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Hindi Quran with Audio क़ुरआन मजीद और उसके अर्थो का हिंदी भाषा में अनुवाद और व्याख्या | Hindi Quran, Quran in Hindi, Quran Hindi Translation, Hindi Quran Anuwad, Quran Sharif in Hindi,Hindi Quran with Audio क़ुरआन मजीद और उसके अर्थो का हिंदी भाषा में अनुवाद और व्याख्या | Hindi Quran, Quran in Hindi, Quran Hindi Translation, Hindi Quran Anuwad, Quran Sharif in Hindi

01. सूरह फातिहा

4.7/5

सूरह फातिहा के संक्षिप्त विषय

यह सूरह मक्की है, इसमें सात आयते है।

  • यह सूरह आरंभिक युग मे मक्का मे उतरी है, जो कुरान की भूमिका के समान है।
    इसी कारण इस का नाम ((सुरह फातिहा)) अर्थात: “आरंभिक सूरह “है।
    इस का चमत्कार यह है की इस की सात आयतों में पूरे कुरान का सारांश रख दिया गया है।
    और इस मे कुरान के मौलिक संदेश: तौहीदरीसालत तथा परलोक के विषय को संक्षेप मे समो दिया गया है।
    इस मे अल्लाह की दया, उस के पालक तथा पूज्य होने के गुणों को वर्णित किया गया है।
  • इस सुरह के अर्थो पर विचार करने से बहुत से तथ्य उजागर हो जाते है।
    और ऐसा प्रतीत होता है की सागर को गागर मे बंद कर दिया गया है।
  • इस सुरह में अल्लाह के गुण–गान तथा उस से पार्थना करने की शिक्षा दी गई है की –
    अल्लाह की सराहना और प्रशंशा किन शब्दो से की जाये। इसी प्रकार इस मे बंदो को
    न केवल वंदना की शिक्षा दी गई है बल्कि उन्हें जीवन यापन के गुण भी बताये गये है।
  • अल्लाह ने इस से पहले बहुत से समुदायो को सुपथ दिखाया किन्तु उन्होंने
    कुपथ को अपना लिया, और इस मे उसी कुपथ के अंधेरे से निकलने की दुआ है।
    बंदा अल्लाह से मार्ग–दर्शन के लिये दुआ (पार्थना) करता है तो
    अल्लाह उस के आगे पूरा कुरान रख देता है की यह सीधी राह है जिसे तू खोज रहा है।
    अब मेरा नाम लेकर इस राह पर चल पड़।

Surah Fatiha in Hindi

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بِسْمِ اللَّـهِ الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ

बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम

अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।

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الْحَمْدُ لِلَّـهِ رَبِّ الْعَالَمِينَ ﴾ 1 ﴿

अल्हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन

सब प्रशंसायें अल्लाह[1] के लिए हैं, जो सारे संसारों का पालनहार[2] है।

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الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ ﴾ 2 ﴿

अर्रहमानिर्रहीम

जो अत्यंत कृपाशील और दयावान्[1] है।
1. अर्थात वह विश्व की व्यवस्था एवं रक्षा अपनी अपार दया से कर रहा है, अतः प्रशंसा एवं पूजा के योग्य भी मात्र वही है।

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مَالِكِ يَوْمِ الدِّينِ ﴾ 3 ﴿

मालिकि यौमिद्दीन

जो प्रतिकार[1] (बदले) के दिन का मालिक है।
1. प्रतिकार (बदले) के दिन से अभिप्राय प्रलय का दिन है। आयत का भावार्थ यह है कि सत्य धर्म प्रतिकार के नियम पर आधारित है। अर्थात जो जैसा करेगा वैसा भरेगा। जैसे कोई जौ बो कर गेहूँ की, तथा आग में कूद कर शीतल होने की आशा नहीं कर सकता, ऐसे ही भले-बुरे कर्मों का भी अपना स्वभाविक गुण और प्रभाव होता है। फिर संसार में भी कुकर्मों का दुष्परिणाम कभी कभी देखा जाता है। परन्तु यह भी देखा जाता है कि दुराचारी और अत्याचारी सुखी जीवन निर्वाह कर लेता है, और उस की पकड़ इस संसार में नहीं होती, इसी लिये न्याय के लिये एक दिन अवश्य होना चाहिये। और उसी का नाम ‘क़्यामत’ ﴾ प्रलय का दिन ﴿ है। “प्रतिकार के दिन का मालिक” होने का अर्थ यह है कि संसार में भी उस ने इंसानों को अधिकार और राज्य दिये हैं। परन्तु प्रलय के दिन सब अधिकार उसी का रहेगा। और वही न्याय पूर्वक सब को उन के कर्मों का प्रतिफल देगा।

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إِيَّاكَ نَعْبُدُ وَإِيَّاكَ نَسْتَعِينُ ﴾ 4 ﴿

इय्या-क न बुदु व इय्या-क नस्तीइन

(हे अल्लाह!) हम केवल तुझी को पूजते हैं और केवल तुझी से सहायता मांगते[1] हैं।
1. इन आयतों में प्रार्थना के रूप में मात्र अल्लाह ही की पूजा और उसी को सहायतार्थ गुहारने की शिक्षा दी गई है। इस्लाम की परिभाषा में इसी का नाम ‘तौह़ीद’ (एकेश्वरवाद) है, जो सत्य धर्म का आधार है। और अल्लाह के सिवा या उस के साथ किसी देवी-देवता आदि को पुकारना, उस की पूजा करना, किसी प्रत्यक्ष साधन के बिना किसी को सहायता के लिये गुहारना, क्षचवम अथवा किसी व्यक्ति और वस्तु में अल्लाह का कोई विशेष गुण मानना आदि एकेश्वरवाद (तौह़ीद) के विरुध्द हैं जो अक्षम्य पाप हैं। जिस के साथ कोई पुण्य का कार्य मान्य नहीं।

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اهْدِنَا الصِّرَاطَ الْمُسْتَقِيمَ ﴾ 5 ﴿

इहदिनस्सिरातल्-मुस्तकीम

हमें सुपथ (सीधा मार्ग) दिखा।

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صِرَاطَ الَّذِينَ أَنْعَمْتَ عَلَيْهِمْ ﴾ 6 ﴿

सिरातल्लज़ी-न अन्अम्-त अलैहिम

उनका मार्ग, जिनपर तूने पुरस्कार किया।[1]
इस आयत में सुपथ ﴾ सीधी राह ﴿ का चिन्ह यह बताया गया है कि यह उन की राह है, जिन पर अल्लाह का पुरस्कार हुआ। उन की नहीं, जो प्रकोपित हुये और न उन की, जो सत्य मार्ग से बहक गये।

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غَيْرِ الْمَغْضُوبِ عَلَيْهِمْ وَلَا الضَّالِّينَ ﴾ 7 ﴿

गैरिल्-मग़जूबि अलैहिम् व लज्जॉल्लीन

उनका नहीं, जिनपर तेरा प्रकोप[2] हुआ और न ही उनका, जो कुपथ (गुमराह) हो गये।[1]
‘प्रकोपित’ से अभिप्राय वे हैं, जो सत्य धर्म से, जानते हुये, मात्र अभिमान अथवा अपने पुर्वजों की परम्परागत प्रथा के मोह में अथवा अपनी बड़ाई के जाने के भय से, नहीं मानते। ‘कुपथ’ (गुमराह) से अभिप्रेत वह हैं, जो सत्य धर्म के होते हुए, उस से दूर हो गये और देवी-देवताओं आदि में अल्लाह के विशेष गुण मान कर उन को रोग निवारण, दुःख दूर करने और सुख-संतान आदि देने के लिये गुहारने लगे।

सूरह अल-कौसर [108]

5/5

सूरह कौसर के संक्षिप्त विषय

यह सूरह मक्की है, इस में 3 आयतें हैं।

  • इस की प्रथम आयत में “कौसर” शब्द आया है जिस का अर्थ है। बहुत सी भलाईयाँ और जन्नत के अन्दर एक नहर का नाम भी है। इस लिये इस का नाम “सूरह कौसर” है।[1]

1. यह सूरह मक्का में उस समय उतरी जब मक्का वासियों ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को इसलिये अपनी जाति से अलग कर दिया कि आप ने उन की मूर्तिपूजा की परम्परा का खण्डन किया। और नबी होने से पहले आप की जो जाति में मान मर्यादा थी वह नहीं रह गई। आप अपने थोड़े से साथियों के साथ निस्सहाय हो कर रह गये थे। इसी बीच आप (ﷺ) के एक पुत्र का निधन हो गया था जिस पर मूर्ति पूजकों ने खुशियां मनाई और कहा कि मुहम्मद (ﷺ) के कोई पुत्र नहीं| वह निर्मल हो गया और उस के निधन के बाद उस का कोई नाम लेवा नहीं रह जायेगा। ऐसे हृदय विदारक क्षणों में आप (ﷺ) को यह शुभ सूचना दी गई कि आप निराश न हों आप के शत्रु ही निर्मूल होंगे। यह शुभ सूचना और भविष्य वाणी कुरआन ने उस समय दी जब कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि ऐसा हो जाना संभव है। परन्तु कुछ ही वर्षों बाद ऐसा परिवर्तन हुआ कि मक्का के अनेकेश्वर वादियों का कोई सहायक नहीं रह गया। और उन्हें विवश हो कर हथियार डाल देने पडे। और फिर आप के शत्रुओं का कोई नाम लेवा नहीं रह गया। इस के विपरीत आज भी करोड़ों मुसलमान आप (ﷺ) से संबंध पर गर्व करते हैं, और आप (ﷺ) पर दरूद भेजते हैं।

  • इस की आयत 1 में नबी (सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम) को बहुत सी भलाईयाँ प्रदान किये जाने की शुभ सूचना दी गई है।
  • और आयत 2 में आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को इस प्रदान पर नमाज़ पढ़ते रहने तथा कुर्बानी करने का आदेश दिया गया है।
  • आयत 3 में आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को दिलासा दी गई है कि जो आप के शत्रु हैं वह आप का कुछ बिगाड़ नहीं सकेंगे बल्कि वह स्वयं बहुत बड़ी भलाई से वंचित रह जायेंगे।
  • हदीस में है कि आइशा (रज़ियल्लाह अन्हा) ने कहा कि कौसर एक नहर है, जो तुम्हारे नबी को प्रदान की गई है। जिस के दोनों किनारे मोती के और बर्तन आकाश के तारों की संख्या के समान हैं। (सहीह बुखारीः 4965)
  • और इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हमा) ने कहा कि कौसर वह भलाईयाँ हैं जो अल्लाह ने आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को प्रदान की हैं। (सहीह बुख़ारीः 4966)
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بِسْمِ اللَّـهِ الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ

बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम

अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।

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إِنَّا أَعْطَيْنَاكَ الْكَوْثَرَ ﴾ 1 ﴿

इन्ना आतय ना कल कौसर

(हे नबी!) हमने तुम्हें कौसर प्रदान किया है।[1] 1. कौसर का अर्थ है असीम तथा अपार शुभ। और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि कौसर एक ह़ौज़ (जलाशय) है जो मुझे परलोक में प्रदान किया जायेगा। जब प्रत्येक व्यक्ति प्यास प्यास कर रहा होगा और आप की उम्मत आप के पास आयेगी, आप पहले ही से वहाँ उपस्थित होंगे और आप उन्हें उस से पिलायेंगे जिस का जल दूध से उजला और मधु से अधिक मधुर होगा। उस की भूमि कस्तूरी होगी, उस की सीमा और बरतनों का सविस्तार वर्णन ह़दीसों में आया है।

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فَصَلِّ لِرَبِّكَ وَانْحَرْ ﴾ 2 ﴿

फसल्लि लिरब्बिका वन्हर

तो तुम अपने पालनहार के लिए नमाज़ पढ़ो तथा बलि दो।[1] 1. इस आयत में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और आप के माध्यम से सभी मुसलमानों से कहा जा रहा है कि जब शुभ तुम्हारे पालनहार ही ने प्रदान किये हैं तो तुम भी मात्र उसी की पूजा करो और बलि भी उसी के लिये दो। मूर्ती पूजकों की भाँति देवी देवताओं की पूजा अर्चना न करो और न उन के लिये बलि दो। वह तुम्हें कोई शुभ लाभ और हानि देने का सामर्थ्य नहीं रखते।

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إِنَّ شَانِئَكَ هُوَ الْأَبْتَرُ ﴾ 3 ﴿

इन्ना शानिअका हुवल अब्तर

निःसंदेह तुम्हारा शत्रु ही बे नाम निशान है।[1] 1. आयत संख्या 3 में 'अब्तर' का शब्द प्रयोग हुआ है। जिस का अर्थ है जड़ से अलग कर देना जिस के बाद कोई पेड़ सूख जाता है। और इस शब्द का प्रयोग उस के लिये भी किया जाता है जो अपनी जाति से अलग हो जाये, या जिस का कोई पुत्र जीवित न रह जाये, और उस के निधन के बाद उस का कोई नाम लेवा न हो। इस आयत में जो भविष्यवाणी की गई है वह सत्य सिध्द हो कर पूरे मानव संसार को इस्लाम और क़ुर्आन पर विचार करने के लिये बाध्य कर रही है। (इब्ने कसीर)

109. सूरह काफिरून

5/5

सूरह काफिरून के संक्षिप्त विषय

यह सूरह मक्की है, इस में 6 आयतें हैं।

  • इस की प्रथम आयत में ((काफ़िरून)) शब्द आने के कारण इस का यह नाम रखा गया है।[1]

1. (हे नबी) कह दोः हे काफ़िरो! 2. मैं उन (मूर्तियों) को नहीं पूजता जिन्हें 1 यह सूरह भी मक्की है। इस सूरह की भूमिका यह है कि मक्का में यद्यपि इस्लाम का कड़ा विरोध हो रहा था फिर भी अभी मूर्ति पूजक आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से निराश नहीं हुये थे और उन के प्रमुख किसी न किसी प्रकार आप को संधि के लिये तैयार कर रहे थे। और आप के पास समय समय से अनेक प्रस्ताव लेकर आया करते थेअन्त में यह प्रस्ताव लेकर आये किः एक वर्ष आप हमारे पूजितों (लात, उज्जा आदि) की पूजा करें, और एक वर्ष हम आप के पूज्य की पूजा करें। और इसी पर संधि हो जाये| उसी समय यह सूरह अवतीर्ण हुई, और सदा के लिये बता दिया गया कि दीन में कोई समझौता नहीं हो सकता है। इसीलिये हदीस में इसे शिर्क से रक्षा की सूरह कहा गया है।

  • आयत 1 में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को निर्देश दिया गया है कि काफिरों से कह दें कि वंदना (उपासना) के विषय में मुझ में और तुम में क्या अन्तर है?
  • आयत 4 से 5 तक में यह ऐलान है कि दीन (धर्म) के विषय में कोई समझौता और उदारता असंभव है।
  • आयत 6 में काफ़िरों के धर्म से अप्रसन्न (विमुख) होने का ऐलान है।
  • हदीस में है कि नबी (सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम) ने तवाफ की दो रकअत में यह सूरह और सूरह इख्लास पढ़ी थी| (सहीह मुस्लिमः 1218)

Kulya Ayyuhal Kafirun

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بِسْمِ اللَّـهِ الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ

बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम

अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।

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قُلْ يَا أَيُّهَا الْكَافِرُونَ ﴾ 1 ﴿

कुल या अय्युहल काफिरून

(हे नबी!) कह दोः हे काफ़िरो!

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لَا أَعْبُدُ مَا تَعْبُدُونَ ﴾ 2 ﴿

ला अ’अबुदु मा तअ’बुदून

मैं उन (मूर्तियों) को नहीं पूजता, जिन्हें तुम पूजते हो।

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وَلَا أَنتُمْ عَابِدُونَ مَا أَعْبُدُ ﴾ 3 ﴿

वला अन्तुम आबिदूना मा अ’अबुद

और न तुम उसे पूजते हो, जिसे मैं पूजता हूँ।

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وَلَا أَنَا عَابِدٌ مَّا عَبَدتُّمْ ﴾ 4 ﴿

वला अना आबिदुम मा अबद्तुम

और न मैं उसे पूजूँगा, जिसे तुम पूजते हो।

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وَلَا أَنتُمْ عَابِدُونَ مَا أَعْبُدُ ﴾ 5 ﴿

वला अन्तुम आबिदूना मा अअ’बुद

और न तुम उसे पूजोगे, जिसे मैं पूजता हूँ।

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لَكُمْ دِينُكُمْ وَلِيَ دِينِ ﴾ 6 ﴿

लकुम दीनुकुम वलिय दीन

तुम्हारे लिए तम्हारा धर्म तथा मेरे लिए मेरा धर्म है।[1]
1. (1-6) पूरी सूरह का भावार्थ यह है कि इस्लाम में वही ईमान (विश्वास) मान्य है जो पूर्ण तौह़ीद (एकेश्वर्वाद) के साथ हो, अर्थात अल्लाह के अस्तित्व तथा गुणों और उस के अधिकारों में किसी को साझी न बनाया जाये। क़ुर्आन की शिक्षानुसार जो अल्लाह को नहीं मानता, और जो मानता है परन्तु उस के साथ देवी देवताओं को भी मानात है तो दोनों में कोई अन्तर नहीं। उस के विशेष गुणों को किसी अन्य में मानना उस को न मानने के ही बराबर है और दोनों ही काफ़िर हैं। (देखियेः उम्मुल किताब, मौलाना आज़ाद)

सूरह अन-नस्र [110]

5/5

सूरह नस्र के संक्षिप्त विषय

यह सूरह मक्की है, इस में 3 आयतें हैं।

  • इस सूरह में ((नस)) शब्द आने के कारण, जिस का अर्थ सहायता है, इस का यह नाम रखा गया है।[1]

1. अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रजियल्लाहु अन्हमा) से रिवायत है कि यह कुआन की अन्तिम सूरह है जो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर उतरी। इस सूरह में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भविष्य वाणी के रूप में बताया गया है कि जब इस्लाम की पूर्ण विजय हो जाये, और लोग समूहों के साथ इस्लाम में प्रवेश करने लगें तो आप अल्लाह की हम्द (प्रशंसा) और तस्बीह (पवित्रता का वर्णन) करने में लग जायें। और उस से क्षमा मांगते रहें।

  • इस की आयत 1 में अल्लाह की सहायता आने तथा मक्का की विजय की चर्चा है।
  • आयत 2 में लोगों के समूहों में इस्लाम लाने की चर्चा है।
  • आयत 3 में आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को अल्लाह का यह प्रदान प्राप्त होने पर उस की और अधिक प्रशंसा तथा पवित्रता गान का निर्देश दिया गया है। हदीस में है कि इस तरह के उतरने के पश्चात् आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) अपनी नमाज़ (के रुकूअ और सजदे) में अधिक्तर ((सुब्हानका रब्बना व बिहम्दिका अल्लाहुम्मगफिर ली)) पढ़ा करते थे। (सहीह बुख़ारीः 4967, 4968)
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بِسْمِ اللَّـهِ الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ

बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम

अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।

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إِذَا جَاءَ نَصْرُ اللَّـهِ وَالْفَتْحُ ﴾ 1 ﴿

इजा जा अ नसरुल लाहि वल फतह

(हे नबी!) जब अल्लाह की सहायता एवं विजय आ जाये।

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وَرَأَيْتَ النَّاسَ يَدْخُلُونَ فِي دِينِ اللَّـهِ أَفْوَاجًا ﴾ 2 ﴿

वर अयतन नास यद् खुलूना फ़ी दीनिल लाहि अफ्वाजा

और तुम लोगों को अल्लाह के धर्म में दल के दल प्रवेश करते देख लो।[1]
1. (1-2) इस में विजय का अर्थ वह निर्णायक विजय है जिस के बाद कोई शक्ति इस्लाम का सामना करने के योग्य नहीं रह जायेगी। और यह स्थिति सन् 8 (हिज्री) की है जब मक्का विजय हो गया। अरब के कोने कोने से प्रतिनिधि मंडल रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की सेवा में उपस्थित हो कर इस्लाम लाने लगे। और सन् 10 (हिज्री) में जब आप 'ह़ज्जतुल वदाअ' (अर्थात अन्तिम ह़ज्ज) के लिये गये तो उस समय पूरा अरब इस्लाम के अधीन आ चुका था और देश में कोई मुश्रिक (मूर्ति पूजक) नहीं रह गया था।

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فَسَبِّحْ بِحَمْدِ رَبِّكَ وَاسْتَغْفِرْهُ ۚ إِنَّهُ كَانَ تَوَّابًا ﴾ 3 ﴿

फसब्बिह बिहम्दि रब्बिका वस्तग फिरहु इन्नहु कान तव्वाबा

तो अपने पालनहार की प्रशंसा के साथ उसकी पवित्रता का वर्णन करो और उससे क्षमा माँगो, निःसंदेह वह बड़ा क्षमी है।[1]
1. इस आयत में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से कहा गया है कि इतना बड़ा काम आप ने अल्लाह की दया से पूरा किया है, इस के लिये उस की प्रशंसा और पवित्रता का वर्णन तथा उस की कृतज्ञता व्यक्त करें। इस में सभी के लिये यह शिक्षा है कि कोई पुण्य कार्य अल्लाह की दया के बिना नहीं होता। इस लिये उस पर घमंड नहीं करना चाहिये।

111. सूरह अल-लहब

5/5

सूरह तब्बत के संक्षिप्त विषय

यह सूरह मक्की है, इस में 5 आयतें हैं।

  • इस की आयत 1 में (तब्बत) शब्द आने के कारण इस का नाम (सूरह तब्बत) है। जिस का अर्थ तबाह होना है।[1]

1. यह सूरह आरंभिक मक्की सूरतों में से है। इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) से रिवायत है कि जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को यह आदेश दिया गया कि आप समीप वर्ती संबंधियों को अल्लाह से डरायें, तो आप सफा “पहाड़ी” पर गये, और पुकाराः “हाय भोर की आपदा!” यह सुन कर कुरैश के सभी परिवार जन एकत्र हो गये| तब आप ने कहाः यदि मैं तुम से कहूँ कि इस पर्वत के पीछे एक सेना है जो तुम पर आक्रमण करने को तैयार है तो तुम मेरी बात मानोगे? सब ने कहाः हाँ। हम ने कभी आप से झूठ नहीं आजमाया। आप ने फरमायाः मैं तुम्हें आग (नर्क) की बडी यातना से सावधान करता है। इस पर किसी के कुछ बोलने से पहले आप के चचा “अबु लहब” ने कहाः तुम्हारा सत्यानास हो! क्या हमें इसी लिये एकत्र किया है? और एक रिवायत यह भी है कि उस ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को मारने के लिये पत्थर उठाया, इसी पर यह सरह उतारी गई। (देखियेः सहीह बुख़ारीः 4971, और सहीह मुस्लिमः 208)

  • आयत 1 से 3 तक में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के शत्रु अबू लहब के बुरे परिणाम से सूचित किया गया है।
  • आयत 4 और 5 में उस की पत्नी के शिक्षाप्रद परिणाम का दृश्य दिखाया गया है जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से बैर रखने में अपने पति के साथ थी।
  • हदीस में है कि जब नबी (सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम) को आदेश दिया गया कि आप अपने समीप के परिजनों को डरायें तो आप ने सफा (पर्वत) पर चढ़ कर पुकारा| और जब सब आ गये, तो कहाः यदि मैं तुम से कहें कि इस पर्वत के पीछे एक सेना है जो तुम पर सवेरे या संध्या को धावा बोल देगी तो तुम मानोगे? सब ने कहाः हाँ। हम ने कभी आप को झूठ बोलते नहीं देखा। आप ने कहाः मैं तुम्हें अपने सामने की दुःखदायी यातना से डरा रहा हूँ। इस पर अबू जहल ने कहाः तुम्हारा नाश हो। क्या इसी लिये हम को एकत्र किया है। इसी पर यह सूरह अवतरित हुई। (सहीह बुख़ारीः 4971)

Tabbat Yada Surah Lahab in Hindi

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بِسْمِ اللَّـهِ الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ

बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम

अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।

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تَبَّتْ يَدَا أَبِي لَهَبٍ وَتَبَّ ﴾ 1 ﴿

तब्बत यदा अबी लहबिव वतब्ब

अबू लहब के दोनों हाथ नाश हो गये और वह स्वयं भी नाश हो गया![1] 1. अबू लहब का अर्थ ज्वाला मुखी है। वह अति सुन्दर और गोरा था। उस का नाम वास्तव में 'अब्दुल उज़्ज़ा' था, अर्थात उज़्ज़ा का भक्त और दास। 'उज़्ज़ा' उन की एक देवी का नाम था। परन्तु वह अबू लहब के नाम से जाना जाता था। इस लिये क़ुर्आन ने उस का यही नाम प्रयोग किया है और इस में उस के नरक की ज्वाला में पड़ने का संकेत भी है।

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مَا أَغْنَىٰ عَنْهُ مَالُهُ وَمَا كَسَبَ ﴾ 2 ﴿

मा अगना अन्हु मलुहू वमा कसब

उसका धन तथा जो उसने कमाया उसके काम नहीं आया।

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سَيَصْلَىٰ نَارًا ذَاتَ لَهَبٍ ﴾ 3 ﴿

सयसला नारन ज़ात लहब

वह शीघ्र लावा फेंकती आग में जायेगा।[1] 1. (1-2) यह आयतें उस की इस्लाम को दबाने की योजना के विफल हो जाने की भविष्यवाणी हैं। और संसार ने देखा कि अभी इन आयतों के उतरे कुछ वर्ष ही हुये थे कि 'बद्र' की लड़ाई में मक्के के बड़े बड़े वीर प्रमुख मारे गये। और 'अबू लहब' को इस खबर से इतना दुःख हुआ कि इस के सातवें दिन मर गया। और मरा भी ऐसे कि उसे मलगिनानत पुसतुले (प्लेग जैसा कोई रोग) की बामारी लग गई। और छूत के भय से उसे अलग फेंक दिया गया। कोई उस के पास नहीं जाता था। मृत्यु के बाद भी तीन दिन तक उस का शव पड़ा रहा। और जब उस में गंध होने लगी तो उसे दूर से लकड़ी से एक गढ़े में डाल दिया गया। और ऊपर से मिट्टी और पत्थर डाल दिये गये। और क़ुर्आन की यह भविष्यवाणी पूरी हुई। और जैसा कि आयत संख्या 2 में कहा गया उस का धन और उस की कमाई उस के कुछ काम नहीं आई। उस की कमाई से उद्देश्य अधिक्तर भाष्यकारों ने 'उस की संतान' लिया है। जैसा कि सह़ीह ह़दीसों में आया है कि तुम्हारी संतान तुम्हारी उत्तम कमाई है।

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وَامْرَأَتُهُ حَمَّالَةَ الْحَطَبِ ﴾ 4 ﴿

वम रअतुहू हम्मा लतल हतब

तथा उसकी पत्नी भी, जो ईंधन लिए फिरती है।

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فِي جِيدِهَا حَبْلٌ مِّن مَّسَدٍ ﴾ 5 ﴿

फिजीदिहा हब्लुम मिम मसद

उसकी गर्दन में मूँज की रस्सी होगी।[1] 1. (1-5) अबू लहब की पत्नी का नाम 'अरवा' था। और उस की उपाधि (कुनियत) 'उम्मे जमील' थी। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शत्रुता में किसी प्रकार कम न थी। लकड़ी लादने का अर्थ भाष्यकारों ने अनेक किया है। परन्तु इस का अर्थ उस को अपमानित करना है। या पापों का बोझ लाद रखने के अर्थ में है। वह सोने का हार पहनती थी और 'लात' तथा 'उज़्ज़ा' की शपथ ले कर -यह दोनों उन की देवियों के नाम हैं- कहा करती थीं कि मुह़म्मद के विरोध में यह मूल्यवान हार भी बेच कर खर्च कर दूँगी। अतः यह कहा गया है कि आज तो वह एक धन्यवान व्यक्ति की पत्नी है। उस के गले में बहुमूल्य हार पड़ा हुआ है परन्तु अख़िरत में वह ईंधन ढोने वाली लोंडी की तरह होगी। गले में आभूषण के बदले बटी हुई मूँज की रस्सी पड़ी होगी। जैसी रस्सी ईंधन ढोने वाली लोंडियों के गले में पड़ी होती है। और इस्लाम का यह चमत्कार ही तो है कि जिस 'अबु लहब' और उस की पत्नी ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से शत्रुता की उन्हीं की औलाद 'उत्बा', 'मुअत्तब' तथा 'दुर्रह' ने इस्लमा स्वीकार कर लिया।

112. सूरह अल-इख़लास

5/5

सूरह इख्लास के संक्षिप्त विषय

यह सूरह मक्की है, इस में 4 आयतें हैं।

  • इख्लास का अर्थ है अल्लाह की शुद्ध इबादत (वंदना) करना| इसी का दूसरा नाम तौहीद (अद्वैत) है, इस सूरह में तौहीद का वर्णन है, इसी लिये इस का यह नाम है। [1]

1. यह सूरह मक्की सूरतों में से है। यद्यपि इस के उतरने से संबंधित रिवायत से लगता है कि यह सूरह मदीने में उस समय उतरी जब मदीने के यहूदियों ने आप से प्रश्न किया कि बताइये कि वह पालनहार कैसा है जिस ने आप को भेजा है। या यह कि “नजरान” के ईसाईयों ने इसी प्रकार का प्रश्न किया कि वह कैसा है, और किस धातु का बना हुआ है। तो यह सूरह उतरी। परन्तु सब से पहले यह प्रश्न स्वयं मक्का वासियों ने ही किया था। इसलिये इसे मक्का में उतरने वाली आरम्भिक सूरतों में गणना किया जाता है। इस का नाम “सूरह इख्लास” है। इख्लास का अर्थ है: अल्लाह पर ऐसे ईमान लाना कि उस के अस्तित्व और गुणों में किसी की साझेदारी की कोई आभा (झलक) न पाई जाये। और इसी को तौहीदे खालिस (निर्मल ऐकेश्वरवाद) कहते हैं। जहाँ तक अल्लाह को मानने की बात है तो संसार ने सदा उस को माना है परन्तु वास्तव में इस मानने में ऐसा मिश्रण भी किया है कि मानना और न मानना दोनों बराबर हो कर रह गये हैं। तौहीद को उजागर करने के लिये अल्लाह ने बराबर नबी भेजे परन्तु इन्सान बार बार इस तथ्य को खोता रहा। आदरणीय इबराहीम (अलैहिस्सलाम) ने तौहीद (ऐकेश्वरवाद) के लिये प्रस्थान किया, और अपने परिवार को एक बंजर वादी में बसाया कि वह मात्र एक अल्लाह की पूजा करेंगे। परन्तु उन्हीं के वंशज ने उन के बनाये तौहीद के केन्द्र अल्लाह के घर काबा को एक देव स्थल में बदल दिया। तथा अपने बनाये हुये देवताओं का अधिकार माने बिना अल्लाह के अधिकार को स्वीकार करने के लिये तैयार न थे। यह स्थिति मात्र मक्का वासियों की न थी, ईसाई और यहूदी भी यद्यपि तौहीद के दावेदार थे फिर भी उन के यहाँ तीन पूज्यों: पिता, पुत्र और पविगात्मा के योग से तौहीद बनी थी। यहदियों के यहाँ भी अल्लाह का पुत्रः उजैर अवश्य था। कहीं पूज्य एक तो था परन्तु बहुत से देवी देवता भी उस के साथ पूज्य थे। (देखियेः उम्मुल किताब)

  • इस की आयत 1, 2 में अल्लाह के सकारात्मक गुणों को और आयत 3,4 में नकारात्मक गुणों को बताया गया है ताकि धर्मों और जातियों में जिस राह से शिर्क आया है उसे रोका जा सके। हदीस में है कि अल्लाह ने कहा कि मनुष्य ने मुझे झुठला दिया। और यह उस के लिये योग्य नहीं था। ओर मझे गाली दी. और यह उस के लिये योग्य नहीं था। उस का मझे झुठलाना उस का यह कहना है कि अल्लाह ने जैसे मुझे प्रथम बार पैदा किया है दोबारा नहीं पैदा कर सकेगा। जब कि प्रथम बार पैदा करना मेरे लिये दोबारा पैदा करने से सरल नहीं था। और उस का मुझे गाली देना यह है कि उस ने कहा कि अल्लाह के संतान है। जब कि मैं अकेला निर्पेक्ष हूँ। न मेरी कोई संतान है और न मैं किसी की संतान हूँ। और न कोई मेरा समकक्ष है। (सहीह बुख़ारी- 4974)
  • सहीह हदीस में है कि यह सूरह तिहाई कुरआन के बराबर है। (सहीह बुख़ारीः 5015, सहीह मुस्लिमः 811) एक दूसरी हदीस में है कि एक व्यक्ति ने कहा कि, हे अल्लाह के रसूल! मैं इस सूरह से प्रेम करता हूँ। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमायाः तुम्हें इस का प्रेम स्वर्ग में प्रवेश करा देगा। (सहीह बुख़ारीः 774)

Surah Ikhlas in Hindi

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بِسْمِ اللَّـهِ الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ

बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम

अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।

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قُلْ هُوَ اللَّـهُ أَحَدٌ ﴾ 1 ﴿

कुल हुवल लाहू अहद

(हे ईश दूत!) कह दोः अल्लाह अकेला है।[1] 1. आयत संख्या 1 में 'अह़द' शब्द का प्रयोग हुआ है जिस का अर्थ है, उस का अस्तित्व एवं गुणों में कोई साझी नहीं है। यहाँ 'अह़द' शब्द का प्रयोग यह बताने के लिये किया गया है कि वह अकेला है। वह वृक्ष के समान एक नहीं है जिस की अनेक शाखायें होती हैं। आयत संख्या 2 में 'समद' शब्द का प्रयोग हुआ है जिस का अर्थ है अब्रण होना। अर्थात जिस में कोई छिद्र न हो जिस से कुछ निकले, या वह किसी से निकले। और आयत संख्या 3 इसी अर्थ की व्याख्या करती है कि न उस की कोई संतान है और न वह किसी की संतान है।

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اللَّـهُ الصَّمَدُ ﴾ 2 ﴿

अल्लाहुस समद

अल्लाह निरपेक्ष (और सर्वाधार) है

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لَمْ يَلِدْ وَلَمْ يُولَدْ ﴾ 3 ﴿

लम यलिद वलम यूलद

न उसकी कोई संतान है और न वह किसी की संतान है।

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وَلَمْ يَكُن لَّهُ كُفُوًا أَحَدٌ ﴾ 4 ﴿

वलम यकूल लहू कुफुवन अहद

और न उसके बराबर कोई है।[1] 1. इस आयत में यह बताया गया है कि उस की प्रतिमा तथा उस के बराबर और समतुल्य कोई नहीं है। उस के कर्म, गुण और अधिकार में कोई किसी रूप में बराबर नहीं। न उस की कोई जाति है न परिवार। इन आयतों में क़ुर्आन उन विषयों को जो जातियों के तौह़ीद से फिसलने का कारण बने उसे अनेक रूप में वर्णित करता है। और देवियों और देवताओं के विवाहों और उन के पुत्र और पौत्रों का जो विवरण देव मालाओं में मिलता है क़ुर्आन ने उसी का खण्डन किया है।

113. सूरह अल-फलक़

4.7/5

सूरह फलक के संक्षिप्त विषय

यह सूरह मक्की है, इस में 5 आयतें हैं।

  • इस की प्रथम आयत में ((फ़लक़ )) शब्द आने के कारण, जिस का अर्थ भोर है, इस का यह नाम रखा गया है।
  • सूरह “फलक” और सूरह “नास” को मिला कर “मुअव्वजतैन” कहा जाता है।
    जब यह दोनों सूरतें उतरी तो नबी सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम ने फरमायाः आज की रात्री में मुझ पर कुछ ऐसी आयतें उतरी हैं जिन के समान मैं ने कभी नहीं देखी। (मुस्लिमः 814)
  • इसी प्रकार इब्ने आबिस जहनी (रजियल्लाह अन्ह) से आप ने फरमाया कि: मैं तुम्हें उत्तम यंत्र न बताऊँ जिस के द्वारा शरण (पनाह) मांगी जाती है। और आप ने यह दोनों सूरतें बतायीं, और कहा कि यह “मुअव्वज़तैन” अर्थात शरण मांगने के लिये दो सूरतें हैं। (देखियेः सहीह नसई: 5020)
  • जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर जादू किया गया जिस का प्रभाव यह हुआ कि आप घुलते जा रहे थे, किसी काम को सोचते कि कर लिया है, और किया नहीं होता था, किसी वस्तु को देखा है जब कि देखा नहीं होता था। परन्तु जादू का यह प्रभाव आप के व्यक्तिगत जीवन तक ही सीमित था। एक दिन नबी (सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम) अपनी पत्नी “आइशा” (रजियल्लाह अन्हा) के पास थे कि सो गये, और जागे तो उन को बताया की दो व्यक्ति (फरिश्ते) मेरे पास आये, एक सिराहने की ओर था. और दसरा पैताने की ओर एक ने पूछाः इन्हें क्या हुआ है। दूसरे ने उत्तर दियाः इन पर जादू हआ है| उस ने पछाः किस ने किया है। उत्तर दियाः “लबीद बिन आसम” ने पूछा: किस वस्तु में किया है। उत्तर दियाः कंघी, बाल और नर खजूर के खोशे में। पूछाः वह कहाँ है। उत्तर दियाः बनी रैक के कुवें की तह में पत्थर के नीचे है। इस के बाद आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अली, अम्मार और जुबैर (रजियल्लाहु अन्हुम) को भेजा, फिर आप भी वहाँ आ गये, पानी निकाला गया, फिर जादू जिस में कंघी के दाँतों और बालों के साथ एक ताँत में ग्यारह गाँठ लगी हुई थीं। और मोम का एक पुतला था जिस में सुईयाँ चुभोई हुई थीं। आदर्णीय जिबील (अलैहिस्सलाम) ने आ कर बताया किः आप “मुअव्वज़तैन” पढ़ें। और जैसे जैसे आप पढ़ते जा रहे थे उसी के साथ एक एक गाँठ खुलती और पुतले से एक एक सुई निकलती जा रही थी, और अन्त के साथ ही आप जादू से इस प्रकार निकल गये जैसे कोई बंधा हुआ खुल जाता है।
  • इस की आयत 1 में यह शिक्षा दी गई है कि शरण उस से मांगो जिस के पालनहार होने की निशानी तुम रात दिन देख रहे हो।
  • आयत 2 से 5 तक में यह बताया गया है कि किन चीज़ों की बुराई से शरण मांगनी चाहिये।
  • हदीस में है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा कि इस रात मुझ पर कुछ ऐसी आयतें अवतरित हुई हैं जिन के समान आयतें कभी नहीं देखी गईं। वह यह सूरह, और इस के पश्चात् की सूरह है। (सहीह मुस्लिमः 814)

Surah Falaq in Hindi

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بِسْمِ اللَّـهِ الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ

बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम

अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।

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قُلْ أَعُوذُ بِرَبِّ الْفَلَقِ ﴾ 1 ﴿

कुल अऊजु बिरब्बिल फलक

(हे नबी!) कहो कि मैं भोर के पालनहार की शरण लेता हूँ।

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مِن شَرِّ مَا خَلَقَ ﴾ 2 ﴿

मिन शर रिमा ख़लक़

हर उसकी बुराई से, जिसे उसने पैदा किया।

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وَمِن شَرِّ غَاسِقٍ إِذَا وَقَبَ ﴾ 3 ﴿

वामिन शर रिग़ासिकिन इज़ा वकब

तथा रात्रि की बुराई से, जब उसका अंधेरा छा जाये।[1] 1. (1-3) इन में संबोधित तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को किया गया है, परन्तु आप के माध्यम से पूरे मुसलमानों के लिये संबोधन है। शरण माँगने के लिये तीन बातें ज़रूरी हैं: (1) शरण माँगाना। (2) जो शरण माँगता हो। (3) जिस के भय से शरण माँगी जाती हो और अपने को उस से बचाने के लिये दूसरे की सुरक्षा और शरण में जाना चाहता हो। फिर शरण वही माँगता है जो यह सोचता है कि वह स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकता। और अपनी रक्षा के लिये वह ऐसे व्यक्ति या अस्तित्व की शरण लेता है जिस के बारे में उस का विश्वास होता है कि वह उस की रक्षा कर सकता है। अब स्वभाविक नियमानुसार इस संसार में सुरक्षा किसी वस्तु या व्यक्ति से प्राप्त की जाती है जैसे धूप से बचने के लिये पेड़ या भवन आदि की। परन्तु एक खतरा वह भी होता है जिस से रक्षा के लिये किसी अनदेखी शक्ति से शरण माँगी जाती है जो इस विश्व पर राज करती है। और वह उस की रक्षा अवश्य कर सकती है। यही दूसरे प्रकार की शरण है जो इन जो इन दोनों सूरतों में अभिप्रेत है। और क़ुर्आन में जहाँ भी अल्लाह की शरण लेने की चर्चा है उस का अर्थ यही विशेष प्रकार की शरण है। और यह तौह़ीद पर विश्वास का अंश है। ऐसे ही शरण के लिये विश्वासहीन देवी देवताओं इत्यादि को पुकारना शिर्क और घोर पापा है।

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وَمِن شَرِّ النَّفَّاثَاتِ فِي الْعُقَدِ ﴾ 4 ﴿

वमिन शर रिन नफ़फ़ासाति फ़िल उक़द

तथा गाँठ लगाकर उनमें फूँकने वालियों की बुराई से।

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وَمِن شَرِّ حَاسِدٍ إِذَا حَسَدَِ ﴾ 5 ﴿

वमिन शर रिहासिदिन इज़ा हसद

तथा द्वेष करने वाले की बुराई से, जब वह द्वेष करे।[1] 1. (4-5) इन दोनों आयतों में जादू और डाह की बुराई से अल्लाह की शरण में आने की शिक्षा दी गई है। और डाह ऐसा रोग है जो किसी व्यक्ति को दूसरों को हानि पहुँचाने के लिये तैयार कर देता है। और आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर भी जादू डाह के कारण ही किया गया था। यहाँ ज्ञातव्य है कि इस्लाम ने जादू को अधर्म कहा है जिस से इन्सान के परलोक का विनाश हो जाता है।

114. सूरह अन-नास

5/5

सूरह नास के संक्षिप्त विषय

यह सूरह मक्की है, इस में 6 आयतें हैं।

  • इस में पाँच बार ((नास)) शब्द आने के कारण इस का यह नाम है। जिस का अर्थ इन्सान है।
  • इस की आयत 1 से 3 तक शरण देने वाले के गुण बताये गये हैं।
  • आयत 4 में जिस की बुराई से पनाह (शरण) मांगी गई है उस के घातक शत्रु होने से सावधान किया गया है।
  • आयत 5 में बताया गया है कि वह इन्सान के दिल पर आक्रमण करता है।
  • आयत 6 में सावधान किया गया है कि यह शत्र जिन्न तथा इन्सान दोनों में होते हैं।
  • हदीस में है कि नबी (सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम) हर रात जब बिस्तर पर जाते तो सूरह इख्लास और यह और इस के पहले की सूरह (अर्थातः फलक) पढ़ कर अपनी दोनों हथेलियाँ मिला कर उन पर फूंकते, फिर जितना हो सके दोनों को अपने शरीर पर फेरते। सिर से आरंभ करते और फिर आगे के शरीर से गुज़ारते। ऐसा आप तीन बार करते थे| (सहीह बुख़ारी: 6319, 5748)

Surah Naas in Hindi

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بِسْمِ اللَّـهِ الرَّحْمَـٰنِ الرَّحِيمِ

बिस्मिल्लाह-हिर्रहमान-निर्रहीम

अल्लाह के नाम से, जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।

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قُلْ أَعُوذُ بِرَبِّ النَّاسِ ﴾ 1 ﴿

कुल अऊजु बिरब्बिन नास

(हे नबी!) कहो कि मैं इन्सानों के पालनहार की शरण में आता हूँ।

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مَلِكِ النَّاسِ ﴾ 2 ﴿

मलिकिन नास

जो सारे इन्सानों का स्वामी है।

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إِلَـٰهِ النَّاسِ ﴾ 3 ﴿

इलाहिन नास

जो सारे इन्सानों का पूज्य है।[1] 1. (1-3) यहाँ अल्लाह को उस के तीन गुणों के साथ याद कर के उस की शरण लेने की शिक्षा दी गई है। एक उस का सब मानव जाति का पालनहार और स्वामी होना। दूसरे उस का सभी इन्सानों का अधिपति और शासक होना। तीसरे उस का इन्सानों का सत्य पूज्य होना। भावार्थ यह है कि उस अल्लाह की शरण माँगता हूँ जो इन्सानों का पालनहार, शासक और पूज्य होने के कारण उन पर पूरा नियंत्रण और अधिकार रखता है। जो वास्तव में उस बुराई से इन्सानों को बचा सकता है जिस से स्वयं बचने और दूसरों को बचाने में सक्षम है उस के सिवा कोई है भी नहीं जो शरण दे सकता हो।

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مِن شَرِّ الْوَسْوَاسِ الْخَنَّاسِ ﴾ 4 ﴿

मिन शर रिल वसवा सिल खन्नास

भ्रम डालने वाले और छुप जाने वाले (राक्षस) की बुराई से।

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الَّذِي يُوَسْوِسُ فِي صُدُورِ النَّاسِ ﴾ 5 ﴿

अल्लज़ी युवस विसु फी सुदूरिन नास

जो लोगों के दिलो में भ्रम डालता रहता है।

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مِنَ الْجِنَّةِ وَالنَّاسِ ﴾ 6 ﴿

मिनल जिन्नति वन नास

जो जिन्नों में से है और मनुष्यों में से भी।[1] 1. (4-6) आयत संख्या 4 में 'वस्वास' शब्द का प्रयोग हुआ है। जिस का अर्थ है दिलों में ऐसी बुरी बातें डान देना कि जिस के दिल में डाली जा रही हों उसे उस का ज्ञान भी न हो। और इसी प्रकार आयत संख्या 4 में 'ख़न्नास' का शब्द प्रोग हुआ है। जिस का अर्थ है सुकड़ जाना, छुप जाना, पीछे हट जाना, धीरे धीरे किसी को बुराई के लिये तैयार करना आदि। अर्थात दिलों में भ्रम डालने वाला, और सत्य के विरुध्द मन में बुरी भावनायें उत्पन्न करने वाला। चाहे वह जिन्नों में से हो, अथवा मनुष्यों में से हो। इन सब की बुराईयों से हम अल्लाह की शरण लेते हैं जो हमारा स्वामी और सच्चा पूज्य है।