِّدًا فَجَزَآؤُهُۥ جَهَنَّمُ خَٰلِدًا فِيهَا وَغَضِبَ ٱللَّهُ عَلَيْهِ وَلَعَنَهُۥ وَأَعَدَّ لَهُۥ عَذَابًا عَظِيمًا ﴾ 93 ﴿
व मंय्यक़्तुल मुअ्मिनम् मु-तअम्मिदन फ-जज़ा-उहू जहन्नमु ख़ालिदन फ़ीहा व ग़ज़िबल्लाहु अलैहि व ल -अ-नहू व अ-अद्-द लहू अज़ाबन् अज़ीमा
और जो किसी ईमान वाले की हत्या जान-बूझ कर कर दे, उसका कुफल (बदला) नरक है, जिसमें वह सदावासी होगा और उसपर अल्लाह का प्रकोप तथा धिक्कार है और उसने उसके लिए घोर यातना तैयार कर रखी है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓا۟ إِذَا ضَرَبْتُمْ فِى سَبِيلِ ٱللَّهِ فَتَبَيَّنُوا۟ وَلَا تَقُولُوا۟ لِمَنْ أَلْقَىٰٓ إِلَيْكُمُ ٱلسَّلَٰمَ لَسْتَ مُؤْمِنًا تَبْتَغُونَ عَرَضَ ٱلْحَيَوٰةِ ٱلدُّنْيَا فَعِندَ ٱللَّهِ مَغَانِمُ كَثِيرَةٌ كَذَٰلِكَ كُنتُم مِّن قَبْلُ فَمَنَّ ٱللَّهُ عَلَيْكُمْ فَتَبَيَّنُوٓا۟ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُونَ خَبِيرًا ﴾ 94 ﴿
या अय्युहल्लज़ी-न आमनू इज़ा ज़रब्तुम फ़ी सबीलिल्लाहि फ़-तबय्यनू व ला तक़ूलू लिमन् अल्क़ा इलैकुमुस्सला-म लस्-त मुअ्मिनन्, तब्तग़ू-न अ-रज़ल् हयातिदुन्या, फ-अिन्दल्लाहि मग़ानिमु कसीरतुन्, कज़ालि-क कुन्तुम् मिन् क़ब्लु फ़-मन्नल्लाहु अलैकुम् फ़-तबय्यनू, इन्नल्ला-ह का-न बिमा तअ्मलू-न ख़बीरा
हे ईमान वालो! जब तुम अल्लाह की राह में (जिहाद के लिए) निकलो, तो भली-भाँति परख[1] लो और कोई तुम्हें सलाम[2] करे, तो ये न कहो कि तुम ईमान वाले नहीं हो। क्या तुम सांसारिक जीवन का उपकरण चाहते हो? जबकि अल्लाह के पास बहुत-से परिहार (शत्रुधन) हैं। तुमभी पहले ऐसे[3] ही थे, तो अल्लाह ने तुमपर उपकार किया। अतः, भली-भाँति परख लिया करो। निःसंदेह, अल्लाह उससे सूचित है, जो तुम कर रहे हो। 1. अर्थात यह कि वह शत्रु हैं या मित्र हैं। 2. सलाम करना मुसलमान होने का एक लक्षण है। 3. अर्थात इस्लाम के शब्द के सिवा तुम्हारे पास इस्लाम का कोई चिन्ह नहीं था। इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि रात के समय एक व्यक्ति यात्रा कर रहा था। जब उस से कुछ मुसलमान मिले तो उस ने अस्सलामु अलैकुम कहा। फिर भी एक मुसलमान ने उसे झूठा समझ कर मार दिया। इसी पर यह आयत उतरी। जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को इस का पता चला तो आप बहुत नाराज़ हुये। (इब्ने कसीर)
لَّا يَسْتَوِى ٱلْقَٰعِدُونَ مِنَ ٱلْمُؤْمِنِينَ غَيْرُ أُو۟لِى ٱلضَّرَرِ وَٱلْمُجَٰهِدُونَ فِى سَبِيلِ ٱللَّهِ بِأَمْوَٰلِهِمْ وَأَنفُسِهِمْ فَضَّلَ ٱللَّهُ ٱلْمُجَٰهِدِينَ بِأَمْوَٰلِهِمْ وَأَنفُسِهِمْ عَلَى ٱلْقَٰعِدِينَ دَرَجَةً وَكُلًّا وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلْحُسْنَىٰ وَفَضَّلَ ٱللَّهُ ٱلْمُجَٰهِدِينَ عَلَى ٱلْقَٰعِدِينَ أَجْرًا عَظِيمًا ﴾ 95 ﴿
ला यस्तविल् क़ाअिदू-न मिनल मुअ्मिनी-न ग़ैरू उलिज़्ज़ररि वल्मुजाहिदू-न फ़ी सबीलिल्लाहि बि-अम्वालिहिम् व अन्फुसिहिम्, फ़ज़्ज़-लल्लाहुल मुजाहिदी-न बि-अम्वालिहिम् व अन्फुसिहिम् अलल्-क़ाअिदी-न द-र-जतन्, व कुल्लंव्-व-अदल्लाहुल-हुस्ना, व फज़्ज़-लल्लाहुल मुजाहिदी-न अलल्-क़ाअिदी-न अज्रन् अज़ीमा
ईमान वालों में जो अकारण अपने घरों में रह जाते हैं और जो अल्लाह की राह में अपने धनों और प्राणों के द्वारा जिहाद करते हैं, दोनों बराबर नहीं हो सकते। अल्लाह ने उन्हें जो अपने धनों तथा प्राणों के द्वारा जिहाद करते हैं, उनपर जो घरों में रह जाते हैं, पद में प्रधानता दी है और प्रत्येक को अल्लाह ने भलाई का वचन दिया है और अल्लाह ने जिहाद करने वालों को उनपर, जो घरों में बैठे रह जाने वाले हैं, बड़े प्रतिफल में भी प्रधानता दी है।
دَرَجَٰتٍ مِّنْهُ وَمَغْفِرَةً وَرَحْمَةً وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورًا رَّحِيمًا ﴾ 96 ﴿
द-रजातिम् मिन्हु व मग़्फि-रतंव् व रह्- मतन्, व कानल्लाहु ग़फूरर्रहीमा *
अल्लाह की ओर से कई (उच्च) श्रेणियाँ तथा क्षमा और दया है और अल्लाह अति क्षमाशील दयावान् है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ تَوَفَّىٰهُمُ ٱلْمَلَٰٓئِكَةُ ظَالِمِىٓ أَنفُسِهِمْ قَالُوا۟ فِيمَ كُنتُمْ قَالُوا۟ كُنَّا مُسْتَضْعَفِينَ فِى ٱلْأَرْضِ قَالُوٓا۟ أَلَمْ تَكُنْ أَرْضُ ٱللَّهِ وَٰسِعَةً فَتُهَاجِرُوا۟ فِيهَا فَأُو۟لَٰٓئِكَ مَأْوَىٰهُمْ جَهَنَّمُ وَسَآءَتْ مَصِيرًا ﴾ 97 ﴿
इन्नल्लज़ी-न तवफ्फाहुमुल् मलाइ-कतु ज़ालिमी अन्फुसिहिम् क़ालू फ़ी-म कुन्तुम, क़ालू कुन्ना मुस्तज़्अफ़ी-न फ़िल्अर्जि, क़ालू अलम् तकुन् अर्ज़ुल्लाहि वासि-अ़तन् फतुहाजिरू फ़ीहा, फ़- उलाइ-क मअ्वाहुम् जहन्नमु, व साअत् मसीरा
निःसंदेह वे लोग, जिनके प्राण फ़रिश्ते निकालते हैं, इस दशा में कि वे अपने ऊपर (कुफ़्र के देश में रहकर) अत्याचार करने वाले हों, तो उनसे कहते हैं, तुम किस चीज़ में थे? वे कहते हैं कि हम धरती में विवश थे। तब फ़रिश्ते कहते हैं, क्या अल्लाह की धरती विस्तृत नहीं थी कि तुम उसमें हिजरत कर[1] जाते? तो इन्हीं का आवास नरक है और वह क्या ही बुरा स्थान है! 1. जब सत्य के विरोधियों के अत्याचार से विवश हो कर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना हिजरत (प्रस्थान) कर गये, तो अरब में दो प्रकार के देश हो गये- मदीन दारुल हिजरत (प्रवास गृह) था जिस में मुसलमान हिजरत कर के एकत्र हो गये। तथा दारुल ह़र्ब। अर्थात वह क्षेत्र जो शत्रुओं के नियंत्रण में था। और जिस का केंद्र मक्का था। यहाँ जो मुसलमान थे वह अपनी आस्था तथा धार्मिक कर्म से वंचित थे। उन्हे शत्रु का अत्याचार सहना पड़ता था। इस लिये उन्हें यह आदेश दिया गया था कि मदीना हिजरत कर जायें। और यदि वह शक्ति रखते हुये हिजरत नहीं करेंगे, तो अपने इस आलस्य के लिये उत्तर दायी होंगे। इस के पश्चात् आगामी आयत में उन की चर्चा की जा रही है, जो हिजरत करने से विवश थे। मक्का से मदीना हिजरत करने का यह आदेश मक्का की विजय सन् 8 हिजरी के पश्चात् निरस्त कर दिया गया। इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के युग में कुछ मुसलमान काफ़िरों की संख्या बढ़ाने के लिये उन के साथ हो जाते थे। और तीर या तलवार लगने से मारे जाते थे, उन्हीं के बारे में यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारीः4596)
إِلَّا ٱلْمُسْتَضْعَفِينَ مِنَ ٱلرِّجَالِ وَٱلنِّسَآءِ وَٱلْوِلْدَٰنِ لَا يَسْتَطِيعُونَ حِيلَةً وَلَا يَهْتَدُونَ سَبِيلًا ﴾ 98 ﴿
इल्लल-मुस्तज़् अफी-न मिनर्रिजालि वन्निसा-इ वल् विल्दानि ला यस्ततीअू-न ही लतंव्-व ला यह़्तदू-न सबीला
परन्तु जो पुरुष, स्त्रियाँ तथा बच्चे ऐसे विवश हूँ कि कोई उपाय न रखते हों और न (हिजरत की) कोई राह पाते हों।
فَأُو۟لَٰٓئِكَ عَسَى ٱللَّهُ أَن يَعْفُوَ عَنْهُمْ وَكَانَ ٱللَّهُ عَفُوًّا غَفُورًا ﴾ 99 ﴿
फ-उलाइ-क असल्लाहू अंय्यअ्फु व अन्हुम्, व कानल्लाहु अफुव्वन् ग़फूरा
तो आशा है कि अल्लाह उन्हें क्षमा कर देगा। निःसंदेह अल्लाह अति ज्ञान्त क्षमाशील है।
وَمَن يُهَاجِرْ فِى سَبِيلِ ٱللَّهِ يَجِدْ فِى ٱلْأَرْضِ مُرَٰغَمًا كَثِيرًا وَسَعَةً وَمَن يَخْرُجْ مِنۢ بَيْتِهِۦ مُهَاجِرًا إِلَى ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ ثُمَّ يُدْرِكْهُ ٱلْمَوْتُ فَقَدْ وَقَعَ أَجْرُهُۥ عَلَى ٱللَّهِ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورًا رَّحِيمًا ﴾ 100 ﴿
व मंय्युहाजिर् फी सबीलिल्लाहि यजिद् फ़िल्अर्ज़ि मुरा-ग़मन् कसीरंव्-व स-अतन्, व मंय्यख़्रूज् मिम्-बैतिही मुहाजिरन् इलल्लाहि व रसूलिही सुम्-म युद्रिक्हुल् मौतु फ़-क़द् व्-क़-अ अज्रूहू अलल्लाहि, व कानल्लाहु ग़फूरर्रहीमा *
तथा जो कोई अल्लाह की राह में हिजरत करेगा, वह धरती में बहुत-से निवास स्थान तथा विस्तार पायेगा और जो अपने घर से अल्लाह और उसके रसूल की ओर निकल गया, फिर उसे (राह में ही) मौत ने पकड़ लिया, तो उसका प्रतिफल अल्लाह के पास निश्चित हो गया और अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।